प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी! मेरा सवाल ये है कि जब हम स्कूल में रहते हैं तब मार्क्स (अंकों) की चिन्ता करते हैं, जब कॉलेज जाते हैं तब जॉब (नौकरी) के बारे में सोचते हैं, मार्क्स के बारे में सोचते हैं; हमेशा ऐसे सोचते ही रहते हैं। और जब नहीं सोचते तब हम कुछ-न-कुछ कंज्यूम (उपभोग) करते रहते हैं जैसे कि मूवी देखना या यूट्यूब पर वीडियो देखना। हालाँकि वो सब समय की बर्बादी है ये हमें पता है तो भी हम वही करते रहते हैं। ऐसा क्यों है हमारे साथ?
आचार्य प्रशांत: प्रेम नहीं हुआ है, और क्या। कोई बात ही नहीं है, इधर-उधर भटक रहे हो। कुछ ऐसा बहुत ताक़तवर चाहिए होता है न जीवन में जो आपके सब छितराये भटकते हुए हिस्सों को एक सशक्त चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच ले। नहीं तो इधर-उधर छिटके रहने के, भागते और छितराये रहने के बहाने और कारण तो जीवन में न जाने कितने हैं।
उन सब कारणों से ऊपर का कोई कारण चाहिए होता है, नहीं तो जीवन वैसा ही रहता है बिलकुल कि जैसे शीशा ऊपर से गिरा हो और टूटकर बिखर गया हो। वो जो छितराये हुए टुकड़े रहते हैं काँच के, उनमें कोई आपको ढाँचा, कोई तारतम्य पता चलता है?
प्र: नहीं।
आचार्य: बस आम आदमी का जीवन ऐसे ही टूटे हुए शीशे की तरह होता है। या दूसरा उदाहरण ले लो कि जैसे लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े हों या छोटी-छोटी कीलें हों, उनका एक डब्बा हो और वो डब्बा ज़मीन पर गिर गया हो और सारे टुकड़े और कीलें बिखर गये हों। उन कीलों की दिशाओं में कोई समरसता होगी?
किसी कील का मुँह इधर को है, किसी का उधर को है। कोई ऐसी पड़ी है, कोई वैसी पड़ी है। कोई थोड़ा इधर पड़ी है, कोई थोड़ा उधर निकल गयी है लुढ़कते-लुढ़कते, घूमते-घूमते। ऐसे ही हमारी ज़िन्दगी होती है। और फिर अगर पास में आ जाए कोई बड़ा चुम्बक, तब क्या होगा? ये सारी कीलें खिंच करके एक दिशा में निर्दिष्ट हो जाएँगी। वो चाहिए होता है, उसी से जीवन में एक समरसता, एक धार आती है।
वो क्यों नहीं आता? क्योंकि वो क़ीमत माँगता है। छितराये रहने का एक अपना सुख होता है। ठीक वैसे जैसे काम बहुत है, पता है, अलार्म भी बज गया, लेकिन फिर भी रजाई में दुबके रहने का अपना सुख होता है। कोई है जिसने उस सुख का अनुभव नहीं करा? कोई है जिसने उस सुख के सामने कभी घुटने नहीं टेके? साढ़े छः बजे उठना था, बहुत ज़रूरी है, दो बार बज चुका अलार्म और हर बार अपनेआप को क्या बताया है? बस पाँच मिनट और। काम ही इतना ज़रूरी नहीं है न। बेहोशी के मज़े!
जीवन में जब तक कुछ ऐसा नहीं लाओगे जो मजबूर नहीं कर देता रजाई को उठाकर फेंक देने के लिए, चाहे प्रेम चाहे भय, तब तक तो बस जवानी ऐसे ही धीरे-धीरे बर्बाद जाती रहेगी।
और कुछ सालों के बाद पाओगे कि इस हालत में नहीं हो कि रजाई से बाहर आ सको। बाहर आना भी चाहोगे तो दो लोग पकड़कर वापस डाल देंगे, कहेंगे, ‘दादाजान, कुछ ख़याल करो, कहाँ ठंड में दीवाने हो रहे हो।’
ऐसा नहीं है कि आपको मालूम नहीं कि क्या खो रहे हैं आप और ऐसा नहीं है कि आपको मालूम नहीं कि क्या है प्यार के क़ाबिल; इजाज़त नहीं देते। मैं तो बार-बार उसी एक शब्द पर आकर अटक जाता हूँ — चुनाव। प्रेम भी बेसाख़्ता यूँही नहीं हो जाएगा, अनुमति देनी पड़ती है। वो भी एक चयन है, एक निर्णय है, और नहीं दोगे अपनेआप को अनुमति तो होने का नहीं। बिना अनुमति के फिर जो हो जाए वो कुछ और है, वो कामना का वेग हो सकता है, वासना का ज़ोर हो सकता है।
वास्तविक प्रेम में तो आपकी चेतना सम्मिलित होती है, एक निर्णय शामिल होता है। वो निर्णय क़ीमत माँगता है। वो क़ीमत चुकाइए। जिस चीज़ को जान जाइए कि सही है उसके साथ अडिग रहने की शुरुआत तो करिए कम-से-कम।
अपने उन पलों को अपना साथी बना लीजिए जब आपका होश तुलनात्मक रूप से थोड़ा ऊपर रहता है और उन पलों में अपनेआप को होश से बाँध दीजिए। कुछ शपथ उठा लीजिए, कुछ प्रण कर लीजिए, कहीं पर जाकर के दस्तख़त कर आइए, किसी को वचन दे दीजिए।
जैसे सुबह का जो अलार्म है वो कब लगाते हो, जब जगे होते हो तब लगाते हो न। जगने के लिए भी अलार्म तब लगाया जाता है जब जगे होते हो। तो जब जगे हो तभी कुछ इंतज़ाम कर लो कि आगे बेहोश सोते न पड़े रह जाओ। जिन पलों में चेतना थोड़ी उठी हुई है उन्हीं पलों में अपनेआप को विवश कर दो। कुछ बहुत भीतरी लोकतंत्र चलाने की ज़रूरत नहीं है, आपको एक भीतरी तानाशाह चाहिए। अपने प्रति तानाशाही रखें ज़रा, क्योंकि स्वयं से पूछ-पूछकर करेंगे तो काम होने से रहा। सच्चाई अल्पमत में ही रहेगी हमेशा।
कोई बड़ा दायित्व नहीं उठाओगे तो समय और ऊर्जा व्यर्थ कामों में बिखरते चले जाएँगे। अगर अपने ऊपर स्वयं नहीं अनुशासन रख पाते तो किसी और को अधिकार दे दो तुम्हें डंडा मारने का और क़सम खा लो कि अगर वो डंडा मारेगा तो प्रतिवाद नहीं करेंगे।
या तो इस लायक़ हो जाओ कि ख़ुद ही ख़ुद को डंडा मार लो और इस लायक़ नहीं हो सकते तो किसी क़ाबिल आदमी को ये अधिकार सौंप दो कि देखिए हमें अपना पता है और आपको पूरी इजाज़त देते हैं, ज़ोर से मारिएगा और कितना भी हम चिल्लायें, बल्कि जितना चिल्लायें उतनी ज़ोर से।
समझ में आ रही है कुछ बात?
अगर समझ में आ रही है तो यही मौक़ा है, डंडा उठाओ, किसी के हाथ में दे दो — आपका डंडा, हमारा पिछवाड़ा। हमेशा उस बिंदु पर हम नहीं रहेंगे जिसपर किसी विशिष्ट माहौल में पहुँच जाते हैं। जब वहाँ पहुँच गये हो तब वहाँ का लाभ उठा लो।
पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाते हो, तत्काल क्या करते हो? पता है यहाँ रहोगे नहीं, घर तो बसने नहीं वाला, यहाँ से उतरोगे तो है ही, तो जल्दी से वहाँ क्या कर लेते हो? क्या कर लेते हो? सेल्फी खींच लेते हो। है न? वैसे ही जो जगहें, जो मुक़ाम पता है कि किस्मत से बस कभी-कभी मिलते हैं, उनका पूरा फ़ायदा उठा लेना चाहिए।
प्र: सर, मैं देखता हूँ कि जैसे आज की पीढ़ी में कोई टुच्ची चीज़ कर दो — डांस कर दो, स्वैग दिखा दो — तो बड़ी वाहवाही मिलती है। वहीं, कोई अच्छी बात कर दो तो वो ज़्यादा स्वीकार्य नहीं होती है। तो अगर हम कुछ अच्छा करना भी चाहते हैं तो समाज की तरफ से एक विरोध रहता है। उस चीज़ को कैसे सकारात्मकता से लिया जाए और कैसे आगे बढ़ा जाए?
आचार्य: मैं आपसे बात कर रहा हूँ, सब लोग तो उसका विरोध नहीं कर रहे न? ये तो निर्भर करता है न कि आप किनसे बात कर रहे हैं। क्यों तुमने ऐसा झुंड, ऐसी संगति बना रखी है जो किसी भी ठीक चीज़ का विरोध करते ही हैं। संगति तो अपना चुनाव होती है न। और जिनको तुमने चुन रखा है उनके आगे भी और बहुत लोग हैं दूसरे। पहले तो ऐसे लोगों को चुनो जो जीवन पर बोझ की तरह हो जाएँ और फिर आकर शिकायत करो कि मेरे जीवन में तो सब व्यर्थ-ही-व्यर्थ लोग हैं।
याद दिला दूँ कि दुनिया की आबादी आठ-सौ-करोड़ की है, है न? और उसमें से कितने लोगों को तुमने अपना समाज बना रखा है? जिनको जानते हो, जो तुम्हारी कॉलिंग लिस्ट (कॉलिंग सूची) में हैं, वाट्सएप ग्रुप में हैं, कितने लोग हैं? अस्सी? दो-सौ?
आठ-सौ-करोड़ में से अस्सी लोगों को पकड़कर के दावा कर रहे हो — दुनिया बड़ी ख़राब है। दुनिया ख़राब है या तुम ख़राब हो कि आठ-सौ-करोड़ की दुनिया में जो अस्सी बिलकुल बदहाल नमूने थे उन्हीं को तुमने समेट लिया चुन-चुनकर। तुम्हें और कोई नहीं मिला था? तुम्हारी संगति तुम्हारा चुनाव है न, क्यों ऐसे लोगों को पकड़े बैठे हो? उन बेचारों को भी ज़रा मुक्ति दो, वो भी तुमसे परेशान ही होंगे।
अब ये सब लाइव (सीधा प्रसारण) हो रहा है, यहाँ पर आकर न जाने किन लोगों की शिकायत कर रहे हो। वो भी सुन रहे होंगे, बेचारे तड़पते होंगे कि जाकर पोल खोल रहा है पूरी दुनिया में। छोड़ो न उनको।
अगर ईमानदारी से तुम्हें लगता है कि तुम पूरी कोशिश कर चुके हो उनको समझाने की, बताने की, तो फिर प्रतीक्षा करो कि उनका जब वक़्त आएगा तब समझेंगे। बहुत छोटा सा पेड़ हो अभी, उसमें से फल की उम्मीद करना व्यर्थ है न। फल सबके पेड़ों में लगना है, पर समय आने पर। जिसका समय अभी नहीं आया है, उसके ऊपर तुम ज़ोर लगाये जाओ तो एक नन्हा पौधा है, हो सकता है तुम उसको भी ख़राब कर दो। ठीक है?
देखिए, हम बड़ी विचित्र बात करते हैं। हम जिन लोगों के साथ होते हैं न, हम उनके साथ यूँही नहीं होते। उनसे हमें कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा मिल रही होती है इसीलिए उनके साथ होते हैं। चाहे आर्थिक तौर पर, चाहे सामाजिक तौर पर, मानसिक तौर पर उनसे कुछ तो मिल ही रहा होता है। ठीक? अब हमने उनको पकड़ इसलिए रखा है क्योंकि हमें उनसे कहीं-न-कहीं कुछ तो लाभ है। उन्हें पकड़ भी रखा है और इधर-उधर उनकी शिकायत भी करेंगे, ये तो बेईमानी है, अन्याय है।
वो इतने ही बुरे हैं तो क्यों लौट-लौटकर उन्हीं के पास जाते हो? जाते इसलिए हो ताकि उनसे जो मिल रहा है वो मिलता रहे। तो हम कह रहे हैं कि हमें दोनों तरह के सुख चाहिए, उनसे जो मिल रहा है उसका सुख भी और उनके ख़िलाफ़ शिकायत करने का सुख भी। सब रिश्तों में ऐसा ही है। ऐसा है या नहीं है, बोलिए।
एक सीमा के बाद, मैं तो पूछता हूँ, क्यों झेल रहे हो? इतना ही बुरा है अगर मामला, तो क्यों झेल रहे हो? लोग आएँगे, बैठेंगे, धाराप्रवाह बीस मिनट तक शिकायत-ही-शिकायत, शिकायत-ही-शिकायत, शिकायत-ही-शिकायत।
मैंने कहा, देखिए, आपकी बात में दम है, बिलकुल बीस मिनट तक आपने दिल से ज़हर उगला है। अब आपके ज़हर को पूरा सम्मान देते हुए मेरी प्रार्थना है कि जिनके ख़िलाफ़ इतना ज़हर है आपके पास, उनको त्याग ही दें। क्योंकि इतना ज़हर रखकर के तो तुम उस रिश्ते के साथ भी क्या इंसाफ़ कर रहे हो! या फिर कोशिश करो पूरी चीज़ों को बदलने की। बदल जाए तो अच्छा, नहीं बदले तो प्रतीक्षा करो।
'भारत बहुत बुरा है, भारत बहुत गन्दा है। भारत ऐसा है, भारत वैसा है।' तो साहब दुनिया में इतने देश हैं, कहीं और चले जाइए। या अगर भारत में हैं तो शिकायत करना बन्द कीजिए, सुधारने के लिए कुछ काम करिए। रहेंगे भी भारत में और गाली भी भारत को देंगे, ये बात हमें समझ में नहीं आती। देश भक्ति के नाते नहीं, इंसान होने के नाते, कुछ अगर इतना ही बुरा है तो क्यों चिपके बैठे हो, छोड़ो न।
दोनों बातें, पहला, ईमानदारी से पूछो कि सुधारने की कोशिश कितनी की और प्रेम है अगर तो जान लगा दो सुधारने में। दूसरी बात, ईमानदारी से पूछो, ‘सामने वाले का अभी समय आया है क्या सुधरने का?’ और ज्ञान है अगर तो जान जाओगे कि शायद अभी प्रतीक्षा करनी चाहिए।
प्रेम और ज्ञान, दोनों चाहिए। प्रेम तुम्हें बताता है कि जमकर के, टूटकर के कोशिश करो और ज्ञान तुम्हें बताता है कि कोशिश अंधी नहीं होनी चाहिए, हर चीज़ का एक सही मार्ग और सही समय होता है। पर न प्रेम हो न ज्ञान हो, तो बस शिकायत रहती है। उससे कुछ हासिल नहीं होता।
समझ रहे हो?