प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आध्यात्मिक लोग तो कम ही हैं, और फिर हर व्यक्ति वास्तविक रूप से सही बातों को महत्त्व देता भी नहीं है। तब क्या समाज सुधार की दिशा में वास्तव में इतनी मेहनत करने की ज़रुरत है?
आचार्य प्रशांत: ऐसी आध्यात्मिकता जिसमें सामाजिक चेतना सम्मिलित ना हो, एक धोखा है, हिंसा है। बहुत लोग घूम रहे हैं जो कहते हैं कि – “हम आध्यात्मिक हैं, हमें दुनिया से क्या लेना-देना। दुनिया में आग लगती हो तो लगे।” इनका अध्यात्म पूरी तरह झूठा है। आध्यात्मिक उन्नति होगी तो तुम में करुणा उठेगी-ही-उठेगी। ये कौन-सा बोध है, जिसके साथ करुणा नहीं सन्निहित? ये कौन-सा अध्यात्म है जो कहता है कि – “अपना शरीर चमका लो, तमाम तरह की योगिक क्रियाएँ कर लो, हमें दुनिया से कोई मतलब नहीं”?
संतों ने दुनिया के लिए जान दे दी। तुम्हारा कौन-सा अध्यात्म है जो बता रहा है कि – “अरे, क्या करना है? दुनिया तो वैसे भी फानी है, आनी-जानी है। अपनी मुक्ति का इंतज़ाम कर लो बस।” तुम जाकर ये बात जीसस को बताओ, महावीर को बताओ, बुद्ध को बताओ।
ये सब जो तुम पढ़ रहे हो, ये बताने वालों ने तुम्हें क्यों बताया? उन्हें क्या मिल रहा है? वो भी अपनी ही मुक्ति की परवाह कर लेते। वो कहते, “हमें तो पता है न। और हमारा काम तो हो गया। अब हम और किसी के लिए विरासत छोड़कर क्यों जाएँ?” पर इस रूखे अध्यात्म का भी आजकल बड़ा प्रचलन हो रहा है – “अपना ध्यान करो। अपना मैडिटेशन करो बैठकर के। अपनी क्रियाएँ करो।”
‘अध्यात्म’ माने – सेवा। जहाँ सेवा नहीं है, जहाँ सर्विस नहीं है, जहाँ एक समाज का हित चाहने वाली चेतना नहीं है, वहाँ कैसा अध्यात्म?
प्र: आचार्य जी, ये फ़ूड डिलीवरी (भोजन पहुँचाने का कार्य) या अन्य कोई कार्य, जो सुविधा में बढ़ावा करते हैं, क्या ऐसे कार्य समाज की भलाई हेतु किए जा सकते हैं?
आचार्य: भलाई के लिए पता हो कि ‘भलाई’ चीज़ क्या है। तुम सिर्फ़ फूड डिलीवरी क्यों कह रहे हो, तुम लिकर डिलीवरी (शराब पहुँचाना) शुरु कर दो, हैश एंड वीड डिलीवरी (नशा-युक्त पदार्थ पहुँचाना) शुरु कर दो – ये बिलकुल नया काम होगा।
(सब हँसते हैं)
अब ख़ुद ही हँस रहे हो अपने ऊपर।
हमने कहा कि संतों ने दुनिया के उद्धार के लिए जान दे दी, तो संत फूड डिलीवरी चलाते थे? ये उद्धार कर रहे थे वो दुनिया का? हाँ, कोई भूखा है तो उनको लंगर में बैठा लेते थे। लंगर का उद्देश्य ये होता था कि अपनी भूख मिटा ले, ताकि फिर गुरुद्वारे में प्रवेश कर सके। और कोई ऐसा हो जो लंगर में सिर्फ़ खाने आता हो, तो उसको फिर अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता।
संतों ने अगर कभी लोगों के लिए रोटी-पानी का इंतज़ाम किया, तो इसीलिए किया ताकि जब उनका पेट भरा हो, तो वो ज़्यादा आसानी से अध्यात्म में, भजन-कीर्तन में, ग्रन्थ-पाठ में, ज़्यादा आसानी से प्रवेश कर सकें। और वो इंतज़ाम गरीबों के लिए किया जाता था। उसका भी औचित्य ये था कि अलग-अलग जातियों के, वर्णों के लोग, साथ-साथ बैठकर खाएँगे, तो व्यर्थ की जो दीवारें हैं, वो गिरेंगी। वहाँ ये थोड़े ही था कि कोई बकरा डिलीवर करा रहा है, कोई मुर्गा डिलीवर करा रहा है, और तुम कह रहे हो कि, "अब मैं समाज कल्याण के लिए काम कर रहा हूँ।"
प्र: आचार्य जी, जब भारत देश आज़ाद हुआ था, तो बहुत से लोगों ने, क्रांतिकारियों ने, लड़ाई की थी। उसका आध्यात्मिकता से क्या लेनादेना?
आचार्य: क्यों? भारत आज़ाद नहीं होता, तो क्या ये सब ऐसे ही हो रहा होता?
प्र: आज आज़ादी है, तो भी बहुत कुछ खास…
आचार्य: कम-से-कम इतना तो हो रहा है।
प्र: ऐसे में महत्त्व किसको देंगे – अध्यात्म को, या आज़ादी को?
आचार्य: आख़िरी चीज़ तो आदमी की आंतरिक आज़ादी है। आदमी की आंतरिक आज़ादी के रास्ते में अगर राजनैतिक आज़ादी का पड़ाव आता हो, तो उसको भी तो पार करना पड़ेगा न।
तुम चाहे भगत सिंह के पास जाओ, चाहे गाँधीजी के पास जाओ, वो सब स्पष्ट थे कि – देश की आज़ादी आख़िरी बात नहीं है। आदमी को आज़ाद कराना है। गाँधीजी ने अपना राजनैतिक जीवन तो देश की आज़ादी से पंद्रह साल पहले ही समाप्त कर दिया था। अपनी राजनैतिक पार्टी से उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था। उसके बाद वो कर क्या रहे थे? उसके बाद वो समाज-कल्याण का काम कर रहे थे। गाँव-गाँव घूमते थे, सफ़ाई की बात करते थे, जात-पात हटाना चाहते थे। हरिजनों के उद्धार के लिए काम करते थे।
इतना ही थोड़े ही था कि बस लालकिले पर तिरंगा फैराने लगे तो काम हो गया। ये उनको सबको पता था कि लाल किले पर तिरंगा फैराना, बस एक बीच की बात है। वहाँ तक पहुँचना है, और फ़िर उसके बहुत आगे भी जाना है।
प्र: आचार्य जी, क्या अध्यात्म जातिवाद हटाने में मदद कर सकता है?
आचार्य: अगर जानते हो कि किसी पेड़ पर ज़हरीले फल लगते हैं, तो उसकी एक-एक पत्ती नोचोगे, उसके एक-एक फल तोड़ोगे, या सीधे उसकी जड़ काटना चाहोगे?
प्र: जड़ काटना चाहेंगे।
आचार्य:
दुनिया में जितने भी कुकृत्य हैं, पाप हैं, अध्यात्म सीधे उनकी जड़ काट देता है। और जो भाँति-भाँति के सामाजिक आन्दोलन होते हैं, वो सिर्फ़ पत्ते नोचते हैं, टहनियाँ तोड़ते हैं। सामाजिक आन्दोलन इसीलिए कभी विशेष सफल नहीं हो सकते।
अध्यात्म से आमूल-चूल बदलाव आता है।
तुम्हें आध्यात्मिक आदमी को सिखाना नहीं पड़ेगा कि जाति प्रथा बेकार की बात है। वो कहेगा, “जब मैं देह ही नहीं, तो देह के आधार पर, और जन्म के आधार पर दूसरे से क्या भेद रखूँ?”