दुनिया मेरे विरुद्ध क्यों खड़ी है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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दुनिया मेरे विरुद्ध क्यों खड़ी है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: समाज से दूर होने को, समाज से असंप्रक्त होने को एक बड़ी बीमारी का नाम क्यों दे दिया गया है? अगर मैं अपने रास्ते चलना चाहता हूँ, अपने अनुसार जीना चाहता हूँ, तो दुनिया दुश्मन क्यों बनी बैठी है? उनको समस्या क्या है? मैं अपना जीवन जी रहा हूँ, अपने क़दमों पर चल रहा हूँ, अपनी राह बना रहा हूँ। दुनिया का क्या ले रहा हूँ?

आचार्य प्रशांत: सवाल बड़ा जायज़ है। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचा रहा, मैं तुम्हारी चोरी नहीं कर रहा। मैं अपना जीवन जी रहा हूँ, मुझे जीने दो। मैं तुम्हारे घर में घुस कर नहीं बैठ रहा, मैं तुमसे छेड़खानी नहीं कर रहा, दखलंदाज़ी नहीं कर रहा, मुझे मेरे अनुसार जीने दो। पर ऐसा होता नहीं है। तुम पाते हो कि जब भी कोई इतना चैतन्य हो जाता है कि उसका जीवन बस उसकी समझ के अनुसार चलता है, तो उसके तमाम दुश्मन खड़े हो जाते हैं।

इस बात को समझना होगा कि दुश्मन क्यों खड़े हो जाते हैं। ये दुश्मन खड़े हो जाते हैं क्योंकि एक डरा हुआ आदमी भीड़ में ही सुरक्षा पाता है, और अगर वो उस भीड़ की तादाद कम होते देखेगा तो उसका डर बढ़ जाएगा।

जिस आदमी को अपना पता नहीं होता, वो चाहता है कि वो भीड़ में चले। भीड़ में चलकर उसको ऐसा एहसास होता है कि वो ठीक है, कि सब कर रहे हैं तो ठीक ही होगा। सबके साथ जा रहा हूँ तो सुरक्षित हूँ।

ऐसे में इस भीड़ की नज़र किसी एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ जाती है जो अपनी राह अकेले चल रहा है मस्त होकर, एक धुन गुनगुनाता हुआ चला जा रहा है, बेख़ौफ़, किसी का डर नहीं, दाएँ-बाएँ देख ही नहीं रहा, अपने में मगन है, तो इस भीड़ का पसीना छूट जाता है। ये लाखों लोगों की भीड़ उस एक आदमी से बुरी तरह से डर जाती है क्योंकि उस एक आदमी का होना ये सिद्ध कर देता है कि भीड़ झूठी है। उस एक आदमी का होना ये प्रमाण होता है कि वैसे जिया जा सकता था, तो तुम ऐसे क्यों जी रहे हो? उस एक आदमी का अस्तित्व इस पूरी भीड़ के मुँह पर एक तमाचा होता है। तो भीड़ बुरे तरीके से बौखला जाती है और उसकी जान लेकर छोड़ती है।

इतिहास गवाह है कि ऐसे लोगों को भीड़ ने बख्शा नहीं है जो अपनी मौज में जीते थे। उनको या तो सूली दे दी, ज़हर पिला दिया, मार डाला, या समाज से बहिष्कृत कर दिया। वो एक आदमी भीड़ के लिए उतना ही खतरनाक होता है जितना कि रौशनी की एक किरण अँधेरे के लिए। रोशनी की एक किरण ये सिद्ध कर जाती है कि अँधेरा झूठा है। एक किरण भी उसको मिटा सकती है।

तुमने देखा नहीं है कि लोग भीड़ में सुरक्षा पाते हैं? तुम पूछो अपने आप से कि, "दिवाली आ रही है, ट्रेन में जाओगे तो जगह मिलनी क्यों मुश्किल हो जाएगी?" तुम पूछो अपने आप से कि, "एक ही दिन सबको आनंद कैसे दे सकता है? और क्या ये वास्तव में समझते हैं कि इसमें आनंद कहाँ है, उत्सव कहाँ है?" तुम पूछो अपने आप से कि, "दुनिया के जितने संगठित धर्म हैं, ये अपनी तादाद बढ़ाने पर इतना ज़ोर क्यों देते हैं?" लगे रहते हैं कि किसी तरह औरों का धर्म परिवर्तन हो जाए और हमारी संख्या बढ़ जाए क्योंकि ये डरे हुए हैं।

