बच्चों में ज़िंदगी होनी चाहिए, अनुशासन नहीं

Acharya Prashant

8 min
1.1k reads
बच्चों में ज़िंदगी होनी चाहिए, अनुशासन नहीं
हर बच्चा विद्रोही ही पैदा होता है; ये आदर, सम्मान, संस्कृति, सभ्यता, तमीज़, तहज़ीब — ये सब जो शब्द हैं, बच्चों को बचाकर रखो इनसे। उसके ऊपर नियम-कायदे मत लगाइए — “यहाँ बैठो, ऐसे करो, चलो-चलो, सीधे हाथ से खाना खाया करो।” बच्चों में ज़िंदगी होनी चाहिए, अनुशासन नहीं; प्राण होना चाहिए। बच्चा चाहिए एकदम जिसमें भीतर ज़िंदगी इतनी है कि छलक रही है, बाँधें नहीं बंध रहा, समेटे नहीं सिमट रहा — ऐसा होना चाहिए बच्चा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा ये प्रश्न था कि मेरा एक जगह पर मन क्यों नहीं लगता है? जैसे मैं पढ़ाई करती हूँ, तो उस समय भी मेरा मन नहीं लगता है। तो मैं अपना मन एक जगह पर कैसे लगाऊँ?

आचार्य प्रशांत: ये तो विकट प्रश्न है, इसका क्या? बेटा, तुम्हारी उम्र में मन एक जगह लगना भी नहीं चाहिए। तुम्हें तो बहुत-बहुत सारे रास्ते, विकल्प, चुनाव दिखाई देने चाहिए और तुम्हें सब पर प्रयोग करना चाहिए, सबको आज़माना चाहिए। क्यों कोई तुम्हारे ऊपर चढ़कर बोले कि ये जगह है, इसी विषय में मन लगाओ। क्यों बोले? हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि तुमको दस चीज़ें दिखाई गईं, उनमें एक पर, दो पर तुमको प्यार आ गया और वहीं जाकर तुम्हारा मन बैठ गया, वो अलग बात है। पर ज़बरदस्ती नंबरों के लिए, माँ-बाप की इज़्ज़त के लिए यहाँ भी मन लगाओ, वहाँ भी मन लगाओ, मन है कि बाज़ार है कि वहाँ कुछ भी लगा दो?

समस्या सिर्फ़ तब होती है जब जो चीज़ आप जानते हो कि सही है और सच्ची है, आप वहाँ भी मन न लगाओ, ये समस्या है। पर ये तो कोई बात नहीं है कि कहीं भी मन लगा दो। क्यों लगा दें भाई? ये क्या आग्रह है? ये भी वही पुरानी बात है न, ये फलानी चीज़ है, इसमें मन लगाना ही चाहिए। नहीं लग रहा तो नहीं लगाएँगे। कौन सा ये कर्तव्य है? किसकी ये देवज्ञा है कि हर जगह मन लगाओ ही लगाओ? नहीं लगाना भाई। नहीं लगाना, तो नहीं लगाना।

बच्चे हैं, देख रहे हैं, दुनिया समझ रहे हैं। देखते-समझते कुछ मिलता जाता है जो हमारी जिज्ञासा, हमारी निष्ठा का पात्र होता है, इस लायक होता है कि उससे मन जोड़ा जाए। वहाँ मन ज़रूर लगाते हैं। वहाँ तुम मन नहीं लगाओगी तो मैं कान पकड़ूँगा तुम्हारे। पर वहाँ मन लगाने के लिए पहले वो मिलना भी तो चाहिए ना। वो मिलेगा कैसे अगर हर ओंडी-पोंडी जगह तुम मन ही लगा बैठोगे। असली चीज़ कैसे मिलेगी? अगर सब नकली चीज़ों में जाकर के बैठ जाओगी, निवेशित हो जाओगी, वहीं ठहर जाओगे।

जो फ़ालतू जगहों पर ठहर गया, उसकी तो यात्रा ही ख़त्म हो गई न। वो अब किसी अच्छी, सही मंज़िल तक भी कैसे पहुँचेगा?

रुकने को मैं उनको बोलता हूँ जिनको कुछ ऊँचा मिल गया हो। कहता हूँ, जब मिल जाए तो रुक जाना वहाँ पर, मन को वहीं रोक देना, एकदम वहीं रोक देना जब कुछ ऊँचा मिल गया हो। पर जिनको नहीं मिला है, उनके लिए तो चरैवेति चरैवेति — तुम तो बढ़ो, आगे बढ़ो और प्रयोग करो।

अच्छा, अभी बोल रहा हूँ तो सुन रही हो या पाँच–सात और बातें सोच रही हो? सुना? (प्रश्नकर्ता हाँ में सिर हिलाते हुए) तो मन तो लगता है। मन में तो कोई समस्या नहीं। अहंकार तो बेचारा पुराना आग्रही है, पुराना जो भी बोल लो, प्यासा है, प्रेमी है। उसको कुछ ऐसा दो तो सही जो सचमुच उसको शांत कर सके। वो ठहरता है।

हाँ, तुम उसको उल्टी–पुल्टी चीज़ें, तुम विषयों के तौर पर परोस रहे हो और ऊपर से ये उम्मीद है, कि “यही है, और तेरा ये कर्तव्य है कि तू इन्हीं चीज़ों पर ठहर जाए।” तो ये तुम उसको फ़ालतू के कर्तव्य दे रहे हो। हमने भी वो सब कर्तव्य स्वीकार किए थे। अनावश्यक कर्तव्य हैं वो, झूठे कर्तव्य हैं वो, कर्तव्य नहीं हैं बंधन हैं वो। हमने भी वो सब स्वीकार किए हैं, अपने बच्चों पर भी डालते हैं, कि “तुम भी ये करो, तुम भी वो करो, ये भी करो, वैसा करो।”

बच्चे से ज़रूर पूछें कि इस चीज़ के साथ तुम समय, ऊर्जा क्यों नहीं लगा रहे हो? पर उसी चीज़ के लिए पूछें, जिस चीज़ को बच्चे ने स्वयं स्वीकार किया है कि वो चीज़ अच्छी है, सुंदर है, सच्ची है। तब पूछिए, कि तुम स्वयं ही मानती हो न कि ये चीज़ तुम्हारे लिए अच्छी है, जब तुम ख़ुद ही मानती हो, तो अब इसमें तुम्हारा मन क्यों नहीं है? ये सवाल अब ठीक है।

पर आप कुछ भी उसको टीवी खोल दिया, कोई कार्यक्रम दिखा रहे हो, क्यों? क्योंकि किसी ने बता दिया है कि ऐसे कार्यक्रम बच्चों को देखने चाहिए। वो उस बच्चे का उससे कोई रिश्ता नहीं बन रहा, वो नहीं देखना चाहता, आप ज़बरदस्ती कर रहे हो, “मन लगा, मन लगा।” उसका लग नहीं रहा मन। और हम इतने अच्छे लोग हैं या इतने बुद्धिमान तो हैं नहीं कि हमने जो व्यवस्था बनाई है, उसमें हम बच्चों को बहुत ऊँची सामग्री ही परोसते हों। ऐसे है क्या? तो हम जो सामग्रियाँ परोसते हैं, उसमें अगर बच्चों का मन नहीं लगता तो ये क्या अनिवार्यतः बुरी बात है? ये तो शायद शुभ बात है। हमारी इस बनाई दुनिया में, हमारी व्यवस्थाओं में अगर बच्चों का मन नहीं लग रहा तो ये तो शुभ बात है न, शुभ बात है न?

बेटा, मेरा भी नहीं लगता था मन, लग गया होता मेरा मन तो फिर। लोकधर्म ने क्या सिखा दिया है? “मन को अनुशासन में रखो।” ये अनुशासन नाम की चीज़ ही घटिया है। स्कूल में जाओ, “आपका बच्चा बहुत डिसिप्लिन्ड है” ये बहुत ख़तरनाक बात बोल दी है टीचर ने।

बच्चों में ज़िंदगी होनी चाहिए, अनुशासन नहीं, प्राण होना चाहिए। बच्चा चाहिए एकदम जिसमें भीतर ज़िंदगी इतनी है कि छलक रही है, बाँधे नहीं बंध रहा, समेटे नहीं सिमट रहा, ऐसा होना चाहिए बच्चा।

“नहीं, बहुत डिसिप्लिन्ड है।” मिसेज़ खन्ना एकदम खुश हो गई, डिसिप्लिन्ड है। मिसेज़ खन्ना जैसे आप, चलो बोल ही देता हूँ, मरी हुई हो वैसे ही बच्चे को भी मार रही हो तुम, डिसिप्लिन कर–करके। बड़ा अच्छा लगता है, वो उसको बिल्कुल मूर्ति बना दिया है पत्थर की। वो ऐसे, “अंकल जी नमस्ते! और भगवान जी की जे-जे!” देखा कितना…

और जो थोड़े दो–चार अभी कम मुर्दा हुए होते हैं, उनकी शामत आ जाती है। “खन्ने का पूत, देखा कितना वेल-मैनर्ड था, और ये जहाँ जाता है लोट जाता है। वहाँ भी जाकर के खन्ना को नमस्ते करने की जगह उनके कुत्ते के साथ खेल रहा था।” मैंने पूछा, “अंकल जी के पास क्यों नहीं आते? तो बोला, कुत्ता बेहतर है। इंसल्ट और करवा दी, बदतमीज़।” हमें ऐसे ही बदतमीज़ चाहिए। आ रही है बात समझ?

खन्ना जी से बेहतर तो सचमुच कुत्ता है न। आप किसी के घर जाएँ, खन्ने के, और आपका बच्चा खन्ने को छोड़कर कुत्ते के साथ खेले, कितनी सुंदर, अप्रतिम घटना है, अपूर्व। पर आपका चेहरा लाल हो जाएगा, इज़्ज़त साफ़ हो जाएगी आप कहो, आईप्प्! और खन्ना और खन्नी दोनों ऐसे कहेंगे, “नहीं, नहीं कोई बात नहीं, आजकल तो बच्चे बदतमीज़ होते ही हैं।” और आप और लाल हो जाओगे कि ये देखो, कितनी घोर मेरे साथ बेइज़्ज़ती हो गई।

अरे हमारे साहब बोल गए जब, “देवतन से कुत्ता भला,” तो खन्ना से कुत्ता भला क्यों नहीं हो सकता? है न? बाहर से भले ही मृदुल रह लो, पर भीतर से तो सबको घोर बदतमीज़ ही होना चाहिए। आ रही है बात?

हाथ-पाँव फेंकने से कोई फ़ायदा नहीं है। मैं उस वाली बदतमीज़ी की बात नहीं कर रहा हूँ कि बगल में बैठे हो, ऐसे करके बड़ा हाथ उसके मुँह पर मार दिया और देख भी नहीं रहे उसको। क्यों मार दिया? बोले क्या, “आचार्य जी ने, बदतमीज़ी करो।”

ये आदर, सम्मान, संस्कृति, सभ्यता, तमीज़, तहज़ीब — ये सब जो शब्द हैं न, बच्चों को बचाकर रखो इनसे।

हर बच्चा विद्रोही ही पैदा होता है, क्योंकि आपने उसके साथ कुछ गलत किया है। क्या गलत किया है? पैदा किया है। तो उसके भीतर बदतमीज़ी होनी चाहिए। उसके ऊपर नियम-कायदे मत लगाइए, “यहाँ बैठो, ऐसे करो, चलो–चलो, सीधे हाथ से खाना खाया करो।”

न सीधे से खाएँगे, न उल्टे से, ऐसे भी खा सकते हैं (सीधे मुँह से उठाकर)। हमें देखने तो दो कि गाय कैसे खाती होगी। मेरा सही था, “मैंने कहा, मैं बैटिंग राइट हैंड करूँगा, बॉलिंग लेफ़्ट हैंड करूँगा,” करो। “खाना इस हाथ से खाऊँगा, कंघी इस हाथ से करूँगा,” करो ना। इधर की सुनूँगा, ना इधर की सुनूँगा। मैं दोनों, इधर से भी चलाता हूँ, इधर से भी, करो।

ये शुरू में अच्छा लगता है, वेल मैनर्ड किड, यही है जो आगे जाकर के फिर श्रीकृष्ण के ख़िलाफ़ खड़ा होता है। क्योंकि तुमने उसको सिखा दिया है समाज के साथ खड़ा होना। श्रीकृष्ण के साथ तो कोई विद्रोही ही खड़ा होगा, बदतमीज़। और मैं सिर्फ़ बच्चों की बात नहीं कर रहा, मैं बच्चों की मम्मियों की भी बात कर रहा हूँ। जैसे वेल मैनर्ड किड्स होते हैं, उतनी वेल मैनर्ड उनकी मम्मियाँ होती हैं। बिल्कुल ऐसा लगता है, सुशीला नारी। ये बहुत हो गया सुशीला वग़ैरह, लाल, पीला चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories