आचार्य प्रशांत: आज हमारे सामने जो श्लोक है, उसको अगर समझना हो तो आपको श्रीकृष्ण के पूरे दर्शन को समझना पड़ेगा। 29वाँ श्लोक है। उसमें आपको पहले देखना पड़ेगा कि पीछे 25, 26, 27, 28 में श्री कृष्ण क्या बोलते आ रहे हैं। और पीछे जाना पड़ेगा 72 श्लोक सांख्ययोग के, क्या कहना चाह रहे हैं श्री कृष्ण?
श्रीकृष्ण ने क्या कहा है, कि मैं सिर्फ़ कुछ के लिए 'कृष्ण' हूँ, बाकियों के लिए नहीं हूँ? बोलिए। या वो ये कह रहे हैं कि प्रत्येक जीव की चेतना के एक केंद्र में जो बैठा है — भले वो छुपा हुआ केंद्र हो, आच्छादित केंद्र हो, मैं वो हूँ? क्या श्रीकृष्ण अपनी ओर से भेद करते हैं? या श्रीकृष्ण ये कहते हैं कि मैं तो उपलब्ध हूँ, तुम्हारी ओर से पुकार की प्रतीक्षा है, बस? तो श्रीकृष्ण अपनी ओर से कोई भेद नहीं करने वाले हैं।
27वें श्लोक में हमसे कह रहे थे, कि सब कुछ प्रकृति करती है, लेकिन मूर्ख लोग क्या मानते हैं? “मैंने करा।” 28वें में वही बात आगे बढ़ा दी, बोले कि सब कुछ प्रकृति करती है, और ये बात ज्ञानी लोग जानते हैं और ये जानकर के वे विरक्त रहते हैं। 26वें में क्या बात कह रहे थे? 26वें में कह रहे थे कि, अज्ञानियों का नेतृत्व करना, ज्ञानी की जिम्मेदारी है। कर्तव्य बता रहे थे आपको 26वें श्लोक में आपका।
पर ये पूरी बात नहीं देखेंगे, तो 29वें श्लोक के मर्म से चूक जाना बहुत संभव है। बचा करिए, जब भी कहीं आपके सामने कोई एक श्लोक उद्धरत कर दिया जाए, और उसका आपको कहा जाए कि — “देखो, इस श्लोक से तो ये बात सिद्ध होती है,” ऐसे तर्कों से बचा करिए। क्योंकि अगर एक श्लोक से ही कोई बात सिद्ध होनी होती, तो 700 श्लोकों की गीता नहीं होती।
जो भी कोई एक श्लोक कभी उठाया जाता है, उद्धरत करने को, वो 700 श्लोकों का प्रतिनिधि होता है। और ये जो 700 श्लोक हैं, ये समस्त उपनिषदों के प्रतिनिधि हैं। तो गीता का एक श्लोक अर्थवान होता है समस्त 700 श्लोकों की पृष्ठभूमि में।
ये जो एक श्लोक वाली बहसबाज़ी है, इससे बहुत बचना है। इसका उपयोग बस अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए अधिकांशतः किया जाता है — कि मुझे कोई बात सिद्ध करनी है, तो अपने अनुकूल एक श्लोक उठाया, और कहीं पर जाकर के चिपका दिया। या तीर की तरह छोड़ दिया कि जाए और आक्रमण कर दे, हिंसा हो जाए, दुश्मन परास्त हो जाए।
गीता का एक श्लोक अगर वास्तव में आप समझना चाहते हैं, तो मैं कह रहा हूँ, 700 श्लोकों से आपका परिचय होना चाहिए। और गीता को ही अगर आपको समझना है, तो आपका उपनिषदों से, माने वेदान्त से परिचय होना चाहिए।
29वें श्लोक को 26वें के साथ ही पढ़ना पड़ेगा। 26वें में अज्ञानियों को लेकर के श्रीकृष्ण का क्या मत है? वो कह रहे हैं — “अज्ञानी भी है, तो उसको हमको साथ लेकर चलना है।” ये तो नहीं कहा है कि अज्ञानी को छोड़ देना है। ठीक है? अब वही बात हमारे सामने 29वें श्लोक में आती है। यहाँ श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि — ये जो सब अज्ञानी लोग हैं, ये प्रकृति के गुणों से एक आसक्त जीवन जीते हैं। अज्ञानी, मूढ़ क्या करता है? वो प्रकृति के गुणों से ही आसक्त रहता है। वो ये नहीं जानता कि प्रकृति के गुण तो अपने नियमों के अनुसार अपना काम कर रहे हैं। वो सोचता है कि जो कुछ चल रहा है, वो मैंने करा। ठीक है।
लेकिन ज्ञानी गुणों से मोहित नहीं होते। फिर आगे कह रहे हैं कि — “ज्ञानियों का कर्तव्य है कि वो अज्ञानियों को विचलित न करें।” इस बात का आमतौर पर ये अर्थ किया जाता है कि, अज्ञानियों को अज्ञानी पड़ा रहने दो, अज्ञानियों को ज्ञानी मत बनने दो। उनको विचलित करने को तो श्रीकृष्ण मना कर रहे हैं ना! आमतौर पर ऐसा कह दिया जाता है कि, “उन्हें परेशान मत करो, उनको पड़ा रहने दो।"
नहीं! ये नहीं कह रहे हैं श्रीकृष्ण। कि "उनको पड़ा रहने दो।" क्योंकि 26वें में बुद्धिभेद की बात हुई थी, यहाँ विचलन की बात हो रही है “उन्हें विचलित आप मत करिए।” कहा जो जा रहा है वो बहुत सूक्ष्म है बात। कहा ये जा रहा है कि, वो जिस चाल पर चल रहे हैं, जिस मार्ग पर चल रहे हैं — वो मार्ग तो गलत है ही। और आप ज्ञानी हो, आप देख पा रहे हो कि — वह जो सामने है, अज्ञानी, वो गुणों से आसक्त हो गया है, और गलत मार्ग पर चल रहा है।
गलत मार्ग पर चलने को या गलत चाल चलने को ही कहते हैं “विचलन।”
जहाँ जैसे चलना चाहिए था, उसकी जगह आप कहीं और को चल पड़े या किसी और तरीक़े से चल पड़े, उसे कहते हैं विचलन। तो आपको ये तो दिख ही रहा है कि वो अज्ञानी है, और वो मोहित होकर के गलत चाल चल रहा है विचलित है। तो आपको ये नहीं करना है, कि आप उसकी चाल बदलने की चेष्टा करने लग जाएँ। पर दिखाई चाल ही देती है, चाल स्थूल होती है न — कर्म। कर्म स्थूल होता है, वो दिखाई देता है।
श्रीकृष्ण आपको गीता की एकदम बहुत मूल बात पर ले जा रहे हैं, कि “कर्म तो बस कर्ता की अभिव्यक्ति होता है।” और कर्म और कर्ता में पहले कौन आता है? कर्ता। तो कर्म तुम बदल नहीं सकते, कर्ता को बदले बिना। और अज्ञानी की चाल तुम बदल नहीं सकते उसके अज्ञान को हटाए बिना, ये सूत्र है आज का।
श्रीकृष्ण ये नहीं कह रहे हैं कि "अज्ञानी को पड़ा रहने दो, उसके प्रति करुणा दर्शाने की कोई आवश्यकता नहीं है।" श्रीकृष्ण कह रहे हैं, "देखो अज्ञानी को विचलित मत करो, उसकी चाल बदलने की कोशिश मत करो।" और आपको चाल बदलने में बड़ी रुचि रहेगी, क्योंकि दिखाई तो चाल ही देती है। कोई कुछ गलत कर रहा हो, आप तुरंत उससे क्या बोलते हैं? "देखो, तुम गलत कर रहे हो।" क्योंकि उसका जो गलत कृत्य है, वो आपको दिखाई दिया — तो तुरंत जो पहली हमारी प्रतिक्रिया होती है, वो ये होती है कि, "जो कर्म है, जो स्थूल है, जो उसकी चाल है, उसको बदल दें।"
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, चाल बदल ही नहीं सकती, अगर तीसरे अध्याय के 29वें श्लोक तक गीता आपने पढ़ी है थोड़ी भी ध्यान से। तो आप ये अच्छे से जान गए हैं कि — चाल बदल नहीं सकती अज्ञानी की जब तक उसके भीतर, लड़खड़ाहट जा नहीं सकती बेहोशी की, जब तक बेहोशी है। एक व्यक्ति है, वो शराब पीके लड़खड़ाती चाल में चल रहा है। और आप कोशिश कर रहे हो, उसकी चाल सुधारने की। आप सफल होओगे? और जब आप सफल नहीं होओगे, तो आप तुरंत क्या बोल दोगे?
श्रोता: ये मदद करने लायक नहीं है ये।
आचार्य प्रशांत: ये मदद करने लायक नहीं है। क्या मदद करें? तीन घंटे से कोशिश कर रहा हूँ इसकी चाल सुधारने की! कितना भी सुधारो, ये ऐसे-ऐसे चलता है। तो मुझे करुणा दर्शाने की कोई ज़रूरत है ही नहीं। करुणा क्यों दिखानी है? कितनी भी बार इसकी चाल सुधारी — ये फिर से ऐसे-ऐसे डगमग, डगमग होने लगता है। तो कुछ हो नहीं सकता ऐसे लोगों का, छोड़ो इन लोगों को।" ये वक्तव्य सुना है कि नहीं? "अरे छोड़ो! आप कहाँ जा रहे हो फँसने! ये ऐसे ही हैं! इनका कुछ नहीं हो सकता!" फ़िनिसिज़्म, "इनका कुछ नहीं हो सकता।" और —
बड़ी से बड़ी बहादुरी ये है, सत्य का सुरमा वो होता है जो कहता है — "उसको भी तार दूँगा जो तर नहीं सकता।"
जो स्वयं ही अपना कल्याण कर ले, जो ख़ुद ही ज्ञान अर्जित वग़ैरह कर ले। मैं जाकर उसकी सहायता करूँ, तो इसमें क्या विशेष है? उसकी सहायता नहीं भी करता, तो येन केन प्रकारेण उसने कुछ कर लिया होता। और नहीं भी उसने कर लिया होता, जो थोड़ी-बहुत उसे सहायता चाहिए थी — वो उसे मेरी जगह किसी और से मिल जाती। पर पौरुष तो इसमें है, सुरमाई तो इसमें है — कि तुम उसको भी जनवा दो जो जान सकता ही नहीं था, तुम उसको भी तार दो जो तैर सकता ही नहीं था।
नहीं तो निराश हो जाना, और हाथ झटक करके "इति" कर देना कहना, “खत्म, अरे छोड़ो इसका नहीं है, बेकार है। ये मुद्दा निपट गया। ये प्रकरण यहीं समाप्त करो। इसका कुछ नहीं हो सकता, ये तो बहुत आसान है। कायरता हमेशा आसान होती है न, जूझने की अपेक्षा। ये बड़ी से बड़ी कायरता है — कि तुम किसी की जान बचा सकते थे, और तुमने बचाई नहीं। क्या बोल कर के? कि "ये व्यक्ति तो प्राण-रक्षा का अधिकारी ही नहीं है!" कौन से प्राण की बात कर रहा हूँ? आंतरिक प्राण — प्राणों का भी प्राण। वो तुम बचा सकते थे और क्या बोल दिया? "अरे नहीं, और प्रयास से लाभ नहीं है।"
श्रीकृष्ण ये नहीं कह रहे हैं कि "अज्ञानी को उसके हाल पर छोड़ दो।" और आप तमाम जो अनुवाद पाएँगे इस श्लोक के उसके मर्म यही निकलेगा, कि श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ज्ञानी तो समझ गया है न, कि कर्ता-भाव और अहंता मिथ्या हैं। तो ज्ञानी को अपने बोध में स्थित रहना चाहिए और अज्ञानियों को विचलित नहीं करना चाहिए। और "विचलन" से आशय यही निकाला गया कि — "उनको समझाने की, बुझाने की, सहायता देने की, कोई आवश्यकता नहीं है।" ऐसा श्रीकृष्ण बोलेंगे क्या? ये वेदांत की दृष्टि है क्या?
वेदांत जब बोलता है कि "जीवन का लक्ष्य मुक्ति है," तो वेदांत ने ऐसा भेद करा है क्या, कि "जीवन का लक्ष्य मुक्ति है मात्र 5 फ़ीसदी लोगों के लिए? और 95 फ़ीसदी लोगों के लिए जीवन का लक्ष्य है सुसज्जित बंधन" ऐसा बोला वेदांत ने? या वेदांत ने ऐसा बोला कि, "प्राणिमात्र के लिए जीवन का लक्ष्य मुक्ति है?" या ऐसा कहा कि — "सिर्फ़ कुछ प्राणियों के लिए तो मुक्ति है, और बाक़ीयों के लिए बंधन वग़ैरह है," ऐसा बोला?
