प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, परिवार में ज़्यादा लोग आँख बंद करके ध्यान करने बैठने को ध्यान कहते हैं। मैं श्रवण को, पढ़ने को, जीने को, पल-पल जागने को ध्यान कहती हूँ। लेकिन अति संवेदनशीलता पर जब मुझे कभी दर्द या परेशानी होती है तो वो कहते हैं कि सुनती बहुत हो, करती नहीं हो न! इसलिए इतनी पीड़ा हो जाती है। करो, बहुत हुआ सुनना। समझ नहीं पाती हूँ।
आचार्य प्रशांत: एक दृष्टि से देखें तो वो ठीक ही कह रहे हैं कि करो। पर क्या करो? वही तो करोगे न जो संवेदनशीलता का तकाज़ा है।
प्र: जी, जी।
आचार्य: जो चीज़ करने योग्य है, करणीय है, वही तो करेंगे न! ध्यान तो व्यक्ति को पीड़ा के प्रति और दुनिया में व्याप्त दुख के प्रति और संवेदनशील बनाता ही है। वो संवेदनशीलता शुभ है। बस प्रार्थना ये रहनी चाहिए कि जो ध्येय है, ध्यानी का जो ध्येय है, वो फिर इतनी शक्ति भी दे कि जिस दुख के विरुद्ध संवेदनशीलता है उस दुख के विरुद्ध कोई सार्थक कर्म भी हो सके।
कर्म हो, कर्म निसंदेह हो। कर्म तो होना ही चाहिए। लेकिन जब कहा जा रहा है कि कर्म होना ही चाहिए तो उससे आशय ये नहीं है कि दुनिया के जो आम, रेगुलर , नियमित कर्म चलते रहते हैं, ध्यानी भी उनमें ही डूब जाए। ध्यानी का कर्म तो ध्यान से ही उपजेगा न! सही ध्येय बनाएँ और फिर वो ध्येय जो भी माँग करे, जो भी हुक्म करे, जो भी कर्म करने का निर्देश दे, उसे बिलकुल डूबकर करें, टूट कर करें। यही जीवन है।
प्र२: आचार्य जी, जब भी मैं वर्तमान में होता हूँ तो मेरा मन भाग जाता है और फिर ये मेरा मन भी सोचता है कि मेरे को ही ले जाए इसलिए वो मेरा हाथ पकड़कर, खींचकर ले जाता है मुझको।
आचार्य: कहाँ ले जाता है तुम्हें वो?
प्र२: कीचड़।
आचार्य: वहाँ चले जाओ, देखो क्या है। देखो वहाँ क्या दिखा रहा है। पहले समझो तो कि वो कहाँ जाने के लिए इतना लालच करता है। या तो इतना सीधा होता वो कि कहीं जाता ही नहीं। इतना सीधा तो है नहीं। जाता तो है ही, भागता है बार-बार। है न! तो एक-दो बार उसकी माँग पूरी ही कर दो। वो जहाँ ले जा रहा है वहाँ चले जाओ और बोलो कि ठीक है, अब ईमानदारी से साफ़-साफ़ हमको दिखाओ तुम कि हमें कहाँ लिए आते हो। ऐसी कौनसी बड़ी सुन्दर, सच्ची जगह है जो तुम हमें दिखाना चाहते हो? मैंने देख भी ली वो जगह तो उससे लाभ क्या है, ये भी बताओ।
ये सब सवाल उससे कर लो। ठीक है! नहीं तो ज़िद तो करते ही रहेगा, बार-बार तुम्हें लेकर जाएगा।
प्र३: एक बार कोई पूछ रहा था आपसे कि ये सिखाया जाता है कि भगवान का आदर करो, ये ज़बरदस्ती में सिखाया जाता है। तो आपने बोला था कि इसलिए क्योंकि भगवान के प्रति तुम्हारे प्रेम से वो संतुष्ट ही नहीं है। उनको लगता है कि सम्मान तुम्हारे प्रेम से भी बड़ी चीज़ है और उसका व्यक्त होना भी ज़रूरी है।
आचार्य: हाँ, पर जिन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हो उनका अर्थ क्या है? सम्मान माने क्या होता है?