जो आदमी झूठा होगा वो डरा होगा और लगातार अपनी तादाद बढ़ाने की कोशिश करेगा। वो चाहेगा कि मेरे जैसे और पैदा हो जाएँ।

होते रहें उसके जैसे हज़ार पैदा, पर उसका डर जाएगा नहीं। वो एक झूठा इलाज़ कर रहा है। पचास करोड़, सौ करोड़, डेढ़-सौ करोड़ तुम्हारे धर्म को मानने वाले हैं पर तुम्हें अभी और चाहिए, तुम्हारा डर जा नहीं रहा है। तुम क्या सोचते हो कि पृथ्वी की पूरी आबादी को अपने धर्म में सम्मिलित कर लो, तुम्हारा डर क्या तब भी चला जाएगा? डर तुम्हारा तब भी नहीं जाएगा क्योंकि तुम्हारा धर्म तुम्हारा है ही नहीं। तुमने कभी जाना ही नहीं धर्म का अर्थ। तुमने जीवन को कभी समझा नहीं।

तुम देखते नहीं हो कि किसी से अगर तुम सच बोलो तो उसका आखिरी तर्क क्या होता है? “सब ऐसा कर रहे हैं तो हम भी कर रहे हैं, तुम क्या दुनिया से अनूठे हो? दुनिया जिस राह चल रही है तुम्हें भी चलना पड़ेगा।” ये एक कमज़ोर आदमी का आखिरी तर्क है कि दुनिया जिस राह चल रही है तुम्हें भी चलना पड़ेगा। “तुम में क्या अलग है? तुम क्या खास पैदा हुए हो? तुम्हारी क्या तीन आँखें हैं? क्या विलक्षण हो तुम?” इस तरीके के बेहुदे तर्क दिए जाएँगे तुमको और हर तर्क का आशय सिर्फ एक होगा कि भीड़ के साथ चलो। वही करो जो दुनिया कर रही है, और तुम वही करते रह गए जो दुनिया कर रही है तो हश्र तुम्हारा वही होगा जो दुनिया का हो रहा है।

अपने आसपास दुनिया कैसी है थोड़ा इसको ध्यान से देखो आँखें खोल कर। कभी सड़क के किनारे खड़े हो जाया करो और देखा करो कि ये दुनिया है कैसी। पूछो अपने आप से कि, "मेरा जो ये छोटा-सा जीवन है मैं इसको क्या ऐसे ही जीना चाहता हूँ?"

किसी ने कहा है कि व्यक्ति कभी कोई अपराध नहीं करता, हर अपराध भीड़ का किया हुआ है। और दुनिया के सबसे जघन्य अपराध व्यक्तियों ने नहीं भीड़ों ने किए हैं। व्यक्ति भी अपराध तब करता है जब भीड़ उसके मन में घुस कर बैठ जाती है। जो विशुद्ध ‘मैं’ होता है, जो तुम्हारी निजता होती है, उसमें तुम कभी अपराध कर ही नहीं सकते।

जब दंगे हो रहे होते हैं तो देखना कि एक अच्छा खासा भला आदमी जब भीड़ में आता है तो दंगाई बन जाता है। वो अपने पड़ोसी का घर जला देगा, वो किसी को छुरा घोंप देगा। ये काम, ये आदमी कभी व्यक्ति की तरह नहीं कर पाता। ये काम उससे भीड़ ने करवा दिया।

जानते हो अपराधी कौन? जिसका मन अस्वस्थ है। और अस्वस्थ शब्द को ज़रा समझो। ‘स्वस्थ’―‘स्थ’ मतलब ‘स्थित होना’। जो अपने में स्थित है वही स्वस्थ है। बीमार वही जो अपने से बाहर हो गया है, भीड़ का गुलाम हो गया है, जिसका ‘स्व’ खो गया है। जिसका ‘स्व’ खो गया उसका स्वास्थ्य खो गया, और ‘स्व’ खोने का लक्षण ही है कि तुम अपने आप को भीड़ का हिस्सा मानना शुरू कर दो।

मुझे बड़ा अफ़सोस होता है, मैं ताज्जुब में पड़ जाता हूँ जब देखता हूँ कि तुम सवाल पूछते हो तो स्वयं को सम्बोधित करते हो ‘हम’ से। मैं पूछता हूँ कि तुम ‘मैं’ क्यों नहीं बोल सकते? तुम ‘मैं’ की भाषा में बात क्यों नहीं कर सकते? ‘हम’ में तुम्हें सुरक्षा मिलती है, ‘हम’ में तुम्हें लगता है कि “मैं प्रतिनिधि हूँ भीड़ का। मैं अपनी बात थोड़े ही कर रहा हूँ, मैं सौ और लोगों की बात कर रहा हूँ।” इससे तुम्हें बड़ी ताक़त मिलती है, इससे तुम्हें लगता है कि, “मेरे पीछे कोई खड़ा है, सम्भाल लेगा। पूरी एक भीड़ है समर्थन में।” ‘हम’ नहीं ‘मैं’, अपनी बात करो। तुम कहाँ हो? और देखो हम कैसी-कैसी भीड़ों में पड़े हुए हैं।

जहाँ कहीं भी तुम्हारे ऊपर दूसरों का प्रभाव हो, वहाँ समझ लेना कि भीड़ में जी रहे हो। वो प्रभाव किसी का भी हो सकता है। दूसरे व्यक्ति का प्रभाव ही भीड़ है। भीड़ के लिए पाँच हज़ार लोग नहीं चाहिए, सिर्फ एक व्यक्ति जो तुम्हारे मन पर हावी होकर बैठा है वही भीड़ है। वो परिवार हो सकता है, वो समाज हो सकता है, वो मीडिया हो सकता है, वो कोई नेता हो सकता है, वो कोई धर्म-ग्रंथ हो सकता है, वो कोई विचार हो सकता है, वो कोई आदर्श हो सकता है। जहाँ कहीं भी कोई दूसरा है, वही भीड़ है।

जो अपने में रह सके वही भीड़ से बचा हुआ है, और अपने में रहने की कीमत तो थोड़ी चुकानी पड़ेगी, भीड़ तो तुम्हारी दुश्मन होकर रहेगी। तो भीड़ जब तुम्हारी दुश्मन हो तो बौखला मत जाना, न ये समझ लेना कि, "मैंने कुछ गलत किया होगा इसलिए इतने लोग मेरे दुश्मन हो गए।" अगर बहुत लोग तुम्हारे दुश्मन हो गए हैं तो समझ लेना कि कुछ अच्छा ही किया होगा। अगर पाओ कि पूरी दुनिया तुम्हारे विरोध में खड़ी है तो समझ जाना कि ठीक हो।

एक वक्ता था। वो जब बोलने जाता और उसके सामने की भीड़ तालियाँ बजा दे, तो उसे बड़ा अफसोस होता। वो कहता, “आज ज़रूर कुछ गलत बोल दिया, नहीं तो इतनो को समझ में कैसे आ जाता?” जहाँ कहीं भी भीड़ को अपने साथ पाओ समझ लेना कि कुछ चूक हो रही है; और जहाँ भी भीड़ तुम्हारे विरुद्ध खड़ी हो, वहाँ समझना की कुछ अच्छा ही घट रहा होगा, नहीं तो इतने लोग नहीं होते। "इतने सारे मूर्ख मेरे विरुद्ध हैं, तो निश्चित ही मैं कुछ ठीक ही कर रहा हूँ।"

ये कीमत चुकाओ, डर मत जाना, और हिंसक भी मत हो जाना। उस भीड़ से दुश्मनी करने की ज़रूरत नहीं है। वो बेचारे तो करुणा के पात्र हैं। उन्हें खुद नहीं पता है कि वो क्या कर रहे हैं। तो अपनी जान तो बचा लो, पर उनकी जान के दुश्मन मत हो जाना। जब मौका मिले, उनको उचित सलाह देना, उनकी मदद करना क्योंकि भीड़ में जो भी है, वो दुःखी है। उसे तुम्हारी मदद की ज़रूरत है। भीड़ का हर व्यक्ति भीड़ से मुक्त होना चाहता है कहीं गहराई में, पर हो नहीं पा रहा। उसे तुम्हारी मदद चाहिए। उसे मदद देना पर पहले अपनी जान बचा लो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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