तो फिर श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे कैसे बोल सकते हैं, कि "ज्ञानी तो अपने बोध में स्थित रहे और अज्ञानियों को उनके हाल पर छोड़ दे?" श्रीकृष्ण ऐसा बोल सकते हैं क्या? — नहीं बोल सकते। पर आप यही अर्थ पाओगे, यही अनुवाद पाओगे। मैं आपसे आग्रह कर कह रहा हूँ, ऐसे अनुवादों पर ध्यान मत दीजिएगा।
जब ज्ञान चरम पर पहुँचता है, तो करुणा फलित होती है। जो ज्ञानी है उसमें करुणा न हो, ये हो ही नहीं सकता। ज्ञानी प्रेम से बिल्कुल भरा हुआ न हो — ये संभव नहीं है।
ज्ञानी ये बोल दे कि, "अज्ञानियों को उनके हाल पर छोड़ दो" — बिल्कुल भी संभव नहीं है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं — "उन्हें विचलित मत करो, उन्हें परेशान मत करो।" सिर्फ़ उनका कर्म बदलने का प्रयास मत करो। किसी को उसकी राह से जो भी उसकी गलत राह है, उसकी गलत राह से विचलित करना उसकी मदद का बड़ा सस्ता प्रयास है। बहुत सस्ता प्रयास है।
एक व्यक्ति है — उसको पढ़ना नहीं आता, और सड़क पर चारों तरफ़ संकेत लगे हुए हैं कि, "फलाना रास्ता बाएँ को इतनी दूर को जाता है, वहाँ पे वो जगह मिलेगी," ठीक? हर 400 मीटर पर संकेत लगे हैं, चिह्न हैं, अंकित है, सब पता है। एक आदमी है, लेकिन वो गलत दिशा चला जा रहा है।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, इतना बोलने से नहीं होगा कि — " उसको जा के बोल दो कि तेरी चाल गलत है, तेरी राह गलत है, तेरी दिशा गलत है।" इतने से नहीं होगा, वास्तव में उसका "केंद्र" गलत है। उसको पढ़ना नहीं आता। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, इतने से तुम्हारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो गई कि "तुमने उसको जाकर के विचलित भर कर दिया।" वो गलत राह जा रहा था, लेकिन बड़ा संतुष्ट होके जा रहा था। मग्न होकर के चला जा रहा था गलत राह, ऐसे ही होते हैं न अज्ञानी। अज्ञानियों की निशानी क्या होती है?
श्रोता: आत्मविश्वास।
आचार्य प्रशांत: आत्मविश्वास। तो अब ये अनपढ़ आदमी है, पढ़ा-लिखा कुछ नहीं है। और जाना है उस दिशा है (बाईं तरफ़ इशारा करते हुए) और जो उसकी मंज़िल है, उसकी तरफ़ के निशान भी सड़क पर मौजूद हैं। मील का पत्थर भी है, और इधर-उधर भी तमाम छपा हुआ है। बोर्ड लगे हुए हैं कि — "भाई, आपको जहाँ जाना है, वो इस तरफ़ है इतने मील पर है।" सब कुछ उपलब्ध है।
लेकिन ये हमारा अज्ञानी भाई क्या कर रहा है? ये उल्टी दिशा में चला जा रहा है, बिल्कुल आत्मविश्वास में। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, उसको विचलित भर कर देने से नहीं होगा। कि उसको जाकर बोला — "ए मूर्ख! कहाँ जा रहा है तू? गलत दिशा में अनपढ़, ज़िन्दगी भर चलता रहेगा तब भी नहीं पहुँचेगा।” ये "विचलन" है।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं — करुणा, कर्तव्य कहता है, उसको पढ़ना सिखाओ। उसको पढ़ना सिखाओ। विचलित भर कर देने से नहीं होगा। और तुम उसे विचलित कर दोगे — तो क्या होगा? वो थोड़ी देर को तो इधर-उधर देखेगा, पर सही राह तो वो जानता भी नहीं। दूसरे उसका अपना भी आत्मविश्वास है कुछ। तो वो या तो पुरानी ही गलत राह पर आगे बढ़ जाएगा, या कोई दूसरी गलत राह ही चुन लेगा।
तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं, विचलित क्यों कर रहे हो? अगर ज़िम्मेदारी ले रहे हो, तो पूरी लो। ये नहीं तरीक़ा है कि देख लिया कि "अरे, मैं तो ज्ञानी हूँ।" हाँ भाई, आप हैं ज्ञानी, मान लिया। और देखा कि, "दुनिया अज्ञान में धँसी हुई है।" चलो ठीक है, दुनिया अज्ञान में भी धँसी हुई है। तो क्या कर रहे हैं? जाके दुनिया वालों को बोल रहे "अरे, तुम अज्ञानी हो। तुम्हारे सब तरीक़े गलत हैं।"
पहली बात, उनके पास अपना आत्मविश्वास होता है। वो आपकी बात सुने क्यों? दूसरी बात, अगर वो आपकी बात सुन भी ले, तो उन्हें बस इतना ही पता चला न कि उनके तरीक़े गलत हैं। सही तरीक़ा क्या है? ये उनको पता नहीं चला। तीसरी बात, आपने एक बार जाकर उनको सही तरीका बता भी दिया, तो अगले मोड़ पर सही तरीक़ा क्या है — ये उनको कौन बताएगा? क्योंकि सही राह तो हर चौराहे पर चुननी पड़ती है न। आपने एक बार उनको बता भी दिया कि, "तुम इधर को जा रहे हो, इधर नहीं जाना उधर जाओ वो है।” अब चले गए उस दिशा में, वहाँ चौराहा आ गया। अब उन्हें कौन बताएगा?
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “विचलित करने से नहीं होगा।” ये तो तुम जाकर के उसको बस एक तरीक़े से चिढ़ा रहे हो, और उसके ऊपर अपनी श्रेष्ठता का ठप्पा लगा रहे हो। कह रहे हो — "अरे, तुझे क्या आता है! हम ज्ञानी! हम बताएँगे ना!” तुम जो भी कुछ कर रहे हो, इससे हो सकता है तुम्हारे अहंकार की कुछ पूर्ति हो गई हो। लेकिन उस बेचारे को तो कुछ भी नहीं मिला तुमसे, तुम जाकर के बस उसे छेड़ आए। छेड़ आए!
अच्छा चिकित्सक वो होता है, जो मरीज को छेड़ता नहीं है। या तो ये कह देता है कि, "सचमुच मेरे पास सामर्थ्य ही नहीं है इसको देखने की," कोई भी वजह हो सकती है। “आप जो लाए हो, ये दिल का — हृदय रोग का मामला है, लेकिन मेरी विशेषज्ञता तो हड्डियों में है। मैं अगर हाथ लगाऊँगा, तो गलत हो जाएगा,” या तो वो ये कह देता है। या फिर वो मरीज को पूरे तरीक़े से अपने अधिकार में ले लेता है। वो कहता है, "अब छोड़ दो अब ये मेरा मरीज है। जितने लोग आए हो, सब निकल जाओ। एक-आध कोई रुक सकता है बस। बाक़ी सब चलो बाहर चलो! अब ये मरीज जो है, मेरे अधिकार में है।"
वो ये थोड़ी करता है कि, छेड़ दे। "छेड़ने" का क्या मतलब हुआ? कि वो आया है दिल पकड़ के बैठा है, उसको दिल का दौरा पड़ा है। तो ये भी नहीं कर रहा है कि, उसका पूरा उपचार कर दे। और न ये कर रहा है कि, उसको छोड़ दे — “कि भाई, मैं छोड़ रहा हूँ। इसको लेके भागो, हृदय चिकित्सक के पास!"
अब उसको छेड़ रहा है। कैसे छेड़ रहा है? उसके दिल में दर्द है, तो बोले “क्या है तेरे दिल में? दर्द कैसे हो रहा है तुझे इतना? और कौन से पाप करे हैं तूने? ए मोटे! ये तोंद है न तेरी, तब नहीं सोचा था कि कोलेस्ट्रॉल बढ़ेगा? अब दौरा पड़ा है — मरेगा तू!" तो अब कराह रहे हो? क्या बोल रहे हो डॉक्टर साहब? "अच्छा ठीक है, ये ले — ये ले एस्पिरिन ले ले, इससे दर्द कम पता चलेगा।"
श्रीकृष्ण ये करने के लिए मना कर रहे हैं। कह रहे हैं, वो तो बेचारा वैसे ही दुखी है। या तो उसकी पूरी ज़िम्मेदारी लो, जो तुम्हें लेनी ही चाहिए, यही ‘करुणा-कर्तव्य’ कहलाता है। नहीं तो स्वीकार कर लो कि तुम किसी लायक नहीं हो और पीछे हट जाओ। पर उसे 'विचलित' मत करो।
‘विचलित’ माने — जो परेशान है, उसको और परेशान नहीं करते। उसकी परेशानी पूरी हरते हैं। या फिर ये स्वीकार कर लेते हैं कि, "मैं ख़ुद ही अभी बहुत अयोग्य हूँ। मुझे तो ख़ुद ही अभी कोई चाहिए, जो मेरी परेशानी हरे।" लेकिन यदि तुम्हारा दावा है कि तुम ज्ञानी हो, तो तुम ये कैसे कह सकते हो? कि मुझे अभी कोई और चाहिए। एक तो ज्ञानी बन के बैठे हो — ज्ञानी बनते ही तुमने ये अधिकार खो दिया कि, "मैं तो अभी ख़ुद प्रतीक्षा में हूँ सहायता की!" ज्ञानी अगर बने हो, तो दूसरे से सतही छेड़खानी मत करो। अगर कोई दिख गया है अज्ञानी, तो दिखने मात्र से वो तुम्हारी ज़िम्मेदारी हो गया। तुम्हारे कर्तव्य का दायरा इतनी दूर तक जाता है।
फलाना इंसान तुम्हारी ज़िम्मेदारी कैसे हो गया? दिख गया न! अब क्या करूँ? अगर जान गए हो कि कोई है आपदा में, तो तुम्हारे 'जानने' भर से तुम ज़िम्मेदार हो गए। नहीं जानते, तो कोई बात नहीं थी। पर यदि जान गए हो, तो पीछे नहीं हट सकते। जान गए हो, तो अब सतही इलाज से काम नहीं चलेगा। सतही इलाज करके तुम मरीज को मार डालो, और फिर कहो "ये मरीज तो बचने लायक ही नहीं था!" तो ये हो गई न बहुत बड़ी बेईमानी।
