चलो ज्ञान में, पर स्थित बोध में रहो || (2014)

Acharya Prashant

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चलो ज्ञान में, पर स्थित बोध में रहो || (2014)

आचार्य प्रशांत: कोई कहता है कि, ‘नॉलेज एंड विज़डम डू नॉट गो टूगेदर (ज्ञान और बुद्धि एक साथ नहीं चलते)।‘ थोड़ा समझना पड़ेगा। इसका अर्थ ये नहीं है कि ‘दे आर म्यूचुअली एक्सक्लूसिव (दोनों परस्पर अनन्य हैं)‘, कि इन दोनों की आपस में कोई दुश्मनी है, कि जहाँ नॉलेज (ज्ञान) होगा, वहाँ विज़डम (बुद्धि) हो ही नहीं सकती। ऐसी बात नहीं कही जा रही है। जब कहा जाता है कि, "नॉलेज एंड विज़डम डू नॉट गो टूगेदर ", तो उसका इतना ही अर्थ है कि ये दोनों अतुलनीय हैं। इन दोनों की आपस में कोई तुलना नहीं हो सकती। असंगत नहीं हैं, अतुलनीय हैं। तो कोई ये ना सोचे, जो वाइज़ (बुद्धिमान) आदमी है उसके पास तो नॉलेज (ज्ञान) तो होता ही नहीं। ये बड़ी भ्रान्ति हो जाएगी। जब आप कहते हैं, "नॉलेज एंड विज़डम डू नॉट गो टूगेदर ", इसका अर्थ ये नहीं है कि जहाँ विज़डम है, वहाँ से नॉलेज उड़ जाएगा। वो असंगत नहीं हैं, फिर कह रहा हूँ, अतुलनीय हैं। वो अलग-अलग आयाम हैं। ठीक, वैसे जैसे गंध की और वज़न की तुलना नहीं हो सकती। ठीक वैसे जैसे तापमान की और घनत्व की तुलना नहीं हो सकती। ठीक वैसे जैसे एक्स एक्सिस और वाई एक्सिस की तुलना नहीं हो सकती क्योंकि वो आयाम ही हैं अलग-अलग। ठीक उसी तरीके से विज़डम की और नॉलेज की कोई तुलना नहीं हो सकती, वो अलग-अलग आयाम हैं।

नॉलेज अलग आयाम है रूप का, आकार का, विश्व का, मन का, मानसिक गतिविधि का और विज़डम आयाम है वो जहाँ से मन स्वयं उदभूत होता है। ये दो अलग-अलग हैं। और दो ऐसे अलग हैं जिसमें एक, दूसरे में समा सकता है। माइंड इज़ फंक्शनिंग इन नॉलेज, ईममर्स्ड इन विज़डम (मन ज्ञान में काम कर रहा है, बुद्धि में डूब कर)। ये संभव है और यही जीने की कला है क्योंकि जब तक शरीर है, तब तक ज्ञान के लिए पूरा स्थान है। नॉलेज माने ज्ञान। जब तक शरीर है, ज्ञान के लिए पूरा स्थान है, ज्ञान की आवश्यकता है, सब कुछ ज्ञान ही ज्ञान है। मन ज्ञान में रहे, बोध में डूबा हुआ। मन ज्ञान का प्रयोग कर ले परन्तु बोध की स्थिरता में।

एक इसमें एक और वाक्य है, उसको ले लेंगे। ‘*विज़डम कम्स व्हेन देर इज़ मचुरिटी ऑफ़ सेल्फ लर्निंग*।‘ ज्ञान एक प्रक्रिया है, जिसमें कुछ इकट्ठा होता है। आप एक ऐसे क्षेत्र में हैं जहाँ पर समय के लिए, वृद्धि के लिए, संचय के लिए स्थान है। ये ज्ञान है और ज्ञान के परिमाण भी होते हैं तो इस कारण ज्ञान को नापा भी जा सकता है। इसका इतना ज्ञान, उसका इतना ज्ञान, मेरा ज्ञान, ज्ञान में वृद्धि हो रही है, ज्ञान संचित हो रहा है। और बोध (विज़डम ) किसी एकत्रण का नाम नहीं है। वो एक ऐसे जानने का नाम है, जो जाना ही हुआ है। बहुत मोटे अर्थ में लें तो वो प्रक्रिया जानने की ही है, पर वो जानना कुछ एकत्रित करना नहीं है; वो जानना कुछ उद्घाटित करना है। है सिर्फ़ उसका रेवेलेशन (रहस्योद्घाटन), है पहले से। ये सेल्फ लर्निंग है इसीलिए सेल्फ लर्निंग में आप जान कर के भी कुछ विशेष जानते नहीं। और जब खूब ही जान लेते हो, तो बिलकुल ही ना जानने में आ जाते हो। हम बोध और ज्ञान के सूक्ष्म अंतर को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इसको समझिएगा क्योंकि आप जो क्लासरूम में करने जा रहे हो, आप जो अपने स्टूडेंट के साथ करते हो दिन-रात वो प्रक्रिया विज़डम की है, वो नॉलेज की नहीं है। वो अलग भी हैं, वो एक भी हैं दोनों। शुरुवात यहाँ से करिए की ये दोनों अलग-अलग आयाम हैं। हम ज्ञान बाँटने नहीं आए हैं पर फ़िर देखिए और पाइए कि ज्ञान तो देना ही पड़ेगा।

प्रत्येक शब्द ज्ञान है और तब सवाल करिए कि अच्छा शब्द कौन सा है। मैंने चाहा था कि मैं ज्ञान ना दूँ पर मैं पा रहा हूँ कि मैं ज्ञान ही बाँट रहा हूँ और मैं किस प्रकार ज्ञान बाँटू कि वो बँट भी जाए और वो ज्ञान ना रह जाए, वो कुछ और हो। ये सवाल है, जो गुरु होने के नाते आपको अपने आप से पूछना पड़ेगा कि, "बाँटूँ तो ज्ञान परन्तु उतर जाए वो बोध में। बाँटूँ तो शब्द परन्तु उतर जाए वो मौन में। आँखें तो शरीर ही देखें, कानों पर तो ध्वनि ही पड़े पर ये सब मात्र बहाने हों। कुछ और हो, इनसे अलग, जो चुप चाप कहीं और हो रहा हो। बिलकुल कहीं और, और बहुत चुप-चाप।

ऊपर-ऊपर तो यही चल रहा हो कि, "तुमने सवाल किया, हमने उत्तर दिया। तुम कुछ कहने आए हमने तुमको टोका। इतने समय के लिए ये गतिविधि निर्धारित थी, तुमने वो कर ली।" ऊपर -ऊपर सब चल रहा हो पर भीतर कुछ बिलकुल ही अलग घट रहा हो। जिसका हो सकता है कि आपके छात्र को कोई विचार भी ना हो, होना भी नहीं चाहिए। वो दबी-छुपी बात है। वो चोरी-चोरी ही होती है। वो बैंड-बाजा बजा कर नहीं की जाती। "आओ, समाधी लगाएँ। हाँ भाई, भोंपू बजाना।" ऐसे नहीं होता है वो। वो तो कहीं धीरे से जहाँ कोई देखने वाला नहीं, वो घटना वहाँ हो जाती है। जैसे बड़े मेहमान इकट्ठा हों, और वो कर रहे हों बातचीत शोर-शराबा और ये बारात है जो इकट्ठा हुई है। और प्रेमी हैं दो, जो इन सब से छुप कर के कहीं घर के पीछे मिल रहे हैं। असली घटना वहाँ घट रही है, शोर यहाँ मच रहा है। इनको मचाने दो शोर। ये व्यर्थ ही शोर मचा रहे हैं। पर वो शोर मचाना भी ज़रूरी था, नहीं तो इन बेचारों को एकान्त कैसे मिलता।

तो आप जो क्लासरूम में कराने जाते हो, वो यही है। आप शोर मचाने जाते हो सिर्फ़, वो यही है पर शोर कुछ इस तरह से मचाओ कि शांति आ जाए। आप बाराती हो। दूल्हा-दुल्हन तो अपने हिसाब से मिलेंगे और वो जब मिल रहे हों, तो वहाँ बीच में मत घुस जाना। बारातियों का धर्म ये नहीं है! कहते हैं न कबीर कि, ‘दूल्हा-दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।' अब तुम क्या कर रहे हो जाओ, जो प्रयोजन था वो सिद्ध हो गया अब तुम क्यों बैठे हो? जाओ। तो ज्ञान ठीक, पर आयाम अलग हैं। आप बारातियों के जोश और प्रेमियों के प्रेम की तुलना थोड़े ही करोगे। हाँ, देखने में दोनों में कुछ सम्बन्ध लगता है, और वो सम्बन्ध ठीक भी है, संसार हमारा कुछ ऐसे ही है। कुछ सम्बन्ध होगा। विचित्र लोग हैं हम। मौन में जाने के लिए भी धूम-धड़ाका चाहिए, अव्रती होने के लिए भी व्रत चाहिए, निर्विशेष होने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं, हम ऐसे ही हैं। तो ठीक है जब दुनिया ऐसी ही है तो चलाएँगे काम।

ये जो रिश्ता है नॉलेज का और नोइंग (जानने) का, इनफार्मेशन (सूचना) का और लर्निंग (सीख) का, ज्ञान का और बोध का, इसको भूलिएगा नहीं क्योंकि वास्तव में रिश्ता मनुष्य का और परम का है। ज्ञान और बोध में जो सम्बन्ध है, ठीक वही सम्बन्ध आप में और आपके स्त्रोत में है। दो अलग-अलग आयाम हैं, लेकिन फिर भी अंतर्सम्बंधित हैं, एक दूसरे में समाया हुआ है। ये जगत है, जो दिखाई पड़ता है और हर मामले में जब आप इसके स्त्रोत की बात करते हो, ब्रह्म की बात करते हो, तो आप उसको जो भी कुछ बोलते हो वो यही है जो इस जगत में नहीं है। यहाँ रूप है, आप उसको बोलते हो अरूप। यहाँ नाम है, आप उसको बोलते हो अनाम। यहाँ चिंतन है आप उसको बोलते हो अचिन्त्य, यहाँ आकार है आप उसको बोलते हो निराकार। तो ये तो बड़ी अजीब बात है। जगत में और उसके स्त्रोत में अलग-अलग है। इतने अलग हैं? हाँ, इतने ही अलग हैं और फिर भी एक दूसरे में समाया हुआ है। एक दूसरे से प्रस्फुटित होता है; एक दूसरे से प्रकट होता है। एक ही हैं दोनों। पूरी तरह अलग हैं, फिर भी एक हैं और वही सम्बन्ध ज्ञान और बोध में भी रहे और यही जीने का मंत्र है।

यही जिसने जान लिया वो जीयेगा कि जीएँ तो ज्ञान में, पर स्थित बोध में रहें। जीएँ तो शब्दों में, पर स्थित मौन में रहें। बाहर-बाहर बजते रहें, बैंड-बाजे, भीतर तो बस एक ही नाद है। यही जीवन है। बाहर-बाहर ज्ञान है, ठीक कोई दिक़्क़त नहीं, चाहिए ज्ञान। वो सब भूलें मत कर दीजिएगा कि मैं तो — जैसे कर्म संन्यास होता है वैसे ही मैं — ज्ञान संन्यास ले चुका हूँ, मैं अनासक्त हूँ, मैं त्यागी हूँ।

प्र: तो फिर क्या हमें अपने गुणों को नहीं निकालना? कि हम ज्ञान नहीं बाँटेंगे क्योंकि बताया तो हमें ऐसा ही गया है?

आचार्य: सब निकालिए पर वहीं बैठ कर के, जहाँ आपका आसन है। स्थित वहीं रहिए, फिर जो निकलता है, जो बहता है, जो होता है सब बहुत बढ़िया, सब बहुत सुन्दर। पर प्रश्न यह है कि क्या वहाँ आप स्थित हैं और वहाँ आप स्थित ही रहेंगे? यहाँ कोई षड़यंत्र नहीं कर रहा है आपको वहाँ से हटा देने के लिए। जब अस्तित्व में सब कुछ वहीं स्थित है, आपको हटाने कौन आएगा? बिल्ली ,चूहा, कुत्ता, कौआ, सुअर, पत्थर, रेत, बारिश, बादल सब कुछ स्थित है वहीं पर जहाँ उसे होना है। आपको ही ये भ्रम है कि आपको कोई हटाने आया है। आप वहीं स्थित हैं। वहीं स्थित रह कर करिए जो करना है।

प्र: अगर विचार नहीं है तो ये शरीर मुर्दा है। मौन में रह कर अगर आ रहा है आसक्ति का विचार तो?

आचार्य: तो रहिए, उस विचार के साथ रहिए, पूछिए ही मत कि इसका क्या करना है। आपको जो कुछ आता है आप उसके साथ क्या करते हो?

प्र: एक चीज़ और, विचार जो तुमने लिए, नॉलेज ली, विज़डम ली...

आचार्य: विज़डम ली?

प्र: मतलब माइंड को इमरस्ड किया उस विज़डम में।

आचार्य: किसने किया? ये दोनों जो हैं न, सारा खेल यहीं ख़त्म हो जाता है। मन को डुबोया या ये जाना कि मन तो डूबा हुआ है ही। मेरी एक-एक कोशिश उसको बस अलग करती है, डूबने से। उसके स्त्रोत से उसको दूर करती है, वरना मन तो डूबा हुआ है ही। मेरी एक-एक कोशिश, उसको बस अलग करती है। आपकी कोशिश जो है, कुछ भी करने की, भले ही वो डूबोने की कोशिश हो, आपकी कोशिशें ही तो बाधा हैं न?

प्र: हाँ, कोशिशें ही तो बाधा हैं मतलब ‘जो विचार तुम ज़बरदस्ती निर्मित कर रहे हो, तुम उस शान्ति में हो, जो सहजता से आ रहा है...’

आचार्य: कौन सा विचार आप ज़बरदस्ती नहीं करते तब भी आता है? आपने एक भेद करा है कि कुछ विचार होते हैं, जो ज़बरदस्ती आते हैं और कुछ होते हैं जो शायद आप कहना चाहती हैं कि स्वयमेव आते हैं, ऐसा कुछ नहीं है। विचार की एक ही प्रक्रिया है। वहाँ कोई भेद नहीं है।

प्र: क्या प्रक्रिया है? वो अतीत से आएगा?

आचार्य: उसकी प्रक्रिया ये है कि जब आप वहाँ नहीं होते, जहाँ आपको होना चाहिए, तो आप विचार में होते हो।

प्र: मेरा सवाल यहाँ पर यह है कि आप केंद्र पर रह रहे हो, विचार तो फिर आएँगे ही न?

आचार्य: मेरा प्रश्न ये है कि ये सवाल आपके लिए महत्त्वपूर्ण ही क्यों है? जब आपके लिए ये महत्वपूर्ण नहीं है कि "केंद्र पर बैठ कर मैं साँस कैसे लूँगी", तो आपके लिए ये महत्त्वपूर्ण क्यों है कि, "केंद्र पर बैठ कर मैं विचार कैसे करुँगी"? अरे, साँस को आना होता है तो आती है, विचार को आना होता है तो आता है। आना होगा तो आएगा, उसकी अपनी जगह है। आने दीजिए, आप क्यों चिंता कर रही हैं?

प्र: अगर सारी कंडीशनिंग , ईगो ख़त्म हो गई, स्थिरता में रह रहे हैं पर विचार तो चाहिए, वो विचार कैसे होने चाहिए?

आचार्य: आप यह सवाल क्यों नहीं पूछ रही हैं अपने आपसे कि ये सवाल आपको क्यों उठ रहा है? आपको जो कुछ चाहिए मिल जाएगा। सब कुछ होता है न? उस सब कुछ के साथ विचार भी शामिल है। जैसा आना होगा आ जाएगा। आप मस्त रहिए। विचार आता है सोचिए, भूख लगती है खाइए। मज़े की बात कि जो हो, मस्ती में हो। क्या हो महत्त्वपूर्ण नहीं है। उस होने का जो माहौल है, क्लाइमेट है, वो महत्त्वपूर्ण है। आपको अगर सोचना है तो आप जी भर कर सोचिए।

प्र: नहीं, मुझे सोचना भी नहीं है।

आचार्य: तो मत सोचिए, पर जब नहीं सोच रहे हैं तो मस्ती में मत सोचिए। वो मस्ती ज़रूरी है, वो डूबना ज़रूरी है। आप बैठे कहाँ हो, वो आसन ज़रूरी है। विचार का क्या करना है? आप दौड़ते हो, तो साँस तेज़ हो जाती है। बस तो ऐसे ही विचार भी तेज़ हो जाएगा कभी-कभी। आप शिथिल बैठे हो, तो साँस धीमी हो जाती है, वैसे ही विचार भी शिथिल हो जाएगा कभी। इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया वो? उसको जो करना होगा, वो कर लेगा। आप मौज में रहिए। आप कोई विचार नहीं निर्मित करते हो। ये अहंकार का परम भाषण है कि ‘आई थिंक ‘ I आप नहीं सोचते हो।

प्र: तो फ़्री विल (मुक्त इच्छा) क्या है?

आचार्य: अहंकार ही फ्री विल है। अहंकार की पूरी कोशिश ही यही है कि फ्री विल जैसा कुछ हो।

प्र: तो अब मैं यहाँ पर आई हूँ। अब सत्र ख़त्म होने के बाद मेरे पास बहुत संभावनाएँ हैं यहाँ पर बैठे रहना, चले जाना, सो जाना। उन सब संभावना में ‘बैठे रहना’ चुनना क्या है?

आचार्य: यह सब कार्य-कारण है। ये तो एक कारण आया, कर दिया। शरीर और कर भी क्या सकता है? कारणों के अनुसार काम करेगा। वहाँ पर कोई फ़्री-विल नहीं है। अभी अगर भूकंप आ गया तो भी बैठे रहोगे? सब कारणों पर निर्भर करता है, शरीर तो कारणों का ग़ुलाम है। और ये कारण आपकी मर्ज़ी से नहीं होते हैं। ये एक बहुत विशाल खेल है जो अपने आप को खेल रहा है। उन कारणों का आपको कभी कोई पता नहीं लगेगा। वो आपके नियंत्रण के बाहर की एक अनंत श्रृंखला है कारणों की, सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। आपके यहाँ बैठे होने का कोई महत्त्व नहीं है, आप यहाँ कैसे बैठे हो उसका महत्त्व है। आप यहाँ आए हो ये आपके समझ पाने के बाहर की बात है। आपको बिलकुल भी नहीं पता चलेगा कि आप यहाँ क्यों आए हो। वो कारण किसी और आयाम का है।

देखिए, ज़िन्दगी में ये मत पूछिए ये क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। जो भी हो रहा है, वो तो होना ही है। सवाल बस ये पूछा जा सकता है कि ये सब कुछ जो हो रहा है, उसमें हम मस्त हैं या हमारी मस्ती पर चोट लग गई। मस्ती पर चोट तब लगेगी जब आप मस्ती के लिए सीमाएँ निर्धारित कर दो। जैसे ही आप शर्तें थोपोगे, मस्ती पर चोट लग जाएगी। यही जीवन का तरीका है। जो हो रहा है, वो तो मुझसे बाहर की बात है। हम मस्त हैं। क्या हो रहा है, हमें क्या पता? क्यों हो रहा है? जो कर रहा है, वो जाने।

पूर्ण मुक्ति है जो करना है करो, बैठे वहीं रहो लेकिन। वहाँ से मत हिलना। देखिए, हम जो देख रहे हैं न ये ऐसा ही है कि कोई बहुत बड़ी मशीन, बहुत-बहुत बड़ी मशीन का कोई छोटा सा हिस्सा हमको दिख रहा हो। किसी और हिस्से में क्या चल रहा है, आप कभी नहीं समझ सकते। अभी यहाँ चार की जगह तीन बल्ब जल रहे हों, तो पूरा माहौल बदल जाएगा। ऐसा होता है, कार्य-कारण। बड़ा लग रहा हो कि, "ध्यान में बैठे हैं", पेट दो-चार बार गुड़गुड़ा दे, समाधि टूट जाएगी। ऐसा होता है। तो क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, हम नहीं जानते। हम अपने पैदा होने को ही नहीं जानते। संभावनाओं का खेल चल रहा है।

प्र: फिर तो सर जो चल रहा है चलने दो, मौज में भी क्यों रहें?

आचार्य: बहुत अच्छी बात है, मुझे समझना ही नहीं है मैं मौज में क्यों रहूँ। करिए तो, वहाँ तक जाइए तो। वैसे हो जाइए, बहुत अच्छा है। ना पढ़ाया लिखाया जाए मन को, तो वो नहीं बनाता है लक्ष्य और जब कारणवश बनाना भी पड़ता है तो उनको बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। शारीरिक कारणोंवश अगर उसे लक्ष्य बनाने भी पड़ें, तो ठीक है। ये सारी बातें, "लक्ष्य हो हीं", ये क्यों आए हैं? आना सुद्द्देश्य है, ये सब ज्ञान है, ये सब लिखा-पढ़ी का नतीजा है, ये समाज है। इसी से जो इकट्ठा होता है, उसे अहंकार कहते हैं। आपको बाहर-बाहर जैसे करना है, आप वैसे करिए, कोई इसमें दिक़्क़त नहीं है अगर आप आसन में बैठे हैं तो। और जो कुछ करा जा रहा है, अगर वो ही ऐसा है जो आपको हिला देता है तो समझिए चूक हो रही है। बार-बार कहा जा रहा है कि सही क्या है। सही वही है, जो आपको ‘वहीं’ पर प्रतिष्ठित रखे और चूँकि ‘वहीं’ पर प्रतिष्ठित होना है, इसीलिए जो सही है, वो बहुत देर चल नहीं सकता।

कोई भी कर्म बहुत देर तक सही रह नहीं सकता।

एक क्षणांश के लिए वो सही होगा। किसी भी वस्तु के साथ, किसी भी जीव के साथ जब भी कोई ऐसी घटना घटती है जो उसकी प्रकृति से मेल नहीं खाती, वो क्या करता है? पानी जानता है कि उसे ऊँचे से नीचे की ओर बहना है, हर प्रकार की गैस भी जानती है कि उसे उच्च दबाव से निम्न दबाव की ओर जाना है। जानवर भी जानता है कि जो घर रोटी नहीं देता है, उस घर के सामने नहीं जाना है। जगत में जो कुछ है सब जानता है कि उसे क्या करना है। उसकी मस्ती अखंड है। आप ज़रा उस पर दबाव देंगे नहीं कि वो समझ जाएगा उसे करना क्या है। चिड़िया बैठी है। आप उससे कुछ दूरी पर हैं, वो बैठी रहेगी। आप और करीब जाइए तो क्या होगा?

प्र: उड़ जाएगी।

आचार्य: उसे पता है, उसे क्या करना है। सिर्फ़ आदमी है, जो ये सवाल कहता है कि, "एक दूसरा आदमी है मैं उसके पास जाता हूँ, मौज ख़राब होती है मैं क्या करूँ?" अरे! जहाँ मौज ख़राब होती है, वहाँ से उड़ जाइए भाई। चिड़िया क्या कभी आपको अनिर्णय में दिखती है? हाँ, आप उसके साथ बदतमीज़ी कर दें, तो अलग बात है। अन्यथा उसको ठीक-ठीक पता है कि उसको क्या करना है। पानी को आपने कभी विचार करते देखा? कि ढलान तो आ गई है, अब बहूँ की ना बहूँ? सब जानते हैं कि अपनी प्रकृति अनुरूप उन्हें क्या करना है। शेर जानता है कि हिरण सामने आए तो क्या करना है और हिरण जानता है कि शेर सामने आए तो क्या करना है। हम क्यों नहीं जानते? हिरण हार गया रेस (दौड़) में, ये हो सकता है पर वो भूल ही गया कि, "मैं कौन हूँ", हो सकता है? हमें क्यों नहीं पता होता कि ये स्थिति आ रही है, जिसमें मन तनाव में आ जाता है, मेरा आसन डोलने लगता है, हमें क्यों नहीं पता होता?

प्र: हाँ, क्यों नहीं पता होता?

आचार्य: मैं आपसे कह रहा हूँ कि आपको पता है। दुःख को निरंतर कौन बना कर रखता है?

प्र: प्लेज़र (सुख)।

आचार्य: उसको छोड़ दीजिए, सब पता है आपको। सब पता है, पर कुछ तमन्नाएँ हैं ज़िन्दगी में, वो पाँव की बेड़ियाँ बनी हुई हैं। कौन आपको परेशान कर सकता है अगर आप उसको ये ताक़त ना दें? और क्यों आप किसी को ये ताक़त देंगी आपको परेशान करने की अगर आपको उससे कुछ चाहिए नहीं? आपको पता है, व्यापार चल रहा है। आप क्यों किसी को हावी होने देंगी? आप क्यों किसी को आपको कम्पित करने देंगी अगर आपका उससे कोई स्वार्थ ना जुड़ा हो? जब अभिराम को देखिए, तो उसके साथ जो दर्द छुपा है, उसको भी देखिए। लालच में आप मुनाफ़ा तो देखते हो। मुनाफ़े के साथ-साथ भी ज़रा नुकसान को भी देखो। इतना तो देख लेते हो कि मिल क्या रहा है। ये भी तो देख लो कि कीमत क्या दे रहे हो। जैसे ही दोनों को एक साथ देखोगे, वैसे ही दोनों से एक साथ छूट जाओगे। दूसरों के मुताबिक़ चलने से, जो मुनाफ़ा होता है, वो तो आप गिन रही हो पर उनकी नज़रों में जो समझदार बने रहने की जो कीमत है, वो गिनी कभी? ये जो दूसरा है, उसे जो मिलता है वो तो आप गिनते हो पर वो जो पॉउण्ड ऑफ़ फलेश (माँस का टुकड़ा) लेता है वो आप गिनते हो क्या?

सब सामने होता है। आप नौकरी भी करते हो, तो उसमें आपको जो मिलता है, उसे कंपनसेशन बोला जाता है। ईमानदारी की बात है कि तुम्हें पैसा तो दे रहे हैं पर ये तुम्हारा नुकसान करके दे रहे हैं। ज़िन्दगी का एक-एक पल जो ये तुमने लाखों खो दिए वो कभी गिनते हो क्या? ये तो गिन लेते हो कि ‘ये’ करके ‘ये’ मिल रहा है। ये तो नहीं देखते कि क्या खो रहे हो, उसको भी ज़रा देख लो ध्यान से। और सामने ही है, कहीं दूर नहीं है।अपने मन से ज़रा ईमानदारी से पूछिएगा, वो कहेगा, "सब दिखता है।" कुछ भी ऐसा नहीं है जो नहीं जानते आप। आपको अच्छे से पता है कि ये कितना घाटे का सौदा है। जिन तरीकों से हम जीते हैं, वो कितने घाटे के तरीके हैं, वो हमें अच्छे से पता है। उससे आप बात तो करिए दोस्त की तरह कि, "क्या हाल है बेटा?" फिर वो सब बताएगा। भुगतना तो उसे ही पड़ता है न, वो सब बताएगा, वो अच्छे से जानता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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