प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे मैं पहले किसी सत्संग में जाती थी, वहाँ पर कुछ बातें बतायी जाती थीं। अष्टावक्र गीता पर आपने बताया कि आज यहाँ पर उसकी उपयोगिता नहीं है। और अष्टावक्र जी ने जैसे बताया है कि ब्रह्म-ही-ब्रह्म है, आत्मा-ही-आत्मा है। तो अभी कुछ दिन पहले मैं अपने एक रिश्तेदार के यहाँ गयी थी जो उसी तरह के सत्संग में जाते हैं। और उनके घर पर किसी कीड़े को ऐसे ही मार दिया गया।
तो आपसे जितना समझ आया है, वो मैंने उनको बताने का प्रयास किया और बताते हुए भी मैं आउट ऑफ कंट्रोल (आपे से बाहर) हो गयी, थोड़ा नाराज़ भी हो गयी। मुझे ये समझ नहीं आता कि वो लोग एक ओर कहते हैं, ब्रह्म-ही-ब्रह्म है और दूसरी ओर वो छोटे जीव-जंतुओं, मच्छर, मक्खी, चूहे आदि को इतनी हिंसा के साथ मार देते हैं और कहते हैं ‘इसकी तो मुक्ति हो गई, इसकी ये योनि यहीं पर ख़त्म हुई, अब ये ऊँची योनि में जन्म लेगा।‘
आचार्य प्रशांत: एक बेसबॉल बैट आप भी रखा करिए — मुक्ति-प्रदाता। ‘ये क्या है?’ ‘ये मुक्ति का उपकरण है। गुरु जी, आप से ज़्यादा तो कोई योग्य है ही नहीं मुक्ति के लिए। आपने इतनी गीताएँ पढ़ी हैं, आप ही कहते हो ब्रह्म-ही-ब्रह्म है। आपको तो कब की मुक्ति मिल जानी चाहिए थी। कृपया मुझे मौका दें।‘
मैं क्या बोलूँ?
प्र: मैं उत्तर नहीं दे पायी, मुझे गुस्सा बहुत जल्दी आ गया।
आचार्य: ऐसों को उत्तर चाहिए ही नहीं। (बेसबॉल के बैट का इशारा करते हुए)
प्र: रिश्तेदार होने के नाते, सम्बन्धी होने के नाते, वो हो नहीं पाता।
आचार्य: उत्तरों से, शब्दों से बस काम चलता तो क्यों कहते कृष्ण अर्जुन को कि ‘उठा गांडीव’? वो दुर्योधन को भी बुलाते और कहते, ‘तू भी आ जा, बैठ इधर, गीता चल रही है, तू भी सुन।‘ उसको बुलाते तो वो आ भी जाता, कृष्ण का इतना सम्मान सब करते थे। एक बार वो आ भी जाता, बैठ जाता, सुन भी लेता, तो क्या हो जाता? एक बिंदु आ जाता है जिसके बाद शब्दों से काम चलता ही नहीं। ज्ञानमार्ग चैतन्य व्यक्तियों के लिए है, मूढ़ों को तो दंड चाहिए। इसीलिए गीता उपनिषदों से अधिक प्रभावकारी रही है, प्रसिद्ध और प्रचलित रही है। उपनिषदों में दंड का कोई विधान ही नहीं है। उपनिषद् बहुत ऊँची चेतना के वातावरण के लिए हैं। गुरु हैं, शिष्य हैं और बहुत ऊँचे तल का संवाद चल रहा है, वो उपनिषद् हैं।
गीता ज़रा ज़्यादा धरातल पर है। वहाँ ऐसे भी लोग मौजूद हैं — दुशासन तरीके के, जयद्रथ घूम रहे हैं। उपनिषदों में आपको दुशासन और जयद्रथ जैसे नमूने मिलेंगे ही नहीं। लेकिन दुनिया में क्या है? उपनिषदों जैसे ज़्यादा चरित्र या गीता जैसे ज़्यादा चरित्र?
प्र: गीता जैसे।
आचार्य: तो इसलिए भारत में गीता को ज़्यादा उपयोगी पाया गया। हालाँकि शुद्ध उपनिषद् ही ज़्यादा हैं, पर लाभकारी गीता ज़्यादा हुई। उपनिषदों में बाण नहीं है, उपनिषदों में गदा नहीं है, और लाभकारी अकसर गदा और बाण ही होते हैं। तो लेकर चला करिए (गदा का इशारा करते हुए)।
एक हाथ में अष्टावक्र गीता और कंधे पर गदा।