
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा नाम सौम्य है। मैं फिलहाल आईआईटी दिल्ली में मास्टर्स कर रही हूँ। इससे पहले मैं आईटी में कॉर्पोरेट जॉब करती थी। मेरा ये सवाल है कि एक आम भारतीय को औसतन अनावश्यक तनाव से ज़्यादा गुजरना पड़ता है।
जैसे कि आज कुछ घंटों बारिश हो गई तो सारे पोथोल्स भर गए थे और सारा आना-जाना बंद हो गया था। जैसे कि अगर हम सिग्नल पर खड़े हैं तो पीछे से कोई आकर घुसा देगा। हम अपनी टर्न में अगर सही भी खड़े हैं तो कोई आके यहाँ से आगे खड़ा हो जाएगा। अगर हम कोई भी सामान बाहर रखते हैं, जैसे मैं हॉस्टल में रहती हूँ, तो बार-बार कहा जाता है कि सामान संभाल के रखिए, चोरी न हो जाए। यहाँ ताले लगाइए, साइकिल को लॉक करके रखिए। या फिर बहुत ही छोटे स्पेस में हम दो-तीन लोगों को रहना पड़ता है।
और वही मैं अपने दोस्तों से बात करती हूँ जो जापान या कोरिया में रहते हैं, वो बताते हैं कि मामला बिल्कुल अलग है इससे। तो ये जानते हुए कि ये स्ट्रेस, ये तनाव अनावश्यक है। ये नहीं भी होता, ऐसा हो सकता है दुनिया के किसी कोने में। ये जानते हुए भी मुझे समझ नहीं आता कि पेशेंस कैसे रखूँ और तनाव हर वक़्त बना रहता है, कोई न कोई छोटी बात पर लेके।
आचार्य प्रशांत: देखिए, कई तरीक़े के उत्तर दिए जा सकते हैं इस स्थिति को। और अगर अभी आप युवा हैं, जीवन की शुरुआत ही कर रहे हैं, तो पहला उत्तर यही होगा कि बाक़ी देश जैसे भी जी रहे हैं, आपको वैसे जीने की कोई बाध्यता, कोई कर्तव्य, कोई ऑब्लिगेशन नहीं है। आप मत सोचिए बहुत ज़्यादा सामुदायिकता के बारे में, बिलॉन्गिंगनेस के बारे में। आप अपने लिए सबसे पहले एक थोड़ा साफ़-शांत कोना तलाश लीजिए।
अभी आप मुझसे सवाल भी कर रही हैं क्योंकि आप आईटी प्रोफेशनल रह चुकी हैं। अब आप आईआईटी में हैं और अभी आप युवा हैं तो आपके भीतर एक विरोध भी है और प्रश्न भी है। कुछ साल और बीतेंगे और आपको ये सवाल उठना भी बंद हो जाएगा, अगर आप इसी व्यवस्था में रह गईं तो। ज़्यादातर लोगों को ये सब बातें बुरी भी नहीं लगती हैं, वो इसी रंग में इतना रंग चुके हैं कि उन्हें अब और कोई रंग नहीं पता। ठीक वैसे जैसे कहते हैं न संत कबीर, कि “कहें कबीर काली चादर, कैसे चाढ़े रंग।” आपकी चादर भी पूरी काली हो जाएगी, फिर उस पर कोई रंग नहीं चढ़ पाएगा।
इससे पहले कि ये व्यवस्था, ये समाज आपको भी पूरी तरह से अपने रंग में रंग डाले — अपने आप को बचाइए।
थोड़ा-सा महसूस करिए कि आज़ाद हवा में साँस लेकर फेफड़े कैसा अनुभव करते हैं, और फिर थोड़ी ताक़त आती है। साफ़ हवा में, शांत जगह में एक भीतरी मज़बूती विकसित होती है। उसके बाद जो आपने जाना है, वो आप दूसरों तक भी ला सकती हैं। फिर आप कह सकती हैं कि ये जो कोना मैंने अपने लिए खोजा, इसको मैं विस्तार दे सकती हूँ। इसमें मैं दूसरों को आमंत्रित कर सकती हूँ, या कम से कम दूसरों को प्रेरित कर सकती हूँ कि ऐसा ही कुछ वो भी अपने लिए करें।
पर वो सब देखिए, बाद की बात है। ये सब दूसरों तक पहुँचाना, नेतृत्व कर पाना या किसी की भलाई कर पाना, ये तभी हो पाएगा जब पहले आप बची रहेंगी। जो चीज़ आपको आज तनाव की तरह लग रही है, वो दूसरों के लिए जीने का ढर्रा बन चुकी है, उनको नहीं लगता इसमें तनाव। बल्कि अगर आप उनको ऐसी ज़िंदगी दे देंगे जिसमें तनाव नहीं होगा तो उनको तनाव हो जाएगा। वो कहेंगे कि कुछ कमी आ गई ज़िंदगी में। या उनको लगेगा कि जीवन निरुद्देश्य हो गया क्योंकि आज किसी से लड़े नहीं, किसी को गाली दी नहीं, किसी की गाली खाई नहीं, जीवन बेमकसद हो गया।
तनाव वो आपके लिए, और ये भली बात है कि अभी आप में जीवन है तो बुराई आपको बुराई जैसी लग रही है। कुछ दिनों में ये सड़कें, ये व्यवस्था आपको पूरी तरह से निचोड़ लेगी। जीवन आपका सोख लेगी बिल्कुल ये। और फिर आप कहेंगी, नहीं, “तनाव कहाँ है, सब ठीक ही तो चल रहा है। ऐसा ही तो होता है न। और जब इतने लोगों को इसमें कोई तकलीफ़ नहीं है तो मैं ही क्या खास हूँ? मैं क्यों आवाज़ उठा रही हूँ? पर हाँ, सही बात है। साइकिल बाहर खड़ी करी है तो ताला लगाओ न, तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है। और हाँ, सही बात है, अपना सामान बाहर क्यों छोड़ रहे हो? चोरी हो जाए तो? और इतना भी क्या सेठानी बनना कि बहुत सारी जगह माँग रही हो? एक कमरा दे तो दिया, इसमें अगर तीन लोग रह रहे हो तो इतनी क्या बुराई हो गई भाई? सादगी बड़ी बात है।”
हमें बताया गया है न कि — सादा जीवन, उच्च विचार। तो एक ज़रा-से कमरे में भी अगर तीन लोग घुसे हुए हैं तो इसमें बुरा क्या हो गया? ये तो उच्च नैतिकता की बात है, साधुता की बात है।
ये सब बातें आपके ऊपर भी चढ़ जाएँगी। और फिर बल्कि ये होगा कि आपके सामने भी कोई आएगा जो कहेगा, दम घुटता है मेरा। तो आप उससे कहेंगी, ज़्यादा अय्याशी छा रही है। दम क्या घुटता है? हमारी माँ ऐसे ही रही है, हमारे बाप ऐसे ही रहे, हमारे चचे-ताऊ सब ऐसे ही रह रहे हैं, पूरा देश ऐसे ही रह रहा है। तुम ही पर भोगवाद ज़्यादा चढ़ा हुआ है कि तुम ज़्यादा अपने लिए जगह माँग रहे हो। ज़्यादा विलासिता तुम पर हावी है कि तुम कह रहे हो कि जीवन का एक स्तर होना चाहिए, गुणवत्ता होनी चाहिए। क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ माँग रहे हो। ये सब क्या बातें हैं?
बेकार की बातें हैं, कुछ नहीं होती क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़। जैसे सब जी रहे हैं वैसे ही जियो। ज़हरीली हवा, मटमैला पानी, गड्ढों वाली सड़कें, बदतमीज़ लोग, दमघोटू व्यवस्थाएँ — झेलो इनको। क्योंकि यही तो जीवन है। तुम भी झेलो क्योंकि हमने झेला है। ऐसे हो जाओगे। ऐसे होना है? और अगर ऐसे नहीं होना तो सबसे पहले अपने बचने का इंतज़ाम कर लो, तुम ही अगर बर्बाद हो गए तो तुम किसी और को क्या आबाद करोगे।
वो कहते हैं न, जब आप प्लेन में बैठती हैं तो जो घोषणा होती है, उसमें कहते हैं कि अगर कोई आपात स्थिति आती है, केबिन में ऑक्सीजन का दबाव कम होने पर सबसे पहले अपना मास्क पहन लीजिए। उसके बाद किसी और की मदद करिएगा।
हमारे केबिन में बड़े अफ़सोस की बात है, लेकिन हवा का दबाव बहुत कम हो चुका है और जो हवा है वो भी ज़हरीली है। सबसे पहले अपने लिए मास्क धारण करिए। हो सकता है, आप 10 साल, 20 साल बाद एक सुपर वूमन बन जाएँ। जब आप कहें कि मेरे भीतर इतनी निष्कामता आ गई है कि मैं अपना मास्क अब उतार रही हूँ जनकल्याण के लिए। मैं चाहती तो मास्क पहन करके उड़ सकती थी अमेरिका, पर मैं नहीं उड़ रही। या मैं गई थी, मैं वापस आ रही हूँ और मैं ये मास्क उतार रही हूँ ताकि मैं दूसरों की मदद कर सकूँ। पर समय लगेगा, अभी आप सुपर वूमन नहीं हैं। अभी तो ख़ुद को बचा लीजिए।
लोग ख़ुद को बचाते नहीं गए। लोगों ने अपनी ज़िंदगी को बर्बाद कर ली दूसरों के ख़ातिर, तथाकथित रूप से दूसरों की देखादेखी। और इसी लिए आज बर्बाद लोगों की बर्बाद व्यवस्था इतनी बड़ी हो गई है।
आपने पूछा न कि लोग इतना तनाव क्यों झेलते रहते हैं? क्योंकि दूसरे झेल रहे हैं। दूसरे क्यों झेल रहे हैं? क्योंकि उनसे पहले और झेल रहे थे। हमें बहुत-बहुत सारे लोग चाहिए जो ज़ोर से कह दें, “नहीं, तुम सब ने झेला है, मुझे नहीं झेलना। जो कुछ तुमने किया है मुझे नहीं करना। या फिर तुम मुझे आश्वस्त कर दो कि जो तुम कर रहे हो उसमें जीवन है। मुझे तो यही दिख रहा है, तुम जो कर रहे हो वो सब जीवन-विरुद्ध है, ऐण्टी-लाइफ़ है।”
हम में बड़ी एक गड़बड़ ताक़त होती है। प्रकृति की ही दी हुई, ऐतिहासिक रूप से वो हमारे काम आई है। जो विकास की पूरी यात्रा रही है न, इवोल्यूशन की जर्नी, उसमें हमारे काम आई है। वो है, अनुकूलन की क्षमता। शारीरिक रूप से ऐक्लेमटाइज़ हो जाना और मानसिक रूप से कंडीशन्ड हो जाना। हम अनुकूलित हो जाते हैं। जैसा वातावरण होता है न, उसके अनुकूल हो जाते हैं। वैसे ही हो जाते हैं, शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। तो हमारी देखिए, विकास की यात्रा में ये चीज़ हमारे काम आई।
हम सब जानते हैं कि होमो सेपियन्स की शुरुआत हुई थी अफ्रीका से। लेकिन देखिए, वो यूरोप पहुँच गए और वो वहाँ भी सफल हो गए, बस भी पाए, समृद्ध हो गए, पले-पनपे, अपनी आबादी बढ़ा पाए और सभ्यताएँ विकसित कर लीं। ये सब क्या है, कि ठंडी जगह पर भी अनुकूलित हो गया वो आदमी, जो पैदा ही हुआ था अफ्रीका में। ये क्या है? अनुकूलन।
आज भी आप देखते हो कि आप एक देश से उठकर के दूसरे देश चले जाते हो और वहाँ पर माहौल में, तापमान में, जलवायु में, खानपान में सौ तरह के अंतर होते हैं। पर आप ढल जाते हो। ये काम दूसरे जानवर नहीं कर पाते, ये काम पेड़-पौधे भी नहीं कर पाते।
आप कोशिश करिए अगर कि आम का पेड़ आप रेगिस्तान में लगा दें तो नहीं लगेगा। लेकिन आम के पेड़ वाले गाँव में रहने वाला बंदा रेगिस्तान में जाकर रह लेता है। तो प्रकृति ने हमें क्षमता दी अनुकूलन की, जो आम के पेड़ को नहीं दी। आम का पेड़ रेगिस्तान में नहीं चलेगा, पर आम वाला रेगिस्तान में भी चल जाएगा। हमें क्षमता मिली, वो हमारे काम आई, उसी क्षमता के कारण आज हम मनुष्य कहलाते हैं। हम अलग-अलग जगहों पर फल-फूल पाए, अपने आप को स्थापित कर पाए, अलग-अलग परिवेशों के अनुकूल अपने आप को ढाल पाए।
लेकिन उसका नतीजा ये निकला है कि हम जहाँ होते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। तो फिर जहाँ हैं वहाँ से आगे बढ़ पाने की हमारी क्षमता नष्ट हो जाती है।
शारीरिक रूप से ये ठीक है, जहाँ हो वैसा होना भी पड़ेगा। शारीरिक रूप से ये ठीक बात है। ठंडी जगह जाओगे तो अच्छा है कि तुम्हारा जो शरीर है, वो अपने आप को थोड़ा-सा एडैप्ट करे, ठंडी जगह के अनुकूल हो जाए। वो ठीक है, कोई दिक़्क़त नहीं। लेकिन वही चीज़ जब मन करने लग जाता है तो भारी समस्या हो जाती है। तो ऐक्लेमटाइज़ेशन तक ठीक है, कंडीशनिंग गड़बड़ हो जाती है। या ऐसे कह दो कि
तन ऐक्लेमटाइज़ हो जाए तो ठीक है, मन ऐक्लेमटाइज़ हो जाता है, ये बात गड़बड़ हो जाती है।
अब आपको लगता है कि जो भी माहौल है वही ठीक है। जो चल रहा है वही ठीक है, क्योंकि हम उसके अभ्यस्त हो गए। वो ठीक क्यों है? क्योंकि वो चल रहा है, इसलिए ठीक है।
ये कैसा गोल-गोल तर्क है! और इस तर्क की इंतहा जानती हैं क्या होती है?
अब हमको पता है कि, उदाहरण के लिए, “सत्यमेव जयते।” और ये बात हमें भीतर से ठीक भी लगती है कि हाँ, सत्य ही जीतेगा। पर अनुकूलन की प्रक्रिया का नतीजा ये होता है कि हम कह देते हैं कि जो जीत रहा है वही सत्य है। सत्य को जीतना चाहिए, तो हमें अपने आसपास जो जीतता दिखाई देता है, हम उसी को कह देते हैं — फिर यही सच्चा होगा क्योंकि ये जीत रहा है, इसी से प्रमाणित होता है कि ये सच्चा होगा। ये होता है भीतरी अनुकूलन का दुष्परिणाम। समझ रहे हैं?
इसी तरह से ये भी हम कहते हैं, कि सत्य जो है वो ऑम्नी-प्रेज़ेंट है। वो लगातार हर जगह है, अंतर्यामी है। तो जो कुछ भी हर जगह होता है, हम उसी को फिर सत्य मान लेते हैं। अब हमारे आसपास, माने जो चल रहा है, जहाँ तक आँख देख पाती है, वहाँ जो चल रहा है, हमें लगता है वही सत्य है। ये होता है इनर कंडीशनिंग का दुष्परिणाम।
अब आप विद्रोह क्यों करोगे? अगर आपके चारों तरफ़ जाम ही जाम लगा हुआ है तो आपको लगेगा जाम ही जीवन का सत्य है। अब क्यों उसके प्रति कोई विरोध रखोगे या विद्रोह करोगे? भाई, चारों तरफ़ जो होता है वही सत्य है। तो अगर चारों तरफ़ सड़कें ख़राब हैं और उन पर जाम लगा है तो माने जीवन ऐसा ही होता है। ये झूठ नहीं है, यही सच्चाई है और सच्चाई से विद्रोह नहीं किया जाता। तो मुझे कुछ भी क्यों करना है? और अगर आप कुछ करो तो दूसरे कहेंगे, “हाँ-हाँ, तू ही नवाब पैदा हुआ है। जैसे सब खड़े हैं, तू भी खड़ा हो जा, जब जाम खुलेगा तो चल लियो।”
या कतार बहुत लंबी है, एक आदमी कहे इतनी लंबी कतार क्यों लगी हुई है भाई? साधारण-सा काम है। अब बैंक में कतार इतनी लंबी है कि वो चौराहे तक निकल के चली गई बैंक से। और एक आदमी खड़ा हो के बोले, ये ठीक नहीं है। तो बाक़ी सब कहेंगे, “हम बेवकूफ़ हैं? हम खड़े हैं। जैसे हम खड़े हैं चुपचाप, तू भी खड़ा रह।” क्योंकि जो चारों तरफ़ चल रहा है, वही तो सत्य है।
आप भी ऐसे ही हो जाओगे। जो चारों तरफ़ चल रहा है न, वो आपको भी सच लगने लगेगा और वो प्रक्रिया शुरू हो चुकी होगी। बहुत मामलों में आपने बहुत चीज़ों को स्वीकार करना शुरू कर लिया होगा। और इसीलिए अपनी जगह से हट के दूसरी जगहों की यात्राएँ बहुत आवश्यक होती हैं। चाहे अपने गाँव से हटकर दूसरे गाँव जाने की बात हो, चाहे दूसरे शहर, दूसरा प्रांत, देश का दूसरा क्षेत्र या फिर विदेश। जब वहाँ जाओ तो आपको पता चलता है कि कितनी बातें, जिनको आप जीवन का अनिवार्य हिस्सा ही मान बैठे थे, जीवन का अनिवार्य सच ही मान बैठे थे, वो अनिवार्य नहीं है।
देखो, दूसरे लोग उन बातों को बिल्कुल हटा करके जी रहे हैं और मौज में जी रहे हैं। और आप कह रहे थे, नहीं, पर ये चीज़ अगर ज़िंदगी से हटा दी तो जिएँगे कैसे? ये देखो, प्रमाण, हटा रखा है और मौज में जी रहे हैं। तुमसे ज़्यादा बेहतर जी रहे हैं, देखो। तुम जो बोझ लिए बैठे हो उस बोझ के बिना भी फल-फूल रहे हैं, उस बोझ के हटाने के कारण ही फल-फूल रहे हैं।
यात्राएँ बहुत करी पुराने ज़माने में खोजियों ने। क्यों होती थीं इतनी यात्राएँ? ताकि वो एक जगह से अनुकूलित होकर न रह जाए। और यात्राओं का फिर एक दूसरा लाभ होता था कि जो उन्हें मिला, जो उन्होंने जाना, यात्रा करते थे तो दूसरों में भी बाँटते चलते थे। ख़ुद भी जानते थे और यात्रा करते थे तो नए-नए लोग मिलते थे, उनको बताते भी चलते थे। तो खोजियों, ज्ञानियों, संतों, गुरुओं, सब ने खूब यात्राएँ करीं। खूब यात्राएँ करीं, वरना फंस जाते। वही जो अभी, कि बहता पानी निर्मला। आप भी बहता पानी हो जाओ जल्दी से।
बात आ रही है समझ में?
अभी शिकायत भी कर रही हो, आगे शिकायत भी नहीं करोगी आप। आगे कहोगी, यही तो जीवन है। वो फ़िल्मी गाना है न, “ये जीवन है, यही तो है, छाँव-धूप, रंग-रूप, थोड़ी-थोड़ी यहाँ खुशियाँ हैं, थोड़े ग़म भी हैं।” आप भी वही बन जाओगी कि थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है। ज़िंदगी ऐसी ही तो होती है बेटा, बहुत मुँह खोल के माँग नहीं करनी चाहिए। रूखी-सूखी खा के, ठंडा पानी पीए — संतोषं परमं सुखम्।
अरे, यही क्या कम है कि ट्रेन पर बैठे थे तो ज़िंदा अपने शहर में उतर गई। आभारी रहो कि ज़िंदा उतरी है, एक टुकड़े में उतरी है, वन-पीस। नहीं तो कितने ही दरिंदे होते हैं, हत्या बालातकर कुछ भी हो सकता है। तू न उतरती, एक बोरा उतरता। तो तुझे जितनी भी समस्या हुई रास्ते में, उसको हटा कृतघ्न मत बन। एहसान-फरामोश लड़की, चल शुक्रिया अदा कर।
आप भी ऐसे ही हो जाओगी। फिर रेलवे स्टेशन पर जाओगी और गु की गंध नहीं आएगी तो कहोगी, अरे, अमोनिया की डेफ़िशिएन्सी हुई जा रही, कोई है नहीं इधर खुले में मूतने वाला। चलता था एक-दो होते थे क्लास में, वो कहेंगे, ज़रा पीठ खुजा देना। कहे, क्या है? बोले, आज बाप ने पीठ पर चप्पल नहीं मारी है तो पीठ बड़ा असहज-सा अनुभव कर रही है, तो खुजला दो। आदत लग जाती है। अनुकूलन, कंडीशनिंग।
अरे, जो ठीक नहीं है उसको क्यों सहे हम? क्यों?
ये खामोशी का हुक़्म किसने जारी किया है? और व्यवस्था अगर बदल नहीं सकते हो तो उसमें पड़े-पड़े सड़ना क्यों है? हटो ना। एक हद तक ही शिकायत शोभा देती है। मेरा गाँव ऐसा है, मेरे गाँव में ये नहीं है, मेरा समाज मुझे पढ़ने-लिखने नहीं दे रहा, ऐसा है, वैसा है। तो वहाँ पड़ी क्यों है तू? किसने तुझे बता दिया कि तेरा कर्तव्य है हर तरह की ज्यादतियाँ बर्दाश्त करती रहना।
शुरू में शिकायत करो तो अच्छा लगता है क्योंकि प्रतीत होता है कि आँखें खुल रही हैं। देखो, विरोध जन्म ले रहा है। अच्छी बात है, आँखें खुल रही हैं। पर कोई शिकायत ही करता रह जाए, तो ये गड़बड़ बात है।
अगर समझ में आ गया है कि गलत जगह फँसे हुए हो, तो आगे बढ़ो।
और इसमें तुमने अपनी जगह के साथ कोई विश्वासघात नहीं कर दिया। तुमने कोई ठेका नहीं ले रखा है कि अपनी जगह की ख़ातिर, अपनी व्यवस्था की ख़ातिर अपनी जान कुर्बान कर दो। नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, जीवन ने तुम्हारे ऊपर इस तरह का कोई कर्तव्य नहीं छोड़ा है, बिल्कुल भी नहीं। तुम्हारा कर्तव्य है सत्य के प्रति और मुक्ति के प्रति। हाँ जब ख़ुद कुछ पा लो तो दूसरों में बाँट जरूर देना, ये करुणा की बात है। ख़ुद पंख मिल जाए, आसमान का स्वाद ले लो, तो दूसरों को भी उड़ने के लिए प्रोत्साहित कर लेना। वो अच्छी बात है। पर इसका मतलब ये नहीं है कि पिंजरे के कैदी पंछियों के साथ तुमको भी पिंजरे में ही पड़े रहना है। ये कह के कि मेरी ज़िम्मेदारी है, मेरा अपनापन है। ना, ना, तुम उड़ो। और क्या पता, तुम्हारी उड़ान देख के एक-दो और को पंख खोलने का हौसला आ जाए।
देखो, जितनी भी व्यवस्थाएँ होती हैं, वो ट्रैफिक जाम हो, चाहे सरकारी दफ्तरों का भ्रष्टाचार हो, अव्यवस्था हो, चाहे प्राइवेट सेक्टर की मनमर्जी हो, चाहे रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन पर जो हो रहा होता है, वो हो — वो सब कुछ उन लोगों का प्रतिबिंब होता है जो लोग उस व्यवस्था को बना और चला रहे हैं। ख़राब व्यवस्था है, माने लोग ख़राब हैं। सीधी-सी बात, कोई बहुत गहरा कारण नहीं है। सड़क ख़राब है, माने बंदा ख़राब है। जिस क्षेत्र की सड़कें बहुत ख़राब पाई जाएँ, जान लो कि वो लोग भी बहुत अच्छे नहीं हो सकते।
हाँ, बताइए आगे।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद।