आचार्य प्रशांत: तुम्हारे पास बात ऐसे पहुँचती है कि तुमने मुझसे सुन लिया। मेरे पास कहाँ से आती है?
प्रश्नकर्ता: सोचकर।
आचार्य: नहीं, सोचकर नहीं आती है, मुँह काला करके आती है। अभी मेरी शक्ल देख रहे हो? झुल्साई-सी दिख रही है? नहीं दिख रही होगी क्योंकि तुमने मुझे पहले ज़्यादा देखा नहीं है। पता है ये कैसे झुलसी है? ये ऐसे झुलसी है कि पिछले दो-तीन महीने से लगातार मैं अपनी बाइक उठाता हूँ और पहाड़ों पर चला जाता हूँ। वहाँ घूम रहा हूँ, फिर रहा हूँ, अकेले रह रहा हूँ। किनारे पर, रेत पर, चुपचाप पड़ा हुआ हूँ। रात भर पड़ा हुआ हूँ, नदी में कूद गया हूँ, झरने पर चढ़ गया हूँ। वहाँ से ये सारी बातें आती हैं।
तुम तक आती हैं कि तुम आसानी से यहाँ ए.सी. वाले कमरे में बैठकर मुझे सुन रहे हो। मैंने कीमत अदा की है इसलिए मुझे भूलती नहीं। तुमने कीमत थोड़े ही अदा की है। तुम तो सोच रहे हो कि यहाँ पर आसानी से बैठकर सुनने से तुम्हें मिल जाएगा। मैं वहाँ जान का जोख़िम उठाता हूँ तब मुझे कुछ मिलता है। मेरी तो बुलेट (मोटर-बाइक) फिसल गई तो मैं गिरा भी धड़ाम से। जब गिरता हूँ तब अचानक बल्ब जलता है कि कुछ समझ में आया और वो मैं यहाँ आकर संवाद में बोल देता हूँ।
तो तुम भी बाहर तो निकलो न। यहाँ क्यों बैठे रहते हो? फिर जो पता चलेगा वो असली होगा। वो कोई नहीं भुला सकता तुमसे। फिर जो पता चलेगा वो असली होगा, फिर वो तुमसे कोई नहीं छीन सकता। फिर कोई आकर तुमसे सौ-बार कहे कि आप बेवकूफ हैं, कैसी बातें करते रहते हैं, दिमाग हिल गया है। तुम कहोगे…
प्र: कोई बात नहीं।
आचार्य: इतना भी नहीं कहोगे। हो सकता है कि देखो भी नहीं उसकी ओर। तुम्हें सुनाई नहीं पड़ेंगी लोगों की बातें। तुमको नदी ने सच बता दिया न, तुम्हें आसमान ने सच बता दिया है।
प्र: सर, आपने कहा कि आप बाइक से गिर गए थे और फिर आपका बल्ब जला। ये बात समझ आई, लेकिन सर, ये खतरा था कि वहीं पर कोई खाई होती और आप नीचे गिर जाते, तो फिर? क्या फायदा है उसका?
आचार्य: यही होता कि संवाद नहीं ले रहा होता। तो क्या हो जाता?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: मैं यही तो कह रहा हूँ कि अगर हम गिर जाएँ या ऐसी कोई घटना हो जाए, तो फिर...?
आचार्य: होने को तो कुछ भी, कभी भी हो सकता है। तुम एक बात बताओ, मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ, गिरने की संभावना क्या है? क्या है इसकी सम्भावना कि कोई गया और लौटकर नहीं आया? ऐसा कितने मामलों में एक बार होता है?
प्र२: शून्य या एक, मतलब आएगा या नहीं आएगा।
आचार्य: अगर सौ लोग जाते हैं, तो उसमें से कितने लौटकर आते हैं, कितने नहीं? वही संभावना कहलाती है। हज़ार में से कितने लोग हैं जो जाते हैं पर कभी लौटकर नहीं आ पाते? जल्दी बोलो।
प्र३: सर, आधे-आधे।
आचार्य: पचास प्रतिशत? क्या आधे वहीं रुक जाते हैं?
प्र४: सर, मुश्किल से दस प्रतिशत।
आचार्य: दस प्रतिशत! तुम सच में ऐसा सोचते हो कि पहाड़ों पर इतना मृत्यु दर है कि सौ लोग गए तो दस मर गए? ऐसा होता है क्या?
प्र५: नहीं, ऐसा नहीं है, वो तो परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
आचार्य: मुझे तथ्यात्मक संख्या दो। अरे, उन सब में जो जाते हैं और वहाँ आनन्द लेते हैं, समय बिताते हैं, उनमें से कितने मर जाते हैं?
प्र५: सर, हज़ार में से कोई दो।
आचार्य: ठीक है, हज़ार में से दो, नौ-सौ-अट्ठानवे लौटकर आते हैं। तुम उन दो का ख्याल कर रहे हो, नौ सौ अट्ठानवे का नहीं। तुम अपनी गणित देखो। तुम उन दो से चिपककर खड़े हो गए हो, जो मर गए। और जो नौ-सौ-अट्ठानवे लौटकर आ गए, तुम उनकी ओर देखना भी नहीं चाहते।
प्र६: सर, यही तो बात है कि हमें गिलास आधा खाली दिखता है और...
आचार्य: आधा भी नहीं है यहाँ, दो और नौ-सौ-अट्ठानवे हैं।
प्र६: हाँ, हमें खाली दिखता है, पर जो थोड़ा-सा भरा है वो नहीं दिखता। बात तो वही है न?
आचार्य: विपरीत है। जो इतना-सा खाली है, तुम्हें वो दिखाई दे रहा है। जो पूरा भरा हुआ है, वो नहीं दिखाई दे रहा।
मरने की एक प्रतिशत संभावना है। तुम उस एक प्रतिशत को पकड़कर बैठ गए हो। और जो निन्यानवे प्रतिशत ज़िन्दगी है, उसको तुम छोड़े दे रहे हो। यही हमारी कहानी है।
मरने की एक प्रतिशत संभावना के कारण निन्यानवे प्रतिशत ज़िंदगी को तुमने छोड़ रखा है। फिर पूछते हो कि, "ज़िंदगी उबाऊ क्यों है? उदास क्यों है? हम ऐसे क्यों रहते हैं!" ऐसे ही रहते हो क्योंकि निन्यानवे प्रतिशत ज़िंदगी तो तुम्हें फालतू ही लगती है। वो जो एक प्रतिशत डर है, वो इतना भारी है कि तुम उसके बोझ के नीचे ख़त्म हो चुके हो।
और मरना तो है ही। अभी और कितने दिन जी लोगे? हिन्दुस्तान का जो औसत जीवनकाल है लोगों का, उसके हिसाब से तुम अपनी एक तिहाई ज़िंदगी जी चुके हो, या एक चौथाई। अगर तीन या चार दिन लेकर आए थे जीने के लिए तो एक दिन तो बीत गया। तुम अब कितने दिन और जिओगे, ये बता दो?
प्र७: सर, ऐसा ही सोचते रहे तो हम यही सोचते रहेंगे…
आचार्य: सोचते नहीं रहे, मैं तथ्य की बात कर रहा हूँ।
प्र७: सर, लेकिन अगर हम यही सोचते रहें कि कल तो हमें मर जाना है, तो क्यों पढ़ें?
आचार्य: बेशक, ये सोचना चाहिए। जो कुछ भी भविष्य के लिए किया जा रहा है, वहाँ पर ये ख्याल ज़रुर रखना चाहिए कि, "वाकई मेरे पास दिन कितने हैं?" हमारा पागलपन ही यही है कि हम अपनी कहानियों के बीच में ही मर जाते हैं। मरता हुआ आदमी भी यही सोच रहा होता है कि अभी बीस साल और मिलें तो ये कर लूँगा। कहानी कभी पूरी नहीं होती।
तुम्हें दिखाई भी नहीं पड़ रहा होता है कि तुम्हारे दिन खत्म हो रहे हैं, बहुत तेज़ी से ख़त्म हो रहें हैं। तुम्हें पता है कि क़रीब बीस साल तुमने अपने खत्म कर दिए हैं। छोटी मात्रा नहीं होती ये। बीस साल! और आजकल तीस साल में दिल का दौरा पड़ना शुरू हो गया है।
(मौन)
वो निन्यानवे प्रतिशत जीना कब शुरू करोगे, ये बता दो?
एक जगह उल्लेख है, किसी ने कहा है, "दुनिया ऐसे लोगों से भरी हुई है जो बीस की उम्र में मर जाते हैं पर अस्सी पर ही जाकर दफनाए जाते हैं"।
मर वो बीस की उम्र में ही जाते हैं। बीस से लेकर अस्सी तक सिर्फ भूत डोल रहा होता है। भूत माने समझते हो? पास्ट (अतीत)। बीस की उम्र में मर गया, पर ऐसा लगता था कि ज़िन्दा है तो वो चलता रहा। अंततः जब वो अस्सी का हो गया, तब उसको जलाया गया। तो ये हमारी कहानी है।