जो सम्मान योग्य है, उसके साथ हो लो || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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जो सम्मान योग्य है, उसके साथ हो लो || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आज आपको पहली बार प्रत्यक्ष रूप से सुन रहा हूँ और आपका बहुत आभार है। पूरा जीवन कोई कमी नहीं थी, लेकिन फिर भी बहुत बेचैनी में निकला है। और अभी एक-दो साल से आपको सुनने लगा हूँ तो काफ़ी कुछ समझ आता है, ऐसा नहीं है कि नहीं आता है।

और बहुत कुछ ठीक भी हुआ है लेकिन एक जो दी एंड (समाप्ति) होना चाहिए, दी एंड (समाप्ति) नहीं हो रहा है। और अभी जो पूछना चाहता हूँ उसका सब समाधान यूटयूब पर अवेलेबल (मौजूद) है। जो-जो कमियाँ हैं अब अगर उस पर सर्च (ढूँढना) मार दूँ तो आ जाएगा, इसलिए अब दोबारा पूछने का मतलब नहीं है। ख़ाली एक आपसे एक आशीर्वाद चाहिए कि दी एंड (समाप्ति) हो जाए।

आचार्य प्रशांत: मेरा दी एंड (समाप्ति) तो हो नहीं रहा, आपका क्या...(हँसते हुए)।

प्र: मेरा शुभ रूप से एंड (अंत) होना चाहिए, आप बहुत ही विशाल हैं।

आचार्य: जैसे आप कह रहे हैं न कि पता तो है ही कि सब जवाब पहले ही मैंने यूटयूब पर डाल रखे हैं फिर भी कुछ पूछना है, वही इस संसार की स्थिति है। हम सब जानते हैं कि समाधान क्या है और कहाँ है लेकिन फिर भी हम बचे रहना चाहते हैं। तो दी एंड (समाप्ति) कैसे होगा?

और जबतक आपको पूछना है तबतक मुझे मौजूद रहना है जवाब देने के लिए। तो मेरा दी एंड (समाप्ति) कैसे होगा?

बात इसकी नहीं है कि कुछ कहना-सुनना शेष है, आपकी ‘हाँ’ शेष है, कुबूलना शेष है। और वो चीज़ तो प्यार में ही होती है− ‘कुबूल है’। और वो तो ज़बरदस्ती किया नहीं जा सकता, तो हम इंतिज़ार करेंगे।

प्र: आपका एक सेंटेंस (वाक्य) सुना था— ‘पीड़ा परम का पैग़ाम है’। आप अभी भी कह रहे थे कि कुविचार बार-बार इसलिए रहता है ताकि हम सही से सोच नहीं सकें, समझ नहीं सकें। जैसे ही कुछ परेशानी होती है तो हम उसको छुपा देते हैं, वो दर्द को सहना नहीं चाहते।

जैसे— अभी मेरे को परेशानी है तो उसका दर्द नहीं सहूँगा। उसको मैं किसी और वे (तरीके से) से ख़तम करूँगा— मोबाइल देखूँगा या समोसा खाऊँगा या कचौड़ी खाऊँगा या कुछ और भी गंदे-से-गंदा या अच्छे-से-अच्छा कुछ भी। जो भी समझ आएगा करने की कोशिश करूँगा लेकिन जो प्रॉब्लम (परेशानी) है उसको समझने की, वो दर्द से गुजरने की कोशिश नहीं करूँगा।

ऐसा लगता है कि वो जो एक आपका अभी मैंने कोर्स ज्वाइन किया है (H.I.D.P), तो उसमें था— एक तो फियर (डर) है हमें और एक हम समर्पण नहीं कर रहे हैं, ख़ुद ही झुक ही नहीं रहे हैं, हार ही नहीं मान रहे हैं। अब आगे तो आप समझा सकते हैं। मेरे को तो सब गोलमाल है।

आचार्य: नहीं, गोलमाल कुछ भी नहीं है। गोलमाल, गोलमाल बिलकुल कुछ नहीं है।

प्र: नहीं, समझ भी आया हुआ है लेकिन एक जैसे वो ज़िद होती है न, कि हाँ, नहीं भाईl जैसे— मैंने एक बार कमलेश जी (स्वयंसेवी) को भी लिखा था— ‘मुझे लगता है कि हम कोई एक मशीन हैंl जैसे ही कुछ खाते हैं, दिमाग के अन्दर चलने लग जाता है और हर खाने का अलग तरंग है।‘ अभी मैं जैसे लिख रहा था, ट्रेन में आया था तो कमलेश जी को बोला कि भई मेरे को वो दो असाइनमेंट (कार्यभार) जो मैं यहाँ पर नहीं कर पा रहा। तो वैसे ही मन में क्वेश्चन (प्रश्न) आया कि भई जो भी हम वेजिटेबल (सब्जी), प्लांट (पौधे), फ्रूट (फल) हम जो भी कुछ खाते हैं, क्या उनमें वही तीन गुण हैं— रजस, तमस, सत्व। जो तीनों गुणों की प्रकृति हम हैं वही तीनों गुण इस पूरी प्रकृति में है। तो ऐसे ही कुछ खाने से हमारे माईन्ड (मन) में अच्छे, सही विचार चलेंगे, कुछ खाने से ग़लत विचार चलेंगे। अब फिर मैंने एक क्वेश्चन (प्रश्न) में आगे ये लिखा था कि ठीक है, विचार तो आ रहे हैं लेकिन तुझे उस विचार को पकड़ना है या नहीं पकड़ना वो डिसाइड (निर्णय) तुझे करना है। विचार तो आएँगे ही, अच्छे भी आ सकते हैं, गंदे भी आ सकते हैंl जैसे आप कह रहे थे— “अभी कार से आ रहा था तो हाथी आया, कुत्ता आया, सबकुछ आया, तो सबको देखने थोड़े ही रुक गया मैं?” अब ये हम ख़ुद ही लालची हैं। जैसे लगता है हमको कि भई इससे अटैच (संलग्न) हो जाओ, वो हम उसको ख़ुद ही अटैच (संलग्न) होते हैं। जाकर उसके गले हम ख़ुद ही पड़ते हैं, वो हमारे गले नहीं पकड़ रहा है, उसके गले जाकर हम ख़ुद पड़ते हैं।

अब इसको वही आप जो कहते हो बेईमानी है तेरी कि तू बोलता है— ‘मैं सुधारना भी चाहता हूँ और फिर जाकर उसके गले भी पड़ जाता है।‘ अब फिर क्या बोलूँ? सोल्यूशन (समाधान) अब?

आचार्य: सोल्यूशन (समाधान) फिर संगत होता है। कई बार सब समझा दो तो बात बौद्धिक तौर पर भीतर पहुँच जाती है लेकिन जीवन नहीं बनती। तब युक्ति होती है कि समझा बहुत दिया अब दिखा दो।

जब समझाने भर से काम नहीं पड़े तब दिखाना पड़ता है और उस दिखाने की युक्ति को कहते हैं ‘संगति’।

प्र: तो वो संगति कैसे करेंगे हम?

आचार्य: कैसे करें क्या? संगति कर लीजिए।

प्र: आप तो हमारे साथ थोड़े ही रहते हैं हमेशा।

आचार्य: हम नहीं रहते लेकिन जिस तत्व से अभी हम बात कर रहे हैं वो कोई हमारा व्यक्तिगत थोड़े ही है। वो आपके इर्द-गिर्द भी बहुत जगहों में, बहुत जनों में मौजूद होगा न, उनकी संगति करिए।

प्र: सच की संगति कोई नहीं करना चाहता है।

आचार्य: आप तो करिए।

प्र: कोई नहीं करना चाहता है। अगर हम हज़ार लोगों से बात करें तो मुझे तो लगता है कि कोई एक भी मिलना मुश्किल है। या तो आप कह दो कि तू ही बेईमान है, तुझे दिखता नहीं है बराबर।अब वो बाक़ी मैं, मेरे कांटेक्ट (संपर्क) में सब इल-लीगल (अवैध) हैl

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। दुनिया कभी भी ऐसे लोगों से ख़ाली नहीं होती जो अच्छाई को, धर्म को, सच को, निडरता को क़ीमत देते हैं। ठीक है? इसमें लोगों की सच के प्रति तीव्रता ऊपर-नीचे हो सकती है, कौन कितना ज़्यादा समर्पित है इसमें भेद हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होता कि पूरी दुनिया झूठ पर ही चल रही है और सच्चे लोगों का अकाल पड़ा हुआ है। ऐसा नहीं होता है।

फिर हम यह भी नहीं कर सकते कि किसी आदमी पर ठप्पा लगा दें कि यह झूठा है और किसी को कह दें कि यह सच्चा है। ऐसा भी होता है कि अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में, अलग-अलग लोग ज़्यादा सच्चे हो जाते हों। एक आदमी एक परिस्थिति में अनुकरणीय है, दूसरा आदमी दूसरी (परिस्थिति में)। जिससे जहाँ सीखने को मिले आप सीखते चलिए, जिसकी जिस जगह पर संगति लाभप्रद हो आप करते चलिए। ठीक है?

इतना ज़्यादा अगर आपने निराशावादी दृष्टिकोण ले लिया कि दुनिया में तो कोई है ही नहीं जो सच का प्रेमी हो, तो बड़ी दिक्क़त हो जाएगी।

संगति में बहुत ताक़त होती है। कुछ बातें आप जबतक होते नहीं देखेंगे तबतक उनपर यक़ीन नहीं आएगा। भले ही आपको बता दिया जाए कि ऐसे होता है, ऐसे होता है, फिर ऐसे कर लो तो ऐसे हो जाता है।

पर भीतर थोड़ी सी दुविधा बनी ही रहेगी, थोड़ा संशय बना रहेगा कि नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। ‘नहीं, बात लग तो सही रही है पर ऐसा हो नहीं सकता’। उस बात का पूरा यकीन तभी आयेगा जब उसे पूरा होता देखेंगे अपनी आँखों से। दिव्य नेत्रों से नहीं, इन्हीं आँखों से इसी दुनिया में होते देखेंगे कि हाँ, देखो जो बात मुझे असम्भव लग रही है उस असम्भव बात को एक आदमी करके, जीकर दिखा रहा है।

तो फिर अचानक भीतर से जितना प्रतिरोध होता है वो दिख जाता है कि अर्थहीन है, झूठा है। भीतर से जो रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) होता है न, जो प्रतिरोध, वो यही तो कह रहा होता है कि साहब यह सच-वच कि बातें सिर्फ़ बातें हैं। ऐसे जिया नहीं जा सकता। सबके भीतर से आवाज़ आती है न कई बार।

फिर हम कह देते हैं कि ये बातें अव्यावहारिक हैं, या हम कह देते हैं कि पुरानी किताबों में जो लिखा है वो सब आजकल प्रासंगिक नहीं है, तिथिबाह्य हो गया है आउटडेटिड (पुराना)। यह सब हम तर्क लगा देते हैं न। वो सारे तर्क धराशायी हो जाते हैं जब आप पाते हैं कि सामने एक जीता जागता सबूत खड़ा है और वह वो सबकुछ करके दिखा रहा है जो हमको बड़ा मुश्किल, बड़ा असम्भव लगता है।

संगति में जादू होता है। जो बातें आपको करनी कठिन लगती हों, जिन बातों को लेकर दुविधा रहती हो उन बातों का जीवंत प्रमाण देखिए। फिर ऊर्जा भी आएगी और लज्जा भी, लज्जा यह आएगी कि जब यह काम करा जा सकता था यह आदमी तो करके दिखा रहा है तो मैंने काहे न किया? और ऊर्जा ये आएगी कि अब करके दिखा देता हूँ।

तो ऐसा माहौल खोजिए, ऐसे लोग खोजिए जो अनुकरणीय हों। आस-पास न मिलते हों तो दूर जाइये न। रोज़ न मिलते हों तो हफ़्ते में एक दफा जाइये न, हफ़्ते में एक दफा नहीं मिल सकते तो पन्द्रह दिन में एक बार मिल लीजिए।

प्र: कम टू गुरु, वन्स इन अ वीक, इफ नॉट, वन्स इन अ फ़ोर्टनाईट, वन्स इन अ मंथ ( गुरु के पास एक हफ़्ते में जाएँ, अगर नहीं, तो पन्द्रह दिन में, नहीं तो एक महीने में मिल लीजिये)।

आचार्य: कबीर साहब का वचन है न कि किसी ऐसे का दर्शन रोज़ ही कर लो। रोज़ नहीं कर सकते तो दो दिन में एक बार कर लो, दो दिन में भी एक बार नहीं कर सकते तो हफ़्ते में एक बार कर लो भाई। अच्छा! हफ़्ते में भी एक बार नहीं कर सकते तो पखवाड़े में बार कर लो। उतना भी नहीं कर सकते तो महीने में तो एक बार कर लो। और कहते हैं— ‘महीने में भी एक बार नहीं कर सकते तो जाओ डूब मरो। फिर मेरे पास तुमसे कहने के लिए कुछ नहीं है’।

शायद थोड़ी मोहलत और देते हैं—पूरी साखी मुझे याद नहीं—कहते हैं, “महीने में एक बार नहीं कर सकते तो तीन महीने में एक बार कर लो”। और उतना भी अगर तुम्हारे पास समय नहीं है, कह रहे हो ‘बड़े व्यस्त हैं’। तो फिर तुम तुम्हारे हाल पर, हम कुछ नहीं बता सकते तुमको।

दोहा:

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार। कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार।।

बार-बार नहिं करि सकै, पाख-पाख करि लेय। कहैं कबीर सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय।।

पाख-पाख नहिं करि सके, मास मास करू जाय। यामें देर न लाइये, कहें कबीर समुझाय।।

मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत। यामें ढील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत।।

~ कबीर साहब

इसके अलावा कोई तरीक़ा नहीं है। जब भोजन रोज़ करते हैं, नहाते रोज़ हैं, कपड़े रोज़ बदलते हैं तो सत् संगति क्या छः साल में एक बार करेंगे?

