प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरे फादर का स्कूल है और उसमें मैंने अभी रिसेंटली लाइफ एजुकेशन नाम की एक क्लास स्टार्ट की है, जिसमें हम बच्चों को डॉक्यूमेंट्रीज और महापुरुषों की मतलब मूवीज जो हैं, वो दिखाते हैं।
तो मैंने ये सोचा है कि जैसे जो गीता है, उपनिषद् जो आपसे, आपकी किताबों से और आपके वीडियो सुनकर मुझे ज्ञान हुआ है, तो हम चाहते है कि बच्चों तक पहुँचे। तो मैं चाहता हूँ कि क्या इसका एक सिस्टेमेटिक प्रोसीजर हो?
कैसे हम उस चीज़ को सिस्टम तरीके से बच्चों तक पहुँचाए जिससे उसका बच्चों को फ़ायदा मिले और इसी के साथ मेरा एक और प्रश्न है आचार्य जी, जैसे अभी हमने लाइफ एजुकेशन क्लास में गीता और ये सारी चीजों को अभी नहीं सेलेक्ट कर पाए इसलिए कि जैसे स्कूल में और धर्म के भी बच्चे आते हैं।
तो पेरेंट्स (अभिभावक) की आपत्ति हो सकती है कि जैसे हमारे बच्चों को जो अदर (दूसरे) धर्म के हैं कि हमारे बच्चों को आप गीता पढ़ाकर उनको डायवर्ट करने का प्रयास कर रहे हो। इस तरीके की अगर मान लीजिए ऑब्जेक्शन आते हैं, तो कैसे हम डील करे? स्कूल किस तरीके से डील करे इसको?
आचार्य प्रशांत: देखिये, ज्ञान तो ज्ञान होता है। अगर आप सीधे यही कह रहे हैं इंपोर्टेंट स्क्रिप्चर्स ऑफ द वर्ल्ड, दुनिया के प्रमुख ग्रंथ। तो उसमें आप क्यों नहीं गीता को ला सकते हैं? पूरी गीता तो आप वैसे भी नहीं पढ़ा सकते, उपनिषद् भी आप कितने पढ़ाओगे, तो उनके जो प्रमुख श्लोक हैं, वो तो ला ही सकते हो और जो प्रमुख श्लोक होते हैं उनका सम्बन्ध दर्शन से होता है, वो फिलोसॉफी है।
अगर आप फिलोसॉफी में कांट को पढ़ा सकते हो और हेगल पढ़ा सकते हो और कीन्स पढ़ा सकते हो तो आप फिलोसॉफी में व्यास क्यों नहीं पढ़ा सकते? अष्टावक्र फिलोसोफर हैं न, दार्शनिक हैं। हाँ, आपकी ओर से पक्षपात नहीं होना चाहिए। क्योंकि आप ये नहीं कर सकते कि मैं एक ही फिलोसॉफी पढ़ा रहा हूँ फिर उसको भी इन्क्लूसिव होना पड़ेगा न।
वहाँ फिर आप अगर एक तरफ़ से दर्शन को लेकर आ रहे हो तो दूसरी तरफ़ से भी लाना पड़ेगा और उसको आप सामान्य ज्ञान की तरह भी क्यों नहीं पढ़ा सकते? मैं नहीं समझ पा रहा इसमें कोई आपत्ति किस आधार पर कर सकता है? आपत्ति का क्या आधार है?
जब कोई व्यक्ति किसी दर्शन की, किसी धर्म की किताब खरीद सकता है, कोई उस पर पाबंदी नहीं है खरीदने पर तो पढ़ भी सकता है न। इसमें इतना डर, हिचक, असुरक्षा की बात क्या है? अब इस तरीके से तो कोई भी ऊँची बात अगर किसी धर्म के साथ जुड़ गयी तो उसका मतलब हो जाएगा कि वो बात अन्य धर्मों के लोग अब पढ़ ही नहीं सकते।
ये तो बड़ी समस्या हो जाएगी और अगर ऐसा हो जाए कि वो जो बहुत ऊँची बात है वो किसी ऐसे धर्म के साथ जुड़ जाए जो संख्या में बहुत छोटा हो, अल्पमत में हो तो फिर तो अधिकांश दुनिया उस बात से वंचित रह जाएगी।
आप बात समझ रहे हो?
