जानने और करने में दूरी क्यों?

Acharya Prashant

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जानने और करने में दूरी क्यों?
जानना तुम्हारा स्वभाव है, करना तुम्हारी प्रकृति है। जब तुम कहते हो, ‘मैं काम कर रहा हूँ’, तो तुम ये मान के चलते हो कि जो कुछ हो रहा है, उसमें तुम्हारी भी कोई सत्ता है। तुम करने वाले हो ही नहीं। जो होना है, सो तो हो ही रहा है, “अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय”। जानो! तुम मात्र जानने वाले हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: जानने के लिए करने का क्या योगदान होता है, क्या कुछ करें?

आचार्य प्रशांत: जानना और होना या करना, ये दोनों आयाम ही अलग-अलग हैं। जो जान रहा होता है, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं होती कि वो करेगा, वो कर सकता नहीं है। जो करने वाला है और जो जानने वाला है, ये दोनों अलग-अलग होते हैं।

जो करने वाला है, उसको प्रकृति कहा जाता है। जो जानने वाला है, वो साक्षी है। जब ये दोनों आपस में घालमेल करने लगते हैं, उसी का नाम अहंकार हो जाता है। अहंकार का मतलब ही यही है कि करने वाला मैं हूँ।

तुम करने वाले हो ही नहीं। तुम मात्र जानने वाले हो। ये दोनों बिलकुल ऑर्थोगोनल है, अलग-अलग आयाम हैं, जैसे परपेंडिकुलर, एक्सेस। इनमें आपस में कोई संबंध नहीं है।

जानना तुम्हारा स्वभाव है, करना तुम्हारी प्रकृति है।

अंतर समझना, जानना तुम्हारा स्वभाव है और करना तुम्हारी प्रकृति है। स्वभाव के ज़्यादा करीब हो तुम, प्रकृति के नहीं। जानो!

प्रश्नकर्ता: चलेंगे तो साथ-साथ?

आचार्य प्रशांत: नहीं साथ-साथ चलते नहीं हैं। क्योंकि जिसको तुम करना कहते हो, वहाँ पर प्रकृति भी पूरी नहीं है। वहाँ पर प्रकृति का भी एक छोटा सा तत्व होता है, अहम् वृत्ति, वो काम करती है। जब तुम कहते हो, ‘मैं काम कर रहा हूँ’, तो तुम ये मान के चलते हो कि जो कुछ हो रहा है, उसमें तुम्हारी भी कोई सत्ता है।

सही बात तो ये है कि जो भी कुछ हो रहा होता है वो एक बहुत बड़े तंत्र का हिस्सा है। उस तंत्र में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं है। जो होना है, सो तो हो ही रहा है, “अनहोनी होनी नहीं होनी होय सो होय।”

तुम उसमें बीच में अपनेआप को घुसेड़े भर हुए हो कि मैं कर रहा हूँ। जो होना है वो हो रहा है। वो पूरा प्रकृति का एक विशाल तंत्र है। और दूसरी और उससे अलग बैठा हुआ है साक्षी पुरुष, जो उसको सिर्फ़ देखता है।

तो उसमें तुम अगर ये पूछो कि मेरे करने की क्या कीमत है। कीमत तो तब होगी जब तुम्हारे करने का कोई वज़ूद होगा। उसका कोई वज़ूद ही नहीं है, वो सिर्फ़ भ्रम है।

इसीलिए समझदार आदमी वो है जो अपने करे को भी ठीक वैसे ही देख सके जैसे उस पंखे को देखता है। (ऊपर लगे पंखे की ओर इशारा करते हुए) उस पंखे को देख रहे हो? वो पंखा चल रहा है, चल रहा है, तुम यहीं बैठकर यही बोलोगे न, ‘वो मैं देख रहा हूँ, पंखा चल रहा है।’ वो पंखा रुक जाए तो बोलोगे कि पंखा रुक गया। कोई उस पंखे को काट दे तो बोलोगे पंखा कट गया। तुम ये तो नहीं बोलोगे कि पंखा कट गया है तो मुझे पीड़ा हो रही है।

ठीक उसी तरीके से जब तुम अपने पाँव को देख सको।

‘पाँव चल रहे हैं, चल रहे हैं?’ ‘हाँ चल रहे हैं!’ ‘पाँव रुक गए?’ ‘रुक गए, रुक गए!’ ‘पाँव में चोट लग गयी?’ ‘हाँ, लग गयी !’

‘मुझे नहीं चोट लग गयी, पाँव को चोट लग गयी।’

जैसे पंखे को बोलोगे न कि पंखे में कुछ टूट गया। ये तो नहीं बोलोगे ‘मुझमें कुछ टूट गया।’ ठीक इसी तरह से जब इस तथाकथित ‘अपनेआप’ को भी बोल सको, ‘पाँव में चोट लग गयी। ठीक! पाँव में चोट लग गयी।’

प्रश्नकर्ता: पर वो जो घटित होता है उसका दर्द होता है।

आचार्य प्रशांत: ‘अपार को दर्द हो रहा है, मुझको नहीं।’ बड़ी मुश्किल बात है क्योंकि पुरुष और प्रकृति बिलकुल जुड़ गए हैं। इसी को मैं कह रहा था कि यही जो खिचड़ी, यही घपला, यही अहम् वृत्ति कहलाती है।

प्रश्नकर्ता: ये दावा कौन करेगा कि मुझे दर्द हो रहा है?

आचार्य प्रशांत: कोई भी नहीं है। वो ये कहेगा भी नहीं कि मुझे नहीं हो रहा है। वो बस अछूता रहेगा। वो मैं समझाने के लिए बोल रहा हूँ कि कह देगा कि मुझे कुछ नहीं हो रहा है। वो कुछ कहेगा-वहेगा नहीं। उसका काम बस है अस्पर्शित रहना, अछूता रहना, अंटच्टड रहना।

अपार को दर्द हो रहा है- ठीक है! अपार रो भी रहा है, चिल्ला रहा है, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा।

प्रश्नकर्ता: पर अपार कर तो रहा है।

आचार्य प्रशांत: अपार बहुत गम्भीर नहीं हो पाएगा जो कुछ भी कर रहा होगा उस बारे में।

प्रश्नकर्ता: पर उसे फ़र्क तो पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: किसको? अपार को?

प्रश्नकर्ता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: उसका स्वभाव ही यही है कि उसे किसी भी बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका (दूसरे प्रश्नकर्ता की ओर इंगित करते हुए) सवाल दूसरा है। वो पूछ रहा है कि उसके होने का अपार पर क्या प्रभाव होता है।

जब वो (साक्षी) अलग होता है, तो अपार भी बहुत गम्भीर नहीं हो सकता। जब वो मौजूद तो है तो उसकी मौजूदगी भर से और उसके मौजूद होने का मतलब ही यही है कि वह अलग बैठा देख रहा है। उसकी मौजूदगी भर से अपार शान्त हो जाता है।

प्रश्नकर्ता: मास्क पहनना एक टाइटल देता है।

आचार्य प्रशांत: नहीं समझा! अगर?

प्रश्नकर्ता: मास्क जब बदलते हैं तो पता नहीं चलता है।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि तुम नहीं बदलते हो मास्क, अच्छा सवाल है। सवाल ये है कि जब चेहरे बदलते हैं तो उन चेहरों के बदलने का मुझे क्यों नहीं पता चलता? उदाहरण भी अच्छा उठाया है। कह रहे हैं कि अभी यहाँ पर कोई आ जाए, तो कुछ मेरे भाव बदल जाएँगे, काफी बदल जाएँगे। कह रहें हैं, ‘मुझे क्यों नहीं पता चलता?’

