भारतीय बाबा और अमेरिकन डॉलर || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

13 min
29 reads
भारतीय बाबा और अमेरिकन डॉलर || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी अभी आपने जो बताया, आपके पास आने से पहले, जो भी समझा, जो भी पढ़ा था तो उसमें ये था कि कामना की पूर्ति करते-करते मुक्ति तक पहुँच जाएँगे। लेकिन जब आप, आपके प्रकाश में ये पता चला कि कामना की पूर्ति ये जानकर कि हो नहीं सकती, छूट कर, तब पहुँचेंगे। लेकिन जो मन है वो उधर ही खींचता है कि जो पहला समझा था वो सही है पता नहीं कहाँ नये जा रहे हो?

आचार्य प्रशांत: कृष्ण क्या कहते हैं, मन से ऊपर कौन है? बुद्धि। तो मन तो खींचेगा ही कामना की ओर। प्राकृतिक उसका ये गुण है। पर बुद्धि तो अब बताएगी न। देखिए इधर पिछली एक-दो शताब्दियों में आध्यात्मिक क्षेत्र में एक नये और अद्भुत झूठ ने प्रवेश किया। ये पिछले क़रीब सौ सालों की ही बात है। और इस झूठ के प्रवेश करने में भारत के पश्चिम से सम्पर्क का बहुत बड़ा हाथ है। वो झूठ ये है कि कामना की पूर्ति करते-करते एक दिन तुम कामना के पार निकल जाओगे।

ये झूठ क्यों आया इसके पीछे कोई आध्यात्मिक कारण नहीं है, आर्थिक कारण है। आप समझिएगा। देखिये, अंग्रेज़ भारत आये और उसके बाद से आध्यात्मिक क्षेत्र में भी भारत का पश्चिम से सम्पर्क बढ़ा। और वो जो सम्पर्क था, वो अचानक सघन हो गया स्वामी विवेकानन्द के साथ। ये इतिहास हम जानते हैं सब, है न?

अब ये जिन दो इकाइयों में सम्पर्क हो रहा है वो कौन हैं, कैसी हैं? समझिए। भारतीय आध्यात्मिक लोग हैं और उधर पश्चिम का औद्योगिक समुदाय है, और दोनों की आर्थिक स्थिति में कितना अंतर है? ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज से करीब डेढ़-सौ साल पहले का हाल सोच लीजिए। अब सब लोग जो अपनेआप को आध्यात्मिक बोलते हैं उनमें विवेकानन्द जैसी ऊँचाई नहीं होती। विवेकानन्द पुल बना गये। उन्होंने दिखा दिया कि एक भारतीय योगी जब अमेरिका जाता है और यूरोप जाता है तो वो लोग उसको सिर-आँखों पर बिठाते हैं। बड़ी प्रसिद्धि मिलती है, बड़े अनुयायी मिलते हैं। और अगर धन ही कमाना तुम चाहो तो धन भी बेशुमार मिलता है। ये स्वामी विवेकानन्द के उदाहरण से बिलकुल स्पष्ट हो गया। अब स्वामी जी तो बहुत लम्बा जिये नहीं। वो तो अपनी ये लीला पूरी करके अड़तीस की उम्र में ही विदा हो गये।

उसके बाद जितने ऐसे भारतीय आध्यात्मिक गुरु वगैरह आये जिन्होंने पश्चिम से सम्पर्क रखा, दुर्भाग्य से इनमें से ज़्यादातर वो थे जिनकी नज़र पश्चिम की दौलत पर थी। तो बहुत सारी किताबें भी सिर्फ़ इसलिए लिखी गयी ताकि पश्चिम को लुभाया जा सके। आप समझ रहे हैं? नहीं तो उन्नीस-सौ-बीस, उन्नीस-सौ-तीस में एक भारतीय योगी अंग्रेज़ी में अपनी आत्मकथा क्यों लिखेगा?

और इस तरह की बातें क्यों करी जाएगी कि फ़लाने बाबाजी हैं और वो जीसस क्राइस्ट के साथ बैठकर मंत्रणा कर रहे हैं? ये भारतीय देवी-देवताओं के समुदाय में अचानक से जीसस क्राइस्ट का प्रवेश कैसे हो गया? कोई कमी तो थी नहीं यहाँ। यहाँ तो करोड़ों पहले ही थे। क्राइस्ट कहाँ से आ गये? और क्राइस्ट इसलिए नहीं आ गये क्योंकि भारतीय सन्तों के मन में अचानक क्राइस्ट के प्रति आदर भाव आ गया था। क्राइस्ट इसलिए आ गये क्योंकि क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन्स के पास पैसा बहुत था। तो आपको अगर उनका पैसा चाहिए तो आपको उनके ईश, ईशु को भी अपने समुदाय में लपेटना पड़ेगा। और इस तरह की बातें करनी पड़ेंगी जो उन लोगों को रुचे। उनको कौनसी बातें रुचेगी?