सतही इलाज कर दिया, मरीज को मार डाला। कहा ये तो बचने लायक ही नहीं था। और फिर उसके बाद, जितने भी मरीज आए आपसे सहायता माँगने सबको वापस लौटा दिया। क्या बोलकर? कि "अरे ये बचते तो हैं नहीं! इनका इलाज क्या करना? इलाज करो तो उसमें समय लगता है, ऊर्जा लगती है, दवाई लगती है, पैसा ख़राब होता है। बचते तो ये हैं नहीं, इनका इलाज क्या करना?" वो 'बचते नहीं हैं' या 'तुमने बचाया नहीं?’ कहीं ऐसा तो नहीं, कि तुमने जानबूझकर उसको बचाया नहीं ताकि स्वयं को ये साबित कर सको, कि "ये बचते नहीं हैं और आगे भी मुझे बचाने में श्रम करने की ज़रूरत नहीं है।"
अगर 1% भी संभावना हो उसको बचाने की, तो पूरा प्रयास करना पड़ेगा — यही करुणा-कर्तव्य है। और प्रयास ऐसे नहीं करना पड़ेगा, कि उसकी आँखों पर पट्टी बंधी है तो वो चल नहीं रहा ठीक से, तो उसको कभी डाँट रहे हैं — "सीधे चल।" कभी उसका हाथ पकड़ के थोड़ी देर उसे सही रास्ते पर चला दिया। कभी दूर बैठ गए और उसको बोल दिया "अरे, आगे दरवाज़ा आ रहा है, बाएँ को मुड़ जा।" तो ऐसे उसकी थोड़ी मदद कर दी? — नहीं!
उसकी समस्या के मूल में जाना पड़ेगा, उसकी आँखों की पट्टी ही उतारनी पड़ेगी। समझ में आ रही है बात? तो श्रीकृष्ण का जो वक्तव्य वास्तव में पूर्ण जिम्मेदारी का है, उसे अनुवादकों ने बना दिया शून्य जिम्मेदारी का। श्रीकृष्ण बात कर रहे हैं पूर्ण कर्तव्य की, और हमने अनुवाद उसका ऐसे कर दिया कि जैसे शून्य कर्तव्य हो, कि “ज्ञानियों! तुम तो जान गए हो ना बात असली, तुम जान लो और अज्ञानियों को उनके अज्ञान से विचलित मत करो।” ये तो बात सुनने में ही भद्दी है। श्रीकृष्ण कैसे कह सकते हैं?
अब वो भी वो कृष्ण, जो अर्जुन को कह रहे थे कि “देखो अर्जुन! अगर तुमने अपने कर्तव्य से किनारा करा तो सोचा है कि इसका प्रजा पर क्या प्रभाव पड़ेगा?” वो कृष्ण, जो पूरी प्रजा का हित सोचते हैं, वो कैसे कह सकते हैं कि “प्रजा को उसके हाल पर छोड़ दो?”
गीता का संबंध हमारे जीवन से है, सिर्फ़ हमारे जीवन से ही है और किसी चीज़ से नहीं है। अध्यात्म, दर्शन — ये सब इसलिए नहीं होते कि आपका ज्ञान बढ़ जाए। ये इसलिए होते हैं ताकि आपका जीवन सुधर जाए। ये श्लोक आपको कुछ बता रहा है, आपके संबंधों के बारे में। पलायन कर लेना आसान होता है। अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए अपने कर्तव्यों की बलि चढ़ा देना आसान होता है, और ये सब करते हैं हम लोग अपनी-अपनी ज़िन्दगी में।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं — मत करो। करुणा, कामना से बड़ी होती है। ठीक वैसे जैसे आत्मा, अहंकार से बड़ी होती है। करुणा का संबंध आत्मा से है, कामना का संबंध अहंकार से है। मत करो ये, कि अपनी कामना के लिए अपनी करुणा को पीछे धकेल दो, और बेईमानी से ये दावा करो — “क्या करुणा दिखाएँ?” क्या करुणा दिखाएँ?
एमरजेंसी में मरीज़ आया था रात 3:30 बजे। डॉक्टर साहब मस्त सो रहे थे गहरी नींद में, एकदम गहरी नींद में। और उसमें जोड़ लो — गहरी नींद में ही नहीं थे, पत्नी के साथ थे बिस्तर में, रात में 3:30 बजे और कामना का खेल उनका चल रहा था बिल्कुल। अस्पताल से फ़ोन जाता है “मरीज़ आया है, हालत बहुत ख़राब है, बचने की संभावना बहुत कम है, डॉक्टर साहब जल्दी आइए।” डॉक्टर साहब बोलते हैं, “अरे जब बचने की संभावना बहुत कम है तो मेरे आने से क्या होगा?”