क्योंकि तुम बदल ही नहीं रहे हो न! कोई तुम्हारी अनुमति से बदल रहे हैं? कोई तुम तयकर के बदल रहे हो? तुम्हारा उसमें ज़रा भी हाथ होता तो तुम्हें पता चलता। मास्क ही निर्धारित कर रहा है कि अगला मास्क कौन सा होगा। अभी तुम कौन सा मास्क पहनकर बैठे हो? स्टूडेंट का!

तो स्टूडेंट के कर्तव्य क्या होते हैं? जल्दी बोलो! कि जैसे ही कोई सीनियर महानुभाव पधारें, तो वो खड़ा हो जाए और बोले .....

तो इसी मास्क ने तय कर दिया है कि अगला मास्क कौन सा होगा। एक लम्बी श्रृंखला है नकाबों की, उसमें तुम कहीं नहीं हो। ये मत सोचना कि मैं उन नकाबों को तय कर रहा हूँ, उनमें मेरा कोई निर्णय शामिल है। कुछ भी नहीं! ये तो ऊपर-ऊपर एक खेल चल रहा है उसमें।

प्रश्नकर्ता: सर, ऐसे ही मौज में हैं।

आचार्य प्रशांत: मौज में हो तो चलने दो। कहीं कोई नियम नहीं है। मौज में न हो, तो सोचो कि फिर और क्या किया जा सकता है।

मैं किसी को नहीं कहता हूँ कि ज़बरदस्ती कुछ बदलो। बदलने का मात्र एक कारण हो सकता है कि तुम खुद बोलो कि नहीं, बहुत हो गया। वरना इधर-उधर से आए ज्ञान से कोई ज़बरदस्ती थोड़ी की जा सकती है।

जब तुम्हें खुद लगने लग जाए कि यार ये कैसे जी रहा हूँ। ये कोई तरीका है, ये कोई बात है? बदलाव तभी संभव है। और तब तक अगर बदलाव नहीं हो रहा, तो उसमे कोई दुख की बात नहीं है। जिसको तुम इंडिविजुएलिटी कह रहे हो, माया भी उसी की भेजी हुई है, ‘ऐश करो।’

जो अंतस है, जो तुम्हारा केन्द्र है, कोर है, ये सारा छलावा भी उसी का भेजा हुआ है। वो न रहे, तो ये सब भी नहीं हो सकता। तो जब तक तुम्हें असली चीज़ नहीं मिल रही है, तब तक तुम नकली के साथ ऐश करो, कोई दिक्कत नहीं है।

देखो क्या होता है- छोटे-छोटे बच्चे होते हैं। अब आजकल इतने सारे मोबाइल फ़ोन आ गए हैं, उनके विज्ञापन भी आने लग जाते हैं टीवी पर। वो पाँच साल का है, चुन्नू टिंगू का भाई है और बोल क्या रहा है, ‘मुझे सैमसंग नोट थ्री चाहिए, मुझे आईफोन सिक्स चाहिए!’

तो कुछ ऐसी तोप कंपनियाँ बाज़ार में उतरी हैं जो बच्चों के लिए उन्हीं मॉडल्स के सस्ते प्रकार निकाल रही हैं। वो बिलकुल वैसा ही दिखेगा और वो बच्चों के लिए ही बनाया गया है। तो असली चीज़ की बाज़ार में कीमत होगी पाँच हज़ार और वो आ रहा होगा तीन हज़ार का।

चलता है, वो चलेगा, उससे बातचीत हो जाएगी। और खासतौर पर इसीलिए कि माँ-बाप जाकर बच्चों को थमा दें। उसमे ऊपर लिखा यही होगा, नोट की स्पेलिंग बस एन-ओ-टी होगी।