भूलिए नहीं कि वो एक संपन्न औद्योगिक समाज है और वहाँ लगातार कामनापूर्ति ही की जा रही है। बेशुमार धन है वहाँ पर। आप वहाँ पर जा करके त्याग का, समर्पण का सन्देश नहीं दे सकते। तो फिर एक बहुत अनहोनी घटना घटी। अनहोनी घटना ये थी कि भारतीय अध्यात्म के कोष से रिनन्सिएशन (त्याग) शब्द को निकाल दिया गया। त्याग शब्द को निकाल दिया गया। जबकि अध्यात्म का मतलब ही होता है छोड़ना— मूर्खता को छोड़ना।

न सिर्फ़ रिनन्सिएशन शब्द को निकाल दिया गया बल्कि बहुत चौड़ के साथ, बहुत ठसक के साथ कहा गया कि भोग ही योग है । और ये बात न किसी ग्रन्थ ने कही है, न भारतीय परम्परा ने कही है। और जैसे ही ये कह दिया गया कि भोग ही योग है और किसी तरह के त्याग वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं है तुम तो खूब भोगो, वैसे ही खूब प्रसिद्धि भी मिलने लगी क्योंकि लोग सुनना ही ये चाहते थे, ख़ास तौर पर पश्चिम में। आप समझ रहे हैं बात को।

देखिए आप एक ग़रीब को त्याग का पाठ पढ़ाए उसे बहुत तकलीफ़ नहीं होगी। क्यों नहीं होगी? उसके पास कुछ है ही नहीं। वो कहेगा ये तो ठीक बात है। ज़्यादा कुछ है ही नहीं और हमें बताया गया कम में गुज़ारा करो, दिल को बड़ा सुकून मिला। पर आप जा रहे हैं एक उद्योगपति के पास पश्चिम में, अमेरिका में और आप उससे अगर रिनन्सिएशन की बात करने लग जाएँगे तो उसका मुँह बिगड़ जाएगा और वो तुरंत आपको बाहर निकाल देगा।

लेकिन वो जो उद्योगपति है वो ये भी चाहता है कि उसको किसी तरीक़े का आध्यात्मिक विकास भी मिल जाये, स्पिरिचुअल अपलिफ्टमेंट (आध्यात्मिक उत्थान)। वो कहता है बाक़ी सब चीज़ें तो मिल गयी हैं एक ये चीज़ बाक़ी है। कहीं ऐसा न हो कि हैल (नर्क) में सड़ना पड़े मृत्यु के बाद। भाई हैवन-हैल, लाइफ आफ्टर डैथ ( स्वर्ग-नर्क, मृत्यु के बाद जीवन) इस तरह का जो कॉन्सेप्ट है वो तो ईसाइयत में भी होता है, तो डरते तो वो भी हैं। तो उनको भी कुछ आध्यात्मिक उन्नति चाहिए, लेकिन बिना अपने सांसारिक सुख छोड़े और सांसारिक सुख वो अपने छोड़ नहीं सकते थे क्योंकि सांसारिक सुख उनके पास बहुत थे।

तो भारतीय बाबाओं ने बड़ा अद्भुत तरीक़ा निकाला उन्होंने कहा हम इनको बोलेंगे ही नहीं छोड़ने के लिए। हम इनको बोलेंगे तुम खूब भोगो, खूब भोगो। और जैसे ही बोला खूब भोगो, खूब भोगो, वैसे ही डॉलर बरसने लग गये बाबाओं के ऊपर। वो अमेरिका में उन्होंने अड्डे बना लिये। सोचिये तो, ऐसा क्यों हुआ कि पिछले सौ सालो में इतने भारतीय बाबा लोग सब अमेरिका ही जाकर बस गये। और अभी भी सब उठकर जाते हैं।

जितनी भी भारतीय प्रमुख आध्यात्मिक संस्थाएँ हैं, फाउंडेशन्स हैं इन सबको आपको क्या लग रहा है, कहाँ से धन आ रहा है? सब विदेश से ही आ रहा है। और वहाँ पर आप ये नहीं बोल सकते कि छोड़ो, कि ये सब मोह-माया है, धन वृथा है, माया मिथ्या है। वहाँ पर नहीं बोल सकते आप। बोल सकते हो पर बोलने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए, बड़ी हिम्मत चाहिए, और बड़ा निस्स्वार्थ होना चाहिए। आपके भीतर ही अगर स्वयं कुछ खोट है तो आप ये सन्देश दे ही नहीं पाओगे कि साहब आप जिन डॉलरों में उलझे हुए हो वो डॉलर आपके काम नहीं आ रहे।

