प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान करते वक़्त साँस और विचारों को देखना कितना सार्थक है?
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे सामने इतनी चीज़ें हैं उनको भी ग़ौर से देख पाते हो? जो स्थूल है, प्रत्यक्ष है वो भी दिखता है? मुझे यह कागज़ डरा रहा हो, तो मैं कागज़ को देखूँ या साँस को देखूँ अपनी? डर तुम्हारा कहाँ है, भूत तुम्हारे कहाँ हैं, भ्रम तुम्हारे कहाँ हैं और तुम देखने की कोशिश कर रहे हो साँस को, क्यों भाई? और कुछ नहीं है देखने के लिए?
और मैंने कहा, 'साँस को क्यों देख रहे हो, साँस में कोई तकलीफ़ है?' तो तुम कहते हो, 'नहीं, विचारों को देखूँगा।' विचार सूक्ष्म हैं। पहले यह बताओ स्थूल को देख लिया, जिसको देखना सहज है और आसान है? तुम्हारा कमरा गंदा पड़ा है, तुम्हें वो गंदगी नहीं दिखायी पड़ रही, तुम क्या कह रहे हो? 'मैं तो मन की गंदगी देखूँगा, मैं तो विचारों का उठना और गिरना देखूँगा।'
जो नाक के नीचे है, जो आँख के सामने है, वो तो देखा नहीं। तुम क्या देखना चाहते हो? 'मैं अपने सूक्ष्म विचार देखूँगा।' कोई कह रहा है, 'मैं हृदय की धड़कन पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ।' यानी दिल की बीमारी होगी! क्यों? अपनेआप को क्यों बहला-फुसला रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे जीवन में वास्तविक समस्या क्या है? क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे जीवन में उपद्रव वास्तव में कहाँ है? उसका सीधे-सीधे सामना क्यों नहीं करते? ये तुमने छुपने के, भागने के, पलायन के छद्म उपाय क्या ढूँढ लिये हैं? बोलो!
प्र: आचार्य जी, 'बुद्ध की विपस्सना' का कोई तो मतलब होगी?
आचार्य: तुम अपनी बात करो। तुम अपनी बात करो न! तुम्हें क्या पता बुद्ध कौन थे। तुम्हें क्या पता बुद्ध पहुँचे भी थे कि नहीं। जब तुम अभी पहुँचे नहीं, तो तुम्हें क्या पता पहुँचने जैसा कुछ होता भी है या नहीं। तुम्हारे लिए तो अगर कुछ प्रामाणिक है तो वो तुम्हारा कष्ट और तुम्हारी दिन-प्रतिदिन की वेदना है। ठीक! एक वही चीज़ है जिसके बारे में तुम कह सकते हो कि यह तो है ही, क्योंकि मैं रोज़ इसका अनुभव करता हूँ। बाक़ी सब तो सुनी-सुनायी बात, तुम्हें क्या पता! तुम अपना जीवन बताओ न!
ध्यान का अर्थ होता है, उचित ध्येय बनाना और उचित ध्येय सिर्फ़ तब बनेगा जब ध्याता अपना पुराना रूप बचाए रखने पर तुला न हो।
अगर ध्याता ज़िद पर है कि मैं तो वहीं रहूँगा जो मैं हूँ, तो वो ध्येय कैसा चुनेगा? ऐसा ही ध्येय चुनेगा न जो उसको सुरक्षित रखे, संरक्षित रखे। मक्खी अगर ध्याता हो, तो ध्येय सदा क्या होगा? शक्कर। ध्यान तो तब भी है। जहाँ ध्येय है वहाँ ध्यान है। प्रश्न यह है कि तुमने किसको ध्येय बना लिया। ईमानदारी नहीं है तुममें अगर, तो तुम ध्येय वो नहीं चुनोगे जो तुम्हें मिटा दे; तुम ध्येय वो चुनोगे जो तुम्हें सुरक्षित रखे और ध्यान तो तब भी है।
जहाँ ज्ञाता है और ज्ञेय है; वहाँ ज्ञान है। और जहाँ ध्याता है और ध्येय है; वहाँ ध्यान है। ध्यानी तो सभी हैं, प्रश्न यह है कि ध्येय किसको बनाया। ऐसा कोई नहीं है जो ध्यानी न हो इस अखिल विश्व में — सब ध्यानी हैं। अंतर बस ध्येय में है।
जब तुम डरे होते हो तो तुम्हारा एक ही ध्येय होता है — बचना; किसी तरह बच जाऊँ। और जब तुम डरे नहीं होते तो तुम खुले होते हो, तुम मिटने को तैयार होते हो। जब तुम मिटने को तैयार होते हो, तब परम ध्येय ध्याता में स्थापित हो गया या तब ध्याता परम ध्येय में स्थापित हो गया, क्योंकि परमात्मा ध्येय तो हो भी नहीं सकता। ध्येय तो कोई तुम्हारे जैसी ही छोटी चीज़ हो सकती है — कोई वस्तु, कोई व्यक्ति, कोई विचार।
ये ध्येय हो सकता है और वो ध्येय हो सकता है और वो ध्येय हो सकता है (चारों ओर की चीज़ों की तरफ़ इशारा करते हुए)। जो न ये है, न वो है, न कुछ है, न ना कुछ है; वो ध्येय कैसे हो जाएगा तुम्हारा? सत्य ध्येय तभी हुआ जब ध्याता सत्य में स्थापित हो गया।
और सत्य में स्थापित होने का मतलब होता है अपनी पुरानी अकड़, पकड़, पहचान छोड़ना। न तुम अकड़ छोड़ते, न तुम पकड़ छोड़ते, तो ध्यान तो तुम निश्चित लगाओगे, पर ध्येय तुम्हारे जैसी ही कोई वो छोटी चीज़ होगी। कभी साँस पकड़ लोगे, कभी कुछ पकड़ लोगे — कहोगे ध्यान लगा रहा हूँ। ध्यान उस पर लगाया जाता है जो उच्चतम हो। तुम्हारी साँस उच्चतम है क्या?
ध्येय सदा किसको बनाना है? जो ऊँचे-से-ऊँचा हो वो ध्येय होता है, उसपर ध्यान लगाते हैं। मात्र सत्य पर ही ध्यान लगाया जा सकता है। तुम क्यों दूसरी-तीसरी-पाँचवीं चीज़ों पर ध्यान लगाते हो?
लोग मिलते हैं, कोई कहता है, 'मैं प्रकाश पर ध्यान लगता हूँ। और उसमें भी कई वर्ग हैं। एक कहते हैं, 'मैं नीले प्रकाश पर ध्यान लगाता हूँ।' एक कहते हैं, 'मैं हरे प्रकाश पर ध्यान लगाता हूँ।' एक को सफ़ेद, एक को गेरुआ प्रकाश आता है। काहे भाई! और कुछ नहीं मिला लक्ष्य बनाने के लिए? तरह-तरह की रंग-बिरंगी रोशनियाँ लक्ष्य है तुम्हारा? बच्चे हो तुम? फुलझड़ी चाहिए?
यही अगर ध्यान है तो अनारदाना जला लो, हो गया ध्यान। कोई कहता है, 'नहीं, हम तो ध्यान लगा रहे हैं तरह-तरह की आवाज़ों पर।' झुनझुना चाहिए? एक आये, बोलते हैं, 'न, हम अनहद नाद पर ध्यान लगाते है। हमारे भीतर ओम गूँजता है।' हम बोलें, 'वो जो ओम गूँजता है वो किसकी आवाज़ में होता है, पुरुष की या स्त्री की?' अब फँस गये, क्योंकि अगर आवाज़ है तो या तो पुरुष की होगी या स्त्री की होगी; चुप रहे। तो मैं बोला, 'गाय रंभाती है क्या?'
अब तुम जानते हो कि फँस गये हो, इसीलिए जवाब नहीं दे रहे हो। और अगर आवाज़ पुरुष की है कि स्त्री की है तो फिर तो पार्थिव हुई न, लौकिक हुई न; तुम क्यों उसको अनहद बोल रहे हो?
ध्यान का अर्थ होता है कि मैं सत्य में डूबकर जीवन को देखूँ, संसार को देखूँ। जब परमात्मा ध्येय होता है, तो ध्येय गौण हो जाता है — बात यह ज़रा महीन है, इसको समझना — परमात्मा जब ध्येय हुआ, तो परमात्मा तो कुछ है नहीं, किसको ध्येय बनाओगे? अब सब कुछ ध्येय हो सकता है।
अगर मैं कहूँ कि मेरा ध्येय है यह है (पानी का गिलास हाथ में पकड़ कर दिखाते हुए)। मैं कहूँ कि मेरा ध्येय यह है, तो फिर मैं इसके अलावा किसी भी चीज़ पर केंद्रित नहीं हो सकता न? बोलो! इसको ध्येय बना लिया तो अब यही भर लक्ष्य हो सकता है। फिर मैं न इस पर ध्यान रख सकता हूँ, न उस पर, न उस पर, कहीं नहीं (चारों ओर इशारा करते हुए)।
परमात्मा क्या यह (गिलास) है? परमात्मा यह तो है नहीं। तो अगर परमात्मा यह नहीं है, तो फिर मुझे कोई वर्जना भी नहीं है न — मैं इसको भी देख सकता हूँ, उसको भी देख सकता हूँ। इसको (गिलास को) अगर ध्येय बनाया तो वर्जना हो गयी। क्या वर्जना हो गयी? कि इसके बाहर कहीं मत देखना। अगर इसको लक्ष्य बनाया तो वर्जना हो गयी न। क्या वर्जना हो गयी? कि इसके बाहर कहीं मत देखना।
पर अगर परमात्मा को लक्ष्य बनाया, तो कोई वर्जना हुई? अब पूरे संसार को देख सकते हो। अब शर्त बस एक है कि परमात्मा होकर देखना। ध्येय कुछ भी हो सकता है, ध्याता अब कुछ भी नहीं हो सकता; ध्याता को सत्य होना पड़ेगा — ध्याता को परमात्मा होना पड़ेगा। अब ध्येय की बात करना छोड़ो! अब ध्यान सार्थक तब है जब तुम बदलो। बात यह नहीं है कि तुम कहाँ देख रहे हो, अब बात यह है कि कौन देख रहा है। तुम बदले कि नहीं बदले? तुम बदलो और उसके बाद खुलकर जीवन को देखो।
इसका अर्थ है कि ध्यान कोई बंद कमरे में की जाने वाली घंटे भर की प्रक्रिया नहीं हो सकती। घंटे भर की प्रक्रिया में तो निश्चित तुमने कोई सीमित लक्ष्य रखा होगा, तभी तो वो घंटे भर में पूरा हो रहा है। परमात्मा पूरा हो गया घंटे भर में? परमात्मा हो जाएगा घंटे भर में पूरा? हाँ, कोई सीमित चीज़ होगी तो हो जाएगी घंटे भर में पूरी।
घंटे भर तक ध्यान को सीमित रखना माने वर्जना फैलाना। क्या वर्जित किया है तुमने? कि इस घंटे कुछ और नहीं होगा और बाक़ी तेईस घंटे ध्यान नहीं होगा। परमात्मा के साथ तो कोई वर्जना चलती नहीं। असली ध्यान तब है जब तुम निरंतर संकल्पित रहो, समर्पित रहो कि सच्चा रहना है, डरा नहीं रहना।
साफ़ आँखों से देखना है और क्या देखना है? कुछ भी देखना है, वर्जना कुछ नहीं है। जो जी रहे हैं वही देखेंगे। बस! साफ़ आँखों से देखेंगे — सिर्फ़ इसको ध्यान कहते हैं; बाक़ी सब छल, धोखा, झूठ है।
साफ़ आँखों से अपनी ज़िन्दगी को देखूँगा, इसके अतिरिक्त ध्यान का कोई अर्थ नहीं। कैसी ज़िन्दगी को? वो ज़िन्दगी जो मैं रोज़ जी रहा हूँ, कोई ख़ास ज़िन्दगी नहीं। मेरे सपने, मेरे इरादें, मेरी आशाएँ, मेरे डर, मेरी चिंताएँ, मेरी खुशियाँ, मेरे आकर्षण, मेरे मोह, मेरी वृत्तियाँ, मेरे विचार — मैं इन्हीं के प्रति जागरूक रहूँगा — यही ध्यान है।
ध्यान या तो सतत है या फिर छल। घंटे भर वाला ध्यान ध्यान नहीं होता। घंटे भर व्यायाम हो सकता है, ध्यान नहीं।
प्र: आचार्य जी, अगर इन सब पर बिलकुल ध्यान नहीं रखा जाए, तो क्या दिक्क़त है, क्या फ़र्क पड़ रहा है, कौनसी दुनिया रुक रही है, तो क्या कुछ बदल रहा है?
आचार्य: मत ध्यान रखो। तुम मौज में हो तो किसी चीज़ की फ़िक्र मत करो। तुम मौज में हो अगर, तो किसी चीज़ की फ़िक्र न करो। पर तुम्हारा चेहरा गवाही नहीं देता कि तुम मौज में हो। जो मौज में न हों वो फ़िक्र करें।
अरे! तुम स्वस्थ हो, भीतर से स्वास्थ्य फूटा पड़ रहा है, तो क्या आवश्यकता है कि तुम जाओ और रक्तचाप जाँचो कि वजन जाँचो कि ख़ून की जाँच कराओ कि थूक की जाँच कराओ, ज़रूरत है? पर गिर-पड़ रहे हो, चोट-ही-चोट है, पागलों जैसी बातें करते हो, कुछ याद नहीं रहता, खाया नहीं जाता, पीया नहीं जाता और कभी पीये ही जाते हो, तो तुम्हें तो अपनी जाँच करानी होगी। और प्रति क्षण जागरूक रहना होगा कि भाई नाड़ी चल भी रही है या गयी।
प्र: आचार्य जी, जैसे हम आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत करते हैं तो सबसे पहले ध्यान ही आता है।
आचार्य: अंत में भी वही आता है। सबसे पहले क्या! ध्यान के बाद और कुछ बचता है क्या आने के लिए? (आचार्य जी मुस्कुराते हुए) ध्यान ही सब कुछ है, पर असली ध्यान लगाओ न। तुम ध्यान के नाम पर कलाबाजियाँ दिखाओगे तो उससे लाभ थोड़े ही होगा।
कल एक आईं, वो बोलीं कि मेरे गुरुदेव हैं, वो पहले बच्चों को अंग्रेज़ी बोलना सिखाते थे, आज कल वो योग और ध्यान सिखाते हैं। उन्होंने बताया है मुझको कि जब मैं ध्यान में बैठूँ, तो मेरे ऊपर कॉस्मिक एनर्जी (ब्रह्मांडीय ऊर्जा) की वर्षा होगी। तो बोलीं, 'वो होती है मेरे ऊपर। अब दिक्क़त यह है कि मुझे उसकी लत लग गयी है। तो मैं क्या करूँ?' (सभी हँसते हैं)
ध्यान के नाम पर तुम कुछ भी कर सकते हो न, भरोसा क्या है! और चूँकि ध्यान वस्तु नहीं है, चीज़ नहीं है और उसको स्थूल तौर पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता, इसलिए कोई भी खड़ा होकर कह सकता है कि मैं ध्यान सिखाऊँगा। शर्त बस एक है कि उसे वो सब बातें करनी होंगी जिनका कोई प्रमाण न हो, क्योंकि अगर प्रमाण है तो वो आदमी झूठा साबित हो जाएगा। तो यही सब बातें करो जो सिद्ध हो ही न सकती हों — भीतर फव्वारा उठेगा, दिमाग में गूँज उठेगी, आसमान से अदृश्य किरणों की सघन वर्षा होगी। 'होव, हई!'
गुरुजी ने पूछा, 'बेटा, जो सुना नहीं जा सकता, वो सुनायी दिया न?' चेला बोला, 'हो हुकुम, बिलकुल सुनाई दिया।' मामा-भांजा की कथा सुनी है न। मामा-भांजा दोनों टुन। मामा-भांजा दोनों टुन और घूम रहे हैं राजस्थान में रेत पर। मामा बोले, 'अभी-अभी सुनायी दिया है कि गंगा का बाँध टूटा है।' भांजा बोला, 'मामा मेरे पर तो छींटे भी आकर पड़ें।' जब टुन और टुन का रिश्ता हो तो कुछ भी टुनटुना सकता है।
"गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव, दोनों डूबें बापूरे, चढ़ी पत्थर की नाव।।"
~ संत कबीर
ये सुनवा रहे हैं और उनको सुनायी भी दे रहा है और आसमान से वर्षा हो रही है कॉस्मिक एनर्जी की। बोल रही हैं कि कभी-कभी एनर्जी मुझमें ऐसी भर जाती है, ऐसी भर जाती है कि मुझे लगता मैं फट जाऊँगी। मैंने कहा, 'पखाने की ओर भागा करिए तब। वो कोई और दबाव है। आप व्यर्थ में प्रदुषण बढ़ाएँगी।' (सभी श्रोतागण हँसते हैं)
अब यह तो बड़ी समस्या हो गयी, अगर साँस नहीं देखनी तो ज़िन्दगी देखनी पड़ेगी और ज़िन्दगी देखने में कष्ट होता है, न? कष्ट होता है, न? साँस देखना तो सुविधापूर्ण है। आँख बंद कर लो, साँस देखो। ख़ासतौर पर जब बीवी चिल्लाती हो, तो आँख बंद कर लो और साँस देखो, साँस।
तुम्हें आँखें बंद करने की नहीं; आँखें खोलने की ज़रूरत है।
हर वो चीज़ छोड़ दो जो तुम्हारी आँखें बंद कराती है। आँखों को पूरा खोलो और हक्का-बक्का होकर के अपने जीवन को देखो और पूछो — ऐसे जीना है?
अब ये सोमनाथ है, पूछो इसको शिविर में कैसे लाए। इसको बोला, 'यहाँ इस देव नदी में अप्सराएँ नृत्य करती हैं।' वो अमनदीप है, उसको कैसे लाए? उसको बोला, 'यहाँ हवाई अड्डा है पीछे ही, वहाँ एफ पैंतीस उतरते हैं।' जो जैसे आये, उसको वैसे लाया जाता है। 'यह तो धोखा हो गया।' बेचारे का मुँह ही उतर गया। बोल रहा है, 'ऐसे होता है! झूठिमूठि बोला, बुद्धू बनाया।'
दुनिया तुम्हें बुद्धू बना रही थी; तुम बुद्धू के अलावा कुछ बनना ही नहीं जानते, तो गुरुओं के पास भी विकल्प क्या है। तुम्हारा भला भी करना हो तो तुम्हें बुद्धू बनाना पड़ता है।
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