तो उस परम का भी ये ही हिसाब-किताब है। जब तक तुम बड़े नहीं हो जाते न, जब तक तुम परिपक्वता नहीं हासिल कर लेते, तो वो तुमको नकली चीज़ें देता चलता है। वो कहता है, ‘अभी असली चेहरा पाने की तुम्हारी औकात नहीं है, तुम ये नकली ही रखो।’ ‘कोई बात नहीं, बच्चे हो, बस इसीलिए तुम्हें नकली मिल रहा है।’

अगर तुम को नकली के साथ जीवन बिताना पड़ रहा है, तो उसका एक ही अर्थ है कि अभी परिपक्व नहीं हुए हो। जिस दिन ये चुन्नु बड़ा हो जाएगा और इसका नाम चन्द्रशेखर राठौर हो जाएगा, उस दिन ये थोड़ी मानेगा नकली से। उस दिन कहेगा, ‘हटाओ सारे नकली, असली लेकर के आओ। ये बार्बी डॉल क्या दिखाते हो? असली लड़की चाहिए, गर्लफ्रेंड। इतने से थे, तब हाथ में लाकर गुड़िया दे दी, तो चल जाता था काम। अब थोड़ी चलेगा काम। अब हम बड़े हो गए हैं।’

‘तुम अभी बड़े हुए नहीं हो।’

जब तक बड़े नहीं हुए हो, तब तक तो कुछ भी नकली चलेगा। जिस दिन बड़े हो जाओगे, उस दिन कहोगे, ‘नकली नहीं!’

बच्चा होने का प्रमाण क्या है? बच्चा होने का प्रमाण ही यही है कि अभी खिलौनों में मज़ा आता है। और खिलौना माने क्या? खिलौने में क्या तुम्हें दिया जाता है? एक हवाईजहाज़! वो असली हवाई जहाज़ है? असली है?

बच्चा माने क्या? जो नकली से संतुष्ट है। हर खिलौना क्या है? एक नकली चीज़। नकली से सन्तुष्ट हो अभी, तो ठीक, बच्चे हो।

मर्द बनो मर्द! वक्त आ गया है। बच्चे मत बने रहो। और मर्द बनने का अर्थ ये नहीं होता कि दो चार चुन्नू पैदा कर दिए। उसको नहीं कह रहा हूँ मर्दानगी। वो काम तो जानवर भी कर लेते हैं।

मर्द बनने का अर्थ होता है (सिर को छूते हुए) यहाँ से विकसित हो पाना। यहाँ शरीर का बाकी सब कुछ तो विकसित हुआ जा रहा है, यही (मस्तिष्क) अर्धविकसित है। मर्द बनो, हिम्मत लाओ! मर्द बनने का अर्थ है निर्भीक हो पाना। डरे-डरे नहीं घूमना, सहमे-सहमे! कि दिल्ली जाना है तो, ‘मम्मी जाऊँ?’

मैं ये सारी बातें तुमसे बोलता हूँ ताकि तुम्हारा डर जा सके। पर कई बार तुम्हारी शक्लों को देखकर लगता है कि मेरी बात सुनकर और डर जाते हो।

प्रश्नकर्ता: मैं थोड़ा कंफ्यूज़ हूँ।

आचार्य प्रशांत: कंफ्यूज़न क्या है? कहाँ पर कंफ्यूज़ हो?

प्रश्नकर्ता: आज के समय में यदि ये न भी किया जाए तो क्या फ़र्क पड़ना है?

आचार्य प्रशांत: ये कौन कह रहा है? इससे फ़र्क किसको पड़ रहा है?

प्रश्नकर्ता: जैसे मैं ही कह रहा हूँ

आचार्य प्रशांत: इससे फ़र्क किसको पड़ रहा है?

प्रश्नकर्ता: मुझे पड़ रहा है।

आचार्य प्रशांत: मुझे पड़ रहा है न? इसी का नाम मैच्योरिटी है।

जिसके पास अपनी आँख न हो खुद को देख पाने की। जिसको किसी ने बोल दिया, ‘बदतमीज़’ और वो बिलकुल सहम उठा, उसी का नाम है कि अभी वो अर्धविकसित ही है। वो बच्चा है!

