प्रश्नकर्ता: सर, हम जब भी कुछ रुचि के साथ करते हैं, तो वहाँ पर ध्यान लगता है, पता रहता है कि कुछ करना है, ये भी रहता है कि करना ज़रूरी है, लेकिन हम ऐसा लंबे समय तक नहीं कर पाते। ऐसा क्यों होता है कि कुछ समय बाद ध्यान टूट जाता है?
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो यह है कि किसी भी विषय में तुम्हारी रूचि है, सिर्फ़ इतनी-सी बात से ध्यान नहीं आ जाएगा।
ध्यान के लिए दो शर्तें हैं; पहली, रुचि ही नहीं, बहुत गहरी रुचि होनी चाहिए; और दूसरी, मुझमें ये ईमानदारी कि जब तक पूरी बात जान नहीं लूँगा, तब तक रुकूँगा नहीं।
अक्सर जिन विषयों में रुचि होती है, हम जानबूझ कर उनको पूरी तरह से जानना नहीं चाहते। पूरी तरह से क्यों नहीं जानना चाहते? क्योंकि यदि पूरी तरह से जान लिया तो रुचि ख़त्म भी हो सकती है। यदि पूरी तरह से जान लिया तो हो सकता है जो रुचि थी, वो रुचि ही चली जाए।
ये क़रीब-क़रीब वैसा ही है कि तुम रेस्तराँ में खाना खा रहे हो और तुम्हें अच्छा लग रहा है कि तुम उसके डाइनिंग हॉल में बैठे हो। ऐसा बहुत कम होगा कि तुम इस बात में रुचि लो कि ये जो खाना लाया गया है, ये कैसी रसोई में बनाया गया है। क्योंकि अगर देख लिया तो हो सकता है उस रेस्तराँ से सारा आकर्षण ही ख़त्म हो जाए।
इस बात पर ध्यान देना कि हम ये तो कह देते हैं कि मुझे रूचि है, लेकिन हमारे लिए ये बहुत ज़रूरी होता है कि हमारा ये जो आकर्षण है, जो रुचि है, वो एक सीमा तक ही रहे, उसके आगे ना जाए। क्योंकि उसके आगे चली गई तो मामला गड़बड़ हो जाएगा, रुचि को ख़त्म ही होना पड़ जाएगा, इसीलिए हम सीमित ध्यान देते हैं। पूरा ध्यान हम कभी देंगे ही नहीं, पूरा देंगे तो गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि हो सकता है कि रुचि ही ख़त्म हो जाए।
तुम्हारा कोई दोस्त है, तुम देख रहे हो कि उसका मूड ख़राब है, उदास-सा दिख रहा है। तुम यहाँ तक तो उससे पूछोगे कि कैसे हो, क्या हुआ, पर तुम कभी बात की पूरी जड़ तक नहीं जाना चाहोगे। ऊपर-ऊपर क्या चल रहा है, ये तुम जान लोगे और उसका समाधान भी करना चाहोगे, लेकिन ये सारी समस्या उठ ही कहाँ से रही है, तुम वहाँ तक जाना नहीं चाहोगे।
वो जड़, तहख़ाना है उसके दिमाग का, और वहाँ पर पता नहीं क्या-क्या भरा हुआ है। तुम उसको नहीं देखना चाहोगे। देख लिया तो हो सकता है कि या तो दोस्ती ही टूट जाए या तुम्हें ज़िम्मेदारी लेनी पड़े उसके दिमाग़ की गंदगी साफ़ करने की।
तो हम कहते तो हैं कि हमारी रुचि है किसी चीज़ में, लेकिन क्या हम कभी-भी पूरी तरह से रूचि लेते हैं? नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा। हम बहुत गहरे जाकर पूरी सच्चाई जानना चाहेंगे ही नहीं क्योंकि यदि पूरा सच जान लिया तो रुचि ही ख़त्म हो जाएगी।
दूसरी बात तुमने कही कि पता होता भी है कि कुछ महत्वपूर्ण करना है, पर उसके बाद भी हमारा ध्यान लगता ही नहीं है। वो लग सकता भी नहीं है। ये एक समस्या है एकाग्रता की। अक्सर लोग यही सवाल पूछते हैं पर समझते नहीं हैं कि जैसे तुम हो, जैसा तुमने अपने मन को ढाल लिया है, वैसी ही जगहों पर तुम आकर्षित होओगे।
मन दो ही जगहों पर एकाग्र होता है; पहला, जहाँ उसको बड़ा सुख मिल रहा हो; दूसरा, जहाँ से उसे बड़े दुःख की आशंका हो।
यदि अभी तुम्हारे दाँत में दर्द शुरु हो जाए तो तुम्हारे शरीर की सारी एकाग्रता उस दाँत की छोटी-सी जगह पर जाकर बैठ जाएगी। तुम्हें कुछ और सुझाई नहीं देगा, वो जो दाँत है वह अपनी उपस्थिति का एहसास कराएगा।
अभी यहाँ पर जो लोग बैठे हुए हैं, उनमें से किसी को भी अपने पाँव का ध्यान नहीं होगा। लेकिन अगर उसी पाँव में दर्द होना शुरू हो जाए तो सिर्फ़ पाँव-ही-पाँव नज़र आएँगे, और सारा ध्यान पाँव पर ही जाएगा।
मन दो ही विषयों पर एकाग्र होता है; पहला, जो उसे बड़ा अच्छा लगता है, दूसरा, जो उसे बड़ा ख़राब लगता है। मन को जैसा बनाया है, वो ठीक वैसी ही जगह पर एकाग्र होता है।
एक घोड़ा है और एक शेर है, एक जगह पर घास रखी है और दूसरी जगह पर माँस रखा है, बात स्पष्ट है कि किसका ध्यान कहाँ केन्द्रित होगा।
तो तुम यदि एकाग्र नहीं हो पाते हो तो इसका कारण ये है कि तुमने अपना मन एक प्रकार से संस्कारित कर रखा है, और ऐसा करने में तुम्हारा एक प्रकार का स्वार्थ है और तुम उससे मुक्त भी नहीं होना चाहते।
तुम एकग्रता की बात कर रहे हो। यदि मैं यहाँ पर एक बड़ा-सा चित्रों का संग्रह लगा दूँ, जिसमें चालीस-पचास अलग-अलग तरह के चित्र हों, तो तुम देखना कि तुम ऐसे किसी चित्र पर एकाग्र होना शुरू कर दोगे जो तुम्हें भाता है, जो तुम्हें सुख दे रहा है। बाकी सब तुम्हें दिखाई ही नहीं देंगे।
जैसी तुमने अपने मन की संरचना कर रखी है, उसी प्रकार से तुम यहाँ पर आकर्षित हो जाओगे। जैसे तुम, तुम्हारी एकाग्रता भी वैसी ही बनेगी।
ये हॉल है, बड़ा साफ़-सुथरा है, चमक रहा है। अभी यहाँ पर एक मक्खी आ जाए तो वो गन्दगी ढूँढ लेगी क्योंकि उसकी पूरी एकाग्रता ही इसी पर है कि कहाँ गन्दगी मिल जाए और वो जाकर वहीं बैठ जाए। चील को उड़ते देखा है कभी? इतना ऊपर उड़ रही होती है और वहीं से उसे नीचे एक छोटा-सा, मरा हुआ चूहा दिख जाता है।
जो तुम्हारी गहरी-से-गहरी इच्छा है, तुम उसी बात पर एकाग्र होना शुरू कर देते हो। ये बात स्पष्ट हो रही है?
अब जब सेमेस्टर भर तुम्हारी इच्छा नहीं रही है पढ़ाई करने की, तो तुम सेमेस्टर के अंत में कैसे खुद को एकाग्र कर लोगे? सेमेस्टर भर तुम्हें इस किताब से कोई प्रयोजन नहीं रहा, पर परीक्षा आई है तो तुम चाहते हो कि इस किताब पर एकाग्र हो जाओ, ये हो कैसे सकता है?
हाँ, तुम कोशिश कर लोगे और कोशिश कर करके तुम अपनी ऊर्जा व्यर्थ कर लोगे, पर तुम ऐसा करके सिर्फ़ अपने आप से ही लड़ोगे।
जब भी एकाग्रता का सवाल आए, तो पहले अपने आप से पूछो कि, “मैंने अपने मन को कैसा बना रखा है?” और फिर तुम पाओगे कि मन ठीक वहीं जा रहा है जहाँ उसे जाना चाहिए, तुम्हें कोशिश करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी। बहुत बड़ा भंडार रख दिया जाए चीज़ों का, तो भी मन ठीक वहीं जाएगा जहाँ उसे जाना चाहिए, तुम्हें एकाग्र होने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
इंटरनेट पर कई वेबसाइट होती हैं, और तुम्हें जो चाहिए तुम ढूँढ निकालते हो, क्योंकि जैसी तुम्हारी कंडीशनिंग , वैसी तुम्हारी एकाग्रता। तो अपनी कंडीशनिंग पर ध्यान दो कि वो कैसी है और वो लगातार क्या माँगती रहती है। और ये एक लंबी प्रक्रिया है।
तुम्हें अपने आप को देखना पड़ेगा कि सुबह से लेकर शाम तक तुम क्या करते हो, क्योंकि अंततः वही तुम्हारी एकाग्रता बन जाती है, क्योंकि वही तुम्हारा मन बन जाता है। तुम सुबह से शाम तक किन दोस्तों के साथ हो? वो कर क्या रहे हैं तुम्हारे मन के साथ? कैसी बातें तुम्हारे कान में पड़ रही हैं? तुम्हारा भोजन किस तरह का है? तुम अपने मन को लगातार पोषित कैसे कर रहे हो? मन को जैसा बना दोगे, वो उधर को ही भागना शुरू कर देगा।
तुम मन को घोड़े जैसा बना दोगे, वो घास की तरफ़ भागना शुरू कर देगा; तुम मन को शेर जैसा बना दोगे, तो वो माँस की तरफ़ भागना शुरू कर देगा; तुम मन को बिलकुल साफ़ करके शीशे जैसा बना दोगे, तो उसमें सब कुछ साफ़-साफ़ दिखाई देगा, कोई धोखेबाज़ी नहीं रह जाएगी, सारे मामले सीधे हो जाएँगे; तुम मन को लगातार दबाए रहोगे तो वो हमेशा मनोरंजन की तरफ़ आकर्षित होगा, तुम्हारी एकाग्रता हमेशा इस पर रहेगी कि कहीं से मनोरंजन मिल जाए।
अब ये तुम्हारी बुद्धि पर है। ये एक प्रकार का स्व-प्रेम है कि मुझे अपने आप से कितना प्यार है, कि मेरा जीवन है, मुझे देखना है कि मैं इसके साथ क्या कर रहा हूँ। और फिर कोई सवाल ही नहीं उठेगा कि कैसे एकाग्र हों क्योंकि मन ठीक उधर को जाएगा, जिधर को उसे जाना चाहिए। उसको धक्का देने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी कि तुम उसको खींच रहे हो कि किताब की तरफ़ चल और वो खिड़की से बाहर जाना चाहता है, फिर ये खींचातानी की नौबत नहीं रहेगी।
तो ये मत पूछो कि एकाग्र क्यों नहीं हो पाते हैं, क्योंकि यह एक प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया को देखो और वो प्रक्रिया लगातार घटती रहती है। तुम में से यहाँ पर बहुत सारे ऐसे चहरे हैं जो ध्यान से सुन रहे हैं। क्या उन्हें मुझ पर एकाग्र होना पड़ रहा है? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) क्या तुम्हें मुझे सुनने के लिए एकाग्र होना पड़ रहा है?
प्र: नहीं, सर, बस सुन रही हूँ।
आचार्य: और यहाँ ऐसे भी हैं जो बिलकुल हिले-डुले हुए हैं। उन्हें एकाग्र होना पड़ेगा क्योंकि उनका मन भाग रहा है इधर-उधर, बेचैन घोड़े की तरह, उनको उसे खींचना पड़ेगा कि, "वापस आ, वापस आ!" पर उससे कोई फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि खींचने वाले भी तो तुम ही हो न। खींचने वाला भी तो वही बेचैन मन है जो भागना चाहता है।
मन ऐसा कर लो कि फ़िर उसको एकाग्रता की ज़रूरत ही ना पड़े, वह सहज रूप से ध्यान में ही रहे, जहाँ भी रहे डूबा हुआ मज़े ले। कोई कोशिश नहीं, बैठे हैं, सहजता से सुन रहे हैं। कोशिश क्या करनी है इसमें? जो सुन रहे हैं, वो जानते हैं कि उन्हें कोई कोशिश नहीं करनी पड़ रही है।
क्या कोशिश कर के सुन रहे हो?
श्रोतागण: (एक स्वर में) नहीं, सर।
आचार्य: बस ऐसे ही हो जाओ, लेकिन उसके लिए, जैसा मैंने कहा, कि दिनभर जो करते हो वो ज़रा होश में करो – देखते रहो कि मन में चल क्या रहा है, क्योंकि जो कुछ भी चल रहा है वो मन पर छाप छोड़ रहा है, वही ज़िंदगी बनेगा, उसको हल्के में मत ले लेना।
तुम्हारा एक-एक कदम, तुम्हारा एक-एक वचन, तुम क्या खा रहे हो, तुम्हारी बातें, तुम्हारे सारे निर्णय, तुम कहाँ आते-जाते हो, क्या पहनते हो, किसके प्रभाव में रहते हो, यही सब है जो अंततः जीवन बन जाने हैं, इनके अलावा जीवन और कुछ नहीं है।
तो एकाग्र होने के लिए देखो कि तुम अपने मन को क्या पोषण दे रहे हो। क्योंकि जैसा मन होगा, वैसा ही उसकी एकाग्रता का विषय होगा।