प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा नाम निशांत है। आध्यात्मिकता मेरे लिए ख़तरनाक होती जा रही है। ओशो एवं रमण महर्षि को सुनकर और आपको सुन लेने के बाद अब सब निस्सार लगता है। मैं एस्केप (पलायन) करने लग गया हूँ। मिलनसार नहीं रहा। समाज के प्रति आकर्षण भी है और उसको गरियाता भी हूँ। अध्यात्म ने मेरे लिए सब मिश्रित और धुँधला कर दिया है। कृपया मुझे बताएँ कि क्या मैंने कोई मूलभूत ग़लती की इस मार्ग पर, या यह सब एक चरण-मात्र है और मुझे इससे गुज़रना होगा।
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो निशांत, आध्यात्मिकता कोई मार्ग नहीं होती। इस तरह के मुहावरों का, शब्दों का प्रयोग अतीत में हुआ है ー द वे (मार्ग); या यह मार्ग, वह मार्ग; या ऐसा पथ, वैसा पथ। तो हमें ऐसा लगता है जैसेकि, ‘भाई, कई तरह के पथ हैं और एक पथ आध्यात्मिक पथ भी है और उस पर चलने वालों को कहा जाता है — पिलग्रिम्स ऑन द वे (तीर्थयात्री राह पर) या वॉरियर्स ऑन द वे (योद्धा राह पर) या साधक्स ऑन द वे (साधक राह पर), अध्यात्म के पथिक, सच के राहगीर’ — इस तरह की हम कुछ कल्पना कर लेते हैं। ऐसा नहीं है भाई। जितने भी पथ हैं, जितनी भी राहें हैं, वे सब दुनियादारी की राहें हैं। अध्यात्म की कोई राह नहीं होती। ऐसे समझ लो जैसे दुनिया एक जंगल है; ऐसा जंगल, विशाल-विराट जंगल जिसके भीतर से बहुत सारे रास्ते हैं छोटे-बड़े, कुछ राजपथ भी हैं, कुछ पगडंडियाँ हैं, महावन है बहुत बड़ा। सब कुछ है उसमें। वह संसार है। अनन्तउसमें रास्ते हैं, अनन्त उसमें चलने वाले लोग हैं। जितने रास्ते हैं, सब उसी वन में है, क्योंकि वही वन संसार है।
अब अध्यात्म उस जंगल के भीतर एक और रास्ता नहीं है। ऐसा नहीं है कि जो सर्वश्रेष्ठ रास्ता है उस जंगल के भीतर, उसका नाम है ‘आध्यात्मिक पथ’। ऐसी कोई कल्पना मत करो। अध्यात्म प्रकाश है, रोशनी है, नूर है। कभी वह बाहर की रोशनी है, कभी अपनी आँखों की रोशनी है। आमतौर पर पहले तो वो बाहर की ही रोशनी होता है। अध्यात्म रास्ता नहीं है, मैं कह रहा हूँ, ‘अध्यात्म रोशनी है। रास्ता नहीं, रोशनी है।’ इस जंगल में समस्या यह तो है ही कि जंगल है भाई। झाड़-झंखाड़, दलदलों, गड्ढों, कीड़ों, मच्छरों और हिंसक पशुओं से भरा हुआ जंगल है। उससे ज़्यादा बड़ी समस्या इस जंगल में यह है कि इस जंगल में जितने लोग चल रहे हैं, वो चल रहे हैं आँखें बन्द करके। तो इस जंगल में दोहरी मार पड़ रही है सब रास्तों पर चलने वालों को — किसी एक रास्ते पर चलने वाले नहीं। फ़र्क नहीं पड़ता आपका रास्ता क्या है; आप तो चल रहे हैं आँख ही बन्द करके। और फ़र्क नहीं पड़ता आपका रास्ता क्या है; जंगल से ही तो गुज़र रहा है रास्ता, तो उसमें गड्ढे भी हैं, पत्थर भी हैं, ढलानें भी हैं, चढ़ाइयाँ भी हैं, शेर-चीते भी हैं, साँप-अजगर भी हैं। ऐसा तो रास्ता है! लेकिन जैसा भी रास्ता हो, उस रास्ते का उपयोग किया जा सकता था अगर आपकी आँखें खुली हों। अध्यात्म रोशनी है; ऐसी ज़बरदस्त रोशनी जो रास्ते को तो प्रकाशित कर ही देती है, जब आपकी आँखों में पड़ती है, तो आप मज़बूर हो जाते हैं आँखें खोलने के लिए। ये आपने कभी गौर करा है? आप सो रहे होते हैं, तो आप बत्तियाँ बुझाकर सोते हैं। आप सो रहे होते हैं, तो आप परदे गिराकर सोते हैं। और जगाने का एक तरीक़ा यह भी होते है कि बत्तियाँ सब जला दो और परदे सब उठा दो, और आठ-नौ बजे का सूरज है बिलकुल चिलचिलाता हुआ गर्मी का, और जैसे ही पड़ेगा आँख पर, बिलकुल आँख खुल जाएगी । माने, बाहर की रोशनी से आँखों की रोशनी आ गई जैसे।