बच्चे के साथ क्या होता है? बच्चे का दुर्भाग्य यही तो होता है न कि उसे जो जो बता दे, उस बेचारे को मान लेना पड़ता है। तुम बच्चे हो, तुम्हें किसी ने बता दिया, ‘ये किताब अच्छी है, ये किताब बुरी है’, तुम्हें मान लेना पड़ता है। तुम बच्चे हो, तुम्हें बता दिया गया, ‘ये पापा हैं और ये गन्दे वाले अंकल हैं’, तुम्हें मान लेना पड़ता है। होता है कि नहीं?

बच्चे का अर्थ ही ये ही है कि जिसके पास अपनी चेतना नहीं है और जो निर्भर है दूसरों पर। अब तुम क्या हो? अगर किसी ने तुम्हें बच्चा बोल दिया या बदतमीज़ बोल दिया और तुम बिलकुल काँप गए, तो तुम क्या हो फिर? क्या हो? बोलने दो न बदतमीज़। नाचो और ज़ोर से, ‘हाँ! मैं बदतमीज़ हूँ’, क्या दिक्कत हो गयी?

प्रश्नकर्ता: मैं ये कैसे मान लूँ कि आप जो बात कर रहे हो वो सही है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, मानो बिलकुल नहीं। मैं तुमसे बस ये कह रहा हूँ कि तुम्हारी मानने की उम्र बीत गयी। तुम अभी भी वही करना चाह रहे हो जो तुम आज से दस साल पहले करते थे। तुम कह रहे हो कि मैंने पहले एक बात मान ली थी, अब आपकी नयी बात कैसे मान लूँ? मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘तुम्हारी उम्र ही बीत गयी मानने की। कुछ भी मत मानो।’

और मैं तुम से इतनी देर से क्या कह रहा हूँ, ‘कि मानते ही तो आये हो न आज तक? अब मानो नहीं। अब क्या करो? अब ज़रा समझो। आँखें खोलो और समझो। मानते तो आये ही हो।’ तुम बेटा, मॉम-डैड को भी, तुम एक बार को ये क्यों नहीं समझ रहे हो कि तुम्हारे सहारे की ज़रूरत हो सकती है? तुम लोग माँ-बाप के साथ भी बहुत अन्याय करते हो। मैंने कहा तुमसे थोड़ी देर पहले कि जिसके पास जो होता है, वो बँटता है, कहा न? अगर तुम्हारे पास समझ आयी है, तो वो समझ बँटनी चाहिए कि नहीं? और अगर तुम्हें कोई चीज़ दिखाई दे रही है और वो तुम माँ-बाप को न दिखाओ, तो उनके साथ अन्याय कर रहे हो कि नहीं कर रहे हो?

मुझे एक बात पता चली है, उसको मैं अपने माँ बाप के साथ बाँटू ही नहीं, उन्हें बताऊँ ही नहीं, क्या बोलकर? ‘कि अरे, ये तो माँ-बाप हैं। माँ बाप को कुछ बताया थोड़ी जाता है, वो बदतमीज़ी कहलाएगी।’

तो मैंने गलत करा कि नहीं करा?

पर तुम लोग इज़्ज़त के नाम पर गड़बड़ कर जाते हो। मैं आया था, दो-तीन बार मैंने ये बात बोली है, तुमसे भी बोले देता हूँ कि कहते हैं कि जब बाप का जूता बेटे को आने लगे, तो बाप और बेटा अब बाप-बेटा नहीं, दोस्त हैं।

और कैसा रहेगा कि बाप अब सत्तर साल या नब्बे साल का हो जाए और बेटा तब भी बेटा ही बना रहे? कि जब मैं पाँच साल का था पिताजी, तो आप मुझे गोद में उठाकर चलते थे। अब बाप साठ साल का है, अस्सी साल का है और ये बेटा जाकर खुद उसकी गोद पर चढ़ गया है।

कह रहा है, ‘अरे! आप बाप हैं, मेरी क्या मज़ाल कि मैं और कुछ करूँ? मुझे अच्छे से पता है, आप भगवान हैं। भगवान थोड़ी बुड्ढे होते हैं। आप अभी भी मुझे उठाकर मार्केट तक ले चलो।’

पचास साल का बूढ़ा बाप इनको उठाकर गोद में मार्केट घुमा रहा है, ये प्यार है इनका। ‘मुझे अपने माँ-बाप से बहुत प्यार है।’

अगर वास्तव में प्यार होगा, तो तुम क्या करोगे? तुम कहोगे कि जब मुझे सहारा चाहिए था, तो आपने दिया। दिया कि नहीं दिया? अब आज मुझे कुछ ऐसा मिला है जो आपके काम आ सकता है, तो वो मैं आपको दूँगा। कहोगे कि नहीं कहोगे?

यही प्रेम है कि नहीं है?

पर उसकी जगह तुम कहते हो, ‘नहीं, ये तो बड़े हैं, माँ बाप हैं, मैं इनसे कोई भी ज्ञान की बात कैसे बोल दूँ? मेरी क्या हैसियत!’

देखो, सुनो, अभी इस वक्त मैं देख रहा हूँ सात-आठ लोग, नौ लोग मुँह नीचा करके यूँ (माथे पर हाथ रखकर सिर नीचा करके दिखाते हुए) होकर बैठ गए हो।

तुम्हारी समस्या क्या आ रही है, मैं समझ रहा हूँ। अब एक समस्या तुम्हारे सामने यह आती है कि हम कुछ भी बोलेंगे तो हमारी कोई सुनेगा नहीं, यही समस्या आती है? हमने कह भी दिया तो हमारी सुनने कौन वाला है? हाँ, हमने अगर कुछ कहा तो उससे घर में तनाव ज़रूर पैदा हो जाएगा।

ठीक? यही समस्या आती है न?

उसकी वज़ह है बेटा! तुम पास्ट को ही बेंचमार्क बना रहे हो। तुम जब बच्चे थे, तब तुमने हज़ार गलतियाँ करी। तब करते थे तुम गलतियाँ, तब तुमने जो भी करा, उल्टा-पुल्टा ही करा। उस कारण तुम्हारे आस-पास वालों को ये यकीन बैठ गया है कि तुम जो करते हो, उल्टा-पुल्टा ही करते हो। तुम कोई प्रमाण तो दो इस बात का न कि मैं कुछ सीधा भी कर सकता हूँ। जैसे ही तुम इस बात का प्रमाण दोगे, लोग तुम में यकीन करेंगे, बिलकुल करेंगे।

अभी तो तुम्हारी बिलकुल हवा सूख जाती है ये सोचकर के कि मैं और जाऊँ और अपने टीचर्स से या अपने पेरेंट्स से कोई ज्ञान की बात करूँ, तो मेरी ओर ऐसे देखेंगे, ‘तू! हुश! तू आया है ज्ञान बताने?’

अगर वो ऐसा करेंगे, तो उनके पास ऐसा करने का कारण है। क्या कारण है? कि अभी तक तुम जो भी करते आये हो, वो हमेशा अंड-बंड ही रहा है। पर ज़रूरी थोड़ी है कि आज तक जो होता आया है, वह आगे भी हो, कि ज़रूरी है? नहीं है न।

तुम प्रमाण तो दो अपने नये होने का।

तुम इस बात का प्रमाण तो दो कि अब मैं बड़ा हो रहा हूँ, मैच्योर हूँ, परिपक्व हूँ। फिर देखो कि दुनिया तुम्हारे साथ चलती है की नहीं। अपने आप चलेगी। जिन्हें चलना चाहिए, वो चलेंगे। जिन्हें नहीं चलना चाहिए, उनकी बात छोड़ो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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