हालत खराब, पर मन शांत - कैसे? || आचार्य प्रशांत, आर.डी.वी.वी. के साथ (2023)

Acharya Prashant

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हालत खराब, पर मन शांत - कैसे? || आचार्य प्रशांत, आर.डी.वी.वी. के साथ (2023)

प्रश्नकर्ता: मेरा नाम पूनम साहू है और मै जर्नलिज़्म डिपार्टमेंट (पत्रकारिता विभाग) से विद्यार्थी हूँ। मेरा सवाल आपसे ये है कि विपरीत परिस्थितियों में ख़ुद के मन को किस तरह शान्त रखें।

आचार्य प्रशांत: परिस्थिति तो परिस्थिति है न?

प्र: वो जो विपरीत परिस्थितियाँ है; जैसे कि कोई हमारा काम नहीं बना है और हम चाहते हैं कि इस काम छोड़कर हम दूसरा काम करे, जो हमारे लिए ज़्यादा जरूरी है तो वो काम हम पहले मतलब वो कैसे अटके हुए काम को भूलकर हम दूसरा काम करें?

आचार्य: अच्छा, आपको कोई फ़िल्म पसन्द होगी। बताइए, आपको कौनसी फ़िल्म पसन्द है?

प्र: सर, मैं ज़्यादा नहीं देखती हूँ; अभी।

आचार्य: फिर भी कोई एक जो अपनी सबसे पसन्दीदा फ़िल्म है वो बताइए। कहिए।

प्र: ‘उड़ी’।

आचार्य: ‘उड़ी’? तो आप, फ़िल्म अपनी ये; देखने गयी है, ठीक है? और ये फ़िल्म आपको बहुत-बहुत पसन्द है। और सिनेमा हॉल का एसी नहीं चल रहा है, ठीक है? एक ये स्थिति है। और एक फ़िल्म बताइए; जो आपको बिलकुल ही बकवास लगी थी; देख ली थी; फिर लगा कि काहे को देख ली। उसमें कुछ और नाम ले लेते हैं। मान लीजिए, 'पुड़ी'। ठीक है?

प्र: ठीक है।

आचार्य: तो आप 'पुड़ी' देखने गयी है। और 'पुड़ी' एकदम ही घटिया पिक्चर। मिनट से ही दिमाग ख़राब हो गया। और एसी नहीं चल रहा है, हॉल का। दोनों ही स्थितियों में जो परिस्थिति है; वो एक जैसी है न? परिस्थिति एक जैसी है। एसी चल नहीं रहा है हॉल का और गर्मी और पसीने आ रहे हैं। ये परिस्थिति है। तो आप अगर 'पुड़ी' देख रही है तो मन का क्या हाल होगा?

प्र: बहुत ख़राब लगेगा।

आचार्य: मन बार-बार शिकायत करेगा; कितना घटिया हॉल है; कितना घटिया हॉल है; एसी नहीं चल रहा है। और इतना ही नहीं होगा; जो चीज़ें नहीं भी हो रही होंगी; वो भी आपको परेशान करने लगेंगी। आप कहने लगेंगे, 'अरे, ये क्या सीट है! सीट चुभ रही है; कॉकरोच है इसमें। और पीछे कोई सिगरेट पी रहा है, 'क्या ये? ये क्या हवा में गन्ध क्यों आ रही है, इतनी?' आपको और भी पांच चीज़ें परेशान करने लगेगी; जो हो सकता है; काल्पनिक हो। क्योंकि आपका और आपके विषय का; आपके लक्ष्य का; कोई प्रेम का नाता है नहीं। वो 'पुड़ी' चीज़ ही ऐसी है जिससे प्रेम करा नहीं जा सकता। वो जो 'पुड़ी' चीज़ है; वो चीज़ ही इस स्तर की नहीं है कि उसको सम्मान दे सके या उसे प्रेम कर सके, है न?

जब आपने अपना लक्ष्य बनाया होता है; जब वो सम्मान के लायक़ नहीं होता न; जब उसका कोई वजन नहीं होता; महत्व नहीं होता तो परिस्थितियाँ बहुत महत्व ले लेती हैं। इंसान का ध्यान परिस्थितियों पर बहुत जाता है। जब पिक्चर घटिया हो तो इंसान का ध्यान पॉपकॉर्न पर जाएगा, एसी पर जाएगा, सीट पर जाएगा। पता नहीं, और कितनी चीज़ों पर जाएगा। इंसान कहेगा, ' ये भी ख़राब है; ये भी ख़राब है; उफ्फ़! ये भी ख़राब है; ये ख़राब है। लेकिन जब आप उड़ी देख रही होंगी तो आपका ध्यान इन चीज़ों पर कम जाएगा। आप कहेंगी, ’एसी नहीं भी है कोई बात नही; एसी की फ़िक्र किसको है। अभी तो हम पिक्चर में मस्त है बिलकुल। एसी की किसको फ़िक्र है। पिक्चर इतनी अच्छी है कि हमें फ़िक्र ही नहीं है; एसी की। ऐसा होगा कि नहीं होगा? अब हम ये नहीं कह रहे हैं कि हॉल में आग भी लग जाएगी तो भी फ़र्क नहीं पड़ेगा। अब आग ही लग गयी बिलकुल; गर्मी इतनी बढ़ गयी; लपटें आ रही तब तो आप भागेंगे ही उठकर। पर परिस्थितियों का प्रभाव कम हो जाएगा; उतना तो होता है, न?

प्र: जी।

आचार्य: हाँ, तो प्रतिकूल परिस्थितियों का फिर यही नियम है कि परिस्थितियाँ तो कभी अपने हाथ में होती नहीं। अपने हाथ में ये होता है कि लक्ष्य ऐसा बनाओ जिससे प्यार किया जा सके। लक्ष्य जितना प्यारा होगा; परिस्थितियों का प्रभाव उतना कम पड़ेगा आप पर। और लक्ष्य आपका, जितना साधारण और सस्ता होगा परिस्थितियों का रोना आप उतना ज़्यादा रोएँगे।

जो लोग ज़िन्दगी में परेशान रहते हैं न, छोटी-छोटी पचास चीज़ों से; कहे, ‘क्यों परेशान हो?’ ’पैंट टाइट है बहुत आज। इसलिए सुबह से रो रहे हैं।’ ‘क्यों परेशान हो?’ 'सुबह वो ऑटो वाले को पाँच रुपये लौटाने थे उसने लौटाए नहीं, भाग गया वो।' पाँच रुपये के लिए पूरे दिन रो रहे हैं। ‘क्यों परेशान हो ?' ‘आज सुबह-सुबह घर में जो नाश्ता बना था! पोहे में नमक कम था! चाय मे शक्कर ज़्यादा थी। इसलिए पूरा दिन रोएँगे, हम।’ 'तुम क्यों परेशान हो?' ‘आज वो शेयर मार्केट में जो मेरा पसन्दीदा स्टॉक है; वहाँ एक परसेंट लुढ़क गया।' एक प्रतिशत लुढ़क गया इनका स्टॉक ; और ये पूरे दिन मुँह लटकाए घूम रहे हैं। तो ये जो लोग मिलते हैं न, जो छोटी-छोटी बातों को इतना बड़ा बना लेते हैं कि — ‘बातें’ माने ‘छोटी परिस्थितियाँ,’ आपने परिस्थितियों को प्रश्न पूछा है लेकर — तो परिस्थितियाँ जब हमारे लिए बड़ी भारी चीज़ हो जाती है तो उसका तात्पर्य एक ही होता है; जीवन में कोई केन्द्रीय प्रेम नहीं है।

‘उड़ी’ नहीं है जीवन में। तो उड़िए। वो उसको लेकर आएगी जीवन में जो इतने महत्व का हो कि सब छोटी-छोटी बातें उसके आगे विस्मृत हो जाएँ; भूल जाएँ आप। उसको जीवन में लेकर आइए। नहीं तो फिर तो कुछ भी चलता है; कुछ भी चलता है। कभी भी देखिए; परिस्थितियाँ तो परिस्थितियाँ हैं, न? पर्फेक्ट (पूर्ण) तो होंगी नहीं, कि होंगी? परिस्थितियों में ही अगर खोट निकालनी है तो आप एक खोट निकालना चाहेंगी; आपको हज़ार बहाने मिलेंगे। और आपने कहानियाँ पढ़ी होंगी पुरानी; वो आधी ऐतिहासिक है; आधी आध्यात्मिक है। जहाँ पर धर्म की रक्षा के लिए युद्ध हो रहा है तो योद्धा अपनी कटी हुई गर्दन हाथ में लेकर लड़ रहा है। हम नहीं कह रहे कि ये बात बिलकुल तथ्यपरक है; हम नहीं कह रहे कि सचमुच ऐसा हो सकता है कि कोई अपनी कटी हुई गर्दन हाथ में लेकर लड़ सकता है; हम नहीं कह रहे। इस कहानी का आशय समझिए।

ये कहानी किसी बहुत ऊँची चीज़ की ओर इशारा कर रही है। ये कहानी कह रही है, जब जीवन में तुम एक बहुत ऊँची लड़ाई पकड़ लेते हो तब इस बात से भी फ़र्क नहीं पड़ता कि गर्दन कटी कि नहीं कटी। छोटी-मोटी परिस्थिति तो ये होती है कि छोटा-मोटा घाव लग गया। अरे, छोटा-मोटा घाव छोड़ो; हमारी तो गर्दन ही कट गयी है; हम तब भी लड़ रहे हैं। क्योंकि जिसके लिए लड़ रहे हैं; उससे प्यार है, भई! कैसे छोड़ दें लड़ाई? कबीर साहब कहे — कबीर सांचा सूरमा, लड़े हरि के हेत। पुर्जा पुर्जा कट मरे, तबहूं न छाड़े खेत। ।

खेत माने रणक्षेत्र। कि वो है जिससे प्यार हैं हमें। हरि नाम है उसका। उसके लिए लड़ रहे हैं और पुर्जा-पुर्जा कट मरता है; तब भी पीछे नहीं हटते। वो आ रहे हैं क्या शिकायत करने? वो शिकायत करने आ रहे हैं क्या? उनका शरीर बिलकुल छिन्न-भिन्न हो चुका है। न जाने कितने घाव लगे है! लेकिन वो कह रहे हैं कि रण क्षेत्र तो नहीं छोड़ेंगे — “मोहे मरण का चाव।”

“मोहे मरण का चाव।”

आगे वो कहते हैं कि वह, जो सच्चा प्रेमी होता है; जानते हो? वो लड़ने जाते हैं; सिर पहले अपना कटाकर। वो कहता है, 'आप कैसे परेशान करोगे मुझे? सिर तो मेरा पहले ही कट चुका है। अब लड़ने आया हूँ सिर कटाकर। बताओ, परिस्थितियाँ मुझ पर कैसे असर डालेंगी? तुम जो अधिक-से-अधिक मुझ पर असर डाल सकती थी; वो मैंने पहले ही सह लिया। सिर ही कटवा लिया। अब बताओ मुझे कैसे हराओगे?’

परिस्थिति को शास्त्रीय तौर पर कहते हैं — प्रकृति। उसी को जगत भी कहते हैं; उसी को संसार भी कहते हैं; उसी को प्रकृति भी कहते हैं। और मनुष्य को कहते हैं — पुरुष। ठीक है? सब मनुष्य को; नर-नारी दोनों को पुरुष ही कहा जाता है। तो आप भी पुरुष ही है। अध्यात्म की दृष्टि से नर हो कि नारी हो, सब पुरुष है। चेतना मात्र को पुरुष कहते हैं। तो आप भी पुरुष हैं। आप पुरुष है और ये सब परिस्थितियाँ चाहे वो शारीरिक हों; मानसिक हों; सामाजिक हों; सांसारिक हों; आर्थिक हों; राजनीतिक हों; ये सब प्रकृति है; ये सब प्रकृति है।

और हमें बताया गया है कि जीने का उद्देश्य ये है, मनुष्य मात्र का धर्म ये है कि पुरुष प्रकृति को अपने ऊपर हावी होने न दे। माने मनुष्य परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी होने न दें और ये तभी हो सकता है जब मनुष्य को इश्क हो। उसी इश्क को कभी ‘ज्ञान मार्ग’ बोल देते हैं। कभी ‘भक्ति’ या ‘प्रेम मार्ग’ बोल देते हैं। कभी उसको ‘बोध’ बोल देते हैं। उसी की सेवा में लगे रहने को ‘तपस्या’ बोल देते हैं; कभी ‘साधना’ बोल देते हैं। और वो जिससे इश्क किया जाता है; उसको कभी ‘सत्य’ बोल देते हैं। कभी ‘मुक्ति’ बोल देते हैं। कभी ‘आत्मा’ बोल देते हैं। कभी ‘ब्रह्म’ बोल देते हैं। और जो सगुण वाले होते हैं वो उसको ‘ईश्वर’ बोल देते हैं, ‘भगवान’ बोल देते हैं।

लेकिन कुछ तो जीवन में होना चाहिए; जिसकी ख़ातिर न सिर्फ़ जिया जा सके; बल्कि मरा भी जा सके। और अगर ज़िन्दगी में कुछ ऐसा नहीं है जिसके लिए आप मर सकती हैं, तो जीना मुश्किल हो जाएगा। वैसे ही फिर जिएगा आदमी; छोटी-छोटी बातों की शिकायत करता हुआ। ‘आज गर्मी बहुत है, आज ठंड बहुत है, आज उमस बहुत है। आज बिना बात बारिश हो गयी। अरे, ऑनलाइन कपड़े मँगवाए थे; छोटे निकल गये। जूता काट रहा है आज। फ़लाना सामने से आ रहा था; मुझसे मिला और हाय नहीं बोला।’ ये सब कितनी, कितनी छोटी बातें हैं न? लेकिन जब जीवन में कुछ बहुत बड़ा नहीं होता तो छोटी-छोटी बातें ही मन पर छा जाती हैं। ठीक है? ध्यान दीजिए उस बड़े पर। ये छोटी-छोटी चीज़ें अपनेआप मिटने लगेगी।

प्र: धन्यवाद।

आचार्य: स्वागत है।

YouTube Link: https://youtu.be/mTFT5uLBVc8

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