धार्मिक किताबें सीधी भाषा में क्यों नहीं होतीं? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी बॉम्बे के साथ (2020)

Acharya Prashant

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धार्मिक किताबें सीधी भाषा में क्यों नहीं होतीं? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी बॉम्बे के साथ (2020)

प्रश्नकर्ता: धार्मिक ग्रंथों में बातें इतनी काव्यात्मक ढंग से क्यों कही जाती हैं? आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ते समय हम पता कैसे करें कि हमने श्लोक का मूल अर्थ समझ लिया है?

आचार्य प्रशांत:

आध्यात्मिक है अगर ग्रंथ, तो श्लोक तुम से शुरू होता है और अनंत तक जाता है। श्लोक अपने आप में एक पूरा विस्तार होता है। भाषा के तल पर वह तुम से जुड़ा हुआ है और अंत के तल पर, उद्देश्य के तल पर, वह अनंत तक जाता है।

तुम पूछ रहे हो कि, “मैं कैसे पता करूँ कि मैंने श्लोक समझ लिया?” ‘श्लोक समझ लिया’ का अर्थ होगा कि तुम श्लोक के अंत तक पहुँच गए, और श्लोक का अंत तुम्हारा अपना अंत होता है। तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुमने श्लोक समझ लिया? अगर तुम अभी बचे हुए हो यह सवाल करने के लिए कि “श्लोक समझा कि नहीं समझा मैंने?” तो अभी तुमने कुछ नहीं समझा। जिसने श्लोक समझ लिया, उसका अंत हो जाता है, क्योंकि श्लोक का काम ही है तुम्हें अंत तक ले कर जाना। इसीलिए श्लोक कभी समझ नहीं लिया जाता; श्लोक का निरंतर पाठ किया जाता है। श्लोक कोई एक चीज़ नहीं है कि तुम्हारे पकड़ में आ जाएगी। श्लोक एक यात्रा है पूरी तुम से लेकर अनंत तक की। अनंत ही उसका अंत है।

श्लोक एक यात्रा है, तुम शुरू करोगे, तो शब्द ही तो हैं कुछ, उन शब्दों को तुम पढ़ लोगे। अगर तुम्हारी भाषा में हैं, तो तुम यूँ ही उसका अर्थ कर लोगे। संस्कृत में हैं तो अनुवाद पढ़ लोगे। हो गई शुरुआत! लेकिन बस शुरुआत भर हुई है, अभी वह श्लोक तुम्हारे ही तल का है। तुम्हें श्लोक के साथ यात्रा करनी होगी। श्लोक ज़ोर लगाता है, श्लोक तुम्हें ऊपर की ओर खींचता है, तब उसका तुमको अगले तल का अर्थ कुछ पता चलेगा। अब तुम थोड़ा ऊपर उठे। अभी लेकिन यात्रा कितनी बची है अगर अनंत तक जाना है? जितनी पहले बची थी उतनी अभी-भी बची है। अब पुनः तुम श्लोक में जाओगे, यही पाठ की प्रक्रिया है, ये दोहराया जा रहा है बार-बार। तो वह श्लोक तुम्हें थोड़ा और ऊपर खींचेगा। जितना ऊपर तुम जाते जाओगे, श्लोक के अर्थ तुम्हारे लिए बदलते जाएँगे।

श्लोक का आख़िरी अर्थ क्या होता है? श्लोक का आख़िरी अर्थ होता है तुम्हारा आख़िर हो जाना। तुम जैसे हो उस हालत में श्लोक का कोई भी अर्थ कर लो वह आख़िरी नहीं हो सकता। श्लोक का आख़िरी अर्थ यही है कि तुम मिट गए, अर्थ करने वाला कोई नहीं बचा।

अब यह बात तुमको अभी समझ में ही नहीं आ रही होगी। तुम कहोगे कि “इसका क्या मतलब है कि अर्थ करने वाला कोई नहीं बचा?” अच्छी बात है कि तुम्हें समझ नहीं आ रही। तुम्हें यह तो समझ में आया न कि कुछ ऐसा है जो समझ में नहीं आ रहा, वैसा ही है श्लोक। श्लोक के जो ऊपर के अर्थ हैं वह तुम्हें अभी समझ नहीं आएँगे। क्यों? क्योंकि अभी तुम वहाँ हो ही नहीं जहाँ तुम्हें वह अर्थ समझ में आए। तुम्हें श्लोक के साथ-साथ उठकर यात्रा करनी है।

तुम ख़ुद अगर नीचे हो तो तुम्हें श्लोक के ऊपरी तलों के अर्थ समझ में नहीं आएँगे। कितने तल हैं श्लोक के? अनंत तल हैं। तुम जिस तल पर हो, श्लोक अपना वही अर्थ तुम्हारे सामने खोल कर रखेगा। इसीलिए श्लोक को कभी किस्से कहानी की तरह नहीं पढ़ा जा सकता, और श्लोक को कभी डाटा या सूचना की तरह तो पढ़ा जा ही नहीं सकता। उन चीज़ों को तो तुमने एक बार पढ़ा और स्मृतिबद्ध कर लिया, खेल ख़त्म! श्लोक के साथ यात्रा करनी होती है। श्लोक के साथ बहुत दूर तक जाना होता है धीरे-धीरे, निरंतर।

तुम जीवन भर भी श्लोकों का पाठ करो, तो कोई आख़िरी अर्थ तुमको खुल नहीं जाना है। इतना ज़रूर होगा कि तुम्हारी चेतना उठ जाएगी श्लोक के साथ-साथ।

अंत में क्या होगा? अंत में कुछ होगा ही नहीं, तो क्या होगा? अंत में कुछ तो तब हो न जब ‘कोई’ हो जिसके साथ कुछ हो। मैं बातों को उलझा कर नहीं बोल रहा। इतना अभी समझ लो कि “अंत में और कुछ होगा कि नहीं होगा?” इस तरह का सवाल नहीं होगा।

जब इस तरह का सवाल आना बंद हो जाए, तो समझ लेना कि कुछ तो तरक़्क़ी हो ही गई।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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