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ये तर्क कभी मत चलाना। तर्क ये भी तो हो सकता था ना कि, “बचने की संभावना बहुत कम है? तो फिर मैं उड़कर आ रहा हूँ, आमतौर पर 10 मिनट में आता हूँ आज मैं 4 मिनट में आऊँगा!” भाई, दोनों ही तर्क दिए जा सकते हैं। ठीक है हॉस्पिटल से फ़ोन आया, “डॉक्टर साहब जल्दी आइए, मरीज़ आया है, बहुत गंभीर है, लग नहीं रहा बचेगा।” तो एक तर्क ये हो सकता है, “अरे जब उसे बचना ही नहीं है तो मुझे क्यों परेशान कर रहे हो रात में? जब उसे बचना ही नहीं है, मैं क्यों हूँ? ये मरीज़ ऐसे ही होते हैं, बचते नहीं।
350 तो मैंने देखे, मरते। वो 350 सब वही थे जो इनके पास आए थे। बोले, “ये मरीज़ों को पता नहीं क्या है ये बचते ही नहीं हैं!” मैंने तो कई बार बोला, “यार, बच जाया करो।” वो अड़ जाता है, बोलता “नहीं, मुझे नहीं बचना। मैं तो बचना ही नहीं चाहता, मैं तो आया ही हूँ मरने के लिए यहाँ पर।” तो एक तर्क ये हो सकता है, “मरीज़ों का तो काम है मरना। गंभीर स्थिति में आते हैं, मर जाते हैं। अब मैं क्या करूँगा? अपनी नींद ख़राब करके मैं आऊँ तुम्हारे पास? तो मरीज़ तो मरेगा ही मरेगा, मेरी नींद ख़राब होगी — मैं नहीं आता।” एक तर्क ये हो सकता है।
दूसरा तर्क क्या हो सकता है? “कि क्योंकि उसकी हालत ख़राब है, तो इसीलिए मैं और ज़्यादा प्रयास करूँगा उस पर। मैं कह रहा हूँ, मैं उड़कर आ रहा हूँ। मैं ये भी नहीं प्रतीक्षा करूँगा कि औपचारिक कपड़े वग़ैरह पहनूँ। मैं जिस हाल में हूँ, मैं भागकर आ रहा हूँ — जान बचानी है।” एक तर्क ये भी तो हो सकता है ना? श्रीकृष्ण कह रहे हैं, पहला तर्क कभी मत देना। वो कामना-तर्क है। दूसरा तर्क देना, वो करुणा-तर्क है। और तर्क, तुम दोनों ही दे सकते हो। प्रश्न बस यही है, कि वो तर्क आपके किस केंद्र से आ रहा है।
और कामना से भी जो तर्क आता है ना, तर्क तो ठीक ही होता है। तर्क कैसे काटोगे? कोई बोले कि “ये तर्क ग़लत कैसे है?” तो मात्र तर्क के तल पर आप काट नहीं पाओगे। कोई बोले, “इसमें क्या बुराई है बताइए ना? हमने देखा है कि इस स्थिति में जो मरीज़ आते हैं, उसमें से 99% मर जाते हैं। तो बचने की संभावना बस 1% है, बस 1%। और अगर मैं अपनी नींद छोड़ के आता हूँ रात में, तो उसमें जो संसाधन लगते हैं और अगले दिन जो मेरे काम का नुकसान होता है, वो इतना इतना है। तो हम गणित लगाकर पूछ रहे हैं — ये कामना-तर्क है।”
कामना-तर्क कहेगा, “मैं गणित लगाकर पूछ रहा हूँ कि मरीज़ को बचाने की 1% संभावना के लिए क्या डॉक्टर के इतने संसाधनों का व्यय न्यायोचित है?” और उत्तर आएगा, “नहीं, बिल्कुल भी नहीं। अरे जब बचने की संभावना 1% है तो क्यों डॉक्टर का समय और ऊर्जा वग़ैरह ख़राब कर रहे हो? सोने दो डॉक्टर को।” ये कामना-तर्क है। और अपने आप में ठीक है। मैंने कहा, आप इसको काट नहीं पाओगे।
करुणा-तर्क लेकिन ऐसे नहीं चलता। करुणा-तर्क कहता है, “1% अभी है ना संभावना? 1% है ना? काफ़ी है! 1% भी संभावना है तो काफ़ी है, नहीं छोड़ देंगे। नहीं छोड़ देंगे।”
कामना-तर्क और आगे बढ़ जाएगा कहेगा, “अरे देखिए! जब इतनी ख़राब हालत में आते हैं और पता नहीं — मुझे तो ये लग रहा है कि ये एक्सीडेंट का केस नहीं है, ये मारपीट का केस है। और पिछली बार जो डॉक्टर थे, जिन्होंने ऐसे केस में हाथ डाला था, वो पुलिस के चक्कर में फँस गए।”
पुलिस ने कहा, “पहले हमें क्यों नहीं बुलाया? कुछ नियम-कायदे हैं, कि इस तरह के जो मामले हों, उनमें पहले पुलिस को बुलाओ। पुलिस बयान लेगी, ये करेगी।” डॉक्टर ने कहा, “बयान कहाँ से लेगी? वो मरा जा रहा है।” तो डॉक्टर ने उसका उपचार पहले ही करने का प्रयास किया। उपचार की प्रक्रिया में वो मरीज़ मर गया। तो पुलिस ने आके कहा — “देखो, तुमने बयान नहीं लेने दिया, तुमने मरीज़ मार डाला — चलो, तुम जेल चलो।”
बिल्कुल कामना-तर्क ये कह सकता है, “कि मैं क्यों जाऊँ, जब इसमें मैं ही फँस जाऊँ तो।” करुणा-तर्क इस बात को भी नहीं मानता। करुणा-तर्क कहता है — “मैं,” “मेरा” इतना तो खेल लिया, ठीक है। मेरा क्या होगा? पुलिस मुझे परेशान करेगी? नहीं करेगी? छोड़ो ना, हो गया — जो भी कीमत लगती है दे कर के, अगर उसको बचा सकते हो तो बचा लो।”
भारत से कहीं न कहीं चूक हुई है। हमने अपने ही बहुत सारे भाइयों को मूढ़ ही घोषित कर दिया। भाइयों को, बहनों को भी — स्त्रियों को तो विशेषकर। कह दिया इनको समझ में ही नहीं आता, इन्हें समझाने से कोई लाभ नहीं है। और इक्के-दुक्के प्रयत्न किए गए, वो असफल हो गए। तो उन असफल प्रयत्नों को उदाहरण बना लिया गया, “कि अरे आप क्या प्रयत्न कर रहे हो? वो थे ना, देखिए — उन्होंने इतना प्रयत्न किया था स्त्रियों को शिक्षित करने का, समझाने का, स्त्रियों में आध्यात्मिक चेतना जगाने का — और कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे उन स्त्रियों ने उन्हीं की गर्दन पकड़ ली एक दिन। वो जग गईं ना?
तो आप भी ज़्यादा इनको जगाओगे तो आपकी गर्दन पकड़ेंगी। कोई बात नहीं, पकड़ लेने दो। कोई बात नहीं। कब तक अपनी गर्दन बचाई, और गर्दन बचाए-बचाए क्या चिता के पार जाएँगे? हमने तो नहीं देखा कि मुर्दा पूरा फुक गया और गर्दन अभी बची हुई है! जिसको बचाना है, जब उसे राख ही हो जाना है, तो उसे किसी अच्छे काम में लगा ही दो ना। नहीं लगाओगे किसी अच्छे काम में, तो उसका क्या अंजाम होगा? राख!
जो चीज़ पता है राख हो जानी है, उसका तो एक ही सदुपयोग हो सकता है — कि उसके राख हो जाने से पहले, उसको जो उच्चतम संभव उपक्रम है, उसमें झोंक दो। और भी कुछ हो सकता है? और ये तो बात आप जानते हो अपने साधारण अनुभव से। कोई चीज़ आपको दी जाती है खाने-पीने की, और आपको पता है कि अगले 8 घंटे में ये अब ख़राब हो जाएगी। तो आप क्या करते हो? 8 घंटे से पहले उसको (खा लेते हो)।
8 घंटा तो बहुत दूर की बात है, ये सब जो कार्बोनेटेड ड्रिंक्स आते हैं — आपको पता है कि आपने उसका ढक्कन खोला, और उसमें जो दबाव से कार्बन डाइऑक्साइड डली हुई थी। ढक्कन खोलते ही क्या होगा? वो भाग जाती है, “फुस्स्स्स्स।” और भाग गई तो, उसमें जो फिर एसिडिक स्वाद आता था कार्बोनिक एसिड का, वो नहीं आएगा। तो आप उसको खोलते ही क्या करते हो? छोड़ देते हो, कि थोड़ा इसको सुस्ता लेने दो? बेचारे का अभी ढक्कन खुला है, क्या परेशान करें? खोलते ही क्या करते हो आप? तत्काल।
जो चीज़ नष्ट ही हो जानी है, उसका तत्काल सदुपयोग कर लिया जाता है ना। तो कितना बचाएँ अपनी कामना के लिए अपने आप को? बचा भी लोगे, तो क्या बचा पाओगे? एक थे, जिन्होंने अपने आप को निविष्ट कर दिया, फना कर दिया। और दूसरे थे, जो बोले, “हमने अपने आप को बचा लिया।” जिन्होंने बचा लिया, उन्होंने क्या बचा ही लिया? फुकेंगे तो वो भी। हो सकता है उसी श्मशान में फूंके। क्या बचा लिया? समझ में आ रही है बात कुछ?