प्रश्नकर्ता: आचार्य जी हमारा एक महिलाओं का ग्रुप है जो वृक्षारोपण करता है, तो मेरा मन हुआ कि मतलब आपके बैनर के तले उनको तैयार करूँ। और उन लोगों ने पहला क्वेश्चन (प्रश्न) पूछा कि जो गुरु जी हैं वो ब्राह्मण हैं कि नहीं? तो मैंने कहा, अब तुम ये क्यों पूछ रही हो? जब मैंने आपका बताया कि आप बोलते हो कि, 'एक बच्चा अगर पैदा किया है तो कम से कम पॉंच हज़ार पेड़ लगाओ! वो यूज़ करता है पूरे जीवन भर में।' तो उन्होंने पहला क्वेश्चन पूछा कि आप ब्राह्मण हैं कि नहीं? तो जब मैंने बोला, ये क्यों पूछा, तो उन्होंने कहा, जितने ब्राह्मण नहीं थे वो तो सब अंदर चले गए। तो कह रहे थे कि जो ब्राह्मण नहीं होते उनकी जिंस ही ख़राब होती है।
आचार्य प्रशांत: बहुत बार इसका उत्तर दे चुका हूँ, ब्राह्मण होना कोई जिंस की बात नहीं होती है।
प्र: नहीं, जो गुरु अंदर गए हैं, उनका कहने का मतलब था, जितने भी … (आचार्य बीच में टोककर बोलते हैं)
आचार्य: अरे भाई! जब ब्राह्मण कोई जिंस से नहीं होता, तो दूसरी जाति भी जिंस से थोड़ी ही हो जाएगा! अंदर वाले हों चाहे बाहर वाले हों! क्यों, जेलों में ब्राह्मण नहीं बंद हैं?
प्र: ब्राह्मण नहीं हैं।
आचार्य: अच्छा! (श्रोतागण हँसते हैं) ये देखो! ये सब कुछ नहीं है। पैदा तो देह होती है, उसकी क्या जात? पैदा तो देह होती है, उसकी जात कहाँ है? और जाति तो दो ही होती है: एक वो जिसे ब्रह्म से प्रेम है, दूसरा वो जिसे ब्रह्म से कोई लेना देना नहीं। जिस किसी को भी ब्रह्म से प्रेम हो गया सो ब्राह्मण है। कबीर साहब से पूछोगे, साफ़ कहते हैं —"सोई बाहमन जो ब्रह्म विचारे।"
ब्राह्मण कौन? जो ब्रह्म का विचार करे। भगवद्गीता में साफ़-साफ़ बताया है कि ब्राह्मण कौन है, पंडित कौन है। साफ़ बताया है। कहते हैं, जो छोटे जलाशय को छोड़ कर के बड़े जलाशय, समुद्र की ओर चला जाए वो ब्राह्मण है। छोटा जलाशय समझ रहे हो? संसार, बड़ा जलाशय? ब्रह्म; वो ब्राह्मण है। कहीं ये कहा ही नहीं जा रहा है कि जन्मगत जाति है ब्राह्मण; जन्म से अनुगत नहीं होती हैं ये चीज़ें।
मेरे तो जो सबसे धुरविरोधी हैं, सब ब्राह्मण हैं। अगर मुझे दस गालियाँ आ रही होंगी, तो समझ लीजिए उसमें से आठ ब्राह्मणों की होंगी। और वो भी ये नहीं कि आठ ही ब्राह्मण हैं, वो भी बदल-बदल कर (दूसरी जाति के भी हैं)। पूरी कौम को मुझसे समस्या है। पता नहीं!
तो ये सब नहीं होता कि, आप शुक्ला जी के यहाँ पैदा हो गए थे या शर्मा जी के यहाँ पैदा हो गए थे तो ब्राह्मण हो गए; न ये होता है कि आपके उपनाम में ब्राह्मण तत्व नहीं दिखाई दे रहा तो आप ब्राह्मण नहीं हैं, ऐसा नहीं है।
उपनिषदों तक के सब ऋषि ब्राह्मण नहीं थे भाई! अब उपनिषद् का जो ऋषि है, उसको आप ब्राह्मण नहीं कहना चाहेंगे क्या? ब्राह्मण, जो ब्रह्म में जिए सो ब्राह्मण! जो ब्रह्म में नहीं जी रहा वो चाहे शुक्ला हो, चाहे मिश्रा हो, चाहे तिवारी हो, वो ब्राह्मण कहीं से नहीं है। जो ब्रह्म में नहीं जी रहा उसने अपना कुछ भी उपनाम लगा रखा हो, कुछ भी अपना वो जातिनाम लगाए, वो ब्राह्मण थोड़े हो गया।
तो उस दृष्टि से आज जितने भी ब्राह्मण घूम रहे हैं, उनमें से कोई एकाध ही ब्राह्मण होगा, और कोई नहीं है। जिसे ब्रह्म से प्रेम सो ब्राह्मण! भले ही उसका जातिनाम कुछ भी हो, कुछ भी हो। और यही नहीं, चाहे वो हिन्दू न हो तो भी वो ब्राह्मण है। अगर ब्रह्म से प्रेम है तो क्या फ़र्क पड़ता है कि आप ईसाई हो कि मुसलमान हो, आप फिर भी ब्राह्मण हो। और ब्रह्म से प्रेम नहीं है तो होंगे आप कुछ भी! उपाध्याय हों, भारद्वाज हों, त्रिपाठी हों क्या फ़र्क पड़ता है। भट्टाचार्य हों तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। (हँसते हुए)
ये अच्छे से समझ लीजिए, देह का एक ही धर्म होता है, क्या? खाना, पचाना, मौज मारना! बड़ी बदजात होती है देह, इसकी और कोई जात नहीं होती। इसकी क्या जात है? बदजात। तो ये जो बच्चा पैदा हुआ है न, बदजात है। आगे उसकी जाति क्या होगी ये उसके कर्मों, उसके चुनावों से निर्धारित होगा; जन्म से जाति नहीं निर्धारित हो जाती। जन्म से तो सब बदजात ही पैदा होते हैं।
बच्चे में कौन सा ब्राह्मणत्व आपको दिखाई देता है? वो पैदा होते ही टट्टी मारता है, ये ब्राह्मण का लक्षण है? वो पैदा होते ही गायत्री मंत्र बोलता है क्या? रो रहा है, 'हैं हैं हैं! खाना दो, खाना दो!' ये कौन सा ब्रह्म के प्रेम की बात है भाई? हाँ, आगे चलकर के हज़ार में से कोई एक होता है जिसमें ब्रह्म के लिए—ब्रह्म माने सच्चाई—जिसमें सच्चाई के लिए अनुराग पैदा होता है, उसको ब्राह्मण जानिए, बस वही ब्राह्मण है; चाहे उसके नाम के साथ जाति कुछ भी लगी हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई जाति लगी हो।
कबीर साहब ब्राह्मण नहीं थे क्या? वो नहीं ब्राह्मण हैं तो कोई नहीं ब्राह्मण है! रैदास ब्राह्मण नहीं थे क्या? रैदास नहीं ब्राह्मण हैं तो कोई नहीं ब्राह्मण है। लेकिन तथाकथित जो आज के ब्राह्मण हैं, वो कहेंगे, 'रैदास! रैदास तो चर्मकार थे न! जूता सिलते थे!' रैदास से बड़ा ब्राह्मण कोई नहीं है।
जो लोग बात करते हैं, आनुवांशिक योग्यता की, जेनेटिक सुपीरियरिटी या इनफीरियरिटी (आनुवांशिक श्रेष्ठता या हीनता) की, वो एक बात नहीं समझते—मैं बिल्कुल मानता हूँ कि नस्ली तौर पर कुछ लोग किसी खास काम के लिए बेहतर हो सकते हैं। आपको बास्केटबॉल टीम बनानी है तो उसके लिए यूरोपियन नस्ल के लोग शायद बेहतर होंगे, गोरखा नस्ल के लोगों से, क्यों?
श्रोतागण: ऊँचाई।
आचार्य: लेकिन उस काम का ताल्लुक बिल्कुल भौतिकता से है, बास्केटबॉल खेलने से है, ब्रह्म निर्वाण से उसका ताल्लुक नहीं है। भई, देह से, जिंस से, निश्चित रूप से हो सकता है कि कोई जाति, कोई नस्ल, दूसरे से किसी एक क्षेत्र में थोड़ी अग्रणी हो, ऐसा बिलकुल हो सकता है; लेकिन वो क्षेत्र कौन सा होगा? भौतिक होगा न। भौतिक क्षेत्र में तुम किसी दूसरे से आगे निकल भी गए तो ब्रह्म थोड़े ही पा जाओगे।
प्र: गैर-ब्राह्मण लोग माँसाहार करते हैं, इस कारण उनमें क्रूरता ज़्यादा रहती है।
आचार्य: बिल्कुल मैं मानता हूँ कि जो पशु का माँस खा रहा है वो क्रूरता दर्शा रहा है, लेकिन क्रूरता सिर्फ़ माँसभक्षण में थोड़े ही होती है। बहुत सारे लोग हैं, जो माँस नहीं खाते पर अतिक्रूर हैं। देखिए इन दो बातों में अंतर समझिएगा। अधिकांश लोगों का, जो शाकाहारी हैं, अधिकांश शाकाहारी लोगों का ज़्यादा-से-ज़्यादा ध्यान इस पर रहता है कि वो माँस न खायें; उनका ध्यान इस पर नहीं रहता कि जीवों के प्रति हिंसा न हो या क्रूरता न हो। उदाहरण के लिए, आप किसी रेस्टोरेंट में पहुँचें और आपका खाना आ गया है, उसके बाद पूछें, 'इसमें माँस तो नहीं है न! इसमें माँस तो नहीं है न!' तो आप किसके प्रति ध्यान दर्शा रहे हो? अपने प्रति या जानवर के प्रति? ध्यान से बताओ?
प्र: अपने प्रति।
आचार्य: 'मेरे मुँह में माँस न चला जाए। मेरा ताल्लुक इतना है, मेरे मुँह में न चला जाए।'
प्र: पाप न लग जाए!
आचार्य: 'मुझे पाप न लग जाए। मुझे साफ़ रहना है! मेरे मुँह में नहीं जाना चाहिए!' उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि जानवर किस प्रक्रिया से मारा जाता है और वो कौन सी जीवन पद्धति है जिसके कारण माँसाहार पनपता है। उनको व्यक्तिगत शुचिता से मतलब है; तो वो कहेंगे, 'भई हम जहाँ खा रहे हैं वहाँ माँस नहीं होना चाहिए, बगल के कमरे में है तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। घर में माँस पक भी रहा है तो हमारा बर्तन अलग होना चाहिए।' सबसे बड़ी हिंसा तो ये व्यक्तिपरकता हुई न! अधिकांश चाहे ब्राह्मण हों, चाहे जैन हों, उन्हें जीवों के प्रति हिंसा से कम सरोकार है, अपनी शुचिता से ज़्यादा, 'मेरे मुँह में नहीं जाना चाहिए'; बार-बार पूछेंगे, 'इसमें नॉन वेज तो नहीं है न? इसमें नॉन वेज तो नहीं है न?'
जानवर के लिए ये करुणा की उतनी बात नहीं है, ये ज़्यादा बात किसकी है? अपनी सफ़ाई की; हमारी देह साफ़ रहनी चाहिए। इसीलिए बुद्ध ने एक बड़ी विचित्र बात बोली थी, बुद्ध ने कहा था, 'जानवर अगर ख़ुद ही मर गया है तो खा लो कुछ नहीं हो गया। जानवर अगर ख़ुद ही मर गया है, तो खा लो; अब कोई हिंसा की बात नहीं है। हिंसा इसमें नहीं है कि तुमने खाया या नहीं, हिंसा इसमें है कि तुमने मारा कि नहीं मारा।' हालाँकि बुद्ध की उस बात को खूब विकृत किया गया। बौद्धों ने कह दिया कि बुद्ध ने कहा है कि, 'अगर तुमने नहीं मारा तो खा लो!'
श्रोतागण: कटोरे में मिल गया तो …
आचार्य: तो वो ये कहते हैं कि 'देखो बाज़ार में भी जो मिल रहा है माँस, वो हमने थोड़े ही मारा है, वो तो मरा ही हुआ है न। तो खा लो! बुद्ध ने ही यही तो कहा था कि, अगर मरा हुआ जानवर है, तो खा लेना।' तो बौद्धों ने माँसाहार इत्यादि ख़ूब शुरू कर दिया। पर बुद्ध जो बात कह रहे थे उसका मर्म समझो। बुद्ध कह रहे थे, जानवर को बचाने की कोशिश करो। एकबार वो मर ही गया, अब तुम क्या कह रहे हो कि इसका माँस खाना है कि नहीं खाना है। पूरा ध्यान इस पर दो कि जानवर बचे। मर गया उसके बाद तो अब तुम अपना व्यक्तिगत स्वार्थ और हित को देखते हुए कह रहे हो कि, नहीं खाऊँगा, नहीं खाऊँगा! खाऊँगा तो मुझे पाप लग जाएगा। ये तो तुम्हारे अपने व्यक्तिगत नैतिकता के पैमाने हैं, इसमें अध्यात्म कुछ नहीं है।
हिंसा सबसे ज़्यादा तब है जब आप सिर्फ़ अपनी फ़िक्र करो। और ये भी एक तरह की हिंसा ही है कि, 'मुझे नहीं खाना, मुझे नहीं खाना, देखना मेरे खाने में वो माँस वाला चम्मच न आ जाए!' ये भी हिंसा ही है। सबसे बड़ी हिंसा अहंकार है न। ये भी अहंकार है, कि हम माने ‘मैं’, कि, 'मुझे अपनी सफ़ाई का ख्याल रखना है, अपनी सफ़ाई का! बाकी जानवर कहीं कट रहा है तो कोई बात नहीं, बस मेरे खाने में नहीं आना चाहिए।' और बुद्ध जो करुणा की मूर्ति थे, उन्होंने कहा, 'पूरी कोशिश करो कहीं किसी जानवर पर तुम्हारी वजह से हिंसा, क्रूरता, अत्याचार न हो। लेकिन अगर मर ही गया है जानवर, अपनी मौत ख़ुद ही मर गया है, तो खा लिया तुमने तो भी कुछ नहीं हो गया।'
मैं माँसाहार की वकालत नहीं कर रहा! मैं बस अंतर समझा रहा हूँ वास्तविक अहिंसा में और नैतिकता केंद्रित अहिंसा में। अधिकांश लोग जो शाकाहारी हैं, वो शाकाहारी इसलिए नहीं हैं कि उनमें बहुत करुणा है या प्रेम है; करुणा और प्रेम कहीं से नहीं है। उनके जीवन को देखो। उनका जीवन रंजिश से, संदेह से, हिंसा से, क्रोध से लबलबा रहा है बिलकुल; जीवन में हिंसा कूट-कूट कर भरी हुई है, लेकिन शाकाहारी हैं। अब ये बात कितनी अजीब है! दूसरा कोई इंसान होगा, उस पर चढ़ बैठेंगे। दूसरे इंसान के प्रति, ज़िंदा इंसान के प्रति सहृदयता नहीं, सहानुभूति नहीं, लेकिन शाकाहारी हैं। ये क्या बात है भई?
शाकाहारी होने भर से अहिंसक नहीं हो गए आप! अहिंसा बहुत दूसरी चीज़ है, बहुत गहरी चीज़ है। और मेरा ये बिल्कुल अर्थ नहीं है कि माँसाहारी होकर के भी आप अहिंसक हो सकते हैं, ना। जो माँसाहारी है वो तो अहिंसक नहीं ही हो सकता। मेरी बात समझिएगा — जो मांसाहारी है वो तो हिंसा कर ही रहा है, मैं कह रहा हूँ, शाकाहारी होने भर से आप अहिंसक नहीं हो गए। ये बात स्पष्ट हो रही है? जो माँसाहारी है वो तो निश्चित रूप से हिंसक है, लेकिन जो शाकाहारी है बहुत संभावना है कि वो भी हिंसक ही हो; क्योंकि अहिंसा शाकाहार से कहीं ज़्यादा गहरी चीज़ है। माँसाहार छोड़ना तो ज़रूरी है ही, लेकिन सिर्फ़ शाकाहार से भी काम नहीं चलेगा, और आगे जाना पड़ेगा।
और जो बात मैंने बुद्ध के संदर्भ में कही, उसका उपयोग करके माँस खाना मत शुरू कर दीजिएगा। बहुत बौद्धों ने यही किया; ये न हो कि मुझे पछताना पड़े कि मैंने उदाहरण दिया ही क्यों? मैं कह रहा हूँ — माँस तो छोड़िए ही, लेकिन शाकाहारी बनने भर से ये मत समझ लीजिएगा कि आप अहिंसक हो गए, शाकाहारी होने के बाद भी बहुत कुछ और जब हो जीवन में, तब समझिए कि अहिंसा है; नहीं तो बड़े-बड़े शाकाहारी हैं जो महाहिंसक हैं।
श्रोतागण: हिटलर भी शायद शाकाहारी था।
आचार्य: हिटलर शाकाहारी था। बात हिटलर की भी नहीं है, आम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखिए न, बहुत उदाहरण मिल जाएँगे; कि माँस छोड़िए, अंडा छोड़िए, घर में प्याज-लहसुन भी नहीं बनता, लेकिन आप साहब का व्यवहार देखें तो वो हिंसा से भरा हुआ है। तो शाकाहार भर से काम थोड़ी चल जाएगा।