प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, पिछले चार वर्षों में मुझे एक प्रश्न लगातार परेशान कर रहा है कि जब से मैं चिकित्सा सम्बन्धी विषयों का अध्ययन कर रहा हूँ, यह देखा कि मनुष्य ने जितनी भी क्रान्तियाँ करीं जैसे- हरित क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति, उद्योग के क्षेत्र में क्रान्ति, कंप्यूटर, सूचना एवं चिकित्सा के क्षेत्र में क्रान्ति, जितनी भी क्रान्तियाँ करीं, उनके बावजूद घर-घर में आज भी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ तो मौजूद ही हैं।
अगर तथ्य सामने लाये जाएँ तो पता चले कि इन बीमारियों की उपज बढ़ ही गई है। धीरे-धीरे मेरे मन में एक ऐसा रवैया बनता जा रहा है कि अब मुझे यह दिख रहा है कि मानव की सारी क्रान्तियाँ उसके विरोध में ही सामने आयी हैं, उसने जो भी किया है उसको उल्टा ही भारी पड़ा है। क्या एक युवा होने के नाते यह रवैया मुझमें उत्पन्न होना ठीक है?
आचार्य प्रशांत: इंसान जब भी करेगा कुछ, तो करने का माध्यम तो वह स्वयं ही बनेगा। इतिहास को देखोगे अगर तो अच्छाई होती अगर पाओगे तो वह भी इंसान के माध्यम से ही हो रही है, और बुराई होती पाओगे तो उसका माध्यम भी बनता तो इंसान ही है। यह नहीं कह सकते कि इंसान जो कुछ करता है, सब बुरा-ही-बुरा करता है। दुनिया में जो कुछ भी तुम अपनी दृष्टि में अच्छा मानते हो, वो भी तो इंसान की ही रचना है न। तो इतने ज़्यादा निराश या नकारात्मक या सिनिकल (निन्दक) हो जाने की ज़रूरत नहीं है।
देखो, दो तरह की ग़लतियाँ होती है, एक ग़लती यह होती है कि इंसान कहे कि मैं कुछ हूँ ही नहीं और सारी ताक़त मुझसे बाहर की किसी सत्ता में है। जब ऐसा सोचने लगता है इंसान, ऐसी धारणा रख लेता है, तो अकर्मण्य हो जाता है, अकर्मण्य। वह कहता है, ‘मेरे करने का क्या रखा है?’ फिर निराशावाद, भाग्यवाद, इस तरह की कई बीमारियाँ पनपती है समाज में। ठीक है? भारत इन बीमारियों से अतीत में गुज़र चुका है, हमारे करने का क्या है? जो करेगा बाहर वाला करेगा। यह एक तरह की ग़लती है।
इसके विपरीत दूसरी तरह की ग़लती क्या होती है? कि बाहर कुछ होता ही नहीं, जो हैं बस हम-ही-हम हैं। बाहर तो कुछ है ही नहीं, सारी ताक़त हम में है, सारी रोशनी हम में हैं, हम विचार करेंगे, हम बुद्धि लगाएँगे, हम सोचेंगे, हम समझेंगे, हम करके दिखाएँगे। इस ग़लती से भारत और लगभग सारा विश्व वर्तमान में गुज़र रहा है।
ये दोनों ही ग़लतियाँ नहीं करनी है। बात समझ में आ रही है? जो पहली तरह की ग़लती होती है उसमें आप किसी स्वकल्पित बाहरी सत्ता को अपना केन्द्र बना लेते हैं। आप किसी काल्पनिक ईश्वर के सामने घुटने टेक देते हैं। आपकी जो मेधा है, आपकी सब मानसिक शक्तियाँ जो हैं, आपकी जो प्रज्ञा है जो आपको उपहार स्वरूप मिली है, आप उसका इस्तेमाल करने से ही इनकार कर देते हैं। आप कहते हैं, ‘मैं होता कौन हूँ?’ यह भारत में भी हो चुका है पहले, यूरोप में भी हो चुका है।
लेकिन दिक्क़त यह होती है कि जब क्रान्तियाँ होती हैं, तो हम एक ग़लती से उछाल मारते हैं और जाकर के गिरते हैं बिलकुल दूसरी ग़लती पर। और दूसरी ग़लती क्या है? हम करके दिखाएँगे न, हम! मैं कह रहा हूँ, वर्तमान में लगभग सारा विश्व इस ग़लती के दौर से गुज़र रहा है।
अध्यात्म क्या है? अध्यात्म कहता है, ‘देखो, करना तुमको है, केन्द्र सही रखो। न तो तुम अपना जीवन, अपनी नियति किसी और के भरोसे छोड़ सकते हो और न ही तुम यह कह सकते हो कि तुम सर्वज्ञ हो और सर्वशक्तिशाली हो, तुम्हीं सब जानते समझते हो। काम सारा तुम्हें ही करना है लेकिन सिर झुका कर’।
जो पहली ग़लती है वो कहती है, ‘मुझे काम ही नहीं करना’ या ‘काम करना भी है तो उल्टा पुल्टा।’ जो दूसरी ग़लती है वो कहती है, ‘काम करें या ना करें, सिर उठा रहेगा, हम ही मालिक हैं।’ बात समझ में आ रही है?
अध्यात्म क्या कहता है? ‘सब तुम्हें ही करना है, बहुत सक्रिय जीवन बिताना है, लेकिन सिर झुकाकर।’ अध्यात्म इसीलिए असली क्रान्ति है, आन्तरिक क्रान्ति है। बाक़ी सब क्रान्तियाँ बाहरी व्यवस्था को बदलती हैं, बाक़ी सब क्रान्तियाँ विचारधाराओं का परिवर्तन मात्र होती हैं या जीवन शैली का परिवर्तन हो जाती है अगर तुम औद्योगिक क्रान्ति की बात करो या हरित क्रान्ति की बात करो। तो राजनैतिक क्रान्ति हो या प्रौद्योगिकी में क्रान्ति हो, क्षेत्र सबका बाहरी ही होता है। अध्यात्म अकेली वो क्रान्ति है, जो आन्तरिक होती है।
आन्तरिक क्रान्ति से आशय क्या है? आन्तरिक क्रान्ति से आशय है कि तुमने इतना स्वीकार किया कि बदलाव की ज़रूरत बाहर बाद में है, भीतर पहले है क्योंकि बाहर जो कुछ है वो निर्माण तो हमारा ही है। वो निर्माण भी हमारा है और उसके अर्थ भी हम ही निकालते हैं। उसे रचते भी हम हैं और रचने के बाद उसमें अर्थ भी हम ही भर देते हैं। तो बाहर का बदलाव बाद में होगा, देखा जाएगा। बाहर भी बदलाव करेंगे, काफ़ी कुछ बदलाव तो अपनेआप हो जाएगा बाहर, सर्वप्रथम आवश्यक है आन्तरिक बदलाव।
और आन्तरिक बदलाव ज़रूरी इसलिए है क्योंकि सारी तड़प महसूस तो अन्दर-अन्दर होती है न। कारण हम भले ही कितना भी कह दें कि बाहरी हैं, दुख का अनुभव कहाँ होता है? अन्दर ही होता है न, या कह सकते हो कि दुख का अनुभव इस मेज़ पर हो रहा है? इसीलिए अन्दर बदलना पड़ता है। और जब भीतर बदलाव आता है तो समझ में आता है कि भीतर कोई बैठा है जो बार-बार बहकने की वृत्ति रखता है, जो अपनेआप को बहुत होशियार मानता है, बहुत चतुर मानता है, जिसकी नज़र में वही सर्वेसर्वा है।
ऐसा जो भीतर बैठा है मूर्ख, उसको फिर कहा जाता है कि देख, सिर झुका कर रख, सिर झुका कर रख। वह सिर झुका कर काम करे, तो ज़िन्दगी बहार हो जाती है और वह अकड़े-अकड़े जिये तो फिर वही ज़िन्दगी बदहाल हो जाती है ।
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