झूठी भक्ति को कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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झूठी भक्ति को कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: मेरा बी.एड. पूरा हो गया है। उससे पहले मेरा भक्ति-भाव में थोड़ा ज़्यादा मन था और जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, अब ऐसा हो गया है कि माँ के कहने पर मंदिर चला जाता हूँ। वहाँ पर देखता हूँ कि लोग पानी डाल रहे हैं मूर्ति पर तो मेरे मन में उसके प्रति विद्रोह उठता है।

फिर बाद में ऐसा लगता है कि भगवान बुरा मान जाएँ भक्त पर और द्वंद-सा रहता है। पहले माँ के कहने पर व्रत कर लिया या भजन कर लिया, अब बिलकुल भी रुचि नहीं रहती उसमें। ऐसा तो नहीं चलेगा।

आचार्य: समस्या क्या है?

प्र: समस्या यही है कि मन इनको माने कैसे?

आचार्य: भक्ति का अर्थ कुछ मानना नहीं होता। तुम कुछ मानो, तुम कुछ ना मानो, इससे भक्ति का क्या लेना देना? भक्ति कोई धारणा थोड़े ही है, कोई विश्वास थोड़े ही है। भक्ति का अर्थ होता है — सर्वप्रथम अपने यथार्थ को जानना और उस यथार्थ को पीछे छोड़ देने, उससे मुक्त होने की तड़प से गुज़रना।

इसको मान लिया, उसमें विश्वास रख लिया, इसका भक्ति से क्या लेना देना? और बिलकुल ठीक कह रहे हो, लोग भक्ति के नाम पर कहीं दूध बहा रहे हैं, कहीं पानी बहा रहे हैं। वो सब तो यूँ ही हैं, उनका अपना मनगढ़ंत सिद्धांत, उनका अपना निजी व्यापार; अपने-अपने तौर-तरीक़े, अपनी-अपनी मान्यताएँ, अपनी-अपनी धारणाएँ, अपने आग्रह, अपने विश्वास; वो भक्ति थोड़े ही हो गई भाई।

न ही ये भक्ति है कि व्रत रख लिया, कोई अनुष्ठान कर लिया, कहीं तिलक-अभिषेक कर आए, कहीं पहाड़ चढ़ आए। भक्ति की शुरुआत स्वयं से होती है। अपना पता होता है कि मैं कितना गिरा हुआ हूँ और कितना फँसा हुआ हूँ। और भक्ति आती है अपनी असहायता को देखकर के, अपनी विवशता को स्वीकार करके कि फँसा हुआ भी हूँ और स्वयं में ये ताक़त, ये क़ाबिलियत भी नहीं है कि अपने बूते अपने बंधनों से बाहर आ पाऊँ। लेकिन बाहर आने की आकांक्षा बहुत है। मुक्त हो जाने की इच्छा बहुत है।

फिर भक्त उसी इच्छा से प्रार्थना करता है कि तू ही मुक्ति दिला। मुक्ति से ही कहता है भक्त कि तू ही मुक्ति दिला, क्योंकि तू ही तड़पा रही है। तेरी चाहत न होती तो मुझे बंधन क्यों अखरते। तो भक्त कहता है कि ये बिलकुल सही बात है कि हमने अपनेआप को गड्ढे में, कीचड़ में डाल लिया। लेकिन ये भी सही बात है कि अगर गंदगी से और बंधनों से मुक्ति की चाहत न हो, तो गड्ढे और कीचड़ बुरे क्यों लगेंगे?

कीचड़ को तो कभी अपना कीचड़ होना बुरा नहीं लगता न? वो तो शत-प्रतिशत कीचड़ है। कीचड़ ने कभी कहा कि मैं कीचड़ क्यों हूँ? पर मनुष्य कीचड़ में लोट जाए तो उसको बुरा लगता है। क्योंकि मनुष्य का स्वभाव, उसकी नियति, उसकी आत्मा कुछ और है। तो भक्त फिर उसी स्वभाव से, उसी आत्मा से ही प्रार्थना करता है; कहता है कि देखो, हम जिस आग में जल रहे हैं, उसके उत्तरदायी भी तुम हो, और उसका शमन भी तुम ही कर सकते हो; तो बचाओ। ये है भक्ति।