आप कहोगे ये बात तो सिर्फ़ उस धर्म के अनुयायियों के लिए है बाक़ी लोग नहीं पढ़ेंगे और मान लो उस धर्म के अनुयायी दुनिया की आबादी का एक प्रतिशत हों बस, तो अब निन्यानवे प्रतिशत लोग तो उस बात से सिर्फ़ इसलिए वंचित रह जाएँगे क्योंकि उस बात को किसी एक धर्म ने स्वीकार लिया है तो ये तो कोई आधारहीन बात हो गयी न बिलकुल।
प्र१: जी। आचार्य जी, हम समझते हैं इस चीज़ को लेकिन कुछ पेरेंट्स ऐसे होते हैं जो जिनका विचारधारा इस प्रकार की नहीं है।
आचार्य: ले जाओ बच्चे को, ऐसा सोचना क्या है, फिर ले जाओ, आप क्यों परेशान हो रहे हो? तुम जानो, तुम्हारा बच्चा जाने आख़िर में तो क्या करना पड़ता है, यही करना पड़ता है। हमारा गीता समागम है एक ओर तो हम पूरा प्रयास करते है कि अधिक-से-अधिक लोग इसमें जुड़ें और जो पुराने हैं वो बने रहें। और दूसरी ओर हम हर महीने ख़ुद ही कुछ लोगो को जाओ भाई तुम, तुम्हारे लिए नहीं है। ज़्यादातर वो होता है जब वो इधर-उधर आकर कुछ उपद्रव करते हैं।
सलाहकारों से उल्टी बात कर रहे हैं या जाकर कम्युनिटी पर कुछ उल्टा-पुल्टा लिख रहे हैं। भाई, तुम को नहीं समझ में आ रहा है तो अपना रास्ता देखो। दो-चार लोगों के कारण बाक़ी सबका रास्ता थोड़े ही रोका जा सकता है।
आपके स्कूल में हज़ार बच्चे हैं, उसमें से पाँच-दस-बीस के अभिभावक आकर उपद्रव कर रहे हैं तो काटिये टीसी। भई, तुम्हें नहीं बैठना है तो जाओ, लेकिन उसके लिए आप में हिम्मत होनी चाहिए और थोड़ा स्वार्थ से मुक्त होना पड़ेगा।
ये फिर आप गिनने बैठ गये कि बीस बच्चे, फीस कितनी तो फिर फँस जाओगे। ये रहीं हमारी नीतियाँ और ये हमने अग्रिम रूप से आपको बता रखी हैं। जब आये हो दाखिला दिलाने तो वहाँ पर टँगा हुआ है कि हाँ ये-ये इस तरीके से पढ़ाया जाता है। पसन्द हो तो लो, नहीं तो जिस दरवाजे से आये हो वो बाहर की ओर भी खुलता है। कोई समस्या नहीं है। कुछ अपनी भी ठसक होनी चाहिए न।
अगर पता है काम सही कर रहे हो तो दो-चार लोगों के कहने पर वो काम छोड़ थोड़े ही दोगे और दो-चार छोड़ दो, सभी बोलेंगे तो भी? आप स्कूल चलाते हो फिर आप क्या करते अगर आप ज्योतिबा फुले जैसी स्थिति में होते और केशव चंद्र सेन जैसी स्थिति में होते और करवे जैसी स्थिति में होते। इन सबका — ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसी स्थिति में होते — इन सबका सम्बन्ध विद्या से था, स्कूलों से था।
स्कूलों के ताले लगवाने को लोग खड़े हो जाते थे। वो बोल रहे हैं हम बच्चियों को पढ़ाएँगे। बोले, ‘ये देखो, ये आग लगा रहा है समाज में। लड़कियों को पढ़ाने जा रहा है, जूते मारो इसको।‘ और जूते मारे। वो अपने स्कूल जा रहे होते थे, रास्ते में उनके मुँह पर कीचड़ फेंक दिया। आप तो यही बता रहे हो कि मैं गीता, उपनिषद् लेकर आता हूँ तो कुछ अभिभावक आपत्ति कर देते हैं।
आपको भारत में शिक्षा का जो इतिहास है, पता है न, कितनी मुश्किलों और अड़चनों से भरा हुआ रहा है। आप तो शिक्षा के क्षेत्र में हो, आपको शिक्षाविद् होना चाहिए, पता होना चाहिए कि आज हम जिन मूल्यों तक पहुँचे हैं। आज हम जो पाठ्यक्रम अपने बच्चों को पढ़ा पा रहे हैं उस तक हम इतनी आसानी से नहीं पहुँच गये हैं।
अभी नेशनल बॉक्सिंग चैंपियनशिप हुई महिलाओं की, तो उसमें बुलाया, मैंने कहा, ‘वो जो रिंग है न, जिसमें अब आप लोग लड़ोगे, वो रिंग बहुत आसानी से नहीं बन गया है। महिलाओं की बॉक्सिंग भारत क्या विदेश में नहीं मान्यता पा रही थी। ओलंपिक्स में भी आयी है दो हज़ार बारह में। इसी तरह से शिक्षा मिले, सबको मिले और शिक्षा में जो सिर्फ़ ऊँची बातें हैं वो पढ़ाई जाए। भारत उस जगह पर आसानी से नहीं पहुँच पाया है।
रोकने वाली ताक़तें बहुत थीं और बड़ी थीं। हम उन ताक़तों को परास्त करके यहाँ पर पहुँचे हैं और उसके लिए जीवट, हौसला लगता है। आप भी दिखाइए, स्कूल चलाना कोई छोटी बात है?
