जो सफल लगते हैं, वो कितने सफल हैं? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

11 min
31 reads
जो सफल लगते हैं, वो कितने सफल हैं? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: सही लक्ष्य क्या होता है? सही लक्ष्य वो होता है जो आपके भीतर की कमज़ोरियों को तोड़े। आपके भीतर जो कुछ ऐसा है कि ख़त्म होना चाहिए, लक्ष्य बनाओ जो उसे ख़त्म ही कर दे। मेरे ख़याल से कार्ल जंग का है — या आप लोग जाँच लीजिएगा कि ये उक्ति है किसकी — कुछ ऐसा है कि व्हेयर योर फ़ीयर इज़, देअर इज़ योर टास्क (तुम्हारा काम वहीं पर है जहाँ तुम्हारा डर है)।

तो पहले क्या देखना है? कि मेरे भीतर का डर, माने मेरी कमज़ोरी, मेरी गन्दगी, मेरे झूठ, ये सब कहाँ पर हैं। और उनको देख लिया, तो उससे निर्धारित हो जाता है कि तुम्हारा काम कहाँ पर है, वही लक्ष्य बनेगा। काम वो चुनना है जो तुम्हारे भीतर की कमज़ोरियों को तोड़ दे। ठीक है?

अब आते हैं ‘सफलता’ पर। सफलता इस बात से तय होनी चाहिए कि आपने अपने लक्ष्य की तरफ़ क़दम किन चुनौतियों का सामना करते हुए बढ़ाया है। आपके सामने दिक्क़तें क्या थीं, किन दिक्क़तों के ख़िलाफ़ आपने अपनी यात्रा करी है, वो चीज़ तय करेगी कि आप सफल हैं कि असफल हैं।

बात समझ रहे हो?

उदाहरण दे देता हूँ — सिर्फ़ समझाने के लिए है उदाहरण, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आइआइटी में प्रवेश पाना जीवन का सबसे ऊँचा लक्ष्य है, पर कुछ समझाना है इसलिए दे रहा हूँ। जब आइआइटी पहुँचा तो ये देखकर हैरानी हुई मुझे कि इतने सारे दिल्ली वाले क्यों हैं यहाँ पर। देश की जनसंख्या का कुल डेढ़ प्रतिशत बहुत कहोगे, एनसीआर ले लोगे पूरा तो दो प्रतिशत रहता है दिल्ली में, एनसीआर में। लेकिन उन्नीस-सौ-पंचानवे में आइआइटी के बीटेक बैच में कुछ नहीं तो पन्द्रह प्रतिशत, बीस प्रतिशत, शायद पच्चीस प्रतिशत दिल्ली वाले थे।

इतने सारे हैं, और उनमें से बहुतों की रैंक (वरीयता-क्रम) भी बहुत अच्छी-अच्छी थी, टॉप (शीर्ष) सौ में बहुत सारे थे। और उनको देखूँ तो ऐसा लगे नहीं कि इनमें कुछ इतना ख़ास है, न तो श्रम के तौर पर, न प्रतिभा के तौर पर। नहीं, अच्छे छात्र थे, उसमें कोई शक नहीं, नहीं तो उनकी इतनी ऊपर रैंक नहीं आ सकती थी, पर उतनी विशिष्टता उनमें दिखायी न दे जितनी उनकी रैंक थी।

फिर धीरे-धीरे मुझे समझ में आना शुरू हुआ कि शायद कोई उड़ीसा से है, उड़ीसा के किसी छोटे शहर से, गाँव से, और उसकी रैंक आयी है अठारह-सौ। वो लड़का ज़्यादा सफल है, बजाय उसके जो दिल्ली वाला है और उसकी रैंक आयी है अठारह। उड़ीसा वाले को ये तो छोड़ दो कि बहुत अच्छी कोचिंग मिली थी — यहाँ दिल्ली में एक से बढ़कर एक टॉप कोचिंग हैं, जहाँ सबकुछ खोलकर रख दिया जाता है — उड़ीसा वाला जो कर रहा है वो अपने दम पर कर रहा है।

कोचिंग तो छोड़ो, उसे तो सही किताबें भी न मिली हों, मिली भी हों तो बहुत समय लगाकर, बहुत मेहनत लगाकर मिली हों। दक्षिणी दिल्ली का कोई लड़का है जो उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार से है, बिलकुल खाता-पीता, जिसको कैंपस (परिसर) तक छोड़ने के लिए कार आती है और वापस भी वो कार में ही जाता है, और वो पहले प्रयास में ही सफल हो गया है, उसे आइआइटी में मिल गया है एडमिशन (दाखिला)। शायद उससे ज़्यादा सफल है बिहार का एक लड़का, जो तीसरे प्रयत्न में सफल हो पाया है।

सफलता ऐसे नहीं देखी जा सकती कि कौन कहाँ पहुँचा, सफलता ऐसे नापिए कि किसने कितनी चुनौतियों का सामना किया आगे बढ़ने के लिए। एक है जो इंक्लाइन (चढ़ाव) पर दौड़ रहा है, ऐसे चढ़ाव पर (हाथों से प्रदर्शित करते हुए), और एक है जो समतल ज़मीन पर दौड़ रहा है। आप दोनों की सफलता इस आधार पर नापेंगे कि दोनों में से दूरी किसने ज़्यादा तय करी? ये तो बेवकूफ़ी हो जाएगी न?

व्हाट आर द ऑड्स , बाधाएँ क्या थीं? तुम जितना भी आगे बढ़े हो, उतना आगे बढ़ने के लिए तुमने कितना जीता है, कितना श्रम किया है? तुम जितना भी आगे बढ़े हो, उतना आगे बढ़ने के लिए तुमने किसको परास्त किया है, मेहनत कितनी लगी है तुम्हें, तुम्हारा रास्ता कठिन और कंटकाकीर्ण कितना था? ये चीज़ तय करेगी कि तुम सफल कितने कहलाओगे। और ये चीज़ अक्सर ज़िन्दगी में स्कोर बोर्ड (अंक तालिका) पर नहीं दिखायी देती, वो नहीं पता चलेगा; एक की रैंक अठारह-सौ दिखायी देगी, एक की अठारह दिखायी देगी।

ये भी हो सकता है कि इस अठारह रैंक वाले की अच्छी जॉब (नौकरी) लग जाए — अच्छी से मेरा अर्थ वही है जो प्लेसमेंट में माना जाता है, पैसे — हो सकता है उसकी ज़्यादा मोटी नौकरी भी लग जाए। उसकी भाषा, उसका कल्चर (संस्कृति), ये सब कॉर्पोरेट के लिए ज़्यादा मँझा हुआ होगा, तो वो ज़्यादा तेज़ी से तरक़्क़ी भी कर जाए। हो सकता है ये सबकुछ हो जाए, लेकिन फिर भी अगर ज़िन्दगी की नज़र से देखोगे तो ये अठारह-सौ रैंक वाला ज़्यादा सफल होगा शायद।

मैं ये नहीं कह रहा कि नियम ही है कि उड़ीसा वाले को ही दिल्ली वाले से ऊपर मानना — ये उदाहरण है, ये नियम नहीं बता रहा हूँ — नियम है कि मेज़र सक्सेस अगेंस्ट द‌ ऑड्स। (चुनौतियों के अनुसार सफलता मापी जाए)। अपनेआप से भी यही पूछा करो - ‘जो कुछ मैंने पाया है, कितनी चुनौतियों को हराकर पाया है?’ और अगर चुनौतियों को हराए बिना पा लिया है, तो बेकार है।

इसीलिए मुझे विरासत कभी समझ में नहीं आयी बहुत। कॉलेज के दिनों में मैं बोलता था कि इन्हेरिटेंस टैक्स (वंशागति कर) लगना चाहिए। जो तुमने कमाया नहीं, वो तुम्हारे पास हो क्यों? दुनिया की बहुत बड़ी-से-बड़ी समस्याएँ इसलिए हैं कि ऐसे लोगों के पास सत्ता है, ताक़त है, धन है, जो उसके हक़दार नहीं हैं, जिनको बस यूँही मिल गया है, बिना कमाए।

हम सड़क पर जा रहे होते हैं, बहुत ऐसा होता है कि बगल से कोई गाड़ी निकल जाती है, और जिस तरीक़े से निकली होती है, मैं कहता हूँ कि ये इसके बाप की गाड़ी है पक्का, इसकी नहीं हो सकती, इसकी होती तो ये ऐसे चला नहीं पाता। और ये बाप की गाड़ी वाले न, बहुत दुर्घटनाएँ करते हैं, सड़क पर भी और अस्तित्व में भी।

दुनिया की अधिकांश दुर्घटनाएँ — प्रतीक के तौर पर बोल रहा हूँ, बस सड़क तक सीमित नहीं है मामला — जीवन की भी अधिकांश दुर्घटनाएँ वही कर रहे हैं जिनको मिल गयी हैं चीज़ें बिना कमाए, यही हैं दुर्घटनाबाज़। इनको सफल मत मान लेना, इनके आगे सिर मत झुका देना, इन्हें इज़्ज़त मत देने लग जाना। और गुरूर सबसे ज़्यादा अक्सर उनमें ही होता है जिन्होंने ख़ुद कभी कमाया नहीं होता है।

अभी मैं एक आर्टिकल (लेख) पढ़ रहा था, उसमें एक सेना का अधिकारी है, वो कह रहा है कि मुझे तुम कहीं पर, सियाचीन में, कारगिल में, कहीं पर भी पोस्टिंग (तैनाती) दे दो, पर वो फ़लानी जगह है, बेस (अड्डा), वहाँ मत पोस्टिंग देना; कुछ लिख रखा था। बोलता है, ‘वहाँ पर मुझे जो ऊपर वाले अधिकारी हैं न, उनकी पत्नियों का सामना करना पड़ता है, और वो अपना नाम नहीं बतातीं, वो बोलती हैं कि मैं मिसेज़ मेजर जनरल हूँ।‘