आप ये सन्देश नहीं दे पाओगे। तो आप सन्देश पलट देते हो, आप कहते हो, नहीं, तुम भी डॉलर से मज़े करो और दस प्रतिशत इधर भी दे दिया करो। तो ये चला है। अब वो सन्देश जो आज से पचास-साठ साल पहले अमेरिका के लिये वैध था वो अब भारत के लिए भी बड़ा प्रासंगिक होता जा रहा है। क्योंकि भारतीय समाज भी अब धीरे-धीरे आर्थिक रूप से ऊपर उठता जा रहा है। तो वो ही बातें छाती जा रही हैं, छाती जा रही हैं।

नहीं तो आप पहले देखें तो साधुता का या सन्तत्व का मतलब ही क्या होता था? कि दुनिया के माया-मोह, राग-रंग की असलियत जान ली और समझ लिया कि आनन्द और रस भीतर मिलता है, वहीं भीतर मज़े करो। वैसी साधुता, वैसा सन्तत्व आपको अब कम देखने को मिलेगा। अब देखने को क्या मिलता है, अध्यात्म के नाम पर? वो भी एक कॉर्पोरेट एंटरप्राइज़ हो चुका है। बात समझ रहे हैं?

और वो कॉर्पोरेट एंटरप्राइज़ हो ही नहीं चुका है, वो सबको प्रेरणा भी इसी बात की दे रहा है कि तुम और ज़्यादा कंज़म्प्शन (भोग) करते चलो। बल्कि अगर तुम कम कंज़म्प्शन करते हो तो बेवकूफ़ हो तुम। अरे! तुम पीछे रह गये, तुमने नहीं कंज़म्प्शन किया। मज़ा तो रस में है, राग में है, रंग में है, तुम पीछे रह गये। बात समझ में आ रही है? तो ये है पूरा खेल।

विवेक का मतलब होता है कि स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) और इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) को आप अलग-अलग देख पाएँ थोड़ा। कभी ध्यान किया करिए न, बैठा करिए । जो चरित्र ही बताया जाता है आपको, बाबा फ़रीद का, कबीर साहब का, बाबा नानक का, देखिए उनका चरित्र कैसा था, उनका जीवन कैसा था? और फिर पूछिए अपनेआप से कि उनसे कोई बात छूट गयी थी क्या? जो अब नयी-नयी आजकल के बाबाओं को पता चली और वो बता रहे हैं। और उनसे कोई बात छूट नहीं गयी थी तो उनकी बात में और आजकल जो उपदेश दिये जा रहे हैं उनमे इतना अंतर क्यों है?

सत्य तो अचल होता है न? या समय के साथ बदल जाएगा वो भी? भाषा मैं समझता हूँ बदल सकती है, मुहावरे बदल सकते हैं, उदाहरण बदल सकते हैं, सच्चाई तो नहीं बदल सकती न? तो शिक्षाओं का जो मूल है, केन्द्र, कोर वही कैसे बदल गया? और अगर वो बदल गया है तो किस पर भरोसा करना है? जाँचिए, परखिए। क्योंकि दो सच तो नहीं हो सकते, सच तो एक होता है। एक तरफ़ उनकी बात है और एक तरफ़ इनकी बात है। और उनकी और इनकी बात में विरोध ही नहीं है, वैपरीत्य है अलग, बिलकुल छत्तीस है। तो कौनसी बात सुननी है? इस पर थोड़ा विचार किया करिए।

बाबा फ़रीद हों, कबीर साहब हों, तुलसीदास हों, सबके बारे में प्रसिद्ध है कि इनकी आँखों से आँसू ही आँसू झरे, रात-रात भर जग कर रोये। और आज अगर आपको अध्यात्म के नाम पर बोला जा रहा है कि लिव लाइफ फुल्ली एंड लाफ, लाफ एंड लाफ (जियो ज़िंदगी पूरा खुलकर और हँसो, हँसो और हँसो) तो आपको पूछना पड़ेगा न कि ये बात क्या है? सन्देश इतना कैसे बदल गया? और उन सन्तों को कोई बीमारी लगी थी क्या पुराने कि वो रोते रहते थे हर समय और आजकल ही नया-नया बोध उदित हुआ है कि ये कहते हैं हँसो, हँसो, खूब हँसो। और इनकी सब तस्वीरें भी हैं हँसते हुए ही हैं और राग-रंग, भोग विलासिता में डूबी हुई।

एक वो होते थे मुनि कि वो पैदल ही भर नहीं चलते थे, वो नंगे पाँव पैदल चलते थे। और नंगे पाँव ही पैदल नहीं चलते थे, वो पैदल चलते-चलते भी अपने आगे एक पत्ता लेकर के ऐसे झाड़ते चलते थे। क्यों झाड़ते चलते थे? कि आगे कोई छोटा-मोटा कीड़ा भी हो तो पत्ते से उसको हटाते चलें। ठीक है आप मान सकते है कि अतिशयोक्ति थी। आप ये भी मान सकते हैं कि समय बदल गया है अब पैदल चलने की ज़रूरत नहीं। चलो पैदल चलने की ज़रूरत नहीं समझ में आता है कि आज आपको कहीं से कहीं जाना है तो आप ट्रेन से जा सकते हैं, आप फ्लाइट से जा सकते हैं, ठीक है। पर आप अगर पाएँ कि सौ गाड़ियाँ हैं, या सौ लाख की बाइके हैं तो? ये कैसे हो गया कि एक तो थे जो मुनि कहलाते थे वो पैदल नंगे पाँव चल रहे हैं वो भी ऐसे-ऐसे रास्ता झाड़ते और इधर नज़ारा ये है कि अपना प्राइवेट जेट रखा हुआ हैं और अपनेआप को ऋषि बोल रहे हैं। ये कैसे हो गया?

कोई आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो गयी है, इसके पीछे कारण मात्र आर्थिक है। इकोनॉमिक्स है ये सबकुछ। और उसको समझना ज़रूरी है। और इस इकोनॉमिक्स को लाने वाला रहा है पश्चिम। ये जो पुल जुड़ा भारत का पश्चिम से उससे इस नये तरीके के अध्यात्म का जन्म हुआ है। क्योंकि ये ही बिकता है पश्चिम में।

पश्चिम में आप दो शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अपनी यूरोप यात्रा के दौरान पश्चिम में मैं भी मिला लोगों से। उसके बाद ऋषिकेश में हर साल जाड़े में शिविर लगते ही हैं, आप भी आईं ही हैं उसमें। वहाँ पर भी पश्चिम से आये लोग रहते हैं। उनके सामने दो शब्द हैं जिनका आप इस्तेमाल नहीं कर सकते, पहला रिनन्सिएशन , दूसरा सरेंडर (समर्पण)। तो ये एक नये तरीक़े का अध्यात्म फिर गढ़ा गया है जिसमें ये दो शब्द न हों। क्या? रिनन्सिएशन और सरेंडर, क्योंकि ये ही दो चीज़ें हैं जो अहंकार को सबसे बुरी लगती हैं।

तो अहंकार को क्या ठीक लगता है? भाई हमें मेडिटेशन की नयी-नयी विधियाँ बता दो, तो वो सब आजकल खूब चल रही हैं। और हमें खुश रहने के तरीक़े बता दो। और हमें बता दो कि कौनसा ध्यान करने से नींद अच्छी आयेगी, आएगी कौनसा ध्यान करने से हाज़मा अच्छा हो जायेगा जाएगा, कौनसा ध्यान करने से तनाव कम हो जाएगा, स्ट्रैस लेवल्स कम हो जाएँगे, ये सब बता दो ये खूब चलेगा। पर ऐसी कोई बात मत बताना अहंकार को जिसमें कहा जा रहा है उससे कि समर्पण करो, सरेंडर, ये वो नहीं सुन सकते। और ऐसी कोई बात मत बताना जिसमें कहा जा रहा है त्याग करो, अनासक्त हो जाओ। रिनन्सिएशन शब्द वो नहीं सुन सकते।

तो भ्रमित मत हो जाया करिए। पिछले सौ सालों में, दो सौ सालों में ऐसा कुछ नया नहीं बोल दिया गया है, जो उपनिषदों से ऊपर का होगा। मौलिक ग्रन्थ जो हैं, अगर ग्रन्थों को ही पढ़ना है तो उनके पास जाइए। और ग्रन्थों को नहीं पढ़ना तो अपनी खोज पर निकलिए। पर अगर ग्रन्थों को ही पढ़ना है तो जो नयी-नवेली जो किताबें आ रही हैं अध्यात्म के नाम पर, और जो नये-नवेले गुरुओं ने अपने नये सिद्धान्त उछाले हैं, इनसे तो बहुत ही बचकर रहिए। ये सब बाज़ारू हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories