प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, मेरा नाम प्रतीक है महाराष्ट्र से हूँ। सर, जैसे हम देखते हैं कि प्रकृति हमसे प्रकृति को आगे बढ़ाना चाहती है। वो सब जानवर वगैरह, पेड़-पौधे इनसे रिप्रोडयूस (पुनरुत्पादन) करती है लेकिन जब हम देखेंगे तो हिन्दू धर्म वगैरह नहीं, मानव धर्म की तरह देखेंगे। जैसे हम इंसान हैं तो हमारे पास एक विकल्प है, हम वो आगे बढ़ाएँ या न बढाएँ तो जैसे सनातन धर्म से हमको समझ में आया कि ये दायित्व नहीं है कि हम आगे पुनरुत्पादन करें।
तो एक पैमाना हो सकता है कि चेतना का स्तर का कि वैसे तो हम सभी शादी वगैरह में अटके पड़े हैं, अगर आप नहीं मिले होते तो हम फिर शादी कर लिये होते और पुनरुत्पादन कर लिये होते तो मुझे कहना है कि हमें पुनरुत्पादन करना ही नहीं चाहिए। अगर जैसे कि आपने बोला कि आज के दौर में वातावरण ख़राब है इसके लिए कम-से-कम एक ही करो तो सब वातावरण अच्छा होता, सब परिस्थिति ठीक होती।
अब सन्देह भी आता है कि वैसे तो सब इंसान ख़त्म हो जाएँगे फिर लेकिन अब मैं बताऊँ तो मुझे तो वो सबसे अच्छी परिस्थिति लगती है क्योंकि प्रकृति पूर्ण है, समस्या हमारे कारण है तो हम बस जिएँ। अब हमें इस पुनरुत्पादन को आगे बढ़ाना चाहिए या रोक देना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: ये किसके लिए पूछ रहे हैं पूरी दुनिया के लिए पूछ रहे हो?
प्र: सर क्योंकि मेरे लिए तो ये मेरा पर्सनल (व्यक्तिगत) है क्योंकि जैसे जब ये प्रतिप्रश्न आया न
आचार्य: पर्सनली (व्यक्तिगत रूप से) तो तुम पूरी मानवता को आगे बढ़ा भी नहीं रहे न पर्सनली कितने पैदा कर सकते हो?
प्र: नहीं सर, नहीं ये व्यक्तिगत रूप से प्रश्न है जैसे लग रहा बहुत सामाजिक लेकिन ये मेरा बहुत व्यक्तिगत है।
आचार्य: तो पर्सनली फिर मानवता को बढ़ाने की बात नहीं हो रही होगी वो तो अपने परिवार को बढ़ाने की बात कर रहे हो।
प्र: जैसे कि मतलब मेरे परिवार में जो है वो आएँगे मेरे को लग रहा वो आने वाला है तो तब मैंने बताया कि नहीं करो तो बोली कि ऐसे तो यूँही ख़त्म हो जाएगा लेकिन निजी राय है कि मेरे लिए तो आदर्श बात है।
आचार्य: वो ह्यूमैनिटी (इंसानियत) के लिए थोड़े ही पैदा कर रहे हैं ह्यूमैनिटी वाला सवाल कहाँ पर है? कौन यहाँ पर ऐसा बैठा है जो ह्यूमैनिटी के लिए बच्चे पैदा करता है?
प्र: हाँ, जैसे अपने बोला व्यक्तिगत तो मेरे लिए व्यक्तिगत नहीं है सोशल है। मतलब मैं बम ले लूँ तो सब फूट जाएँगे है न?
आचार्य: क्यों मारना है बम से मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
प्र: नहीं-नहीं जैसे कि मेरा ये कहना है सर कि इसमें सच्चाई क्या है।
आचार्य: समझो बात को, अध्यात्म का बच्चों से कुछ लेना-देना नहीं है।
प्र: हाँ।
आचार्य: अध्यात्म बात करता है जाग्रति की और बेहोशी की। कि जाग्रति क्या है। चेतना की बोध अवस्था कि चेतना समझ रही है इसे जाग्रति कहते हैं। बेहोशी किसे कहते हैं? चेतना की प्रसुप्त अवस्था। चेतना सोयी पड़ी है। एकदम बेहोश है, नशे में है। ये जो बच्चे पैदा करने का निर्णय होता है ये हमारे बोध से आता है या बेहोशी से? बच्चों के ख़िलाफ़ नहीं है अध्यात्म, बेहोशी के ख़िलाफ़ है। बेहोशी में आप बच्चे करें कि कुछ करें वो ग़लत ही होगा न।
ये ऐसा नहीं होता कि पचाास चीज़ों पर पचास तरह के मत या राय, ओपिनियन होते हैं वेदान्त में; नहीं-नहीं सारी बातें एक जगह से निकलती हैं — मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ?
श्रोतागण: अतृप्त चेतना।
आचार्य: अतृप्त चेतना। मेरे लिए अच्छा क्या है? चेतना को ऊँचाई देना। तो माने बोध मेरे लिए अच्छा है। चेतना की ऊँचाई का नाम बोध। मेरे लिए बुरा क्या है? बेहोशी, सोना, प्रमाद, प्रसूति। बस इतनी सी बात है।
इतनी सी बात। आप बोध की गहराइयों से अगर बच्चे पैदा कर सको तो बहुत अच्छी बात है आप सब कुछ समझते हो सब कुछ को जानते हो और उस समझदारी से आपका ये निर्णय आ रहा है कि बच्चा पैदा करना है बहुत अच्छी बात है क्योंकि बोध अच्छा होता है बोध से जो कुछ भी करोगे अच्छा होगा।
कर्म की ओर वेदान्त नहीं देखता, पूरा श्लोक इसी विषय पर था न कि कर्मकांड हटाओ। बच्चे का जन्म लेना है तो एक कर्म है, कर्म की कोई बात नहीं करनी है। बच्चा किस बिन्दु से आ रहा है? कहाँ से आयी ये प्रेरणा कि बच्चा आना चाहिए? वेदान्त ये प्रश्न पूछता है। हम जो बच्चे पैदा करते हैं वो बेहोशी से आते हैं निन्यानवे-दशमलव-नौ प्रतिशत तो इसलिए जो बच्चों वाली बात है वो करी जा रही है।
आप दुनिया को जानिए-समझिए उसके बाद आपको लगता है कि बच्चे होने चाहिए तो आप एक नहीं, पाँच करिए। ख़त्म बात। वो तो बस हो गया, ख़त्म।
वहाँ जो समझ जाता है न वो ये नहीं कहता, ‘मुझे तो लगता है।’ ‘मुझे तो’ का मतलब क्या होता है? कि मुझे तो ऐसा लगता है लेकिन। अब बस ‘लेकिन’ आने ही वाला है मुझे तो’ के बाद क्या आएगा? लेकिन। बोध में ‘लेकिन’ के लिए कोई स्थान नहीं होता वहाँ सब एब्सलूट (निरपेक्ष) है, पूर्ण है। जब सब पूर्ण हो गया तो लेकिन कहाँ बचा? है कि मुझे लगता है माने मुझे लगता और मुझे वही लगता है जो मेरे बोध ने सुझाया मुझे। उसके अलावा मुझे कुछ लगता नहीं और जब तक पर मुद्दे की गहराई तक पहुँच नहीं जाता मैं कोई राय बनाता नहीं, मैं कोई निर्णय लेता नहीं। बहुत गहरा चिन्तन-मनन करने के बाद ही मैं किसी मुद्दे पर अपनी बात कहता हूँ, ये वेदान्त का चलन है। और एक बार कह दी बात तो फिर उसने में किन्तु-परन्तु नहीं लगाता।
‘जान गये तो जान गये।’ ‘क्या?’ ‘कि सब्ज़ी सड़ी हुई है।’ ‘किन्तु गोभी की है।’ ‘तो?’ ‘परन्तु ओलिव ऑयल (जैतून का तेल) में बनी है।’ ‘तो? क्या?’ ‘सड़ी हुई है’ बोलकर रुक जाओ, आगे बढ़ो ही मत। ठीक तो ठीक, नहीं ठीक तो नहीं ठीक। उसमें बहुत निबन्ध लिखने की ज़रूरत नहीं है। ये समस्या कि कई पहलू हैं ये काम तुम कमज़ोर लोगों के लिए छोड़ दो। ‘कई पहलू, ये-वो। आचार्य जी, आपको बिलकुल उल्टी सलाह देनी चाहिए।’ ये मुझे सलाह मिली है, देने आये थे। बोले, ‘देखिए, आपकी बातें बहुत बढ़िया हैं, बहुत सही लगती हैं मुझे। फ़िदा हूँ बिलकुल आपपर।’ मैंने कहा, ‘आगे बोलिए।’ बोले, ‘तो आपको अपने लोगों की तादाद बढ़ानी चाहिए न।’ (श्रोतागण हँसते हैं)
तो अब मैं समझ तो रहा था कि क्या बोल रहे हैं। बोला, ‘तो?’ बोले, ‘आपके साथ ज़्यादातर जवान लोग हैं।’ मैंने कहा, ‘हाँ।’ बोले, ‘यही तो बात है। उनको बोलिए, अपनी संख्या बढ़ाओ-बढ़ाओ, तभी तो आचार्य प्रशांत का नाम फैलेगा।’ ग़ज़ब हो गया!
बोले, ‘आप तो जो कर रहे हो वो तो आत्मघातक है। कुछ लोग आपको सुनेंगे फिर आपको सुनने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि आपको सुनने वाले सब मर जाएँगे। उनके बच्चे तो होंगे नहीं तो आपका काम आगे कैसे बढ़ेगा? आपका तो नाम ही नहीं रह जाएगा।’ कितनी ग़ज़ब सलाह दी है! (श्रोतागण हँसते हैं)
आज भी ये गुंजाइश है कि एक जोड़ा स्त्री-पुरुष का एक बच्चा पैदा कर सकता है पर एक से अधिक की गुंजाइश नहीं है। तो अगर इतना ही ललायित हो रहे हो तो कर लो, एक कर लो, दूसरा मत करना। यदि जितने जोड़े हैं वो एक-एक बच्चा ही पैदा करें तो आबादी अपनेआप ही कम हो जाएगी।
(प्रश्नकर्ता को संकेत करते हुए) पुलकित। (श्रोतागण हँसते हैं)
(प्रश्नकर्ता झेंपकर इनकार करते हैं) तो क्या हुआ? इसी बात की तो पुलक है।
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