और मिसेज़ मेजर जनरल मिसेज़ मेजर पर तो हावी होगी-ही-होगी, वो बेचारी बहुत जूनियर (कनिष्ठ) हो गयी, मिसेज़ मेजर। अब उसने ख़ुद कमाया कुछ नहीं है, लेकिन गुरूर उसको पूरा है कि मैं तो मिसेज़ मेजर जनरल हूँ।

दुनिया में बहुत सारी जो तकलीफ़ें हैं और विकृतियाँ हैं, वो इसी चीज़ से हैं, हमको पता भी नहीं होता कि हम कितने ज़्यादा असफल हैं। प्रकृति ने हमें कुछ दे दिया, संयोग ने हमें कुछ दे दिया, विरासत ने हमें कुछ दे दिया, और हम सोचने लग जाते हैं कि हम तो बहुत सफल हैं।

जब मैं कह रहा हूँ कि प्रकृति ने हमें कुछ दे दिया, तो उसमें दोनों बातें आती हैं। आमतौर पर महिलाएँ कहती हैं कि हमें अब रूप मिला है, हम इसी के आधार पर ज़िन्दगी क्यों न चमकाएँ, इस रूप के दम पर ही अब हमें अगर इज़्ज़त मिल सकती है और पैसा मिल सकता है, तो हम इस रूप पर पैसा कमाएँगे। और ये बात दिख जाती है, और कम-से-कम कुछ लोग कहने भी लग जाते हैं, कि इस रूप के आधार पर आप सम्मान की पात्र नहीं हो गयीं, लेकिन एक चीज़ जो दिखायी नहीं पड़ती है वो है पुरुषों को जो मिला है प्रकृति से।

महिला को रूप मिला हो तो दिख जाता है कि अपने रूप की खा रही है। पुरुष को अगर बुद्धि मिली है, मस्तिष्क मिला है, और वो उसी की खा रहा है, तो वो सम्मान का पात्र कैसे हो गया, वो चीज़ भी तो उसे प्रकृति ने ही दी है न? एक आदमी को प्रकृति ने ज़बरदस्त शरीर दे दिया है, और एक आदमी को प्रकृति ने ज़बरदस्त मस्तिष्क दे दिया है, बताओ अन्तर क्या है! दोनों ने ही अर्जित तो नहीं किया है न, अर्न (कमाया) तो नहीं किया है न?

एक व्यक्ति है जिसे प्रकृति ने क्या दे दिया? ज़बरदस्त शरीर। और दूसरे व्यक्ति को प्रकृति ने क्या दे दिया? ज़बरदस्त ब्रेन (मस्तिष्क)। ब्रेन हो कि ब्रॉन (बाहुबल) हो, दोनों हैं तो फ़िज़िकल (शारीरिक) ही न, दोनों शरीर के ही तो हिस्से हैं। ये दोनों ही सम्मान के पात्र नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों को ही जो मिला है वो यूँही मिला है, संयोग से मिल गया है। इन्होंने लड़ाइयाँ नहीं लड़ीं, इन्होंने श्रम नहीं किया, इन्होंने तपस्या नहीं करी। कोई साधना करके इनको कुछ नहीं मिला है, इन्हें तो बैठे-बिठाए मिल गया है।

जो कुछ भी तुम्हें बैठे-बिठाए मिल गया है, उसके आधार पर अपनेआप को सफल मत मान लेना। लड़ो, मेहनत करो, आगे बढ़ो, आलस की मत खाओ। आलस की ही खाने को कहते हैं हरामखोरी। बैठे-बिठाए मिलते जा रहा है, चबाते जा रहे हैं, और आंतरिक तौर पर भी अपनेआप को बड़ा फन्ने खाँ मान रहे हैं - ‘साहब हम तो सफल हैं, हम तो ये हैं, हम तो वो हैं।‘ इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण बात दूसरी नहीं हो सकती!

जब भी कभी ज़िन्दगी में अपने मुक़ाम को देखें, तो बार-बार अपनेआप से पूछें कि यहाँ तक पहुँचने में वाक़ई मेरा कितना योगदान रहा है और परिस्थितियों का कितना योगदान रहा है। मैं कॉलेज में कहा करता था अपने साथ वाले लोगों से, कि हम इस वक़्त यहाँ पर हैं तो सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि हमने बड़ी मेहनत करी है दो साल आइआइटी जेईई पास करने के लिए, हम यहाँ इसलिए भी हैं क्योंकि बहुत सारे लोग, लाखों-करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जिनके पास संसाधन और शिक्षा ही नहीं थी कि वो ये परीक्षा लिख पाएँ। अगर मामला एकदम बराबरी का होता, तो कोई भरोसा नहीं है कि हम अन्दर होते कि नहीं होते।

तो बहुत फूलकर कुप्पा मत हो जाया करिए, कि मैंने ये कमा लिया, मुझे ये मिल गया, मैं यहाँ काम करता हूँ, मैं यहाँ पहुँच गया, ऐसा हो गया, या वैसा हो गया। परिस्थितियों का बहुत बड़ा योगदान है, आपको जो कुछ भी मिला हुआ है। और जो कुछ भी आपको परिस्थितिवश मिला है, वो आपकी सफलता नहीं है, वो संयोग भर है, उसमें आप कहाँ से सफल कहला गये!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories