दौड़ने से पहले, देखो! || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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दौड़ने से पहले, देखो! || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, जीवन में लक्ष्य होने चाहिए या नहीं?

वक्ता : ‘लक्ष्य’, ‘महत्वकांक्षा’, ‘रुचि’, ये सारे शब्द एक ही श्रेणी से सम्बंधित हैं। एक ही वर्ग से सम्बंधित हैं, एक ही तरह के मन से आ रहे हैं। ये शब्द मन में कैसे आते हैं? ये आते हैं सिर्फ़ बाहरी प्रभावों से। जिसको तुम कहते हो अभिलाषा, रुझान, उद्देश्य, लक्ष्य, प्रयोजन, इन सबमें तुम्हारा अपना बहुत कम है। उसमें हमारा बहुत कुछ होता नहीं है। आप किस घर में पैदा हुए हो, आप किस समाज में रह रहे हो, आपके दोस्तों ने आपके मन में क्या बात भर दी, मीडिया आपके मन में क्या भर रहा है, उसी को आप समझने लग जाते हो कि ये मेरी ही अभिलाषा है, या कि मेरा ही लक्ष्य है। हर विज्ञापक को ये बात बहुत साफ़-साफ़ पता होती है। आपको किसी सामान की ज़रूरत नहीं भी है तो वो क्या करता है; वो दस बार उस चीज़ से सम्बंधित विज्ञापन आपको दिखाता है। हर संभव तरीके से। कभी इन्टरनेट पर तो कभी विज्ञापन पट(होर्डिंग्स) पर; अखबार पर, रेडियो पर, टेलीविज़न पर; लगातार-लगातार आपको वो प्रभावित करता है। और जब आप खूब प्रभावित हो जाते हो तो आप अंततः अपना लक्ष्य बनाते हो कि मुझे ये चीज़ खरीदनी है।

क्या ये लक्ष्य आपका है? या ये किसी ने इसे आपके मन में डाल दिया है? जीवन में आप जितने भी लक्ष्य बनाते हो वो सारे ऐसे ही होते हैं। बिरला है वो आदमी जिसने जाना है कि अपने लक्ष्य का क्या मतलब है। निन्यानवें प्रतिशत लोग जिस बात को अपना लक्ष्य या अपनी रूचि समझ रहे होते हैं, वो सिर्फ बाहरी प्रभावों से आई हुई एक तरंग होती है, एक विचार होता है। कुछ दिखा बाहर और हम उससे प्रभावित हो गए।

बाज़ार से निकल रहे हो और तुम्हारे मन में कोई इच्छा नहीं है चाट खाने की। तुम कुछ और ही काम करने निकले हो। तुम जा रहे हो कपड़े खरीदने। पर जो आदमी चाट बेच रहा है वो बड़ा होशियार है। उसे पता होता है कि हमारे मन गुलाम ही है और हमें कुछ समझ नहीं है अपने मन की। तुम जब उसके बगल से गुजरते हो, तो कभी गौर किया है कि वो क्या करता है? वो पहले तो उसका जो बड़ा-सा तवा होता है उसको बजाता है, टन-टन, टन-टन। और उसके बाद वो कुछ नहीं भी पका रहा होता है तो व्यर्थ ही तवे पर थोड़ा-सा शुद्ध घी डाल देता है; भले ही उस घी को वो प्रयोग करता हो या ना करता हो। फिर तुमने देखा है कि नाक में जब वो सुगंध आती है तो क्या होता है? कान में क्या आई? तवे की आवाज़। और नाक में क्या आई? घी की सुगंध। और फिर आँख ने क्या देखा? जो उसने वहाँ सजाकर रखा हुआ है। भले ही तुम जा रहे थे कपड़े खरीदने लेकिन तुमने कहा कि क्या फर्क पड़ता है दस मिनट रुक कर चाट भी खा लेते हैं, कपड़े की दूकान कौन सी बंद हुई जा रही है, दस मिनट बाद ही खरीद लेंगे। और तुम पहुँच जाते हो चाट खाने को। और तुम बोलोगे कि ये तो मेरी रूचि है, मेरी इच्छा है। जब उसकी ओर जा रहे होगे और तुम्हें कोई रोकेगा तो तुम कहोगे कि मेरी इच्छा है, तुम मुझे रोक क्यों रहे हो? पर क्या वास्तव में तुम्हारी इच्छा है? ध्यान से देखो! तुम तो निकले थे कपड़ा खरीदने, ये चाट कैसे खाने लगे?

जिनको भी तुम अपना लक्ष्य बोलती हो, उनको रुककर एक बार ध्यान से देख तो लो कि क्या वो तुम्हारे लक्ष्य हैं। समाज ने, माँ-बाप ने, दोस्तों ने, शिक्षा ने, मीडिया ने प्रभावित कर रखा है हमको। एक लहर उठती है कि सब इंजीनियरिंग करें, क्योंकि अखबार पर भी सारी आई.टी. कम्पनीज छाई हुई हैं, आस-पास भी तुम्हें यही दिखाई देता है और सब निकल पड़ते हैं इंजीनियरिंग करने के लिये। क्या इंजीनियरिंग करना तुम्हारी इच्छा थी? ध्यान से देखना, ईमानदारी से। कल को कोई और लहर चल पड़ेगी तो सब उधर को चल पड़ेंगे।

इन लक्ष्यों में रखा क्या है, जिनके लिए तुम उतावले हो रहे हो कि अगर भविष्य के बारे में नहीं सोचोगे तो लक्ष्य मिलेगा कैसे? ‘अपना लक्ष्य हो, मिल जाए तो कोई बात भी है। जब मेरा है ही नहीं तो मुझे मिल भी गया तो मुझे क्या मिला? मेरे मालिक को कुछ मिला, मैं तो बस ग़ुलाम ही हूँ’। तुमने चाट खा ली तो तुम्हें वास्तव में कुछ नहीं मिला। किसको मिला? उस चाटवाले को, जो तुम्हारा मालिक बन बैठा है। उसको अच्छे से पता है कि तुमको कैसे विवश करना है चाट खाने को! यही काम वो स्पष्टतया ज़ोर-ज़बरदस्ती से कर रहा होता; वो तुम्हारे पास आता और कहता कि चल चाट खा वरना मारूँगा, तो तुम शायद विरोध करते और शायद पुलिस को बुला कर कहते ये कैसा चाटवाला है जो धमकी दे कर चाट खिलाता है। पर वो तुम्हें धमकी नहीं देगा, वो तुमको बहुत महीन तरीके से अपना ग़ुलाम बनाएगा। वो बस तुम्हारे नाक में खुशबू छोड़ देगा, कान में आवाज़ छोड़ देगा, तुम्हारे आँखों के आगे एक दृश्य खड़ा कर देगा। ग़ुलाम तुम अभी भी बन रहे हो लेकिन तुम्हें पता नहीं चल रहा है। और तो और तुम कहते हो कि मेरी ही इच्छा है। अब बड़ा आसान हो गया क्योंकि अगर वो धमकी दे कर कहता तो तुम प्रतिरोध करते; पर अब तुम कोई प्रतिरोध नहीं करोगे और कहोगे कि ये तो मेरी ही इच्छा है। है ना मजेदार बात! अपनी मर्ज़ी से हिरण चला जा रहा है शेर के मुँह में और कह रहा है, ‘मेरी इच्छा है, मुझे मरना है’। लेकिन हिरण हमारी तरह बेवक़ूफ़ नहीं होता। जानवरों में भी कुछ अक्ल होती है।

(हंसी)

जानवर के मन को आसानी से वश में नहीं किया जा सकता लेकिन आदमी का मन बड़ी आसानी से किसी के भी बस में आ जाता है। और उसके बाद वो ये दावा करता है कि ये मेरा लक्ष्य है।

हमारा लक्ष्य है? वाकई ? कितने लोग हैं जो ये मानेंगे कि उनका मन अकसर दुविधा में रहता है, भ्रमित रहता है?

(बहुत सारे हाथ ऊपर उठ जाते हैं)

वक्ता: एक परेशान, व्याकुल मन से लक्ष्य कैसे निकलेंगे?

सभी श्रोतागण(एक साथ स्वर में): भ्रमित।

वक्ता: इन भ्रमित लक्ष्यों का पीछा कर भी लिया, इन्हें पा भी लिया तो तुम्हें क्या मिलेगा? मन अगर भ्रमित है, उसे समझ में ही नहीं आता कि इधर जाये या उधर जाये। तो पहले ये जाना ज़रूरी है या रुक कर मन को शांत करना, उसको समझना उचित है? एक शराबी है, बेहोश। बेहोश हम भी हैं, बस हमारा बेहोश होना दिखाई नहीं देता और उसका दिखाई पड़ जाता है। वो चौराहे पर खड़ा है और उसकी परिधि घूम रही है; कभी इधर, तो कभी उधर। वैसे ही हम हैं जो एक लक्ष्य बनाते हैं कि खूब पढाई करनी है और एक हफ्ते तक करते हैं और फिर कहते हैं, ‘अरे यार, कुछ और कर लेते हैं’। जिम जाना है, तो तीन दिन सुबह-सुबह दौड़ लगाई और उसके बाद कौन करे। खूब संकल्प बनाते हैं, पर कुछ हो नहीं पाता। तो वैसे ही शराबी खड़ा है वहां पर। चार कदम इधर को चलता है और फिर लौट आता है, चार कदम इधर को चलता है और फिर लौट आता है; आढी-तिरछी चाल है उसकी। क्या आवश्यक है उसके लिये; कि एक दिशा पकड़ ले और दौड़ लगा दे उस ओर, या थम जाए और नशा उतारे?

कई छात्र(एक स्वर में): नशा उतारे।

वक्ता: क्योंकि अगर उसने एक दिशा पकड़ी भी तो उस दिशा में उसके लिए रखा क्या होगा? एक शराबी जो भी दिशा पकड़ेगा, वो ही बेहोश दिशा होगी। वैसे ही तुम जो भी लक्ष्य पकड़ोगे वो ही बेहोश लक्ष्य होगा क्योंकि वो लक्ष्य तुम्हारा है कहाँ। शराबी के सर पर शराब चढ़ी होती है और हमारे सर पर समाज और दूसरे प्रभाव चढ़े रहते हैं। नशे में दोनों हैं। खुद जानने-समझने की काबिलियत दोनों में ही नहीं है। मुक्ति का यही अर्थ है; ‘बेहोशी से मुक्ति’। क्योंकि सिर्फ बेहोश व्यक्ति भविष्य की तरफ दौड़ लगाने को उत्सुक होता है, मात्र बेहोश व्यक्ति। जो होश में होता है, वो पुरे तरीके से वर्तमान में डूबा होता है और यही उसके लिये काफी होता है। तुममें से कितने मुझे अभी ध्यान से सुन रहे हो?

(बहुत सारे हाथ ऊपर उठ जाते हैं)

वक्ता: जो लोग ध्यान से सुन रहे हैं क्या वो इस वक़्त भविष्य के सपने ले रहे हैं? और अगर लेने लग गए भविष्य के सपने तो इस वक़्त जो मैं कह रहा हूँ क्या वो सुन पाएंगे?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं सर।

वक्ता: बस यही बात है। जो होश में है वो भविष्य में नहीं होता है, वो वर्तमान में होता है। पर यहाँ एक-दो धुरंधर अभी भी होंगे जो भविष्य में होंगे और ये सोच रहे होंगे कि शाम को क्या होगा, रात कैसी बितने वाली है, कल क्या होगा, परसों क्या होगा। कोई ऐसा भी हो सकता है जो ये सोच रहा हो कि अगले जन्म में क्या होगा?

(हंसी)

वक्ता: उन्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। वो यहाँ बैठ कर जिस शाम, जिस रात में खोए हुए हैं, उस शाम या रात का कुछ पता नहीं है। पर हाँ जो उपलब्ध है अभी उनको वो भी नहीं मिल पायेगा। देखो, भविष्य बनाना नहीं पड़ता। तुम कह रहे हो बनायेंगे नहीं तो आएगा कैसे। हम सब की चिंता यही रहती है कि भविष्य बनाना है। भविष्य बनाया नहीं जाता। अभी अगर तुम मुझे ध्यान से सुन रहे हो तो मुझे बोलते दस मिनट बीत चुके हैं न; क्या इस दस मिनट में भविष्य अपने आप ही निर्मित नहीं हो गया? तुम वर्तमान में थे लेकिन भविष्य अपने आप बनता रहा न? वो दस मिनट भी तो भविष्य ही हैं। ‘टी इज़ इक्वल टू जीरो से लेकर टी इज़ इक्वल टू टेन लें, तो टी इज़ इक्वल टू टेन, टी इज़ इक्वल टू जीरो की अपेक्षा में भविष्य ही तो हुआ!’ तुम सुनते जा रहे हो और भविष्य बनते जा रहा है। कुछ करना नहीं है। तुम्हें सिर्फ वर्तमान में होना है। वर्तमान ही बीज है जिससे भविष्य का पेड़ खड़ा होता है। तुम वर्तमान में रहो; तुम बीज की देखभाल करो। तुम बीज के प्रेम में रहो। या ऐसा करोगे कि पेड़ के सपने ले रहे हो और सामने बीज सड़ रहा है? बीज सड़ रहा है और पेड़ के सपने ले रहे हैं। ऐसा आदमी क्या है?

कई छात्र(एक स्वर में): बेवकूफ।

वक्ता: भविष्य की आकांक्षा सबको है और भविष्य जिस वर्तमान से निकलता है उसका ठिकाना किसी को पता नहीं है। मुक्ति का यही अर्थ है। भूत और भविष्य से मुक्ति का अर्थ है- जो वास्तविक है उसमें जियो। सिर्फ बीज वास्तविक है, पेड़ अभी बस कल्पना है। हालाँकि पेड़ छुपा बीज के अन्दर ही है। वर्तमान अगर सुन्दर हो तो उसमें से निश्चय ही सुन्दर भविष्य निकलेगा। तुम्हें और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। तुम बीज की देखभाल कर रहे हो, पानी दे रहे हो, खाद डाल रहे हो, धूप मिल रही है उसे और ये सब वर्तमान में हो रहा है। तो क्या इच्छा या कल्पना भी करनी पड़ेगी कि उससे सुन्दर पेड़ निकले या अपने आप निकलेगा?

कई छात्र(एक स्वर में): अपने आप निकलेगा।

वक्ता: तुम्हें कुछ और करना नहीं है। तुम क्यों इतनी हड़बड़ी में हो, तुम क्यों इतने बेचैन हो कि हमें भविष्य बनाना है? भविष्य बनाने की कोई जरूरत ही नहीं है, भविष्य अपने आप बन जायेगा। तुम वो करो जो तुम्हें अभी करना है। और वो क्या है जो तुम्हें अभी करना है? जो अभी हो रहा है। नाच रहे हो, तो नाचो पूरी तरह; सुन रहे हो, तो सुनो पूरी तरह; पढ़ रहे हो तो पढ़ो और खेल रहे तो खेलो! भविष्य अपने आप बनता जायेगा। सपने लेने से भविष्य नहीं बनता। लक्ष्य बनाने से भविष्य नहीं बनता। होशपूर्ण होकर वर्तमान में जीने से भविष्य अपने आप आता है, बनाना नहीं पड़ता, इच्छा नहीं करनी होती। बात स्पष्ट हो रही है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जी सर।

वक्ता: ये जो काँटा है, बड़ी गहराई तक तुम्हारे मन में घुसा हुआ है, भविष्योन्मुखी होने का। सपनों में जीने का। और इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। बचपन से तुम्हें बताया ही यही गया है। सपनों में जीयो। सपने, सपने और बस सपने। बताया ही गया है कि लक्ष्य ही सर्वोपरि हैं। जिन्होंने बताया, उन्हें भी किसी और ने बता दिया था और उन्हें किसी और ने। पर तुम्हारा अपना जीवन है, तुम थोड़ा ठहर के खुद क्यों नहीं देखते कि ये जो लक्ष्य वगैहरा की बात हो रही है, इसमें दम ही कितना है?

उदाहरण लेते हैं। दो लोग हैं जो पढ़ रहे हैं। पहला आदमी है जिसे पढ़ने में आनद आ रहा है, रूचि है उसकी इसलिए किताब के पास है और मज़े लेकर पढ़ रहा है। दूसरा आदमी है जो इसलिए पढ़ रहा है क्योंकि उसे भविष्य बनाना है, परीक्षा देनी है, अच्छा परिणाम लाना है। इन दोनों में, वास्तविकता में कौन पढ़ पायेगा? समझ तो रहे हो तुम पर, और स्पष्टता की ज़रूरत है। जो आदमी भविष्य के सपने ले रहा है वो अगर किताब में भी कुछ पढ़ रहा होगा तो किसलिए पढ़ रहा होगा?