प्र३: सम्मान मतलब समझ जाना।
आचार्य: समझदारी चाहिए होती है। ऐसा प्रेम जिसमें समझदारी नहीं है, प्रेम है ही नहीं।
प्र३: और हमें ये कैसे पता चलेगा कि जो समझदारी हम प्रेम में दिखा रहे हैं वो हमारा ही तर्क नहीं है?
आचार्य: कुछ दिखाने की बात ही नहीं होती है। आप अगर प्रेम में नहीं हैं, आप समझदार नहीं हैं तो आप अपने भीतर ख़ुद ही भ्रम के चक्करों में फँसे रहेंगे, वहीं से बात ज़ाहिर हो जाती है।
प्र४: आचार्य जी, कल जैसे तारों वाली बात थी, साँप और सपेरे वाली; उसमें मुझे तार, साँप दिखाई दे रही है। क्योंकि मैंने धारणा पकड़ ली है या मैं सपेरा हूँ, इसीलिए मुझे वो साँप दिखाई दे रहा है? या दोनों चीज़ें हैं?
आचार्य: आप कुछ भी नहीं हैं। धारणाएँ हैं बहुत सारी और सब धारणाओं के पीछे एक मूलभूत धारणा होती है। उस मूलभूत धारणा का नाम है 'मैं'। आप वो हैं। आप न साँप हैं, न सपेरे हैं, न छोटे हैं, न बड़े हैं, न ऐसे हैं, न वैसे हैं; आप अपनेआप को जो भी कहेंगे वो एक धारणा मात्र ही है। और खेल बिगाड़ने के लिए सौ धारणाएँ नहीं चाहिए, एक धारणा काफ़ी है। एक धारणा अपने बारे में रख लें, उसके पीछे सौ अपनेआप बन जाती हैं।
प्र४: और इस धारणा को पकड़ लें कि मैं ब्रह्म हूँ, तो?
आचार्य: तो उसी अनुसार सौ और बन जाएँगी।
प्र४: आचार्य जी, वो भी ग़लती ही है या वो सही ग़लती है?
आचार्य: आप ब्रह्म होंगे तो बच्चे ब्रह्मपुत्र हो जाएँगे, पत्नी ब्रह्माणी हो जाएँगी। (श्रोतागण हँसते हैं) तो धारणाएँ बदल ज़रूर जाएँगी पर मिटेंगी नहीं। अगर आप अपनेआप को क ख ग कुछ मानते हैं तो आपका संसार उसी अनुसार हो जाएगा। है न! और आप अगर अपनेआप को ब्रह्म मानेंगे तो संसार थोड़ा बदल जाएगा लेकिन संसार मिटेगा तब भी नहीं।
आप ब्रह्म अनुसार, ब्रह्म की अपनी धारणा अनुसार एक नया संसार रच लेंगे और नये संसार को रच लेने का मतलब ये नहीं होता कि संसार से मुक्ति मिल गयी।
प्र४: उन धारणाओं का फ़ायदा भी तो है कठपुतलियों वाली डोरियों को काटने में।
आचार्य: हमने बात करी थी कि महल के अंदर जो क़ैद हैं, वो सब क़ैद हैं। उसमें से किसी क़ैदी का नाम सर्प कुमार हो सकता है और किसी का नाम ब्रह्म कुमार हो सकता है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता न! कोई क़ैदी तहखाने में क़ैद हो सकता है और कोई क़ैदी गुम्बद में क़ैद हो सकता है; सबसे ऊँचे कमरे में क़ैद हो सकता है लेकिन क़ैदी तो सभी क़ैदी हैं।
धारणा, धारणा है। अहम् बड़ा ज़बरदस्त होता है। जब वो ये धारणा भी करता है कि मैं ब्रह्म हूँ तो उसे ब्रह्म के प्रति न कोई प्रेम होता है, न कोई सम्मान होता है। वो ब्रह्म का मात्र इस्तेमाल कर रहा होता है। अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए अहम् 'ब्रह्म' शब्द का भी इस्तेमाल कर लेता है।
कोई कहे, ‘मैं चोर हूँ’, तो ये तो ज़ाहिर ही हो जाता है कि इस आदमी का अहम् चोरी से आसक्त है। लेकिन अगर कोई कहे कि मैं ब्रह्म हूँ तो आवश्यक नहीं है कि उसका अहम् बड़ा परिष्कृत, सुधरा हुआ या सात्विक अहम् है। ये अहम् की चाल भी हो सकती है कि वो ब्रह्म तक को अपना ग्रास बनाने की कोशिश कर ले।
वो किसी को नहीं छोड़ता क्योंकि वो अपने अलावा किसी को नहीं जानता। वो अंधा है और वो बहुत डरा हुआ है। उसके पास एक-सूत्रीय कार्यक्रम है — किसी तरह अपनेआप को बचाओ। और अपनेआप को बचाने के लिए वो कुछ भी कर सकता है। वो कभी कह सकता है ‘मैं चोर हूँ’ और कभी कह सकता है ‘मैं पिता हूँ’ और कभी ये भी कह सकता है कि मैं ब्रह्म हूँ।
तो ये बात ठीक है कि मुक्ति के अभियान में भी धारणाओं का उपयोग किया जाता है और कहा जाता है कि कुछ धारणाएँ दूसरी धारणाओं से बेहतर होती हैं। वो ठीक है। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि हम कितने चालाक लोग हैं। भूलना नहीं चाहिए कि हम अपनी मूर्खता में कितने चालाक हैं। हम इतने चालाक लोग हैं कि हम शुद्धतम धारणा का भी अशुद्ध उपयोग कर ले जाएँगे। तो धारणा का प्रयोग करते वक़्त ज़रा सावधान रहना चाहिए।
प्र५: आचार्य जी, मैं ये न कहूँ कि मैं ब्रह्म हूँ, मैं कहूँ, ‘मैं शुद्ध समझ हूँ जो डर और लालच से परे है। परिस्थिति के अनुसार जो उचित है, उसमें जीता हूँ, पहले की कोई धारणाएँ मुझे प्रेरित नहीं करती हैं’, तो ये तो स्पष्ट हो ही रहा है न कि हमारे लिए अपनेआप को कुछ मानना बड़ा ज़रूरी है। मैं वो हूँ जिसे अपने बारे में कोई-न-कोई धारणा रखनी है, नहीं तो वो छटपटा जाता है। तो फिर मैं कौन हूँ?
आचार्य: तो ये तो स्पष्ट हो ही रहा है न कि हमारे लिए अपनेआप को कुछ मानना बड़ा ज़रूरी है। तो मैं कौन हूँ, वो हमारे इसी आग्रह से स्पष्ट हो गया। हम बार-बार कह रहे हैं कि हम मानेंगे ज़रूर कि हम कुछ तो हैं। हम अपने बारे में कुछ धारणा तो ज़रूर ही रखेंगे। हम यही कह रहे हैं न! तो हमारे इसी आग्रह से साफ़ हो गया न कि फिर हम कौन हैं।
मैं वो हूँ जिसे अपने बारे में कोई-न-कोई धारणा रखनी है, नहीं तो वो छटपटा जाता है। तो फिर मैं कौन हूँ?
प्र५: मतलब मैं पहचान पैदा करता हूँ।
आचार्य: हाँ, मुझे अगर बताया जाए कि तुम वो सबकुछ नहीं हो जो तुम अपनेआप को समझते हो तो मेरा बड़ा जी करता है कि मैं अपनेआप को घोषित कर दूँ. . .?
प्र५: ब्रह्म।
आचार्य: और फिर कहा जाए कि देखो ब्रह्म भी घोषित करोगे तो गड़बड़ हो सकती है, तो मैं कहना चाहता हूँ कि फिर मैं एक शुद्ध, बुद्ध चेतना मात्र हूँ। तो ये जो मैं इतना आग्रह कर रहा हूँ कि मैं कुछ तो हूँ, उसी से साफ़ हो गया न कि मैं कौन हूँ।
कौन हूँ मैं? मैं वो हूँ जो किसी को पकड़े बिना नहीं जी सकता; मैं अपूर्णता हूँ। आप जितना आग्रह करेंगे ‘मैं’ के साथ कुछ भी जोड़ने का, चाहे शुद्धत्व, चाहे बुद्धत्व, चाहे ब्रह्मत्व, तो भी ज़ाहिर हो गया कि आप कौन हैं।
आप वो हैं जो इस बात से डरे हुए हैं कि कहीं आप न हो। चूँकि आपको इस बात का डर है कि ऐसा भी हो सकता है कि आप हो ही न, तो आपको बार-बार दावा करना पड़ता है, बार-बार घोषणा करनी पड़ती है कि मैं तो हूँ, मैं तो हूँ।
आप अपने बारे में जो भी कुछ कहेंगे, आप अपनी पोल ही खोल देंगे। कुछ और आप कहना चाहेंगे और कुछ और कह जाएँगे।
उदाहरण के लिए, अगर मैं बार-बार कहूँ कि मैं बड़ा प्रेमी हूँ या बड़ा ज्ञानी हूँ या बड़ा शुद्ध हूँ या बड़ा सात्विक हूँ, तो इससे मेरी शुद्धता और सात्विकता के बारे में तो, पता नहीं, पता चलता है या नहीं, पर इतना ज़रूर पता चलता है कि मैं डरा हुआ हूँ कि लोगों को कहीं मुझपर शक तो नहीं! तो फिर मैं बार-बार इसको भी बता रहा हूँ और उसको भी जता रहा हूँ कि देखो, मुझ जैसा शुद्ध आदमी दूसरा है नहीं। फिर घोषणा आप किसको करेंगे?
अष्टावक्र ने जैसे चुटकी ली है, मज़ाक किया है। वो बोलते हैं कि जिसको कोई दूसरा दिखता हो, जिसको कोई दूसरा दिखता हो, वो ये भी बोले कि हम अद्वैत ब्रह्म हैं। हमें तो कोई दूसरा दिखता भी नहीं, हम ये भी कैसे कह दें कि हम अद्वैत ब्रह्म हैं!
जिसे दूसरे का कुछ संज्ञान होता हो, वो फिर भी कहे कि अद्वैत-अद्वैत, हम तो ये भी नहीं कहेंगे कि अद्वैत। तो मैं दोनों बातें कह रहा हूँ। एक तरफ़ ये बात बिलकुल ठीक है कि मन में उपस्थित, मन में कब्ज़ा कर चुकी धारणाओं से मुक्ति दिलाने के लिए कई बार दूसरी धारणाओं का सहारा लेना पड़ता है। गुरुओं ने, शास्त्रों ने इसको कहा है काँटे से काँटा निकालने की विधि। वो विधि अपनी जगह ठीक है। लेकिन मैं उसी विधि के ख़तरों के ख़िलाफ़ आपको आगाह कर रहा हूँ।
हम अपनेआप को चतुर तो बहुत समझते है कि काँटे से काँटा निकाल देंगे। लेकिन ये भी हो सकता है कि हम बड़े काँटे से छोटा काँटा निकालने जाएँ, छोटा तो निकल जाए, बड़ा भीतर रह जाए। तो इतनी चतुराई अक्सर काम नहीं आती है।