गंदे तो हम लगातार हो रहे हैं, हो रहे हैं कि नहीं? सफ़ाई क्या साल में एक बार करेंगे? और जहाँ साल में एक बार सफ़ाई होती है वहाँ आप जानते ही हैं कैसी खुशबू उठती है। तो जैसे गंदगी लगातार होती रहती है वैसे ही सफ़ाई भी थोड़ा जल्दी-जल्दी हो जाए तो अच्छी बात है।

सफ़ाई का सबसे अच्छा तरीक़ा है ‘संगति’। बढ़िया संगति रखो। चलिए आप काम करते हैं, काम में हो सकता है आपके ऐसा माहौल न हो, ऐसे लोग न हों जिनके साथ बैठकर छाया मिलती हो, कुछ सत्य वचन मिलते हों। तो जब घर आएँ तो शाम को किसी क़ाबिल आदमी के साथ एक घंटा बैठ लिया करें।

प्र: मैं तो पूरा दिन आपके साथ ही बैठता हूँ।

आचार्य: सबसे नाक़ाबिल मैं ही निकला फिर।

प्र: दुकान पर मैं जैसे ही फ्री (ख़ाली) होता हूँ, जैसे ही लगता है कि अब मेरे करने लायक काम नहीं है, स्टाफ (कर्मचारी) काम कर रहा है, तो फिर मैं ईयरफोन लगा लेता हूँ और आपको सुनता रहता हूँ। साथ में वाहे गुरु, वाहे गुरु, वाहे गुरु लिखता रहता हूँ।

तो मेरे पड़ोसी आकर पूछते हैं कि तू यह वाहे गुरु, वाहे गुरु क्या लिखता रहता है। तेरे को और कोई काम-धंधा नहीं है क्या?

मैंने कहा, “भाई! देखो अब या तो ख़ाली बैठूँगा तो तुमसे बात करूँगा, फिर उल्टी-पुल्टी बातें करूँगा। यहाँ कम-से-कम कुछ सुनते रहेंगे तो कुछ हो सकता है कि आज नहीं तो कल कुछ ठीक हो जाए।”

आचार्य: तो फिर जो आप कर रहे हैं, बहुत अच्छा कर रहे है।

प्र: घर पर जाता हूँ तो घर पर भी यही करता हूँ।, जैसे घर में घुसा, अब गुडिया हमारी पानी का गिलास लेकर आती है। तो वही पीते-पीते फिर अपना एक घंटा योगा-वोगा करता हूँ, आपको सुनता रहता हूँ साथ-साथ। मेरी बीवी बोलती रहती है— ‘बस, कान पर लगा लेते हैं, घर पर आते हैं’lसंगति तो कर रहे हैं आपकी।

आचार्य: दो विकल्प होते हैं− या तो ईयरफोन कान पर लगाएँ या दुनिया कान पर लगाए (हाथ से थप्पड़ का इशारा करते हुए)।

प्र: ईयरफोन सही है।

आचार्य: पता है न दुनिया पर लगाए इसका क्या मतलब होता है (हाथ से थप्पड़ का इशारा करते हुए)— ‘कान पर लगाया एक’। तो जिनके कान में ईयरफोन लगे होते हैं उनके कान पर वो (थप्पड़) नहीं लगता।

लगाए चलिए, अच्छा कर रहे हैं। लेकिन फिर भी कहूँगा− “ईयरफोन के माध्यम से जो संगति आपको मिल रही है वो बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन जीवित इंसान की संगति का विकल्प नहीं हो सकती।” तो कोशिश करिए कि जो चेहरे आप देखते हैं दिन में, जिन साक्षात लोगों की आवाजें सुनते हैं उनमें कुछ ऐसे भी लोग हों जिनको देख करके सच में और अच्छाई में यकीन और पुख़्ता हो जाए, क्योंकि आदमी को प्रमाण चाहिए होता है न।

आदमी कहता है− बातें तो बातें है, हमें यह यकीन तो दिलाओ कि इन बातों पर चलने वाला कोई है भी? कोई है क्या जो इन बातों पर चलता हो? और इन बातों पर चलकर आनंदित भी हो?

ऐसे कुछ प्रमाण खोज लेने चाहिए। बिलकुल ठीक कहा आपने, वो आसानी से नहीं मिलते। तो आसानी से तो कोई भी बढ़िया चीज़ कहाँ मिलती है? वो जहाँ कहीं भी हों उनसे रिश्ता बनाइये, पास जाइये, बैठिये। क्या पता उन्हें भी आपकी ज़रूरत हो।

सब बेकार के लोग तो बड़ी आसानी से संगठित हो जाते हैं, अच्छे लोगों को भी तो थोड़ा संगठित होने की ज़रूरत होती है न? वो भी तो आपस में थोड़ी बातचीत करें, एक दूसरे का हौसला बढ़ाएँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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