प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, आपने बताया जो फीमेल इन्फ़ैंटिसाइड और फीटिसाइड के बारे में... एक और बहुत ही गंभीर-गंभीर मुद्दा है वो ये है कि जब सरकारी अस्पतालों में — ये बहुत ही आम चीज़ है देखने को मिलती है कि बहुत ही साधारण बीमारियों के लिए भी जो लापरवाही एक लड़की की तरफ़ की जाती है माँ-बाप के द्वारा, वो मतलब किसी भी लड़के की तरफ़ नहीं किया जाता। जैसे….
आचार्य प्रशांत: अपना परिचय दे दीजिए ताकि जनता समझ जाए कि एक डॉक्टर बोल रहा है, वरना आपकी बात की कोई प्रामाणिकता नहीं रह जाती।
प्रश्नकर्ता: मैं सरकारी अस्पताल में काफ़ी दिनों तक कार्यरत था, बच्चों के विभाग में कार्यरत था। लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में कार्यरत था, तो ये बहुत ही एक आम सा सिनैरियो होता था कि बहुत ही जो साधारण बीमारियाँ होती हैं, टीबी जैसी बीमारियाँ जिसका इलाज बहुत आसानी से संभव है, और उसमें एक जो सबसे आम तौर पे देखा जाता था कि उसके लिए भी इतनी लापरवाही होती थी, अगर बच्ची बीमार है तो।
और एक रेगुलर हर डॉक्टर उनको डाँट लगा रहा होता था माँ-बाप को। तो वो क्यों? क्योंकि वो लड़की है, तो उसकी लापरवाही। उसको खून की कमी है, और जितनी साधारण से साधारण बीमारियों में लापरवाही का एकदम कोई लिमिट ही नहीं है।
आचार्य प्रशांत: और इसको तो हम कभी गिनेंगे ही नहीं कि ये भी पारिवारिक हिंसा है, पारिवारिक हत्या है। कभी नहीं गिनेंगे। एक बार में किसी को मार दो तो दिखाई पड़ता है, "हत्या हो गई," पर धीरे-धीरे करके किसी को कुपोषण से मार दो, तो थोड़ी पता चलेगा। आँकड़े मौजूद हैं। और मैं चाहता हूँ कि ये सब जो बातचीत हो रही है, आप जब कभी उसको पब्लिश करें, तो उसमें सारे आँकड़े लगा दें कि मैलन्यूट्रिशन (कुपोषण) लड़कों और लड़कियों में कितना अलग होता है।
जब आप एज ग्रुप्स को लेते हो, "0-3" और फिर "3-6" ऐसे करके, तो भारत में लड़कियों में कुपोषण कई ज़्यादा पाया जाता है। ये हिंसा नहीं है? उसको ठीक से खाने को ही नहीं दे रहे। भारत में आधे से ज़्यादा महिलाएँ एनीमिया, आयरन डेफिशिएंसी से पीड़ित हैं। कैसे हो गई भाई पीड़ित? कैसे?
ये सब प्रेम की कमी और कुछ नहीं है। हिंसा कितने स्तरों पर है, हम उसकी बात ही नहीं करना चाहते।
बात जब इतनी ज़ाहिर हो जाती है कि उसको अब छुपाया नहीं जा सकता सिर्फ़ तब हम संज्ञान लेते हैं। हम कहते हैं, “देखो-देखो-देखो, कुछ हो गया, कुछ हो गया, कुछ बहुत विभत्स हो गया।” सिर्फ़ तब हम मानते हैं, ऐकनॉलेज करते हैं कि हिंसा हो गई, पर हिंसा तो लगातार हो रही है। और वो चूँकि लगातार हो रही है, इसीलिए बीच-बीच में हिंसा के फिर हमें बड़े विस्फोट भी दिखाई दे जाते हैं जैसे कि अभी जो हत्याकांड चल रहे हैं।
आप तो डॉक्टर हो, तो आपने तो शारीरिक स्वास्थ्य की बात करी। आप दूसरे तरीक़ों से भी देख लो ना, स्पोर्ट्स अकैडमीज़ होती हैं बच्चों की; वहाँ पर आप एनरोलमेंट देख लीजिए कि लड़के और लड़कियाँ कितना होता है। 3:1 का अनुपात होगा, कहीं 4:1 का होगा। कोई बहुत अगर आधुनिक, उन्नत, उदारवादी जगह है, तो वहाँ 2:1 होगा, कि माँ-बाप ने अगर दो लड़कों का दाख़िला कराया है, तो एक लड़की वहाँ मिल जाएगी। और कोई पिछड़ी जगह है तो वहाँ तो 5:1, 6:1, 10:1 का अनुपात भी मिल सकता है।
तो शारीरिक स्वास्थ्य ही थोड़ी होता है? मानसिक स्वास्थ्य भी तो कुछ होता है ना? मानसिक स्वास्थ्य में भी हिंसा ही हिंसा है।
प्रश्नकर्ता: स्कूलों के चुनाव में भी...