‘अरे! पर आँखों में रोशनी तो पहले भी थी, हम अन्धे थोड़े ही हो गए थे सोते वक़्त।’ ‘रही होगी भैया तुम्हारी आँखों में रोशनी; तुम्हारे किसी काम की थी वह रोशनी? तुम तो सो रहे थे।’ तो बाहर की रोशनी चाहिए होती है भीतर की रोशनी को सक्रिय कर देने के लिए, एक्टिवेट (सक्रिय) कर देने के लिए; वरना वह सोई पड़ी थी — निष्क्रिय, डोरमेंट (प्रसुप्त), पैसिव (निष्क्रिय)। अध्यात्म वह रोशनी है जो आरम्भ में तो बाहर से आती है — कभी ग्रन्थ के माध्यम से आएगी, कभी गुरु के माध्यम से आएगी, कभी किसी और घटना के माध्यम से आ जाएगी भाई — आती तो वह बाहर से है, लेकिन आपकी आँखें खोल जाती है। अब आप जिस भी रास्ते पर हैं, उस रास्ते का आप समुचित उपयोग कर पाएँगे। आप चाहें तो रास्ता बदल लें, लेकिन आप रास्ता बदलकर भी आध्यात्मिक रास्ते पर नहीं आ जाएँगे। रास्ता तो आपका अभी भी जंगल के ही भीतर का है, झाड़-झंखाड़ के ही बीच का है।
'ये संसार काँटन की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है।'
कब? अगर आँख बन्द है भाई। अगर आँख खुली है, तो काहे को उलझ-उलझ मर जाना है? कबीर साहब ने किनसे बोला था 'ये संसार काँटन की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है'? उनसे जो बेख़बर थे। सोए पड़े हैं नींद में, उनको कहा, ‘उलझ-उलझकर मरोगे।’ नहीं तो झाड़ी सामने हो, उलझना आवश्यक है क्या? क्या हमेशा ऐसा होता है कि काँटों की झाड़ी हो और आप उसमें उलझ-उलझ मर ही जाते हैं? ऐसा तो नहीं करते न? क्योंकि आँख खुली रहती है, झाड़ी है, आप थोड़ा बचकर निकल लेते हैं। हाँ, आप आँख बन्द करके नींद में चलते हुए जा रहे हों, तो ज़रूर उलझ-उलझकर मर जाएँगे झाड़ी से; विकराल झाड़ी हो तो, सोचो।
'अध्यात्म' फिर बता रहा हूँ — रास्ता नहीं, रोशनी है। लेकिन नये-नये साधकों को ऐसा लगता है जैसे उन्होने संसार त्यागकर कोई आध्यात्मिक रास्ता ही चुन लिया है। और वह नयी साधना भी क्या है? ऐसा नहीं है कि उसमें कोई बहुत गहराई आ गई है। वो अभी दो-चार किताबें पढ़ लीं, दो-चार दर्जन वीडियो देख लिए, कुछ इस तरह की चीज़ें। तो फिर वो संसार की ही कुछ उपेक्षा- अवहेलना करनी शुरू कर देते हैं। वो कहते हैं, “दुनिया ठीक नहीं है।” दुनिया ठीक नहीं है, तो कहाँ जाओगे जीने? जिनको तुम ग्रन्थ भी कह रहे हो, उनके ग्रन्थकार इसी दुनिया से तो थे। और कहाँ से थे? ये सब ऋषि-मुनि किसी और लोक में रहते थे क्या? इसी दुनिया के तो लोग थे। मैं कहाँ से बोल रहा हूँ तुम्हारे सामने? यह कैमरा, यह स्क्रीन, यह स्पीकर, यह सब मामला कहाँ का है? बृहस्पति ग्रह का है? और बृहस्पति ग्रह का भी है, तो बृहस्पति ग्रह दुनिया से कहीं बाहर का है? वह भी तो दुनिया के अन्दर का ही है। समझ में आ रही है बात।
तुमने लिखा है, ‘दुनिया से एस्केप करने लग गया हूँ। लोगों से दूर जाने लग गया हूँ। आध्यात्मिकता मेरे लिए ख़तरनाक हो गई है। लोगों से अब मिलनसार नहीं रहा। समाज के प्रति खिंचता भी हूँ और समाज को गरियाता भी हूँ।’ ये सब-कुछ तुम्हारी एक ग़लत अवधारणा के कारण है। तुमने कहीं-न-कहीं यह ख़याल बना लिया है कि अध्यात्म माने दुनिया से बाहर की कोई चीज़। कौनसी दुनिया से बाहर की चीज़? दुनिया से बाहर क्या है? दुनिया। दुनिया से और बाहर क्या है? और दुनिया। जहाँ भी अभी ‘अन्दर’ और ‘बाहर' जैसे शब्द प्रयुक्त किए जा सकते हैं, वो जगह क्या है? दुनिया। तो तुम कहो, ‘दुनिया से बाहर’, अभी भी तुमने 'बाहर' शब्द की प्रासंगिकता के भीतर ही कुछ कहा न? तो दुनिया के बाहर दुनिया है। दुनिया से बाहर कहाँ जाओगे? दुनिया ही और मिलेगी।
दुनिया से बाहर कोई नहीं जा सकता; कम-से-कम यह प्रश्न पूछने वाला तो बिलकुल नहीं जा सकता। प्रश्न पूछने वाला कौन है— देही अहंकार; अहंकार जो देह रूप मे है। वो जहाँ रहेगा उसी जगह का नाम दुनिया है। तो भाई, अगर आध्यात्मिक हो रहे हो, तो उसका मतलब क्या है? आध्यात्मिक होने का मतलब है— ज़िन्दगी के जिन भी रास्तों पर चल रहे हो, आँख खोलकर चलो। ज़िन्दगी-रूपी जंगल के जिन भी रास्तों पर चल रहे हो, आँख खोलकर चलो — इसको कहते हैं आध्यात्मिक जीवन जीना ।
यह तो बड़ी सरल बात हुई! लोग पता नहीं कैसे-कैसे किस्सों के महल खड़े करते रहते हैं! कहते हैं, “अध्यात्म माने ये, वो, फ़लानी चीज़ें हो जाएँगी, परियाँ उतरती हैं, घंटे बजते हैं , भीतर से शक्तियाँ उठती हैं” ये सब कुछ नहीं। वो सब अध्यात्म नहीं है; वो बाज़ीगरी है, कबूतरबाज़ी है, मनोरंजन का एक तरीक़ा है। कि जैसे पिक्चरें (सिनेमा) देखने जाते हो न — साइन्स फिक्शन (विज्ञान कल्पना) होता है, और पचास तरीक़े की होती हैं — उनमें यह सब हो रहा होता है; एलियंस (परिग्रहवासी) आ रहे हैं, ये हो रहा है, वो हो रहा है, फ़लाने ग्रह में ऐसा हो गया, समुद्र के भीतर से कोई उठा, कोई आदमी बदलकर बिलकुल दैत्य बना गया, उसका जेनेटिक म्यूटेशन (आनुवंशिक उत्परिवर्तन) हो गया। ये सब देखते हो न पिक्चरों में?
तो, हम जो आमतौर पर आध्यात्मिक धारणाएँ बना लेते हैं कि, ‘एक अलग आध्यात्मिक लोक है। और हम तो अब कुछ किताबें-विताबें पढ़ लिए, तो हम तो अलग लोक के वासी हैं,’ उस लोक के बारे में हमारी जो कल्पनायें हैं, वो और कुछ नहीं हैं; किस्से हैं, कहानियाँ हैं, मनोरंजन है। उन पर ध्यान मत दो। अध्यात्म का मतलब है — ज़िन्दगी में जो कुछ कर रहे हो, खुली आँखों से करो। किससे मिल रहे हो? किससे नहीं मिल रहे हो? झुँझला रहे हो जिससे मिल रहे हो? क्यों झुँझला रहे हो? ज़रा देखो तो गौर से; उस व्यक्ति को भी देखो, अपनेआप को भी देखो। झुँझलाने कि क्या ज़रूरत थी भाई? और अगर इस रिश्ते में इतनी झुँझलाहट है, तो फिर मिलने कि मज़बूरी क्या है भाई? कहाँ रोज़ पहुँच जाते हो? कहाँ से पैसे ला रहे हो? पहली बात — क्या ईमानदारी से कमा रहे हो? दूसरी बात — जो कमा रहे हो, उसको खर्च कहाँ कर आ रहे हो?
ये सब बातें आध्यात्मिक हैं। पर इन पर तो आमतौर पर आध्यात्मिक लोग कभी गौर ही नहीं करते। मैंने बहुत कम सुना है आध्यात्मिक लोगों को, उनके गुरुजनों को ये सब सवाल पूछते हुए कि क्या मेरी आमदनी सही जगह से आ रही है, क्या मैं टीवी पर सही प्रोग्राम देख रहा हूँ। आप कहेंगे, ‘अरे! आचार्य जी, हम ऊपर-ऊपर की इतनी सारी बातें कर रहे थे। यह आप टीवी पर क्यों उतर आए?’ क्योंकि साहब, यही अध्यात्म है। आपने पढ़े होंगे पचास ग्रन्थ, अगर आप अभी भी टीवी पर दिन-रात वो घटिया बहसें देख रहे हैं और राजनीति के किस्से सुन रहे हैं, तो आप कहाँ से आध्यात्मिक हो गए और आपने क्या सीख लिया उन ग्रन्थों से? छः घंटे से कोई खबरिया चैनल लगाकर बैठ गए हैं जिस पर एक के बाद एक मूरख आते जा रहे हैं और बक-बक करते जा रहे हैं और कुल मिलाकर उन्होने जो बोला है, वो एक वाक्य में कहा जा सकता है। और आप कहते हैं कि आप बड़े क्रान्तिकारी रूप से आध्यात्मिक हैं, तो फिर आप झूठ बोल रहे हैं।
आप जानते ही नहीं कि आप ज़िन्दगी की जिन राहों पर चल रहे हैं, उनकी असलियत क्या है। आपने जीवन के छः घंटे दिये हैं अभी-अभी इस टीवी को। क्यों दिये भाई? कहते हैं, ‘हम बड़े आध्यात्मिक हैं, बड़े आध्यात्मिक हैं।’ तुम बड़े आध्यात्मिक हो, तो फ़लाने की शादी में जाकर तीन दिन तुम कर क्या रहे थे? कह रहे हैं, ‘नहीं, घर में शादी है, तो तीन दिन वहाँ लगाकर आएँगे।’ तुम तो आध्यात्मिक थे। तुम वो तीन दिन क्या कर रहे थे? अपनेआप से पूछो, ईमानदारी से। ये है अध्यात्म का असली मतलब — जो करते हो, उस पर गौर करो। खोल रखा है ट्विटर; देखो वहाँ पर किन लोगों को फॉलो करे जा रहे हो। क्या पढ़ रहे हो वहाँ पर एक के बाद एक ट्वीट्स, किन लोगों की और क्यों?
अख़बार खोल रखा है; क्या भा रहा है उसमें? किस नाते देख रहे हो? कौनसी चीज़ें घर में जमा कर रखी हैं? उनकी उपयोगिता क्या, आवश्यकता क्या? कौन सी बातें सुनकर परेशान हो जाते हो, ईर्ष्या उठने लगती है, दिल दहल जाता है बिलकुल? इन बातों पर रोशनी पढ़ने दो — यह अध्यात्म है। अध्यात्म का, फिर कहा रहा हूँ, अपना कोई अलग पथ नहीं होता । ज़िन्दगी के पथ पर, चाहे वो जो भी पथ हो, आँखें खोलकर चलने का ही नाम अध्यात्म है । और आँखें खोलकर चल रहे हो, तो ज़िन्दगी के अनेक पथों में से लगातार अपने लिए सही पथ चुनते ही चलोगे। ज़िन्दगी में भी कोई एक पथ सदा सही नहीं होता। कभी एक राह पर चलना होता है, फिर थोड़ा मोड़ ले लेना होता है, दूसरी राह पकड़ लेनी होती है। जो भी करो, होशपूर्वक करो, आँखें खोलकर करो, रोशनी में करो — यही अध्यात्म है । कोई आवश्यकता नहीं है दुनिया से अपनेआप को काट लेने की, क्योंकि दुनिया से अपनेआप को काटा भी नहीं जा सकता। सही दुनिया में जियो। सही दुनिया में सही जीवन जियो — यह अध्यात्म है।