कई छात्र(एक स्वर में): भविष्य के लिये।

वक्ता: तो उसकी नज़र इस बात पर ज़्यादा होगी कि अंक कितने आने वाले हैं? उसके लिए मह्त्वपूर्ण क्या है- पढ़ना या अंक पाना? उसके लिए मह्त्वपूर्ण हैं, अंक। तो अगर उसके मन पर अंक छाये हुए हैं तो वो पढ़ कैसे पायेगा? जब मन ने पहले ही फैसला कर लिया है कि प्राथमिकता अंकों की है तो वो किताब के साथ कैसा सुलूक करेगा? किताब उसके लिये बस एक ज़रिया है, एक साधन है अंक लाने का। अगर अंक बिना पढ़े आ जायें तो वो खुश हो जायेगा। क्योंकि उसके लिए असली चीज़ है- अंक पाना। तो बिना पढ़े अगर अंक आते हैं तो कहेगा- बस ठीक है, लाओ नक़ल कर लेते हैं, अंक जैसे भी आते हैं बुराई क्या है? मज़े की बात ये है कि इस आदमी के कभी ज्यादा अंक आयेंगे भी नहीं। तुम इसके अंक भी देखोगे तो ये पीछे ही पाया जाएगा। या बीच में कहीं रहेगा, वो बस औसत दर्ज़े का ही रह जाएगा।

और जो वो दूसरा आदमी है जो पढ़ता इसलिए है क्योंकि पढने में उसका आनंद है, वो अंकों की सोच ही नहीं रहा। वो तो बस डूब गया है और मस्त होकर पढ़ रहा है। क्या इस आदमी के अंक अपने आप ही ठीक नहीं आ जायेंगे? मुझे नहीं मालूम कि ये श्रेष्ठ बनेगा या नहीं, लेकिन ये पक्का है कि ये औसत नहीं होगा। इसके दोनों हाथों में लड्डू हैं। ये जब पढ़ रहा है उस समय भी मज़े ले रहा है और इसके अंक भी अपने आप ही ठीक आ जायेंगे।

ये बस वर्तमान में डूबा था, इसका भविष्य अपने आप बन गया। तुम वर्तमान में रहना सीखो, भविष्य अपनी परवाह खुद कर लेगा।

जीवन के बारे में इतना डरे हुए मत रहो।’आगे क्या गड़बड़ हो जाएगी, उसको अभी से ठीक करना आवश्यक है। अगर मैं जोर ना लगाऊँ तो पता नहीं आगे क्या हो जाए। कौन सा भूचाल आ जाए, कौन सी विपत्ति आ जाए मुझे अभी से तैयारी करनी होगी। जीवन फूलों की शैय्या नहीं काँटों की सेज है, इसलिए तैयारी करो’। और ये बात तुमको बचपन से बताई गयी है कि देखो तैयारी करो वरना आगे बड़ी दिक्कत होगी। जो भी लोग फाइनल इयर या प्री -फाइनल इयर में आ जाते हैं उनसे ये सवाल किये जाने लगते हैं कि और अब आगे का क्या सोचा है। तो समाज, परिवार लगातार तुम्हारे मन में ये ज़हर भरते ही रहते हैं कि आगे की सोचो। कोई तुमसे ये नहीं पूछता कि अभी खुश हो? सवाल रहता है, ‘बनना क्या है?’, ‘आगे क्या करने जा रहे हो?’ अभी क्या हो, इससे किसी को कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। सब ये जानना चाहते हैं कि बनोगे क्या?’तो बेटे बड़े होकर क्या बनोगे? और बिटिया क्या बनेगी? हमने तो अभी से निर्धारित कर रखा है – बिटिया को डॉक्टर और बेटे को इंजिनियर बनाना है’। बस हो गया ख़त्म। और अफ़सोस की बात ये है कि ये बात पिताजी बड़े गर्व के साथ कह रहे होते हैं।

जो हुआ सो हुआ। तुम छोटे थे, असहाय थे, तब तुम कुछ और कर भी क्या सकते थे? पर अब तुममें से कोई छोटा नहीं है। अब जीवन को अपनी दृष्टि से देखना सीखो। अपनी समझ से जीना सीखो। समझो इन बातों को। इधर-उधर भागते मत फिरो, उस शराबी की तरह। लगे हुए हैं लक्ष्य को पाने में। और तो और बीच-बीच में प्रेरणा देने वाले आ जाते हैं, गुरु लोग और आकर के बोलते हैं, ‘उठो वत्स, उठो और तब तक मत रुकना जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाये’। शराबी और जोश में आ जाता है, सर पर पाँव रख कर भागता है कि लक्ष्य पाने जा रहा हूँ।

बढ़िया तमाशा चल रहा है। ऐसे जीना है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं सर।

वक्ता: बहुत महत्वाकांक्षी मत रहो। तुम्हारे हाथ में पहले ही बहुत कुछ है। तुम्हें काफी चीज़ें मिली ही हुई हैं। उनमें जीना सीखो। समझे?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जी सर।

-संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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