साधारणतया हमारे घरों में जिस तरह की भक्ति का अभ्यास किया जाता है, वो मज़ाक है। और ये भी मत समझना कि भक्ति का आवश्यक रूप से कोई संबंध मूर्ति पूजा से ही है, निर्गुणी भक्ति भी होती है। और बहुत सशक्त होती है निर्गुणी भक्ति, जिसमें सामने कोई मूर्ति नहीं होती। मूर्ति कोई नहीं है पर निर्गुण की उपासना है, निराकार के प्रति भक्ति है।

भक्ति के मूल में वेदना है। वेदना माने दो बातें — ज्ञान और तड़प। आम गृहस्थ को न ज्ञान होता है न तड़प होती है, तो भक्ति कहाँ से आ गई भाई? ज्ञान माने अपने यथार्थ का ज्ञान — 'मैं कौन हूँ? मेरी हालत क्या है?’ और तड़प माने — मुझे जो अपनी हालत पता चली है, वो स्वीकार है नहीं मुझे। मुझे उससे मिल जाना है, जो प्रतिनिधित्व कर रहा है मेरे ही निर्मल स्वरूप का; उसका नाम दिया जाता है 'भगवान'।

भगवान कौन? भक्त के हृदय में बसी निर्मलता को ही भगवान कहते हैं। इसलिए तो कहते हैं, 'भगवान भक्त के हृदय में रहते हैं।' हमारे घरों में जो चल रहा है, वो तो यूँ ही है, कुछ प्रथा, कुछ परंपरा, कुछ बॅंधी-बॅंधाई, रटी-रटाई अंधी प्रक्रियाएँ। 'आओ पिंकू-पिंकी, सुबह-सुबह भगवान जी को नमस्ते कर लो।' पिंकू-पिंकी ने नमस्ते कर लिया, हो गई भक्ति; जय भगवान जी! न ज्ञान है, न वेदना है, कौन-सी भक्ति?

आँसुओं से शुरू होती है भक्ति। वो आँसू नहीं जो कामनाओं के पूरे न होने पर बहते हैं, वो आँसू जो अपनी कामनाओं पर बहते हैं। वो आँसू तो सबने ही बहाए हैं, सभी बहा लेते हैं, जो इच्छाओं की पूर्ति न होने पर बहते हैं।

एक दूसरी तरह के आँसू भी होते हैं, जो अपने हाल पर बहते हैं। जो ये देखकर बहते हैं कि ‘हाय! ये मेरी कामनाएँ किस तरह की हैं; हाय! मैं आज तक क्या माँगता रहा; हाय! मैं आज भी क्या माँग रहा हूँ; मैं हूँ कैसा कि मेरे मन में इच्छाएँ ही इसी तरह की उठती हैं?'

जब कामना के प्रति आँसू बहते हैं, तब भक्ति का जन्म होता है। जब तक कामनाओं की पूर्ति के आँसू बहते हैं, तब तक तो तुम बस संसार के लिए छटपटा रहे हो, भगवान के लिए तुम्हारी कोई चाहत ही नहीं। आम भक्त भगवान के सामने खड़ा होकर ये थोड़े ही कहता है कि ईश्वर मुझे मेरी सारी इच्छाओं से खाली कर दे, वो तो कहता है, 'हे ईश्वर! मेरी इच्छाओं को पूरा कर दे।'

जो ईश्वर के सामने खड़ा होकर कह रहा है, 'मेरी इच्छाएँ पूरी कर दे!' उसे ईश्वर नहीं, इच्छाएँ चाहिए। जो ईश्वर के सामने भी खड़ा होकर के कहे कि मेरी इच्छाओं को पूरा करें भगवन, वो ईश्वर को माँग रहा है या इच्छाओं को? जो इच्छाओं को माँग रहा है उसका ईश्वर से क्या लेना-देना? ईश्वर तो उसके लिए साधन है इच्छा पूर्ति का।

भक्त वो जो भगवान के सामने कहे, 'कुछ नहीं चाहिए, तुम्हारे अलावा कुछ नहीं चाहिए; और मुझे जो कुछ भी चाहिए हो, उससे मुझे आज़ाद कर दो श्रीमन्। दुनिया की, इधर-उधर की जो भी मुझे कामना उठे, उससे मुझे मुक्ति दिलाओ भगवन्। मुझे कुछ नहीं चाहिए तुम्हारे सिवा। तुम्हारी ही कामना है, तुम्हें ही पाना है।'

ये थोड़े ही कि 'मैं संतोषी माता की बड़ी भक्त हूँ; सोलह शुक्रवार विधि अनुसार मैया का व्रत जो करे, उसे मनचाहा वर दे, माँ संतोषी।' जो अभी मनचाहा वर माँग रहा हो, उसकी तो भक्ति अभी शुरू ही नहीं हुई। भक्ति उसकी है, जिसकी मन की सारी चाहतें अब एक ही दिशा में मुड़ गई हैं। उसे वरण भी करना है तो मात्र भगवत्ता का।

हमारे घरों, हमारे मंदिरों में आमतौर पर जो भक्ति के नाम पर होता है वो तो भक्ति के नाम पर मज़ाक है। भक्त वही हो सकता है जिसके मन में अपनी और संसार की स्थिति के प्रति घोर विद्रोह हो। जो संसार से मज़े में समायोजित है, जिसकी दुनिया में बढ़िया काम-धंधे चल रहे हैं और जिसे दुनिया में ही अभी और तरक्की करनी है, वो भक्ति क्या करेगा।

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होय। भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।।

~ कबीर साहब

और यहाँ तो जितने कामी, क्रोधी और लालची होते हैं, वही मन्नते माँग रहे होते हैं। जितना लालच उतनी प्रार्थना; ये भी मिल जाए, वो भी मिल जाए।

भक्त का मन प्रेमी का मन होता है। कौन-सा प्रेमी? वो नहीं जो इधर फँस गया और उधर फँस गया और चार-पाँच जगह जिसने प्रेम के तार फैला रखे हैं। वो प्रेमी जिसे सच्चाई के अलावा और कुछ नहीं चाहिए, जिसे परम ऊँचाई के अलावा अब कुछ और संतुष्ट नहीं करता, ऐसा प्रेम। और जहाँ ऐसा प्रेम होता है, वहाँ संसार के प्रति विरक्ति स्वाभाविक है।

तो भक्ति में एक तरफ़ तुम्हें वैराग्य दिखाई देगा और दूसरी तरफ़ प्रेम का माधुर्य; दोनों बातें हैं भक्ति में। वैराग्य की कठोरता भी है और स्नेह की कोमलता भी है। राग भी है वैराग भी है। भक्त को भगवान से जितना राग होता है, उतना क्या किसी माँ को बच्चे से होगा, कि पत्नी को पति से होगा? भक्त के राग की बात ही दूसरी है।

और भक्त जगत के आकर्षणों के प्रति जितना उदासीन हो जाता है, वो उदासीनता भी बिरली होती है। जगत आ-आ के उसको लुभाता रहता है, वो कहता है चाहिए ही नहीं। कि जैसे तुम बच्चे हो छोटे-से और पिता से बिछुड़ गए हो किसी भीड़-भक्कड़ वाले बाज़ार में। और तुम खोज रहे हो पिता को। और बाज़ार में कभी कोई तुम्हें आ के ललचाता है, कि लो गोलगप्पा खा लो बाबा—देखा कि लड़का है आठ-दस साल का, इधर-उधर घूम रहा है, इसको गोलगप्पा दिखा के ललचाते हैं—तुम कहते हो चाहिए ही नहीं।

फिर कोई और आता है, कहता है, 'मिठाई ले लो बेटा, मिठाई खाओ।' तुम कहते हो, चाहिए ही नहीं। तुम देखते भी नहीं मिठाई की ओर, तुम्हारी आँखें किसी और की प्रतीक्षा में हैं।

कोई तुमको बुलाता है, 'इधर आ जाओ, इधर आ जाओ, यहाँ बहुत बढ़िया खेल-खिलौने हैं, आओ तो हमारी दुकान में।' तुम उसकी दुकान की ओर देखते ही नहीं। तुम तो रो रहे हो क्योंकि कोई और है बहुत निकट, बहुत प्यारा जो बिछुड़ा हुआ है। खेल-खिलौनों का ध्यान कौन करे? दुनिया तुम्हें बुलाती है चारों ओर से, तुम कहते हो, चाहिए ही नहीं। इस हालत को कहते हैं 'भक्ति'।

भक्ति सूत्रों को पढ़ोगे, तो वो कहते हैं, भक्त की हालत उन्मुक्तता और स्तब्धता की होती है। अवाक सा रहता है। उन्मत्त रहता है क्योंकि कुछ बहुत ऊँचा पा लेने की आस है। जिसको पाना है, उसका थोड़ा-थोड़ा स्वाद मिल रहा है, वो स्वाद उसे उन्मत्त करे दे रहा है। और स्तब्ध रहता है ये देखकर भी कि 'जो निकट है, उसे कितना दूर कर लिया। जहाँ होना ही नहीं चाहिए वहाँ मैं आ कैसे गया?'

भक्त होना कोई हल्की बात है क्या? कि चलो मंदिर में घंटा बजा दिया भक्ति हो गई! दूध चढ़ा आए, जगराता करा दिया — ये सब भक्ति के नाम पर अधिकांशत: मनोरंजन हैं।

अहंकार को अच्छा लगता है, भक्ति करी भी नहीं और भक्त का खिताब भी अर्जित कर लिया। श्रेय लूट आए। 'पाठक साहब बड़े भक्त हैं!' भीतर-भीतर कामनाओं के अंधड़ उठ रहे हैं, और बाहर-बाहर भक्त शिरोमणि का ताज पहनकर घूम रहे हैं। बढ़िया!

सच्ची भक्ति अहंकार को मिटाती है और जो सामान्य प्रचलित भक्ति है, ये अहंकार को बहुत सुहाती है, बहुत बढ़ाती है।

भक्ति शुरू होती है शांति के लिए तुम्हारी तड़प से, और भक्ति ख़त्म होती है शांति के साथ अनन्य रूप से एकाकार हो जाने से। तड़प की वेदना से भक्त का जन्म होता है और भगवान से संयुक्त होकर के भक्त की मुक्ति होती है।

कहिए!

प्र: आचार्य जी, भक्ति की अवस्था एकदम जागृत हो जाती है, या वो स्थितियों पर निर्भर होती है?

आचार्य: जैसे-जैसे अपने हाल का पता चलता जाता है वैसे-वैसे अपने हाल से वितृष्णा और मुक्ति की आकांक्षा प्रबल होती जाती है। यकायक भक्ति जागृत होना ज़रा मुश्किल है। पहले अपनी ख़बर लगनी चाहिए, पहले अपने हाल का पता होना चाहिए।

कोई क्यों कहेगा भगवान से, 'हे भगवान! छुटकारा दिलाओ' जब उसे कोई वेदना ही नहीं। अगर तुमको दुनिया में ही रस मिल जा रहा है, सुख मिल जा रहे हैं, ठौर-ठिकाने मिल जा रहे हैं, तो तुम क्यों जा कर भगवान के समक्ष खड़े होओगे कि तुम्हारे अलावा हमारा कोई आसरा नहीं। तुम्हारे तो पचास आसरे हैं।

भक्ति उसके लिए नहीं है जिसके पचास आसरे हैं और जिसको उन सब आसरों में अभी सार दिखाई देता है। जिसको दिख जाए अपने सारे आश्रयों की निस्सारता, सिर्फ़ वो पात्र होता है भगवान के सम्मुख कहने का कि तुम्हारे अलावा हमारा कोई नहीं।

तुम तो अभी ऐसे नहीं कि जो कह सके कि तुम्हारे अलावा हमारा कोई नहीं, तुम्हारे तो बीस हैं। जब तक उन बीसों की व्यर्थता नहीं दिखी तब तक कौन-सी भक्ति? भक्ति में दो-चार दर्ज़न भगवान थोड़े ही होते हैं। एक भगवान होता है और भक्त उसके प्रति एकनिष्ठ होता है।

जिसके लिए अभी बहुत द्वार और बहुत मार्ग खुले हैं, उसके लिए कोई भक्ति नहीं। जिसके चित्त में अभी जगत की ही छवियाँ बसी हुई हैं, जो जगत के ही लोगों के प्रति, जगत की ही वस्तुओं और जगत के ही व्यक्तियों के सपने लेता रहता है, उसके लिए कौन-सी भक्ति? भक्ति उसके लिए है जिसके लिए जगत एक कड़वा सच है। भक्ति उसके लिए है जिसके लिए जगत एक डरावना सपना है।

और मज़ेदार बात ये है — भक्ति जैसे-जैसे पकती है, जैसे-जैसे शीर्ष की ओर बढ़ती है, जगत बदलता जाता है। भक्त जब तक भगवान से दूर है, जगत वाकई बड़ा कड़वा और बड़ा डरावना है। और भक्त जैसे-जैसे भगवान के निकट आता जाता है, जगत बदलता जाता है। जब भक्त भगवान से संयुक्त ही हो जाता है, तो जगत भी भगवत्तापूर्ण हो जाता है।

प्र: तो आचार्य जी संसार में भी ऐसा कोई संबंध होता है जिसके संग से हम भक्ति की ओर अग्रसर हो सकें?

आचार्य: जो तुमको जगत की निस्सरता दिखा दे, जो तुमको सच की ओर प्रेरित कर दे, वो संबंध अच्छा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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