प्रश्नकर्ता: मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और बचपन से ही बहुत कम महत्वाकांक्षी रहा हूँ। खेल-खेल में ही मैंने जेईई का एग्ज़ाम क्रैक किया (परीक्षा उत्तीर्ण की) और आइआइटी खड़गपुर में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग (अभियान्त्रिकी) करने का मौका मिला।
इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में ट्रैकिंग (पर्वतारोहण) करने का मौका मिला और वहीं से इस बात की कहीं इच्छा उठी कि माउंटेंनियरिंग (पर्वतारोहण) ही मेरी कॉलिंग (मंज़िल) है।
पर इस बात की पुष्टि करने के लिए मैंने और मुश्किल ट्रैकिंग की, और मुझे ये बात क्लीयर (स्पष्ट) ही हो गई थी कि यही मेरी कॉलिंग है।
इंजीनियरिंग के चौथे साल में मैंने प्लेसमेंट (नौकरी पाना) में न जाकर बहुत जल्दबाज़ी में और घर वालों को बिना बताए एक स्टार्टअप (नया छोटा उद्यम) खोला लेकिन किसी कारणवश वो चल नहीं पाया।
फिर वापिस से सामाजिक दबाव के कारण यूपीएससी की तैयारी करने लगा। वहाँ चार-पाँच महीने मेहनत की, अच्छा भी लगा, बहुत कुछ जाना भी, लेकिन लगा कि बहुत कुछ हाइप्ड (सनसनीखेज़ प्रचार) है और कम फ्रीडम (आज़ादी) और मौका मिलेगा कुछ करने के लिए।
इसी दौरान गुरूजी, आपसे मिलने का मौका मिला यूटयूब विडियोज़ से और साथ ही में कृष्णमूर्ति और ओशो को भी सुना। और फिर लगा कि कुछ अपने कॉलिंग को पूरा करने के लिए कोई आर्थिक समर्थन चाहिए होगा और उसके लिए मैंने बैंकिंग एग्ज़ाम भी पास किया और अब ये सोचा है कि मैं देढ़-दो साल में कुछ पैसे कमाकर अपने स्टार्टअप को शुरू कर दूँगा।
पर जब आपको सुना, ओशो को सुना, कृष्णमूर्ति को सुना, एक अलग ही उधेड़बुन में आ गया। एक तरफ़ कॉलिंग का खिंचाव है और दूसरी तरफ़ ये समझ आ रहा है कि सार्थक काम तो कुछ और ही है।
मेरे समझे, मेरे द्वारा कोई सार्थक काम अगर होना चाहिए तो वो शिक्षण और लेखन के क्षेत्र में होना चाहिए। आचार्य जी कृपया इस पर कुछ प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: लगता है, कोई सार्थक काम अगर शिक्षण-लेखन के क्षेत्र में होना चाहिए तो फिर तो पहली बात, पहली वरीयता वो ही है। किनका प्रश्न है?
फिर तो वही हो गई न पहली बात। सार्थक चीज़ से ऊपर और क्या होता है। रही पर्वतारोहण की बात, वो तो तुम खुद ही स्वीकार कर रहे हो कि तुम चौबीस घंटे करने नहीं वाले।
पहले यूपीएससी की परीक्षाएँ दे रहे थे, फिर कह रहे हो, तुमने कोई बैंकिंग की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। वही नौकरी भी तुम अब ज्वाइन (जुड़ना) करने जा ही रहे हो।
तो खुद ही तुम्हारा इरादा ये तो है नहीं कि तुम लगातार, चौबीस घंटे, हर हफ़्ते माउंटेंनियरिंग ही करोगे। उसको तो तुम स्वयं ही कह रहे हो कि कुछ ही समय दोगे।
तो जो तुम्हें कुछ समय देना है पर्वतारोहण को, वो तुम शिक्षण-लेखन के साथ भी दे सकते हो। बात फँस कहाँ रही है? सबकुछ तो सधा हुआ है। जमी-जमाई चीज़ है, करो।
ऐसा लग नहीं रहा कि तुमको पैसे का या पद का बहुत लोभ है। आमतौर पर आइआइटी से निकलने के बाद लोग इस बात में अपना बहुत मान नहीं समझते कि सिविल सर्विसेज़ (प्रशासनिक सेवा) से नीचे की कोई सेवा वो ज्वाइन करें।
तुमने खेल-खेल में कह दिया कि कौन वहाँ पर ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) में फँसे और कौन परीक्षा की लम्बी-चौड़ी तैयारी करे, बैंक का ही काम कर लेते हैं। वहाँ चयन भी आसानी से हो जाएगा और समय भी ज़्यादा मिलेगा, तुम्हारे अनुमान से।
तो पद का या पैसे का तो तुम्हें बहुत लालच दिख नहीं रहा। जब नहीं दिख रहा तो शिक्षण-लेखन का क्षेत्र है, बढ़ जाओ उसमें आगे भाई! तुम्हें तो पहाड़ पर चढ़ना है वैसे भी। बहुत बड़ा कुनबा लेकर चढ़ नहीं सकते, बहुत बोझ या वज़न लेकर भी चढ़ नहीं सकते।
तो तुम्हें तो तुम्हारे इस पहाड़ी प्रेम ने ही बचा दिया। अब तो ये जो तुम्हारा पर्वतीय प्रेम है, यही तुमको इजाज़त नहीं देगा जीवन में बहुत सामान, बहुत बोझ इकट्ठा करने की या कोई ऐसा कुनबा बना लेने की जो तुमको घाटियों में ही रखे, चोटियों तक जाने न दे।
अच्छी बात है! पैसा कम लगेगा और शिक्षण के क्षेत्र में भी ऐसा नहीं है कि लोग भूखों मर रहे हों। लड़कों को, नौजवानों को पढ़ाओ और फिर पहाड़ पर चढ़ जाओ। फिर नीचे उतरो, अपना पूरा यात्रा वृत्तांत लिखो, कहीं छाप दो और जब तक लिखोगे, छापोगे, तब तक पाओगे कि अब पैसे खत्म हो रहे हैं, फिर पढ़ाने पहुँच जाओ। अच्छी ज़िंदगी तुमने पकड़ ही ली है।
पर सतर्क रहना, आइआइटी भी देख लिया, आइआइएम भी देख लिया। कैंपस के सपने बहुत जल्दी हवा हो जाते हैं। पहाड़, पहाड़ की चोटियाँ, ये सब बहुत जल्दी टूबीएचके बन जाती हैं।
एक-से-एक प्रतिभाशाली, स्वप्नशाली युवा थे साथ के, हॉस्टल (छात्रावास) में भी, कैंपस में भी, ‘ये कर देंगे, वो कर देंगे’, अभी वो पेरेंट-टीचर मीटिंग करते हैं। और लेखन के नाम पर वो दुनियाभर में बताते हैं कि देखो, मेरे नौ साल के लोलू ने ये कविता लिखी है। यही विश्व साहित्य को मेरा अनुपम योगदान है। लोलू की कविता वो फिर तमाम सोशल मीडिया पर चिपकाते फिरते हैं।
पर्वतों पर चढ़ना है तो पर्वतों पर ही चढ़ना।