प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं पॉलिटिकल साइंस सेकंड ईयर का छात्र हूँ। इसी से रिलेटेड मेरा एक सवाल था। मैं पॉलिटिकल साइंस ले लिया, उस समय मुझे पॉलिटिकल साइंस में काफी इंटरेस्ट था। लेकिन आपको सुनने के बाद मुझे पॉलिटिकल साइंस से अरुची टाइप हो गई है और साहित्य और दर्शन में काफी इंटरेस्ट आ गया है। तो क्या मुझे अपना कोर्स चेंज कर लेना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: जो कुछ बोल रहे हो अगर उसमें सच्चाई है तो बिल्कुल कर लेना चाहिए। लेकिन ये जो इंटरेस्ट है ना ये कई बार बड़ी फ्लिमज़ी चीज़ होती है। है सतही और फिकल, फिकल माने तो कोई बड़ा फैसला लेने से पहले जिसको तुम अपना इंटरेस्ट कह रहे हो उसकी गहराई जाँच लेनी चाहिए क्योंकि इंटरेस्ट उसका क्या है? लहर की तरह आते हैं या लहर की तरह गिर जाते हैं। पिछले पाँच सालों में देखो किस-किस चीज़ में तो इंटरेस्ट हुआ होगा। आज वो कोई चीज़ तुम्हें थाली पर सजा के भी दे तो तब भी ना लो। और जब वो इंटरेस्ट छाता है मन में तो ऐसा लगता है लहर बहा ले गई। बाप रे!
'इंटरेस्ट' सच्चा है या नहीं यह जाँचने के लिए पूछो — सिर्फ़ आकर्षित हूँ या समझता हूँ।
अभी आपने कौन-सा कोर्स लिया था — पॉलिटिकल साइंस, अब कौन-सा लेना चाहते हो?
प्रश्नकर्ता: साहित्य।
आचार्य प्रशांत: साहित्य लेना चाहते हो। पूछो कि जिस प्रक्रिया से मैंने पॉलिटिकल साइंस लिया था कहीं मैं बिल्कुल उसी प्रक्रिया उसी प्रोसेस से तो साहित्य, लिटरेचर नहीं लेना चाहता। कुछ हुआ था मेरे साथ और मुझे राजनीति शास्त्र बहुत आकर्षक लगा था। यही पढूँगा, यही पढूँगा। कुछ हुआ था? बिना कुछ हुए तो आपने टिक नहीं करा होगा कि यही चाहिए।
प्रश्नकर्ता: सर, आकर्षक कम मेरे सारे दोस्त ले रहे थे तो मैं भी…
आचार्य प्रशांत: ठीक। तो, यह प्रक्रिया घटी थी कि बाहर से प्रभाव आया था और बाहरी प्रभाव में मैं भी बह गया था। यह प्रक्रिया थी पिछली बार। पूछना ज़रूरी है कि कहीं उसी से मिलती जुलती प्रक्रिया इस बार भी तो नहीं है? पिछली बार भी बाहरी प्रभावों के कारण पॉलिटिकल साइंस ले लिया और पछताए। और इस बार भी जो फैसला करने जा रहे हो कहीं उसमें भी अपनी समझ, अपना बोध, अपनी अंडरस्टैंडिंग की जगह एक्सटर्नल इन्फ्लुएंसेस बाहरी प्रभाव ही तो नहीं है, और बाहरी तो देखो बाहरी होता है। वो बाहरी प्रभाव चाहे तुम्हारे दोस्तों का हो, चाहे मेरा हो, किसी का हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आदमी को ज़िन्दगी अपनी जीनी है, अपने साथ जीनी है।
समय आपको अपना लगाना पड़ेगा। आप जो भी क्षेत्र चुनोगे, ऊर्जा आपकी लगेगी। ज़िन्दगी आपकी है।
तो आपको पूछना पड़ेगा। मेरा इससे कोई दिली नाता है क्या? क्योंकि एक दो दिन की बात नहीं है। हल्की-फुल्की नहीं है। आपको उसके साथ कई साल गुज़ारने हैं। और तीन-चार साल तो कम से कम उसके आगे भी हो सकता है कि आप और उसी में पढ़ाई करें तो और कई साल लगे। उसके बाद हो सकता है कि उसी क्षेत्र में आप अपना करियर बना लें तो और कई साल लगे। इतने साल देने जा रहे हो किसी चीज़ को। पूछो तो सही क्यों? बात क्या है? मेरा इससे नाता क्या है? मुझे कैसे पता कि यहाँ सब ठीक होगा। मैंने रिसर्च कितनी करी है? दोनों बातें पूछनी पड़ती है। मेरा इससे कोई हार्दिक दिली नाता है या नहीं? और दूसरा मैंने बाहर रिसर्च कितनी करी है?
ये लिटरेचर का फील्ड होता क्या है? क्या पढ़ाते हैं? पाठ्यक्रम क्या है? लोग पढ़ने के बाद क्या करते हैं? जो लोग पढ़ रहे हैं। क्या ऐसे पाँच-सात लोगों से मैं मिलकर आया? जो पढ़ा रहे हैं ऐसे कुछ प्रोफेसर्स से मैंने जाकर बात करी? और अगर मैं वो साधारण भीतरी और बाहरी रिसर्च भी करने को तैयार नहीं हूँ तो फिर मेरे फैसले का आधार क्या है? वही पुरानी बात हो जाएगी ना कि किसी से एक प्रभाव आ गया तो मैंने उसी लहर में एक फैसला कर लिया। अब एक दूसरी लहर आई है तो अब मैं दूसरा या विपरीत फैसला कर रहा हूँ। यह जो लहर वाला काम है ये गड़बड़ होता है।
तो दो तरह की रिसर्च करो। बाहर जाकर पता करो कि साहित्य का क्षेत्र वास्तव में है क्या? पढ़ने वालों पढ़ाने वालों दोनों से बातचीत करो। उस क्षेत्र में फिर जो काम करने निकलते हैं उन्हें किस तरह के काम उपलब्ध होते हैं यह देखो। यह बाहरी हो गई रिसर्च और एक भीतरी गवेषणा होती है। इंटरनल रिसर्च खोज।
ख़ुद से पूछना पड़ता है — साहित्य से मेरा नाता क्या है? इस क्षेत्र से मुझे प्रेम है। ऐसा क्या है मेरे भीतर जो साहित्य की ओर आकृष्ट हो रहा है — यह ख़ुद से पूछना पड़ता है। और जब दोनों उत्तर तालमेल में हो, दोनों दिशाओं में बात बन रही हो तो समझ चलो फैसला हो गया।
प्रश्नकर्ता: सोसाइटी से रिलेटेड एक सवाल था। मैं फर्स्ट ईयर में था तो मुझे एक ही सोसाइटी में इंटरेस्ट थी। डिबेट में मुझे इंटरेस्ट थी तो मैं डिबेटिंग सोसाइटी ज्वाइन कर लिया और दर्जनों डिबेट किया लेकिन बहुत कम ही डिबेट जीता। लेकिन सेकंड ईयर तक आते-आते मुझे वहाँ से भी इंटरेस्ट खत्म हो गया। अब लगता है मतलब अंदर से आता है कि व्यर्थ ही टॉपिकों का डिबेट होता है, क्यूँ जाऊं तो डी-ऐक्टिव हो रहा हूँ। तो क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: नहीं डिबेट में पहले जिस वजह से जाते थे वह वजह ही फिर उचित नहीं रही होगी। डिबेट माने क्या होता है? डिबेट माने थोड़ी होता है कि सामने वाले को रगड़ दूंगा। डिबेट माने ये थोड़ी होता है कि मैं जाऊंगा और कहूँगा आई ऐम द चैंपियन। डिबेट का मतलब होता है कोई मुद्दा है जिसके बारे में सचमुच मेरे पास कहने के लिए कुछ है। सचमुच है। और मैं समझता हूँ कि जो मैं बोलना चाहता हूँ उसे बोला जाना चाहिए। वह चीज़ इतनी ज़रूरी है कि सब तक पहुंचनी चाहिए।
मैं इसलिए मंच पर खड़ा होऊंगा पक्ष में या प्रतिपक्ष में क्योंकि जो मुझे बोलना है वह कीमती है। और अगर आपको पता है कि आपको जो बोलना है वो कीमती है तो फिर उससे आपकी रुचि घट कैसे जाएगी? रुचि तो तभी घटती है जब इसलिए बोलने गए थे कि किसी को यह बैठे हुए हैं ऑडियंस में इनको इंप्रेस कर दूंगा। अब देखा कि कोई इंप्रेस तो होता नहीं तो बोले कुछ और ट्राई करते हैं। यहां तो बात जम नहीं रही है। बात समझ में आ रही है?
काम जब समझदारी से, गहराई से और प्यार से चुनते हो तो फिर यह नहीं होता कि हर छह महीने में लगे कि यार, जी ऊब गया, किसी और दिशा में भागते हैं।
काम कोई छोटी चीज़ नहीं होती है। वो आपकी ज़िन्दगी का पहला रिश्ता होता है। आप उसके साथ सबसे ज़्यादा समय बिताते हो। वो ऐसी चीज़ है जो आप कर रहे हो, आपका दिमाग कर रहा है, आपकी बुद्धि कर रही है, आपके हाथ-पांव कर रहे हैं। भीतर से बाहर से आप उस चीज़ के साथ हो। बहुत निजी बहुत करीबी, बहुत इंटिमेट चीज़ होती है वर्क। उसके साथ हम कह रहे हैं रिश्ता समझदारी का और प्यार का होना चाहिए।
सारे ही रिश्ते समझदारी और प्यार के होने चाहिए। नहीं तो कोई भी रिश्ता बनाओगे छह महीने में यही लगेगा कि यार लेट्स मूव ऑन। और वो मूविंग ऑन से कुछ होगा नहीं क्योंकि मूव ऑन करके अब जिससे रिश्ता बनाओगे उसके साथ भी बस ऐसे ही पहुंच गए थे टहलते-टहलते कि कुछ और नहीं है तो चलो इसी के साथ हो लेते हैं।