आप भविष्य तैयार कर रहे हो पूरा-का-पूरा, चेतना का भविष्य, जो काम हम अधूरा छोड़ जाएँगे, वो काम वो आगे बढ़ाएँगे तो उसमें फिर सोचना क्या है, कुछ नहीं। बता दीजिए पहले से कोई ये काम चोरी से नहीं होना चाहिए। पहले ही बता दीजिए ऐसा-ऐसा करने जा रहे हैं। जिनको आपत्ति हो वो हट जाएँ पीछे।
जो नए एडमिशन ले, उनको शुरू से पता रहे और अगर आप सत्र के बीच में ऐसी नीति ला रहे हैं तो लिखित में सारे अभिभावकों को सूचित कर दीजिए। जिनको ठीक नहीं लग रहा हो उन बच्चों को एग्जम्प्ट कर दीजिए कि इतने बजे ये लगता है, आप पहले ही आकर बच्चे को ले जाएँ या कि बस आएगी इन बच्चों को पहले छोड़ देगी। ये चले जाएँ लेकिन हम जो करने जा रहे हैं वो तो होगा।
हमे पता है, हमारा अपना कनविक्शन है न, पहले ऐसा थोड़े होता था कि बोर्ड ने मान्यता दे दी तो चल जाएगा, शान्ति निकेतन ऐसे बना था? वहाँ ख़ुद समझा जाता था, जाना जाता था, क्या जरूरी है पढ़ाने के लिए और वो आप पढ़ाना शुरू कर देते थे। हम भी जो कर रहे हैं, वो भी तो एक स्कूल ही है न। लोगों से पूछकर थोड़े ही सेलेबस सेट करेंगे। पोलिंग करायी अब से कभी? बताओ, अगला भजन कौन सा?
सत्य एक प्रकार की ऑटोक्रेसी (निरंकुशता) है, वो बादशाह है, बादशाह को हक़ है अपना काम करने का। अब बादशाह को आप तानाशाह मानो, आपकी मर्जी। आपको उसके हिसाब से चलना पड़ेगा, वो आपके हिसाब से नहीं चलेगा। अच्छा लगे, तो अच्छा। बुरा लगे, तो बुरा।
वहाँ पर फिर जनमत नहीं लिया जाता कि ठीक है कि नहीं है, लाइफ एजुकेशन पढ़ा रहे हो और पोलिंग करा रहे हो और पेरेंट्स को बुलाकर पूछ रहे हो, ‘बताओ, बताओ करायें कि नहीं?’ अभी हम बात कर रहे थे न कि ज़िन्दगी में जो उच्चतम है, वो एकदम निजी होना चाहिए। छोटी बातों पर तो फिर भी दूसरों से राय-सलाह वगैरह ली जा सकती है। जो उच्चतम है वो आत्मिक होना चाहिए। वहाँ नहीं पूछा जाता।
मैं यहाँ आ रहा हूँ, मैं पूछ सकता हूँ किसी से कि हाँ, भाई ये इसके (कपड़ो की और इशारा करते हुए) साथ जम रहा है या नहीं जम रहा है। नहीं भी पूछता तो बता देते हैं क्या पहन के आ गये, उतरवा भी देते हैं कई बार। वो आ तो गया था, बीच में मेरा चश्मा उतार दिया, बोला क्या पहन रहे हो, फिर हमें एडिटिंग करनी पड़ती है। साफ़ करो इसे पहले, ये सब इनके हक़ में है। पर वो आकर मुझसे बोलें, ‘आज ये भजन नहीं होगा।‘ बोलूँगा, ‘बेटा, तू इधर आ।‘
कुछ मुद्दों पर दूसरों की नहीं सुनते, अड़ना सीखो। हर चीज़ में समाज को मत घुसेड़ लिया करो। इससे पूछेंगे, उससे पूछेंगे, बात कुछ नहीं स्वार्थ की होती है बस। ऐसा नहीं है कि दूसरों की इतनी परवाह है कि अरे! बेचारे दूसरों को कहीं चोट न लग जाए। उनका दिल न टूट जाए, उनसे पूछ के चलो, स्वार्थ की बात होती है बस। स्वार्थ को परे रखना सीखिए, कम-से-कम ज़िन्दगी के कुछ कामों में, हर चीज़ में नहीं रख सकते तो।
कह रहा हूँ उच्चतम को निजी रखो। वहाँ कहो कि जो कुछ सोचा जाना था, सोचा जा चुका है। केन्द्र नहीं हिलेगा, उसके आस-पास क्या है वो आप हमें बता दीजिए, यिन-यांग (एक चीनी दार्शनिक अवधारणा जो विपरीत लेकिन परस्पर जुड़ी शक्तियों का वर्णन करती है जिसमें यिन ग्रहणशील है और यांग सक्रिय सिद्धान्त है)। ऐसे ही चलता है मामला।
एक है जो बिलकुल हिलेगा नहीं और एक है जो लगातार परिवर्तनशील है। पुरुष-प्रकृति, जो उच्चतम है वो पुरुष का विषय है वो नहीं हिल सकता। बाक़ी छोटी बातें सब सार्वजनिक हो सकती हैं।
हम उल्टा करते हैं। छोटी बातों को हम कहते हैं पर्सनल है, 'नहीं, मैं डिसाइड करता हूँ कि मेरे शॉक्स का कलर क्या होगा? यू नो आई डोंट टालरेट इंटरफेरेंस इन सच एन इम्पोर्टेन्ट थिंग , खबरदार, किसी ने मेरे शॉक्स के बारे में कुछ बोला तो।' मोजा है, मुँह में डालोगे क्या?
अरे! ये पहन लो कि वो पहन लो, ये हमारे चचा हैं रोहित, पता नहीं आज बदला कि नहीं बदला। दो दिन से ये एक पैर में बैंगनी और एक पैर में गुलाबी पहन के घूम रहे थे।
झूठ बोल रहा हूँ तो बता दो। सबको पता है, अभी भी वही पहने होंगे, दूर से ही देखना गन्ध मार रहा होगा बहुत। बदल ही नहीं रहे, उनकी मौज। वो कह रहे, सब कह रहे क्या है बदल लो, कह रहे हैं मुझे ऐसा ही पहनना है।
ये सब बातें ठीक हैं, कोई बोले कि मोजा बदल लो, तो बदल लो। (श्रोतागण हँसते हुए) समझ ही नहीं रहे। लेकिन कोई बोले कि यहाँ छाती के भीतर जिसको रखते हो उसको बदल दो, तो ये, ये (नहीं के संकेत में अँगूठा दिखाकर) हमेशा तैयार रहे। बहुत ऊँचा प्रतीक हैं इसके बिना नहीं जी सकते।
हर काम में रायशुमारी, प्लेबिसाइट मत शुरू कर दिया करो। यू नो वन हैज टू थिंक ऑफ़ दी सोसाइटी एज वेल तो वन को सोचने दो न तुम काहे सोच रहे हो? मैं अगर जनमत सर्वेक्षण करवाता और फिर तैयार करवाता कि मैं अपनी ज़िन्दगी में क्या उद्देश्य बनाऊँ, आपको क्या पढ़ाऊँ, तो बताइए आज मैं आपको क्या पढ़ा रहा होता? बता दीजिए या पेरेंट्स से पूछकर करवाता? आपके भी तो पेरेंट्स हैं, पेरेंट्स की नज़र में तो बच्चे हमेशा बच्चे होते है।
आपके बहुत सारे पेरेंट्स को बड़ा अफ़सोस है कि उनके बच्चे यहाँ फँसे हुए हैं। तो मैं आपके पैरेंट से पूछूँ कि इनको क्या पढ़ाऊँ तो क्या बताएँगे? 'आप इनको हाँ, पैसा कैसे कमायें, फाइनेशियल मैनेजमेंट पढ़ाइए, अध्यात्म से मुक्ति कैसे मिले, गीता से बचने के एक-सौ-एक उपाय।’
(श्रोतागण हँसते हुए)
अभी छोटा है इसलिए। हम लाइफ एजुकेशन लेकर जाते थे अच्छे-अच्छे कॉलेजेज , वहाँ वो बोलें, पर्सनालिटी डेवलपमेंट पढ़ाइए। क्या कराइए पर्सनालिटी डेवलपमेंट , हम वही करा रहे हैं, वही करा रहे हैं, बहुत जगह यही बोलकर घुसे थे। हाँ वही है, वही है। वो बाद में कहते थे पर ये कैसे वही है। मैं कहता था उसके लिए आप भी ‘क्लास अटेंड’ करो तो पता चलेगा यही है। बन्द कर दूँ।
प्र१: नहीं सर।
आचार्य: तो जैसे मुझसे कह रहे हो कि गीता मत बन्द करो, वैसे ख़ुद क्यों गीता बन्द करे बैठे हो? ये डबल स्टैंडर्ड्स क्यों भई? जो किसी हालत में गीता नहीं बन्द करेगा, उससे कह रहे हो, ‘मैंने अपने स्कूल में गीता बन्द कर रखी है क्या जवाब दूँ, बोलो?
