ध्यान में काल के पार का अनुभव || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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ध्यान में काल के पार का अनुभव || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं काफ़ी समय से मेडिटेशन (ध्यान) कर रही हूँ। पिछले कुछ दिनों से कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ समय के लिए टाइमलेसनेस (कालहीनता) का अनुभव होता है। मैं ऐसा क्या करूँ कि ये अनुभव पूरे दिन रहे?

आचार्य प्रशांत: अगर आपको पता न होता कि मेडिटेशन में टाइमलेसनेस जैसी कोई चीज़ होती है, तो ये आपके साथ नहीं होता।

प्र: खासकर ये तब होता है जब मैं ध्यान करती हूँ।

आचार्य: आप मेडिटेटर (ध्यान करनेवाला) तो हैं न, जो कभी मेडिटेशन कर रही है, कभी नहीं कर रही है? एंड मेडिटेटर्स आर सपोज़्ड टू एक्सपीरियंस टाइमलेसनेस, सो यू आर एक्सपीरियंसिंग टाइमलेसनेस। बट यू वोंट एक्सपीरियंस टाइमलेसनेस व्हेन इट विल कॉस्ट यू अ लोट (और ध्यान करने वाले के लिए कालहीनता का अनुभव करना अनिवार्य माना जाता है, इसलिए आप अनुभव कर रहे हैं कालहीनता का। लेकिन आपको कालहीनता का अनुभव तब नहीं होगा जब इसके लिए आपको बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी।)

जैसे कि कोई ऐसी जगह हो जहाँ पर आपको पर मिनट (प्रति क्षण) के हिसाब से चार्ज करते हों कि जितने मिनट की सर्विसेज़ (सेवाएँ) लोगे या जितने मिनट इस जगह पर बिताओगे, उसी के हिसाब से पैसे देने पड़ेंगे। लेट्स से थाउज़ेंड रुपीज़ पर मिनट (मान लीजिए हज़ार रुपए प्रति मिनट), आपके साथ ये नहीं होगा कि आप उस जगह पर दो घंटे बैठे रह गए क्योंकि आपको लगा पाँच ही मिनट बीते हैं। और फिर दो घंटे बाद आपका जब बिल आया तो कितने का आया? लाखों का। वो आपके साथ होगा ही नहीं।

ये टाइमलेसनेस भी वहीं अनुभव होगी जहाँ कोई नुकसान नहीं हो रहा, क्योंकि ये मन की कोशिश है अपनेआप को ये बताने की कि तरक्की हो रही है। हम जो कुछ भी करते हैं परिणाम के लिए करते हैं न? हम ऐसे ही लोग हैं, जो करते हैं परिणाम के लिए करते है। तो ये जो तथाकथित मेडिटेशन है, इसमें भी हमको परिणाम चाहिए। जो इसका वास्तविक परिणाम है वो हमको मिलता नहीं या बहुत ही कम मिलता है, क्योंकि जो हम मेडिटेशन कर रहे होते हैं वही गड़बड़ होता है। तो फिर हम इसके अन्य तरीके के परिणाम अनुभव करने की चेष्टा करते हैं। ये हम अधिकतर सबकॉन्शियसली (अवचेतन रूप से) करते हैं।

भाई, इतने दिनों से इतने घंटे अगर मैंने किसी प्रक्रिया में लगाए तो मैं अपनेआप को क्या बताऊँ कि इतने घंटों के एवज में मुझे क्या मिला! आप तो फिर भी युवा हैं, उनकी सोचिए जो सत्तर साल के हो गए हों! सत्तर साल के हैं, रोज़ दो घंटे वो पूजा करते थे। सोचिए, उन्होंने कितना समय लगा दिया पूजा में। तो इकहत्तरवें साल में उनके लिए बड़ा ज़रूरी हो जाता है कि वो कहें कि उनको साक्षात् सगुण ब्रह्म के दर्शन हुआ करते हैं, नहीं तो क्या मुँह दिखाएँगे अपनेआप को कि सत्तर साल तक क्या करा; झक मारी!

सत्तर साल तक रोज़ दो घंटे ये करते थे और ये करते थे, कुछ मिला? जो असली चीज़ मिलनी चाहिए थी वो तो मिली भी नहीं। असली चीज़ क्या होती है? सत्य मिला हो, बोध मिला हो, प्रकाश मिला हो। वो तो मिला नहीं है, तो फिर वो अपनेआप को ये जताना शुरू कर देते हैं कि मुझे कुछ और मिल रहा है। ये ऑटो सजेशन (आत्म सुझाव) है, ये और कुछ नहीं है। टाइमलेसनेस का कोई अनुभव होता ही नहीं है। हो कैसे गया, ये एक असंभावना है, ये हो ही नहीं सकता।

टाइमलेसनेस का अनुभव ऐसा ही है कि जैसे आप — इंजीनियर हैं तो बोल रहा हूँ — माइनस वन का स्कवायर रूट (वर्गमूल) निकाल दें और कहें, ‘ये रहा, नैचुरल नंबर (प्राकृत संख्या) में मैंने अभिव्यक्त कर दिया। आई इज़ इक्वल टू टू प्वाइंट सेवन फोर एट (आई बराबर दो-दशमलव-सात-चार-आठ), कर सकती हैं क्या? जैसे माइनस वन का स्क्वायर रूट नहीं हो सकता कोई नैचुरल नंबर, वैसे ही टाइमलेसनेस का, कालहीनता का, या समयातीत जाने का कोई अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि वो समय में घटने वाली घटना ही नहीं है। अनुभव हमेशा उसका होता है जो समय में घटा हो, समय के अतिरिक्त किसी को क्या अनुभव हुआ आज तक, कुछ नहीं। तो समय के पार का अनुभव कैसे हो गया भाई?

एक सज्जन आए, बोले, ‘ध्यान में बैठता हूँ तो अनंत आनंद बरसता है।’ तो मैंने पूछा, ‘कब बैठते हो?’ बोले, ‘सुबह छ: बजे से सात बजे।’ ‘अनंत आनंद बरसता है?’ ‘हाँ, बेहोश हो जाते हैं बिलकुल! खो जाते हैं, लय हो जाते हैं।’ जितने आध्यात्मिक शब्द होते हैं सब बता दिए। हमने कहा, ‘इतना कुछ होता है तो सात बजे उठ काहे को जाते हो? और जब खो ही जाते हो तो सात बजे उठने के लिए शेष कौन रहता है? उसे सात बजे उठना याद कैसे रहता है?’ कह रहे हैं, 'नहीं, ध्यान का तो एक ही घंटा होना चाहिए, उसमें अनंत आनंद उतरता है।'

बढ़िया! तो ठीक सात बजे आनंद को झाड़-पोंछकर खड़े भी हो जाते हो कि बहुत हो गया आनंद, अब दुख की तरफ़ बढ़ें! खेद की बात ये है कि जो आप कह रही हैं, इस तरह की बातें बहुत सारे तथाकथित योगियों ने, गुरुओं ने, लेखकों ने भी पुस्तकों में दर्ज़ कर दी हैं और वो पुस्तकें (बिक भी खूब रही हैं)।

प्र: आजकल लोग उसमें अल्फ़ा वेव, बीटा वेव, गामा वेव, फ़्रीक्वेंसी की भी बातें करने लग गए हैं।

आचार्य: तो वो सब पढ़ लिया अगर, तो भीतर और हीनभावना आ जाती है कि इतना कुछ होता है ध्यान में बैठने से, हम चूक गए! पूरी दुनिया बाज़ी मार ले गई, सबको सबकुछ हो रहा है, अल्फ़ा, बीटा, गामा, हमें कुछ नहीं हो रहा है। बताओ, हद है! दुनिया कितनी आगे निकल गई! ये बगल के मंगूलाल को देखो, पिछले हफ़्ते मेडिटेशन शुरू करा था और थीटा में पहुँच गया है। हम लगे हैं तीन साल से, हमारा कुछ नहीं हो रहा। हम डेल्टा में जाएँगे सीधे, बता रहे हैं आज!

प्र: उसके लिए फिर बाइनरी वेव्स की भी बात होती है।

आचार्य: वो सब हो जाएगा, चिंता मत करो। और मजाल है किसी की कि कोई तुमसे बोल दे कि ये हुआ नहीं है, तुम गढ़ रहे हो। तुम उससे कहोगे, ‘ये नास्तिक हम पर संदेह करता है, कुम्भीपाक! नर्क में मरेगा।’

किन चक्करों में पड़ रहे हो? सत्य होता है अकाल, वो कोई दिन में बीच-बीच में खुसुर-पुसुर आ जाने वाली चीज़ नहीं होती। वो कोई ऐसी चीज़ नहीं होती कि बाकी दिनचर्या सामान्य ही चल रही है और बीच-बीच में कुछ विलक्षण, अद्भुत, पारलौकिक अनुभव होने शुरू हो गए। कि बाकी सबकुछ वैसे ही चल रहा है, आठ घंटे की शिफ्ट बिलकुल वैसे ही चल रही है, बस बीच-बीच में पार की झलक मिल जाती है; नहीं, ऐसा नहीं होता। जब मन झूठ से विरक्त होता है, जब मन सत्य में उतरने लगता है तो पूरा जीवन ही बदलता है; जीवन का एक कोना नहीं बदलता कि एक कोने में पाँच मिनट को रोशनी आ जाती है बस। नहीं, ऐसा नहीं होता।

वो ऐसा होता है जैसे पानी में शक्कर घोल दी गई, मिठास कहाँ आएगी? जहाँ चखोगे वहाँ आएगी, सबकुछ बदल जाता है। आप ये नहीं कह सकते कि आप आध्यात्मिक हो गए हैं, लेकिन आपकी दुकान वैसे ही चल रही है जैसे चला करती थी। दुकान बदलेगी, खाना-पीना बदलेगा, बोल-व्यवहार बदलेगा, पसंद बदलेगी, नापसंद बदलेगी, संबंध बदलेंगे। जहाँ चखोगे वहाँ कुछ मिठास मिलेगी।

जीवन को प्रतिपल सच्चाई के साथ जीना — ये है मेडिटेशन , ये है ध्यान। दिन के घंटेभर की जानने वाली किसी क्रिया-प्रक्रिया का नाम ध्यान नहीं होता, प्रतिपल सत्यनिष्ठा का नाम है ध्यान।

प्र: आचार्य जी,‌ जब अहंकार क्षीण होता है, क्या तब उसके शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तल पर अनुभव होते हैं?

आचार्य: नहीं, वृत्ति क्षीण होने से नहीं आएँगे प्रभाव, जब वृत्ति उद्घाटित होगी तब आएँगे। अपनी बहुत सारी उग्रताओं को हमने दबा-छुपा रखा होता है, भीतर आग दहक रही है और हमने उसको ढाँप कर रखा हुआ है। अध्यात्म का मतलब होता है सच्चाई से रूबरू होना। तो मन में क्या कचरा छुपा रखा है, कितनी हिंसा, बैर, संदेह, डर, वो सब भी खुलकर के सामने आ जाता है जब आप कहते हो कि मुझे सच्चा जीवन जीना है। तो खुलकर सामने आएगा तो अभिव्यक्त भी होगा।

अभिव्यक्त पहले भी हो रहा था, पर हौले-हौले हो रहा था, छुप-छुपकर हो रहा था। अब वो खुलेआम अभिव्यक्त होगा, पर उसकी खुली अभिव्यक्ति भी सुधार का, रेचन का एक तरीका ही है। कम-से-कम अब आपको चैतन्य रूप से ये पता तो चला कि आपके भीतर क्या-क्या छुपा हुआ था। नहीं तो भीतर जो कुछ मौजूद था, वो था भी और छुपा भी था। अब आप अपने आंतरिक यथार्थ से परिचित तो हुए, अब जान लिया है तो कुछ उपाय भी करोगे। बीमारी का पता चल गया है तो कुछ दवा भी करोगे। पर इसका भी बहुत लोग बड़ा दुरुपयोग करते हैं, कहते हैं कि अध्यात्म में प्रवेश का मतलब ही है कि अब उछल-कूद दिखाएँगे, ज़बरदस्ती उछल-कूद दिखाएँगे। कह रहे हैं, 'फ़लाना ग्रंथ पढ़ा है, अब कुछ तो अजीब करना है।' बहुत देख चुका हूँ।

एक लड़का था, उसने कहीं से मेरा सत्र सुन लिया, उसके हाथ अष्टावक्र गीता लग गई। तो नए साल की सुबह, इकतीस दिसंबर की आधी रात के बाद वो नंगा जाकर एक पार्क में लेट गया, बोल रहा है, 'शरीर तो मैं हूँ ही नहीं।' उधर उसके माँ-बाप के फ़ोन आ रहे हैं, ‘लड़का गायब है, कपड़े मिले हैं।’ मैंने कहा, ‘कपड़े बदल गया होगा, दूसरे पहनकर गया होगा।’ बोले, ‘बात गंभीर है, कच्छा भी छोड़ गया है! और यहाँ लोग पटाखे छोड़ रहे हैं, *हैप्पी न्यू ईयर!*’ मैंने पाँच-सात लोग रवाना किए गाड़ी-वाड़ी लेकर के कि भाई ढूँढो, कहाँ मिलेगा। फिर मालिक पार्क में पाए गए! नग्न पड़े थे, कह रहे थे, ‘समाधि का अनुभव हो रहा है!’

ये हम वसूला करते हैं। ऋषि अष्टावक्र हमें भाते तो हैं नहीं, तो उनकी गीता पढ़ना हमारे लिए एक बड़ी यंत्रणा होती है, *टॉर्चर*। तो हम कहते हैं, ‘इतना टॉर्चर झेला है तो अब वसूलेंगे।’ हम कोई प्रेमपूर्वक तो अष्टावक्र के पास जाते नहीं हैं। मिनट-मिनट जो हम उनके साथ बिताते हैं वो हमें भारी पड़ता है। तो हम कहते हैं, ‘ये सौ श्लोक पढ़ने में जो आठ घंटे लगे हैं, पल-पल का हिसाब लूँगा।’ तो फिर हमें समाधि चढ़ती है।

‘उन्नीसवाँ अध्याय, अठारहवाँ अध्याय पढ़ा है, सीधे श्लोकों का शतक लगाया है, आज तो होगा!’ और सम्मान भी बहुत मिलता है। तुम यूँही कोई इधर-उधर की बात करो, कोई तुम्हें दो धेले का भाव न दे। पर तुम बोल दो, ‘मुझे समाधि चढ़ी है’, भरोसा नहीं, प्रेस और मीडिया भी आ जाए, ‘यही है वो।’ इन सब शोर-शराबों का, इस उछल-कूद का नाम नहीं है अध्यात्म। अध्यात्म असली और खरी चीज़ है। वो अपनी दुर्बलताओं का निवारण है, मलिनताओं का प्रक्षालन है। वो असली घटना है, वो शोर मचाकर नहीं घटती। वो धीरे-धीरे घटती है, निरंतर घटती है। पर उसका घटना ऐसा होता है कि जैसे पत्थर पर लकीर खिंचती जा रही है, अमिट, अपरिवर्तनीय, *इररिवर्सिबल*।

ऐसा नहीं कि आज तो अध्यात्म फ़ितूर चढ़ा है और कल उतर गया। कल कुछ और कर रहे हैं, हॉबी ऑफ़ द डे — स्प्रिचुएलिटी (आज का शौक — अध्यात्म), ऐसे नहीं होता अध्यात्म। वो तो एक गहरी प्रेम कहानी होती है। एक बार प्यार में पड़ गए तो पड़ गए, उम्र भर का प्यार है वो, ज़िंदगी भर का इश्क। ज़िंदगी भर का इश्क है तो कितना शोर मचाओगे! ज़िंदगी भर शोर ही मचाओगे, थक जाओगे, इसीलिए वो शोर नहीं मचाता। वो बड़ा शांत, कभी-कभी तो मौन होता है।

जिनकी दो दिन की मोहब्बत होती है, बहुत पटाखे फोड़ते हैं। पहले दिन पटाखे फोड़ते हैं आई लव यू के, दूसरे दिन पटाखे फोड़ते है ब्रेकअप के। अध्यात्म गहरी और सच्ची आशिकी है, परम-प्रेम है।

प्र: जो विधियाँ बनाई जाती हैं, क्या वो सही नहीं हैं?

आचार्य: सब विधियाँ उपयुक्त होती हैं किसी व्यक्ति विशेष पर, मन की किसी अवस्था विशेष पर और मात्र कुछ काल के लिए उनकी उपयोगिता होती है। विधियाँ होती ही इसलिए हैं ताकि शीघ्रता से विधि खत्म हो जाए और जीवन निर्विधि, निर्बाध आगे बढ़े। तो विधियाँ पूरी तरह अनुपयोगी हैं (ये) मैं नहीं कह रहा; विधियों की उपयोगिता है। पर पहली बात, सबको उनके मन, उनके चित्त, उनकी वृत्ति और प्रकृति के अनुसार विधि मिलनी चाहिए। एक ही विधि सब पर कामयाब नहीं हो सकती। और दूसरी बात, कोई भी विधि ऐसी न हो जो चलती ही जा रही है, चलती ही जा रही है, चलती ही जा रही है।

विधि होती है ताकि तुमको उस प्रियतम की झलक मिले, तुम प्रेम में पड़ जाओ। विधि का काम इतना ही था — झरोखा खुला, दर्शन हुए, प्रेम जगा। अब विधि मध्यस्थ थी प्रेम को जगाने में; प्रेम जग गया, अब मध्यस्थ की कोई ज़रूरत है? दो प्रेमियों के बीच किसी बिचौलिए की ज़रूरत होती है क्या? तो एक बार प्रेम जाग्रत हुआ नहीं कि विधि को खत्म हो जाना चाहिए। विधि अगर चलती ही जा रही है, तो इसका मतलब तुमने विधि को ही प्रियतम का विकल्प बना लिया है। ये तो बड़ी खतरनाक बात हो गई! विधि इसलिए थी ताकि तुम्हें प्रियवर से मिला सके और तुमने विधि को ही विकल्प बना लिया प्रियवर का। ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई न। तो विधियों की उपयोगिता होती है, पर उपयोगिता से ज़्यादा खतरे होते हैं।

प्र: आचार्य जी, अगर हम सही राह पर चल रहे हैं तो विधि अपनेआप ही छूट जाएगी?

आचार्य: विधि अगर सफल रही है तो स्वयं ही हट जाएगी। कोई विधि अगर तुम्हें रोज़-रोज़ अपनानी पड़ रही है, तो इसका मतलब या तो विधि तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है या फिर तुम उस विधि को सफल होने देना चाहते ही नहीं।

प्र: जैसे कि मैं जप करता था पहले, तो उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि किसी बिंदु पर आकर छोड़ दें।

आचार्य: वो तुम्हें नहीं बताएँगे कि छोड़ देना है। दो बातें हैं, समझना — अगर विधि सच्ची है तो अपनेआप छूट जाएगी। पहले ही तुम्हें बता दिया कि अमुक दिन इसको छोड़ देना है, तो तुम उस विधि के प्रति समर्पित ही नहीं हो पाओगे। अगर विधि वास्तव में सफल रही है तो अपनेआप छूटेगी, गुरु तुम्हें पहले से आगाह नहीं करेंगे। ये पहली बात है। दूसरी बात, ये भी हो सकता है कि गुरुदेव स्वयं ही कुछ बातों को समझते न हों, तो उन्होंने तुम्हें जीवन भर के लिए ही विधि दे दी है। ये भी हो सकता है।

जीवन भर के लिए एक ही विधि है — स्वयं जीवन। उसके अलावा कोई विधि नहीं है जो जीवन पर्यंत चलेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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