आचार्य प्रशांत: आप किसी चीज़ को अस्तित्वमान तभी कह सकते हो जब वो कहीं-न-कहीं ख़त्म होती हो। ये जो दीवार है अगर ये ख़त्म ना हो तो फिर ये दीवार हो नहीं सकती। ये बात सुनने में अजीब लगेगी पर ग़ौर करिए। ये जो दीवार है अगर ये ख़त्म ही ना होती हो तो फ़िर ये दीवार हो नहीं सकती। फ़िर आप उसका अनुभव ही नहीं कर पाओगे। किसी भी चीज़ का अनुभव करने के लिए ज़रूरी है कि उसका अंत आता हो। जिस चीज़ का कोई अंत नहीं आता उसका कोई अनुभव नहीं हो सकता। तो फ़िर हम कह रहे हैं कि वो जो परमात्मा है, जो सत्य है उसको ना ऊपर से पकड़ा जा सकता है, ना दाएँ-बाएँ से, ना इधर से, ना नीचे से ना बीच से। सीधे-सीधे फ़िर ये समझ लो कि वो दीवार जैसा है ही नहीं।
हम जब कहते हैं कोई चीज़ है, अस्ति, उसका अस्तित्व है, तो वास्तव में हम उन्हीं चीज़ों की बात कर रहे हैं जिनका अस्तित्व इंद्रियों के लिए है। दीवार का अस्तित्व है क्योंकि दीवार इंद्रियों के अनुभव में आती है। जिस अर्थ में दीवार अस्तित्वमान होती है, सत्य अस्तित्वमान नहीं है। तो फिर हम कहते हैं सत्य कोई वस्तु नहीं होता। वस्तुओं का ही वस्तुगत अस्तित्व होता है। सत्य का कोई अस्तित्व नहीं है, माने सत्य का कोई वस्तुगत अस्तित्व होता ही नहीं।
लेकिन आम कल्पना में, आम धारणा में ये बात खूब छाई हुई है कि सच भी कुछ होता होगा, मुक्ति भी कुछ होती होगी। यहीं पर सारी गड़बड़ हो जाती है। समझाने वालों ने बार-बार कहा है कि भले ही हम उनका नाम ले रहे हैं पर वो कोई चीज़ें नहीं हैं। सत्य, मुक्ति, प्रेम, आनंद सरलता ये कोई चीज़ें नहीं होती। उन्होंने खूब कहा, पर हमारी कल्पना बड़ी निरंकुश है। वो मानती ही नहीं।
हम उनकी भी बात ऐसे कर लेते हैं जैसे कि वो चीज़ें हों, जैसे कि वो कोई वस्तुएँ हों। उनके बारे में भी हम ऐसे ही कह देते हैं — सत्य है न, सत्य तक पहुँचना है न। सत्य न हुआ ऐसे कोई शिवा ढाबा हो गया, कि वहाँ तक पहुँचना है गाड़ी लेकर के। वो है नहीं क्योंकि वही चीज़ हो सकती है जो कहीं पर समाप्त होती हो, जो उसका कोई अंत आता हो। जैसे ये दीवार हो सकती है क्योंकि इसका अंत आता है। सत्य का अंत नहीं आता, वो है नहीं। इसलिए उस तक वैसे नहीं पहुँचा जा सकता जैसे शिवा ढाबा तक पहुँचा जाता है।
पर आप पूछते हो, "मुक्ति का रास्ता बताएँ, आचार्य जी, मुक्ति की विधियाँ बताएँ, आचार्य जी।" अरे दीवार बनाने की विधि हो सकती है, दीवार गिराने की भी विधि हो सकती है। दीवार बनाने की क्या विधि है? मिस्त्री लगाओ, मजदूर लगाओ, पैसे दे दो, सीमेंट लाओ, बालू लाओ, ईंट करो, चिनाई करो, प्लास्टर करो, दीवार बन गई, विधि थी। कोई और विधि भी हो सकती है। जापानी मशीन बुलाओ, वो प्री फैब्रिकेटेड दीवार लाएगी, दीवार आई और दीवार ही यहाँ पर खड़ी कर दी, दूसरी विधि हो गई। विधियाँ किन पर उपयुक्त हो सकती हैं? वस्तुओं पर। गिराने की भी विधि हो सकती है। गिराने की एक विधि हो सकती है बम लगा दो, एक विधि हो सकती है इस पर हाथी छोड़ दो। पता नहीं कैसी-कैसी विधियाँ हो सकती हैं। पर वो जितनी भी विधियाँ हैं, वो सारी विधियाँ किस पर उपयुक्त होंगी? वस्तुओं पर।
अब आप कहते हो, "मुक्ति की विधि बताइए?" मुक्ति की विधि कहाँ से बता दें? मुक्ति दीवार है? मुक्ति आलूबुखारा है? मुक्ति क्या है? ऊँट है? विधियाँ क्या बताएँ तुमको! पर मुक्ति की विधियाँ माँगी भी जा रही हैं और दी भी जा रही हैं। बाज़ार में खूब बिक रही हैं, "ये ध्यान की विधि है, ये मुक्ति की विधि है, ये सत्य की विधि है, इसकी विधि है।" प्रेम की विधियाँ भी चल रही हैं। नहीं हो सकता। क्योंकि विधि का संबंध हमेशा किससे होता है? वस्तु से होता है। वस्तु हमेशा सीमित होती है।
और किसी चीज़ पर विधि लगाने का ये भी मतलब होता है कि तुमने उसको अपने अहंकार के नीचे कर दिया। अगर तुम दीवार पर अपनी विधि लगा सकते हो तो दीवार बड़ी कि तुम? अगर दीवार पर अपनी विधि चला सकते हो तो दीवार बड़ी कि तुम? तुम। अब तुमने अगर सत्य पर भी विधि चला दी तो सत्य बड़ा कि तुम? पर देखो हमारा मानना ये है कि "नहीं, ध्यान की भी विधि हो सकती है।" नहीं हो सकती है। "कोई तरक़ीब बताइए कि मन शांत हो जाए।" अरे तरक़ीब लगा-लगा कर ही तो तुम अशांत हुए हो। पर होश नहीं आ रहा, वो अभी भी तरक़ीब माँग रहे हैं।
"जिसका नाम महत् यश है।"
महत् यश मानें? जो बड़े-से-बड़ा है। बड़ी चीज़ की बड़ी कीर्ति होती है। वो बड़े-से-बड़ा है, उसकी इतनी ज़्यादा कीर्ति है, कम-से-कम उनकी नजरों में है जो होशमंद हैं। जिन्हें बात समझ में आती है उनकी दृष्टि में वो प्रशंसनीय हैं, सर्वोच्च हैं, वो उसकी स्तुति करते हैं, वो उसकी वंदना करते हैं। उसे महत् यश बोलते हैं। और बाकी जो मूर्ख हैं वो काहे को उसका नाम लें, ध्यान धरें। उन्हें कुछ नहीं मतलब है।
"उसका नाम महत् यश है और उसकी कोई प्रतिमा नहीं हो सकती।"
प्रतिम शब्द का अर्थ होता है बराबरी। प्रति मानें वैसा ही। प्रतिम मानें बराबरी वाला। जब आप किसी चीज़ की कोई नकल निकालते हो तो आप क्या बोलते हो कि, "मैंने इसकी क्या निकाल ली एक"? प्रति निकल ली, तो प्रतिलिपि भी बोल देते हो, फोटोकॉपी बोल रहे हो तो। तो अप्रतिम है वो।
उसके जैसा कोई नहीं हो सकता। और ये खूब उद्धृत शब्द है श्वेताश्वेतर के — 'न तस्य प्रतिमा अस्ति'। उसकी कोई उपमा नहीं हो सकती, उसकी कोई छवि नहीं हो सकती। उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता और उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। क्योंकि मूर्ति कैसी होती है? सीमित होती है, और वो क्या है? असीमित। सत्य की मूर्ति नहीं हो सकती। हाँ तुम देवी-देवताओं की मूर्ति बना लो, उसमे कोई दिक़्क़त नहीं। अवतारों की बना लो। क्योंकि अवतार तो पुरुष हैं, व्यक्ति थे, व्यक्तियों की मूर्ति तो बन ही सकती है। सत्य की कोई मूर्ति नहीं हो सकती, ब्रह्म की कोई मूर्ति नहीं हो सकती।
मूर्तियाँ ठीक हैं, भली बात। तुम्हें कुछ लोगों ने प्रेरणा दी, तो उनकी मूर्ति बना दो। किसी भी मूर्ति को, किसी भी प्रतिमा को सत्य मत मान लेना। इसी तरीके से शब्दों में तुम उपमा देते हो, ठीक है, तुम्हें सत्य के गीत गाने हैं तुम गा लो। लेकिन ये मत समझ लेना कि तुम्हारे गीतों में सत्य समा गया है। तुमने सत्य की महानता में, सत्य की सेवा में, सत्य के सम्मुख अपने गीत अर्पित किए हैं। इसका ये नहीं मतलब है कि तुम्हारे गीतों में सत्य समा गया है। तुम जाकर के किसी को लड्डू भेंट करो। इसका ये मतलब थोड़े ही है कि तुमने उसको लड्डू भेंट किए और वो लड्डुओं में घुस गया। ऐसा हो सकता है क्या? तो वैसे ही तुमने अगर मुक्ति को गीत भेंट किए तो मुक्ति गीत में थोड़े ही घुसी हुई है। मानें शब्दों में सत्य नहीं समा सकता। अधिक-से-अधिक, शब्दों द्वारा तुम सत्य का अपनी दृष्टि से अलंकार कर देते हो। तुम कुछ साज-सज्जा कर देते हो। तुम कुछ रौशनी कर देते हो। तुम कुछ धूम-धाम कर देते हो। लेकिन वो धूम-धाम कहीं से भी सच को छू नहीं पाती। वो ऐसी सी बात हो गई जैसे सूरज को कोई दिया दिखा रहा हो। तुम अपनी दृष्टि से तो बड़ा काम कर रहे हो कि, "मैंने दिया जलाया, देखो मैं आपको दिया अर्पित कर रहा हूँ!" पर किसको दिया अर्पित कर रहे हो?
इसी तरीके से जब तुम सत्य की प्रशंसा में कुछ कहते हो, तो तुम महत् यश की प्रशंसा में कुछ कह रहे हो। जो इतना बड़ा है, इतना बड़ा है, तुम उसकी तारीफ़ कर कैसे ले रहे हो? वास्तव में उसकी प्रशंसा, उसकी स्तुति करना, ये एक तरह का बचपना है।
और इसको ज़्यादा कड़ी दृष्टि से देखा जाए तो ये एक तरह से अपमान भी हो गया। ऐसे समझ लो कि कोई भारतरत्न है। और तुम उसको बोल दो कि, "ये आ रहे हैं न, ये पद्मश्री हैं।" तो तुमने उसको सम्मान दिया, या अपमान कर दिया है? ऐसा ही है। तुम जब सत्य को कहते हो कि सत्य महान है, तो तुमने भारतरत्न को क्या कह दिया है? पद्मश्री, ये गड़बड़ कर दी न। भारतरत्न को तो तुम फिर भी पद्मश्री बोल सकते हो अपमान नहीं होगा। पर सत्य की जो महिमा है, तुम उसके लिए सही शब्द कभी निकाल ही नहीं सकते। भारतरत्न भी बहुत छोटा शब्द है। तो तुम जिन भी शब्दों का प्रयोग कर रहे हो वो शब्द अनुपयुक्त हैं, अपर्याप्त हैं, नाकाफी हैं। लेकिन कोई बात नहीं। अब तुम इतना ही कर सकते हो, तो तुमने कर लिया, आरती कर ली, प्रार्थना कर ली। कोई बात नहीं। लेकिन ये कभी मत सोचना कि तुम आरती या प्रार्थना में जो कुछ भी बोल रहे हो उसमें सत्य समा गया है।
यहाँ तक कि उपनिषदों के श्लोकों में भी सत्य समा नहीं गया। सत्य यहाँ भी नहीं समा गया। ये अधिक-से-अधिक क्या करते हैं? ये थोड़ा सहारा देते हैं। कुछ इशारा कर दिया। ये ऐसे से हैं जैसे चित्र भर हों। चित्र असली चीज़ तो नहीं होता न। पर चित्र से तुम्हें कुछ मदद मिल सकती है किसी को पहचानने में। ये जैसे नक्शा हों। नक्शा मंज़िल तो नहीं हो सकता न। पर मंज़िल तक पहुँचने में मदद दे सकता है। ऐसे हैं उपनिषद्, उपनिषदों में भी सत्य समा नहीं गया। भले ही हम कहते हैं कि वो सत्य से आ रहे हैं। सत्य से आ रहे हैं लेकिन कोई ये सोचे कि ये जो श्लोक है इसी में सत्य समा गया है, ना! सत्य तक तो तुम अपनी सिर्फ़ बली देकर ही पहुँच सकते हो। वो निर्णय अगर तुमने नहीं करा है तो उपनिषद् भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते। उपनिषद् तुम्हें अधिक-से-अधिक बता सकते हैं कि तुम्हें अपना विसर्जन करना होगा। पर तुम अगर वो विसर्जन करने को तैयार नहीं तो अब उपनिषद् तुम्हारी क्या सहायता करेंगे?
एक उसमें और जुड़ा हुआ मुद्दा है। उसकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है। वो अतुल्य है। वो क्या है? अतुल्य है। माने बराबरी पर भी उसकी किसी को मत रख देना। और बड़ा अन्याय तब होता है जब हम उससे ऊपर किसी को रख देते हैं। कह रहे हैं, "अरे वो अब कोई बातचीत हो रही है, जहाँ पर कोई सात्विक चर्चा होगी। वहाँ तक कौन जाए? उससे ज़्यादा ज़रूरी दूसरा काम है।" ये तुमने क्या करा? ये तो छोड़ दो कि तुमने सत्य को अतुल्य माना। तुमने तो सत्य को तुलनात्मक रूप से नीचा भी बना दिया। तुमने किसी और चीज़ को ऊँचा रख दिया। नहीं करते हम ऐसा? अब कहा गया है कि चलिए सत्र में आना है और उपनिषद् का पाठ करके आना है। और "उपनिषद का पाठ कैसे करें? वो बंटू भैया को फ़ोन आ गया। बंटू भैया बता रहे हैं कि कैसे उनको पेचिश लगी हुई है और कौन-कौन सी दवाइयाँ ले रहे हैं।" फिर क्या फायदा? यहाँ आकर के पढ़ रहे हो। "न तस्य प्रतिमा अस्ति।" यहाँ आकर के पढ़ रहे हो कि उससे ऊँचा कोई नहीं है। और दिनभर बंटू भैया को तुमने उपनिषदों के ऊपर बैठा रखा था। कोई फायदा है?
प्रश्नकर्ता: ज्ञान तो बहुत अच्छा लगता है सुनने में, लेकिन जैसे ये चेंज (बदलाव) इतना इमेडिएट पॉसिबल (तुरंत संभव) भी नहीं है, और हो भी नहीं सकता।
आचार्य: हाँ, मैं जिम (व्यायामशाला) गया था, आज बड़ा अच्छा लग रहा था। एक से एक पहलवान थे, वो वर्जिश कर रहे थे। मैं उनको ऐसे बैठ कर देख रहा था, मुझमें क्या चेंज आएगा? हालाँकि सारी स्थितियाँ मौजूद हैं, सारी सामग्री मौजूद है। जिनसे बदलाव आ सकता है। जगह भी है, उपकरण भी हैं। कहते हैं न माहौल भी है, रिवाज़ भी है। पर आप वहाँ बैठ कर देखें कि, "क्या ख़ूबसूरत उसके बाजू हैं, आह हा हा शाबाश! और उसकी पीठ कितनी चौड़ी है!" उससे क्या हो जाएगा? करना तो ख़ुद ही पड़ेगा न, उसका कोई विकल्प नहीं है। कोई भी विकल्प नहीं है। शरीर तक नहीं घटता बिना मेहनत करे, अहंकार तक कैसे घट जाएगा? वो तो बड़ी सूक्ष्म चीज़ है। पर मेहनत कोई नहीं करना चाहता।
अंतर है, अगर सही से सुना है अभी सब कुछ, तो मेहनत कष्टदाई नहीं लगेगी। शारीरिक कष्ट और मानसिक कष्ट में अंतर होता है न। शरीर पर चोट अगर पड़ेगी तो उससे पीड़ा उठेगी-ही-उठेगी। पर मन पर चोट पड़ रही है तो ज़रूरी नहीं उससे अनुभव पीड़ा का ही हो। अगर बात समझ में आ गई है तो फिर वो चोट आनंद भी दे सकती है। शरीर पर पड़ी चोट सिर्फ़ पीड़ा ही देगी, फ़र्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं। शरीर पर चोट पड़ी है तो पीड़ा ही होगी, लेकिन मन पर अगर चोट पड़ रही है तो आनंद भी मिल सकता है।
तो जिस मेहनत की मैं बात कर रहा हूँ वो ज़रूरी नहीं कि कष्टसाध्य ही हो। वो आनंदप्रद भी हो सकती है कि मेहनत तो कर रहे हैं पर बड़ा आनंद है। कुछ टूट रहा है भीतर लेकिन बुरा नहीं लग रहा, अच्छा लग रहा है, लगता है। मालिश होती है कभी तो वो चटकाता है न उंगलियाँ कभी, ज़रूरी है बुरा ही लगे? नहीं न। वैसे ही अहंकार को थोड़ा चटकाइए, अच्छा लगेगा, वो एक तनाव ही है। उंगलियाँ जब चटकती हैं तो अच्छा क्यों लगता है? क्योंकि उनमें एक तनाव बैठा था। जब चटकाया गया तो तनाव घटता है। वैसे ही अहंकार भी एक तनाव है। तो उसको तोड़िए उसको अच्छा लगेगा।
प्र: बस यही लग रहा है कि जितना बोले हैं बस शब्दों में ही बातें कर रहे हैं। मतलब मैं एक्सप्लेन (समझाना) भी नहीं कर पा रहा हूँ उस चीज़ को अभी।
आचार्य: शब्द इतनी हल्की चीज़ भी नहीं होते हैं। कोई गाली देता है तो बिफर क्यों जाते हो? शब्द ही तो हैं। हम शब्दों से ही बहुत दुःख पाते हैं। और दुःख काटने का तरीका भी शब्द हो सकते हैं। दिनभर रोज़ाना जिन शब्दों में उलझे रहते हो उनको तो कभी नहीं कहते कि, "शब्द ही तो हैं।" और जब यहाँ पर कुछ अलग तरह के शब्दों से रू-ब-रू हो रहे हो, तो कह रहे हो, "शब्द ही तो हैं। शब्द कौन सुने अब?" ये क्या चाल है? यहाँ के जो शब्द हैं, वो सिर्फ़ शब्द हैं। और यहाँ से बाहर निकल कर जो शब्द होंगे उनको फिर गंभीरता से क्यों लेते हो?
एक वीडियो चला करता था टिक-टॉक पर कि दो-तीन लोग होते हैं, वो एक को मारने जाते हैं। वो मारने जाते हैं आस्तीन वगैरह चढ़ा कर के कि, "मारेंगे, मारेंगे!" और जब उसको मारने जाते हैं तो अचानक देखते हैं कि उसके पीछे पंद्रह-बीस पहलवान अचानक खड़े हुए हैं। तो ये नाचना शुरू कर देते हैं तीनों। आप लोगों के सवाल ऐसे ही हैं। जब वो देख लेते हैं कि सामने पहलवान बैठा हुआ है, तो वो नाचना शुरू कर देते हैं। ताकि पीटे ना जाएँ। इसका मतलब ये नहीं है कि उनकी नीयत बदल गई है। इसका मतलब ये है कि तुम्हें धोखा दे रहे हैं। ये जो कह रहे हो न कि अब सवाल बचे ही नहीं, बचे हैं, बस सामने पहलवान देख कर उन्होंने नाचना शुरू कर दिया है। पहलवान जैसे ही हटेगा वो क्या करेंगे फिर से? मारने को उतारू हो जाएँगे। तो ये बहुत पुराना धोखा है कि आचार्य जी आपके सामने आकर तो सवाल बचते ही नहीं। अजी हाँ! सवाल बचते ही नहीं! सवाल बस समझ जाते हैं कि अभी अगर सामने आ गए तो पीट दिए जाएँगे। तो कहते हैं, "अभी हम सामने आएँ ही क्यों? यही तो जगह है जहाँ सामने नहीं आना चाहिए।" तो बड़ा बढ़िया था वो टिक-टॉक वाला वीडियो कि तीन जा रहे हैं ऐसे, "आज मार देंगे, आज मार देंगे!" और फिर जो नाचना शुरू करते हैं वो।