प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या किसी भी काम को करने के लिए संकल्प लेना ज़रूरी होता है?
आचार्य प्रशांत: लगातार सुन रहे हो?
प्र: जी हाँ।
आचार्य: तो कुछ तो लगातार है तुम्हारे जीवन में।
प्र: हाँ जी, बिलकुल।
आचार्यः उसके लिए संकल्प लगा?
प्र: नहीं, संकल्प तो नहीं लगा।
आचार्यः तो जब बिना संकल्प के ही कई चीज़ें स्थायी हैं, सतत हैं तो संकल्प चाहिए ही क्यों?
प्र: कुछ चीज़ों का अभ्यास करने के लिए।
आचार्यः तो जब सुन रहे हो तो वो अभ्यास नहीं है? सुनना अभ्यास नहीं है? श्रवण तो बड़े अभ्यास की चीज़ होती है और वो अभ्यास तुम कर ले रहे हो बिना किसी संकल्प के। संकल्प की, इच्छाशक्ति की ज़रूरत भी नहीं लग रही, काम हो जा रहा है। ऊँचे-से-ऊँचा काम जो है तुम्हारा वो बिना ही किसी इच्छाशक्ति के हो जा रहा है।
जो सबसे बड़ा काम है वो सरलता से हो रहा है, सहजता से हो रहा है और छोटे-छोटे कामों के लिए तुम कह रहे हो कि संकल्प नहीं बनता। इससे क्या पता चलता है?
प्र: मुझे लग रहा है, सुनने के अलावा भी कुछ और है।
आचार्यः हाँ तो होंगे, बात इसकी नहीं है कि सुनना ही एकमात्र जायज़ काम है। बात ये है कि जो भी जायज़ काम होगा, उसके लिए बहुत इच्छाशक्ति नहीं चाहिए। अगर कोई काम तुमसे नहीं सध रहा है तो इसका मतलब ये नहीं है कि तुममें इच्छाशक्ति की कमी है, संकल्पबद्ध नहीं हो, इसका मतलब ये है कि तुम उस काम के प्रति नज़रिया छोटा रखते हो।
उस काम की तरफ़ तुम जा ही रहे हो किसी छोटे प्रयोजन के कारण। उस काम से तुम्हारा राम का रिश्ता नहीं है। राम का रिश्ता हो तो तुम झाडू भी लगाओगे बिलकुल तगड़े होकर और डटकर। तुम्हें पता हो कि घर में राम पधार रहे हैं तो झाडू भी तुम कैसे लगाओगे? जैसे पूजा कर रहे हो। नहीं तो कहोगे, झाडू इतना छोटा काम है, करने का जी ही नहीं करता। घटिया काम। काम ऊँचा हो तो स्वतः हो जाता है और काम के साथ क्षुद्रता जोड़ दी हो तुमने तो वो होगा ही नहीं। जब मैं कह रहा हूँ कि काम ऊँचा हो तो उससे मेरा ये मतलब नहीं है कि कामों की श्रेणियाँ होती हैं, उससे मेरा तात्पर्य है कि कामों के प्रति तुम्हारा नज़रिया कैसा है? क्यों उतर रहे हो किसी काम में? मैं तो एक बात जानता हूँ कि बल का एकमात्र स्त्रोत वही है— अन्दर और ऊपर पर जो राम बैठा है।
उसके अलावा ताक़त किसी से आती नहीं। और तुम्हारी ज़िन्दगी में अगर ताक़त की कमी है तो इसका मतलब राम से तुम्हारा रिश्ता कुछ ख़ास नहीं है। ताक़त देने वाला कौन? एक ही है। और कहीं से नहीं पाओगे ताक़त, पक्का मानो। तो दुर्बलता का कारण भी फिर एक ही है। जो भी काम कर रहे हो उन्हें राम को समर्पित करो।
जो भी काम कर रहे हो पूछो अपनेआप से कि क्या ये राम की दिशा में है? और राम की दिशा में जो भी काम हो उसे किये जाओ। राम की दिशा में जो काम न हो उसका मुँह मोड़ दो। उसको ज़रा साफ़, नयी दिशा दो। फिर देखो कैसी जान आती है। ‘राम भजा सो जीता जग में’। जो राम के साथ हैं वो कभी हारते हैं?
