जिनके सामने झुकते रहते हो, वो इस लायक हैं? || आचार्य प्रशांत, उद्धरण

Acharya Prashant

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जिनके सामने झुकते रहते हो, वो इस लायक हैं? || आचार्य प्रशांत, उद्धरण

आचार्य प्रशांत: एक सवाल अच्छे से पूछ लीजिएगा अपनेआप से, जिन लोगों को खुश रखने में अपनी ज़िंदगी ख़राब किये दे रहे हो वो लोग किसी काम के भी हैं आपके? जिनके डर के साये में ज़िंदगी बिता रहे हो वो उखाड़ क्या लेंगे आपका? ये पूछिएगा अपनेआप से। या जिनको पैसा वग़ैरह दिखाकर के बहुत प्रभावित या इम्प्रेस करते हो वो तुम से प्रभावित हो भी गए तो तुम्हें मिल क्या जाएगा? मिलता है कुछ? या जिनका पैसा-रुतबा देखकर के आप प्रभावित हो जाते हो, उनसे प्रभावित होकर के आपको क्या मिल जाता है? ये सब किसी काम का है क्या? बस छाया रहता है लेकिन मन पर।

अध्यात्म सर्वप्रथम एक विद्रोह होता है, अतीत के और आन्तरिक ढर्रो के विरुद्ध। जो अतीत में चला आया है, नहीं चलेगा अब। और जो भीतर-भीतर लगातार चलता रहता है, नहीं चलेगा अब। जो विद्रोही नहीं है वो आध्यात्मिक नहीं हो सकता। कुछ जम रही है बात?

लेना एक न देना दो, दुनिया सिर पर चढ़ी आती है। और हम इसे सिर पर बैठाये भी रहते हैं। तुम हो कौन? यही सवाल होना चाहिए। हो कौन? क्यों सुने तुम्हारी? कौन हो तुम? हाँ सुनेंगे, ऐसा नहीं कि हमारे पास कान नहीं होंगे, हमारे पास कान उनके लिए होंगे जिनके पास प्रेम है। तुम्हारे पास प्रेम है तो मेरे पास कान है। और अगर तुम्हारे पास प्रेम है तो मेरे पास ज़बान भी है। बात भी उन्हीं से करूँगा, जवाब भी उन्हीं को दूँगा जिनके पास प्रेम है। सुनेंगे भी उनकी जो प्रेम करते हैं, बोलेंगे भी बस उन्हीं से जो प्रेम करते हैं।

जो यूँही चले आए हैं, लेना एक न देना दो, यूँही घुसे चले आ रहे हो। कोई डर दिखा रहा है, कोई धौंस बता रहा है, कोई पैसा चमका रहा है, जो भी लेकर आये हो अपने घर रखो। हमसे तुम्हारा ताल्लुक क्या? आज तक तुम्हारी मान भी ली तो तुमने हमें दे क्या दिया है? तुम्हारे कायदों पर चल कर तुमको ही कुछ नहीं मिला, हमें क्या मिल जाएगा।

हेल्दी कंटेम्प्ट — दुनिया के प्रति एक स्वस्थ अवमानना का वह भाव रखिए। कंटेम्प्ट ; कैसी कंटेम्प्ट ? हेल्दी कंटेम्प्ट बोल रहा हूँ। ये नहीं कि जो मिला उसी को बोल दिया, 'है!'

जो कोई आक्रामक हो रहा हो, जिसके इरादे आपकी बाँह मरोड़ने के हो, जो कोई चाहता हो आपको अपनी उम्मीदों के अनुसार चलाना; उस को बस यही सवाल — तू है कौन? हु आर यू ? और जगत का काम है हर दिशा से आप पर चढ़े आना, वो यही चाहता है।

और ये भी नहीं कि हर बार वो एक इंसान के रूप में ही आप पर चढ़ेगा। आप गुड़गाँव जाइए, आप बम्बई जाइए, वहाँ ये बड़ी इमारत हैं, पचास मंज़िली, सत्तर मंज़िली। आप उसके नीचे खड़े हो, आपको दिख नहीं रहा वो इमारत आप पर चढ़ी आ रही है? भीतर ये सतर्कता रहे कि जैसे ही दिखे कुछ चढ़ा आ रहा है, तुरंत क्या बोलना है — 'है कौन?' वही रास्ता है। वे ; वे माने हु आर यू ? तू है कौन?

आप कहीं पर गये हैं नौकरी का इंटरव्यू देने और बड़ा मल्टीनेशनल का ऑफिस है और उसके रिसेप्शन पर आप बैठे हैं। और वो बड़ा इम्पोसिंग होता है, वो आप के ऊपर एकदम चढ़ा आता है। बहुत पैसा लगाकर वो रिसेप्शन बनाया जाता है ताकि आप जल्दी से प्रभावित हो जाएँ, सरेंडर कर दें जल्दी से। जैसे ही देखिए कि रिसेप्शन इस हिसाब से बनाया गया है, वहाँ फिर ऐसे बैठिए। (आचार्य जी बेपरवाह होकर बैठने का अभिनय करते हुए)।

हम उल्टा करते हैं। बदतमीज से बदतमीज आदमी भी जब किसी बड़ी कंपनी के रिसेप्शन पर बैठा होता है, किसी फाइव स्टार होटल में जाता है तो वहाँ वो बहुत तमीज़दार और अदब वाला हो जाता है; कुल मिलाकर पालतू हो जाता है। जर्मन शेफर्ड फाइव स्टार में पहुँच कर क्या बन गया — देसी पिल्ला। बाहर घूमते थे ऐसे-ऐसे, और जैसे ही देखा कि ये पाँच सौ करोड़ की ईमारत, वहाँ बिलकुल "यस यस यस! व्हाट डु आई हैव टू गिव? वेयर डु आई हैव टू सीट?" और बाहर निकलकर के दुनिया भर से गाली-गलौज और बदतमीज़ी।

पालतू नहीं बनना है, समाज के बाहुबल के सामने झुक नहीं जाना है। जितनी विनम्रता सच्चाई के सामने होनी चाहिए उतनी ही ऐंठ माया के सामने होनी चाहिए। सच के सामने सिर उठे नहीं और माया के सामने सिर झुके नहीं। बदतमीज़ी सीखिए, ख़ास तौर पर जो संस्कारी लोग हैं उन्हें बदतमीज़ी आनी चाहिए। जिन्हें ऊँचा बोलना नहीं आता क्योंकि बहुत संस्कारवान बनाया गया है, ख़ासतौर पर—वो मुस्कुरा रही हैं—लड़कियों को, मैं उनसे कह रहा हूँ, ऊँचा बोलना सीखो। कुछ गालियाँ देना भी सीखो।

"नहीं, आचार्य जी, आप तो गालियों के ख़िलाफ़ थे।" वो निर्भर करता है न, वेदान्त क्या बोलता है — फॉर हुम? जो बहुत ज़्यादा बोलते हैं उनसे बोलता हूँ, 'चुप! गाली ही दिये जा रहा है, चुप कर।' और जो संस्कारों की बेड़ियों के चलते मुँह ही नहीं खोल पाते, आवाज़ ही ऊँची नहीं कर पाते उनसे मैं कहूँगा, 'आवाज़ भी ऊँची करो और गाली देना भी सीखो।' आ रही है बात समझ में?

प्रेम में मौन हो जाना एक बात होती है और डर की चुप्पी बिलकुल दूसरी बात।

मुझे बड़ा मज़ा आता है देखने में, लोग कितने तमीज़दार हो जाते हैं एयरपोर्ट पर, फ्लाइट के अंदर, बड़ी कंपनियों में, बड़े अफसरों के सामने, नेताओं के सामने, बड़े रेस्टोरेंट में कितने तमीज़दार हो जाते हैं। जहाँ बदतमीज़ी करनी चाहिए वहाँ तुम तमीज़दार हो जाते हो और जहाँ विनम्रता आनी चाहिए, जहाँ मृदुभाषण आना चाहिए वहाँ तुम तेवर दिखाते हो।

कोई सब्ज़ीवाली बैठी होगी बूढ़ी, उससे लगे हुए हैं बहस करने में कि पाँच रुपया बच जाए और उसको उल्टा-पुल्टा भी बोल रहे हैं। ऑटो पर बैठ करके रेस्टोरेंट पहुँचे हैं, ऑटो वाले से बदतमीजी कर रहे हैं। हाँ, रेस्टोरेंट में घुसते ही वहाँ पर गेट पर ही खड़े हुए हैं दो भारी-भरकम गॉर्ड, बाउंसर , वहाँ बिलकुल एकदम सीधे हो गए।

कमज़ोर के साथ नरम रहो और अत्याचारी के साथ एकदम गरम। समाज उल्टे सिद्धांत पर चलता है। समाज और अध्यात्म की इसीलिए बनती नहीं आपस में। समाज कहता है, 'ऊँचे लोगों से रिश्ता बनाकर रखो ना, *नेटवर्किंग*।' अध्यात्म कहता है, 'ऊँचा तो सिर्फ़ एक है, हमारी नेटवर्किंग तो उसी के साथ होगी। और बाक़ी जितने भी दुनिया में अपने को ऊँचा कहते हैं मेरी जूती पर।' बोलना सीखो। एक है जो पूज्य है, एक है जिसको दिल दे दिया है, सिर्फ़ एक है जिसको सम्मान। बाक़ी सब? बोला ही नहीं जा रहा, संस्कारी लोग हैं। (श्रोताओं पर व्यंग्य करते हैं) "पर आचार्य जी हम श्लोक सुनने आये थे, ये आप किस किस्म की बाते कर रहे हैं जूती पर, वग़ैरह। संस्कृत कब शुरू होगी?"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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