आचार्य प्रशांत: स्कूल अगर महँगा है, तो वहाँ लड़का जाएगा; एक ही घर से लड़का महँगे स्कूल में जा रहा होगा, लड़की सस्ते स्कूल में जा रही होगी, और भी होता है। आगे निकलने के लिए भारत में बहुत ज़्यादा रास्ते होते नहीं हैं मध्यम वर्ग के पास। ज़िंदगी में अगर आगे बढ़ना है या अपने छोटे शहर से आगे करके कहीं बड़ी जगह पर जाना है, तो आमतौर पर जो रास्ता होता है, वो शिक्षा से और फिर किसी नौकरी की प्रवेश परीक्षा से होकर गुजरता है।
आम मध्यमवर्गीय वर्ग के पास और कोई आमतौर पर तरीक़ा होता नहीं है अपनी स्थिति का उल्लंघन करने का, यही तरीक़ा होता है। तो मध्यमवर्गीय लड़की के पास भी यही तरीक़ा होता है, वो कैसे कर लेगी? चाहे किसी कॉलेज का प्रवेश हो, चाहे किसी नौकरी में प्रवेश हो, प्रवेश परीक्षा होनी है और प्रतिस्पर्धा इतनी तगड़ी है कि बिना कोचिंग के बात बनेगी नहीं।
पहले तो घर वाले कोचिंग के पैसे नहीं देंगे। और दे भी दिया तो होगा कि “जो भी कोचिंग कर रहे हो, शाम को 6:00 बजे से पहले वापस आ जाना।” कहीं-कहीं पर तो अनौपचारिक तरीक़े से नियम चल रहे हैं शहरों में कि जो शाम के बैच होंगे, उनमें लड़कियाँ नहीं हो सकतीं। अब वो स्कूल से या कॉलेज से ही लौट के आती है 3-4 बजे। तो कोचिंग अब कब करे? और 3 बजे लौट के आएगी, तो घर का काम भी उसे कुछ करना ही चाहिए, भाई लड़की है सीखो ना, वरना अपने घर जाकर के क्या नाक कटाओगी हमारी? “तुम्हें तो खाना बनाना नहीं आता, झाड़ू लगाना नहीं आता!” तो खाना बनाना, झाड़ू लगाना थोड़ी देर करेगी फिर अब कोचिंग कब जाए?
कोचिंग नहीं जाएगी तो कहीं सेलेक्शन नहीं हो सकता। जब कहीं सेलेक्शन नहीं हो सकता, तो अब तो तुम्हारे पास करने को कुछ है नहीं। जाओ, बच्चे पैदा करो। रही-सही कसर ये जो रोड रोमियो होते हैं, छिछोरे आशिक़ ये पूरी दूर कर देते हैं कि कुछ करने निकलो तो ये पीछे-पीछे बाइक लेके पड़ जाएँगे।
नोएडा स्टेडियम है। अभी कल ही था मैं वहाँ पर, तो टेनिस कोर्ट के बगल में ही वहाँ पर शीरोज कैफे है। वो मालूम है न क्या है? टेनिस कोर्ट्स हैं और उनके बिल्कुल बगल में शीरोज कैफे है। वो क्या है? वो जितनी एसिड अटैक विक्टिम्स हैं लड़कियाँ उन सब ने मिलकर अपने कैफे खोले हैं कुछ जगहों पर। उनको नाम दिया है शीरोज। ये सड़क छाप आशिक़ों की करतूत है। तो बाप और घबरा जाता है लड़की का, वो कहता है, 'जल्दी से इसको रवाना कर दो, नहीं तो आशिक़ों ने घर के चक्कर मारना शुरू कर दिया है।'
अगर हमें इस तरह की घटनाएँ रोकनी हैं, तो हमें बुनियाद से ही कुछ चीज़ें बदलनी पड़ेंगी।
नहीं तो बस जब बीच-बीच में कहीं बलात्कार हो जाएगा, कहीं हत्या हो जाएगी सिर्फ़ तब हम चौंक कर उठेंगे कि “अरे-अरे! ये क्या हो गया?” पर कुछ बदलेगा नहीं, एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ चलती रहेंगी। मीडिया को मसाला मिल जाएगा हफ़्ते-दस दिन के लिए।