तुम बात कर रहे हो दुर्बलता की। राम भजा सो जीता नहीं कहा है मात्र, कहा है, राम भजा सो जीता ‘जग में’। संसार में ही विजयी हो जाओगे, अगर राम से रिश्ता है। बिलकुल स्पष्ट करके, खुलासा करके कहा है, राम भजा सो जीता जग में। जग में भी प्रतापी रहोगे। दुर्बलता का कोई सवाल नहीं है। कितनी संकल्प शक्ति लगी मुझे सुनने के लिए?
प्र: बिलकुल भी नहीं।
आचार्यः ऐसा ही है।
प्र: आचार्य जी, फिर भी कुछ कामों के लिए संकल्प की आवश्यकता होती है, जैसे कि आपने कुछ समय पहले मुझे जिम जाने के लिए बोला था, अभी छः बजे उठता हूँ तो रजाई में आराम रहता है तो मुझसे उठा नहीं जाता है, बिना संकल्प शक्ति के तो जा ही नहीं पा रहा हूँ तो आचार्य जी ऐसे समय पर तो संकल्प की आवश्यकता होगी ही?
आचार्यः वृत्ति का बल है। वृत्ति का ज़ोर है। वृत्ति माँग रही है देह की सुरक्षा। देह ने इतनी लम्बी यात्रा में ये सीखा है कि ठंड में मत निकल जाना, अकड़कर मरोगे। ये देह के भीतर शिक्षा बैठी हुई है। बहुत गरम हो तो छाँव ले लेना और बहुत ठंड हो तो कहीं दुबककर ज़रा आँच ले लेना। ये देह की शिक्षा है।
पर जब पता होता है कि जिस काम में लीन होने जा रहे हो वो काम सही है तो वृत्ति के बल से ज़्यादा ऊँचा बल पैदा होता जाता है जो वृत्ति को हरा देता है। उदाहरण दिए देता हूँ, अभी शायद तुम सुबह जाते हो वर्जिश करने तो अपने लिए जाते हो, अपनी देह बना रहा हूँ।
प्र: अभी तो जा ही नहीं रहा, जब से सर्दी ज़्यादा हो गयी है।
आचार्यः सर्दी ज़्यादा हो गयी है… जब जाते भी हो तब भी किसकी खातिर जाते हो?
प्र: अपने लिए।
आचार्यः अपने लिए जाते हो। यही तुमको पता हो कि एक ऊँचा उद्देश्य है, गुरू के शिष्य हो तुम; गोबिंद सिंह साहब की सेना है और सामने खड़ा है एक ज़ुल्मी बादशाह। छोटी सेना है। तब क्या अपने शरीर को कहोगे कि मेरा निजी शरीर है? तब तुम जानोगे कि तुम्हारा शरीर तुम्हारा शरीर नहीं है, वो सत्य की सेवा में समर्पित हुआ एक अव्यव है, एक अस्त्र है।
तब ये नहीं कहोगे कि मैं जा रहा हूँ अपने कन्धे चौड़े करने, अपनी छाती फूलाने। तब कहोगे कि मैं जा रहा हूँ सत्य के अभियान को सार्थक बनाने, अपनी आहुति देने। तब ज़्यादा बल आएगा उठ जाने के लिए।
इसी तरीक़े से सुबह छः बजे तुम्हें बड़ी ठंड लगती है लेकिन तुम्हें अगर उठना हो क्योंकि साढ़े छः बजे कोई ऐसा हो जिससे बहुत प्रेम है तुम्हें या जो बहुत पूज्य है तुम्हें, वो आ रहा है और तुम्हें उसे लेने जाना है, रेलवे स्टेशन जाना है तो रजाई फेंककर उतरोगे कि नहीं उतरोगे? उतरोगे न? जहाँ सत्य है, वहाँ बल है। वृत्ति हार जाएगी। वृत्तियाँ अगर तुम्हारी नहीं हार रहीं हैं तो इसलिए नहीं हार रहीं क्योंकि तुम्हारे कामों में राम नहीं हैं। राम की खातिर काम नहीं कर रहे हो। राम की खातिर काम नहीं करोगे तो फिर शरीर भी हावी पड़ेगा, मन भी हावी पड़ेगा तुमपर। सब हरा देंगे, लूटे-पिटे!
अब से जब जिम जाना तो ये कहकर मत जाना कि मैं इसलिए जा रहा हूँ कि मनीष सेहरावत (प्रश्नकर्ता का नाम) और ज़्यादा बाँका जवान दिखे। कहना मैं इसलिए जा रहा हूँ क्योंकि ये शरीर एक बड़े यज्ञ में आहुति जैसा है। शरीर ठीक नहीं होगा तो यज्ञ में क्या हम घटिया चीज़ की आहुति देंगे? सेना में भी सैनिक को जाँच-परखकर लिया जाता है न?
और मैं साधारण सेना की बात कर रहा हूँ, वो जो जाकर के सीमा पर लड़ती है, देशों की सीमा पर जो सेना लड़ती है। और जो सत्य के सेनानी हों उन्हें कितना जाँच-परखकर लिया जाएगा? बहुत जाँच-परखकर न। उनका शरीर फिर होना चाहिए न सोने जैसा। इसलिए जाओ वर्जिश करने।
फिर अपनेआप उठोगे, जाओगे, कहोगे– हमारा शरीर सिर्फ़ हमारा होता तो हम उसके साथ खिलवाड़ भी कर लेते, कुछ दुस्साहस कर लेते। हमारा शरीर हमारा नहीं है। कोई सामान तुम अपने लिए खरीदते हो, उसमें ज़रा उन्नीस-बीस हो जाए तो चल जाता है न? लेकिन जब कोई सामान तुम तोहफ़े में देने के लिए खरीदते हो, तब ये बर्दाश्त कर पाते हो कि उसमें ज़रा भी दोष है?
तब उसमें ज़रा भी नुक्स (त्रुटि) बर्दाश्त होता है? बल्कि अगर एक ही चीज़ की तुमने दो ईकाइयाँ लीं हैं, मान लो दो गुलदस्ते लिए तुमने, एक अपने लिए है और एक किसी को तोहफ़ा देना है और उन दोनों में से एक में ज़रा खरोंच है तो तोहफ़े में कौनसा दोगे?
श्रोता: जो बिना खरोंच का है।
आचार्यः जो बिना खरोंच का है। जो चीज़ अर्पित की जाती है किसी को, आदमी उसका दोगुना ख़याल करता है। अपने जीवन को राम को अर्पित कर दो, जीवन को चमकाकर रखोगे बिलकुल। जीवन ऐसा सोने की तरह चमकेगा कि पूछो मत। और जीवन को अपने लिए रखोगे तो घटिया रहेगा।
मैं तो एक बात जानता हूँ कि जिनके घर बहुत गन्दे रहते हैं उनके लिए मेरे पास एक नसीहत होती है, घर में मेहमानों को बुला लो। क्योंकि तुम ऐसे हो कि अपने लिए तो तुम घर को गन्दा ही रखोगे क्योंकि तुम अपनी नज़र में बहुत महत्वपूर्ण नहीं हो न। तुम अपनी नज़र में बहुत क़ीमती नहीं। नियमित रूप से मेहमान आते रहें तो तुम्हारे लिए बहुत अच्छा है। क्यों अच्छा है?
श्रोता: घर साफ़ रहेगा।
आचार्यः घर साफ़ रहेगा। एक आम मेहमान भी घर आ जाए तो उसके लिए तुम घर को साफ़ कर देते हो। और तुम्हारे घर में अगर राम आ जाऍं तो? घर को तो चमका ही दोगे न। किसका लाभ हुआ? राम की खातिर लाभ हो गया, तुम्हारा। इसीलिए बहुत आवश्यक है कि घर में मेहमान आते रहें, घर नहीं तो गन्दा ही पड़ा रहेगा।
दीवाली आती है तो घर की पोताई हो जाती है न?
श्रोता: दीवाली हर महीने आनी चाहिए।
आचार्यः हाँ, मेहमान इस क़ाबिल होना चाहिए कि उसकी खातिर घर साफ़ किया जाए। मेहमान भी अगर तुम्हारे ही जैसा है— जो कहते हो चड्डी बदल यार! तो उनके लिए नहीं साफ़ करते फिर। उनको तो कहते हो, आ जा बैठ जा कचरे में। मेहमान की ज़रा एक गरिमा होनी चाहिए। मेहमान की एक उच्चता, एक भव्यता होनी चाहिए।
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