प्र१: इसीलिए आचार्य जी आया और आपसे पूछना था।
आचार्य: पूछा क्यों?
प्र१: मैं सही जवाब चाहता था कि क्या जवाब दे सकूँ।
आचार्य: इसमें पूछने की बात क्या है? फिर जवाब यही है मैं बन्द कर देता हूँ, यही जवाब है कहो तो बन्द कर दूँ।
प्र१: नोट पॉसिबल (सम्भव नहीं)।
आचार्य: कुछ होना चाहिए न जीवन में, जैसे बोला नॉट पॉसिबल सोचना नहीं पड़ता। हर चीज़ में सोचने मत लग जाया करो। विचार ठीक है, कुछ बातें निर्विचार का विषय होती हैं। जब बात आये निर्गुण की तो वहाँ निर्विचार।
हमें यहाँ सोचना नहीं पड़ता, यहाँ सोचना बदतमीजी है। हम नहीं सोच सकते, मर्यादा का उल्लंघन होगा। कुछ बातों के बारे में अगर सोचा तो हिमाकत हो जाएगी। हममें हिम्मत नहीं इतनी, हमें अनुमति नहीं इतनी कि कुछ बातों का विचार भी कर सकें।
मैं विचार भी नहीं कर सकता कि ये छोड़ सकता हूँ। वैसी ज़िन्दगी होनी चाहिए। कुछ बातों के बारे में हम सोचते भी नहीं। ये नहीं कि सोच-सोचकर कहते हैं नहीं करना, सोचते भी नहीं। जो कुछ सोचा जाना था, सोचा जा चुका है। अब हम अगर सोचते हैं तो ये सोचते हैं कि इसको आगे कैसे बढ़ाएँ?
कुछ ख़याल आने नहीं चाहिए और यही अध्यात्म का फ़ायदा भी होता है। कुछ ख़याल आने बन्द हो जाते हैं। लोग पूछते हैं कि जो, जो वाइजमैन होता है, आध्यात्मिक आदमी, ये निर्णय कैसे करता है, इसका जवाब जानते हैं क्या है? उल्टे-पुल्टे रास्तों वाले ख़याल ही उसको नहीं आते, कहिए वो सही रास्ता चुन कैसे लेता है, उसको ग़लत रास्ते दिखाई ही नहीं देते। जिस चीज़ का आपको ख़याल ही नहीं आएगा वो काम आप करोगे कैसे?
कुछ बातें सोचने से भी बाहर की हो जाती हैं कि उनको हम सोच भी नहीं सकते भाई। तो आप कैसे करोगे फ़ालतू काम और जो आदमी आध्यात्मिक नहीं है, जो दुनिया, समाज, प्रकृति, संयोग, इन्हीं पर चलता रहा है, उसकी समस्या ये है कि उसे हर तरीके के विचार आते हैं। वो बैठा होगा उसको पच्चीस दिशाओं से पच्चीस प्रकार के विचार आ रहे होंगे और ये सारे विचार आपस में गुत्थम-गुत्था हैं, इनमें आपस में द्वन्द्व है और उसका जो भेजा है वो अखाड़ा बना हुआ है।
समझ में आ रही है बात?
यही विश्राम है। कुछ ख़याल हमें अब आते ही नहीं। स्थितियाँ तो नहीं परेशान करतीं न आपको, आपको परेशान करती है आपकी अंत:स्थिति, जहाँ होते हैं विचार, भाव, उद्वेग ये सब। ये आये ही नहीं तो मौज हो गयी कि नहीं, बस यही निर्विकल्पता है, यही नॉनडुएलिटी है, यही अद्वैत है, यही मुक्ति है। अन्तर्द्वन्द्व से, इनर कनफ्लिक्ट से आज़ादी।
बैठे हैं तो बैठे हैं, विचार आ ही नहीं रहा कि बाहर जाना है, सोचो आप यहाँ बैठे हों, आपको विचार आने लगे कि बाहर जाना है, यहाँ बैठना कितना मुश्किल हो जाएगा। भले ही आप बैठे रह जाओ, पर सोचो कितनी मुश्किल से बैठे रह गये हो, क्योंकि विचार आ रहा था कि मैं बाहर जा सकता हूँ, मैं उस विचार से लड़ा पड़ा था, लड़ा पड़ा था। भले ही मैं बाहर गया नहीं पर सोचो आप कैसे बैठे रह गये दो घंटे। कितना बुरा लगा होगा।
मौज किसकी है, विचार ही नहीं आया, विचार आया ही नहीं। जीवन ऐसा कर लो कि कुछ विचार आयें ही नहीं, मौज। हम बहुत उल्टा चलते हैं, हम देखते हैं कि क्या सम्भव है, विचार करो क्या सम्भव है? होना ऐसे चाहिए कि क्या करना है, इस पर कोई विचार नहीं होना है, देखो कि उसे कैसे सम्भव बनाना है?
हम पहले ये देखते हैं कि क्या हो सकता है और उसमें स्वार्थ, सुविधा ये सब आ जाते हैं न। क्या हो सकता है उसमे ये भी देखोगे कि दाम क्या चुकाने पड़ेंगे, इत्यादि, इत्यादि। फिर अच्छा ठीक है, ऐसे नहीं होता।
पहले निश्चित कर लो कि क्या होना चाहिए और उस पर अब विचार करना बन्द, ये निश्चित है। सुनिश्चित है कि क्या होना चाहिए, ये पक्का है। अब विचार होगा, पर किस बात पर होगा, कैसे। सारा विचार कैसे पर लगे, क्या पर नहीं, क्या नहीं तो क्या कहाँ से आएगा?
वो आएगा व्हाट इज से। जो है मैं अपनी हालत देखूँगा, मैं दुनिया की हालत देखूँगा और दुनिया का दुख, मेरा दुख, मुझे बता देगा कि क्या करना है। तो वो, तो तय हो गयी बात, फ्रोजन , तय, सील्ड। तय, निश्चित अब उस पर कोई पुनर्विचार नहीं होगा। क्या करना है, ये कहाँ से आएगा? मुझे मेरी स्थिति पता है भाई, मैं फँसा हुआ आदमी हूँ तो मैं चूहा हूँ। तो क्या करना है?
चूहेदानी का चूहा हूँ मैं। तो क्या करना है, ये तय हो चुका है क्या करना है, बाहर निकलना है। उस पर बार-बार थोड़ी विचार करूँगा कि भीतर ही क्यों न पेंट करा लूँ। एक वॉल हैंगिंग मिलेगी क्या, जिस पर बड़ा-बड़ा लिखा हो आइ एम फ्री और उसको चूहेदानी के अन्दर ही टांग लूँगा आइ ऍम फ्री। एक नये गुरुजी आये हैं, वो मेडिटेशन कराते है, चूहेदानी के अन्दर, ये सब विचार करना है क्या?
चूहा चूहेदानी के अन्दर बैठकर के ध्यान नहीं, ध्यान नहीं होता, वो क्या होता है मेडिटेशन। चूहा चूहेदानी के अन्दर बैठकर ध्यान में बैठा हुआ है पूँछ ऐसे सिर पर रख ली है, वो शिखा बन गयी है (हाथ से सर पर संकेत करते हुए) और सामने अपने क्या चिपका लिया उसने आइ ऍम ऑलरेडी ऑलवेज फ्री , मैं शुद्ध-बुद्ध, मुक्त आत्मा हूँ। जो तय होना था, तय हो चुका है, मैं चूहा हूँ, ये चूहेदानी हैं, बाहर जाना है। विचार अब इस बात पर है कैसे, विचार इस बात पर है कैसे?
विचार को विचार की सही जगह देना सीखो। हर बात पर विचार नहीं किया जाता। इस बात पर नहीं विचार किया जाता कि चूहेदानी को ही क्यों न अपना आबो-दाना, आशियाना बना लें। क्या दिक्क़त है, विशेषकर तब यदि कोई नन्ही सी, प्यारी सी चुहिया भी भीतर…। किसने कह दिया कि चूहेदानी में एक की ही सम्भावना है और वो घुस नहीं रही थी।
उसको ललचा-ललचा के बुलाया। बोले, ‘अन्दर आओ, यहीं जन्नत है।‘ कुछ बातें जीवन में तय कर लीजिए, फिर उसके बाद विचार करिए। विचारक अपनेआप को जान ले, अपने तथ्य को पहचान ले और फिर मुक्ति के रास्तों का विचार करे।
प्र२: नमस्ते! आचार्य जी, तो मेरा प्रश्न ये है कि जैसा कि आपने अभी कहा था कि सस्ती चीज़ें भारत में बहुत ज़्यादा बिक रही हैं। स्मार्टफ़ोन भी है, इन्टरनेट भी और काफ़ी चीज़ें हैं लेकिन उससे वैल्यू ऐड कुछ नही हो पा रहा है लोगों के जीवन में।
तो ये चीज़ मैं देखता हूँ। अभी आ रहा था, तो मेट्रो में जब मैंने देखा, तो डीएमआरसी (दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन) ने एक सर्विस (सेवा) शुरू कर दी है जिसमें आप अपने मोबाइल से टिकट बुक कर सकते हैं और उसके लिए आपको लाइन में लगने की बिलकुल ज़रूरत नहीं है।
आप बस अपने ऐप से टिकट बुक करें और आप जा सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद भी लोग लाइन में लगे हुए हैं और उनको पता नहीं है कि टिकट कैसे बुक करनी है और वहीं पर स्टेशन पर भी क्या होता है कि एनाउंसमेंट (उद्घोषणा) करवा रही है डीएमआरसी और विज्ञापन लगे हुए हैं, व्हाट्सएप पर भी अवेलेबल (उपलब्ध) है।
लेकिन उससे कुछ वो कर नहीं पा रहे हैं। तो मेरा ये है कि अगर हम उनको गीता भी दे दें, तो उससे क्या हो पायेगा, मतलब उनके जीवन में?
आचार्य: उससे जो भी चल रहा है, वो टूटेगा न, गीता का काम ही है हथौड़ा चलाना।
प्र२: नहीं, वो जब ये चीज़ नहीं समझ पा रहे हैं कि ये टेक्नोलॉजी हमारे काम में आ सकती है, तो गीता जैसी बड़ी चीज़ वो क्या समझ पाएँगे, उसको अपने जीवन में कैसे ला पाएँगे?
आचार्य: जैसे आप समझ रहे हो गीता, आप उनसे कुछ अलग हो क्या?
प्र२: हाँ मैं कह सकता हूँ, थोड़ा सा अलग हूँ क्योंकि जो ये लायें हैं।
आचार्य: ये ग़लत-फ़हमी है, टूटनी बाक़ी है।
प्र२: नहीं। नहीं वो, वो नहीं। वो आपकी बात ठीक। सब एक ही है बट (परन्तु) जो एक लेवल (स्तर) होता है जैसे कि मतलब मैंने जो अभी रखा आपके सामने।
आचार्य: ये बता रहे हैं आप सबका लेवल बेकार है।
प्र२: नहीं सर, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ, सबका लेवल बेकार है।
आचार्य: आपको गीता कैसे मिली है?
प्र२: आपके माध्यम से मिली है।
आचार्य: हाँ, तो उनको भी — बैठे होंगे तो — उन्हें भी मिल जाएगी और वैसे ही मिल जाएगी जैसे आपको मिली।
प्र२: नहीं, यहाँ पर बैठे हैं, मैं आया लेकिन अभी तो आप युटुब पर मतलब वो विडियो देखेंगे आपकी, मैंने भी आपको यूट्यूब पर ही देखी थी।
आचार्य: आपने नहीं देखी, मैंने दिखाई।
प्र२: हाँ, मतलब आपने दिखाई, आप उनको भी दिखाएँगे।
आचार्य: एक संयोग था कि आपको मिल गयी, उनके साथ वो संयोग अभी गठित नहीं हो रहा है क्योंकि उस संयोग को भी ऊर्जा देते हैं संसाधन।
मेरे पास अगर संसाधन हों कि मैं प्रचार के माध्यम से सबको यहाँ तक ला सकूँ तो वो भी वैसे ही सुधर जाएँगे जैसे आप सुधर गये हो। आप में और उनमें अन्तर स्तर का नहीं, ये संयोग का है। ये ग़लत-फ़हमी हटा दीजिए कि आपका लेवल , स्तर ऊपर है।
प्र२: अगर मैं आता हूँ तो रोड पर मतलब कुछ लोग होते हैं जो गीता बेचते हैं, वो कहते हैं आप ये रख लीजिये, आप किसी को गिफ्ट कर सकते हैं, तो मैं कहता हूँ कि गिफ्ट करने से क्या हो जाएगा? पहली बात तो ये है कि उसको पता होना चाहिए कि ये चीज़ कुछ काम की है।
आचार्य: किसी को नहीं पता होता, कोई चाहिए होता है जो प्रेम के नाते ज़ोर लगा के बताए। आपको अगर लग रहा है बुरा कि लोग अभी गर्त में हैं तो प्रेम के नाते ज़ोर लगा के बताओ न। मैंने भी बहुत ज़ोर लगाया है तब आप यहाँ खड़े हो।
प्र२: वो बात आपकी ठीक है, वो है।
आचार्य: ये दो बार बोल चुके हैं वो बात आपकी ठीक है, तो कितनी बातें ग़लत हैं, वो भी बता दो। (श्रोतागण हँसते हुए) ये मत कर लीजियेगा कि अब ख़ुद को समझ में आ गयी तो जिनको नहीं आयी है, उनको बोलने लगे कि ये तो स्तरहीन हैं।
प्र२: नहीं। नहीं मैं वो नहीं कहना चाह रहा हूँ।
आचार्य: ऐसा कुछ नहीं, आप क्या बोलना चाह रहे हो मैं भुक्तभोगी हूँ उसका। कैसे यहाँ आये हो बता देता हूँ। पोर्न आकर्षक क्यों है — शॉर्ट प्रमोटेड, लड़का-लड़की के खेल में जवानी की बर्बादी — प्रमोटेड। बताओ दो-चार और बताना। घर-घर में पोर्न स्टार — प्रमोटेड और सारी हवस उतर जाएगी — प्रमोटेड और हाँ, यूँही जल जाएगी जवानी — प्रमोटेड , लड़का-लड़की का खेल — प्रमोटेड , शादी के मस्त मजे — प्रमोटेड। इन पर करोड़ों जलाए हैं तब जाकर आपका ध्यान खींचा।
आप तो यही सोचकर आये थे यहाँ शादी के मजे और पौर्न और यही सब, फिर फँस गये। फिर पहले वो विज्ञापन, (हँसी के बीच समर्थन में श्रोतागण तालियाँ बजाते हुए) पहले वो विज्ञापन देखा, घर-घर में पोर्न स्टार वाला, लड़का-लड़की के मजे, हवस उतर जाएगी, उससे शार्ट देखने का कुछ बना। फिर धीरे-धीरे एक-आध, दो साल लगाये और लॉन्ग वीडियो देखने लगे। फिर वहाँ से किसी एक मनहूस दिन गीता का फॉर्म भर दिया।
उसके बाद यहाँ से किसी ने कॉल करके पकड़ लिया तो सोचे कि चलो अब इनका दिल रखने के लिए एनरोल कर लेते हैं एक महीने को। इतनी बार फोन करते रहते हैं, तो एक महीने को कर लें। एक महीने को एनरोल किया तो वहाँ मैंने फिर स्क्रीन पर पकड़ लिया। जब स्क्रीन पर पकड़ लिया तो एक दिन यहाँ पहुँच गये। इतनी मेहनत करी है तब यहाँ पहुँचे हो।
अब यहाँ पहुँच गये हो तो ये गुमान मत पाल लेना कि हमारा तो स्तर ही बहुत ऊँचा था। आपका स्तर ऊँचा नहीं है, हमें अपना स्तर बहुत गिराकर के आपको यहाँ लाना पड़ा है (पुनः श्रोताओं की तालियों के साथ हँसी) और उसी के नाते न जाने कितने लोग हम पर कीचड़ उछालते हैं कि देखो, ये किस-किस तरीके से अपने विज्ञापन चलाते हैं।
कुछ भी न हो वीडियो के अन्दर वहाँ पर, अन्दर बात गीता की और कृष्णों की और कबीरों की हो रही होगी तो भी टाइटल में कुछ ऐसा लिखना पड़ता है कि इधर-उधर से सब आवारा भँवरे आ ही जाएँ वीडियो पर। तब जाकर के यहाँ आते हैं।
श्रम करना पड़ता है भाई देखो, दूसरों को नीचा बोलना बहुत आसान है। थोड़ा प्यार दिखाओ, कुछ अगर समझ में आया है तो उसकी परिणति करुणा में होनी चाहिए।
कम्पैशन कहाँ है? अंडरस्टैंडिंग और कम्पैशन साथ चलते हैं न। हम जानते हैं आप जो बोल रहे हो। मैं एक तल पर उससे सहमत भी हूँ कि हम सबका ही स्तर गिरा हुआ है। मुझे भी ये न मिले होते तो मेरा भी स्तर उन्ही लोगों जैसा होता जैसी आप बात कर रहे हो जिनकी। मुझे वो न मिले होते तो मैं वहाँ होता, आपको मैं न मिला होता तो आप भी वहीं होते।
सबको कोई-न-कोई चाहिए होता है। दीये सब होते हैं, लेकिन सबको कोई दूसरा दीया चाहिए होता है जो स्पर्श करके उनको प्रज्वलित कर दे।
आपको मेहनत करनी पड़ेगी। लोगों को जाकर स्पर्श करना पड़ेगा। हम वो स्पर्श कर रहे हैं डिजिटल प्रचार के माध्यम से। चाहते हो वो मेट्रो वाले लोग ठीक हो जाएँ, हमें संसाधन दो। हम और लोगों को स्पर्श कर पायें।
वो पूरा सुधर जाएगा, वहाँ जो भी कतार देख रहे हो मेट्रो के सामने है, जो भी चल रहा है, अच्छा नहीं लगता है। पूरी दुनिया सुधर जाएगी सब, ये भी सुधर जाएँगे। मौका दो, पहुँचने दो हमें लोगों तक।
प्र२: जी धन्यवाद।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=cWaIwaUErgc