अर्थ द्वारा समझे तो अच्छा, बिना अर्थ समझे तो और अच्छा || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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अर्थ द्वारा समझे तो अच्छा, बिना अर्थ समझे तो और अच्छा || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: अर्थ माने जानते हैं क्या होता है? अर्थ माने ये होता है कि ये जो है, उसको मैं किसी और रूप में सामने रख रहा हूँ। इसलिए जिसको आपने अर्थ दे दिए, उसको आप कभी समझ नहीं पाएंगे। मन कहेगा, ‘’मैं जान सकता हूँ मात्र तब, जब अर्थ भरूं। ‘’ पर जैसे ही आपने अर्थ भरे, वैसे ही आप बात से दूर हो गए। समझ रहे है ना?

श्रोता: इंटरप्रिटेशन हो रहा है, नाम दिया जा रहा है।

वक्ता: आप उसे भाषा के दायरे के अंदर लाने की कोशिश कर रहे हैं। और भाषा बस उतनी ही बड़ी है, जितना बड़ा आपक मन है। हम चाहते क्या हैं लेकिन, कि अस्तित्व में जो कुछ हो, हम उसके लिए एक शब्द गढ़ लें और अगर कुछ ऐसा मिलता है, जो शब्दों के बाहर है तो हम कोई नया शब्द चाहते हैं। है ना?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: पर शब्द हम कितने भी कर लें, अस्तित्व इतना बड़ा है कि वो कभी भी भाषा में तो समाएगा नहीं। लेकिन अर्थ देना, नाम देना कोशिश यही करता है कि पूरे विराट को छोटी सी भाषा में, ज़रा से शब्द कोश में सम्मिलित कर दो। तुम्हारे जितने भाव हैं, उन सब के लिए शब्दकोश में कोई न कोई शब्द होना चाहिए। जितनी प्रकार की अनुभूतियाँ हो सकती हैं, प्रेम की पचास तरंगे उठ सकती हैं, उन सब के लिए कुछ होना चाहिए ना?

वहीं दिक्कत हो जाती है। सूरज उग रहा है, बड़ी अच्छी बात है, आप उसके साथ एक हो सकते हो, पर जहाँ आपने कोशिश शुरू की कि विवरण करूँ कि क्या हो रहा है, तो मामला गड़बड़ हो जाएगा। कि नहीं होगा? कभी कर के देखिएगा बादल छाए हुए हैं, बींच में से सूरज उनसे उठता हुआ दिख रहा है। आप देख तो लो, तो तब तक तो ठीक है और फिर ज़रा कोशिश करो कि इस पर लेख लिखना है। तो गड़बड़ा जाएगी बात कुछ, दिक्कत हो जाएगी।

ऐसे ही बहती हुई नदी है या बच्चा है, जो कुछ निरर्थक ही बोल रहा है, आवाज़े निकल रहा है। आप बच्चे के साथ खेल रहे हो और बच्चे से आवाज़े निकल रही हैं, तो निकलती ही रहती हैं। उन आवाज़ों का कोई अर्थ नहीं, पर आपने कोशिश की कि, ‘ये जो आवाज़ें आ रही हैं, इनका मैं अर्थ निकालूं,’’ तो मामला गड़बड़ हो जाएगा। यदि आप वास्तव में उसके साथ हो और खेल रहे हो, तो आपको अर्थ निकलने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि आप समझ ही गए हो कि वो क्या कह रहा है?

मैंने नहीं कहा कि आप कैद कर पाए हो शब्दों में, वो क्या कह रहा है। मैंने कहा आप समझ गए हो वो क्या कह रहा है। बड़ी अर्थहीन अवाज़ें हैं वो, कुर-कुर पुर-पुर! लेकिन आपको कोई दिक्कत नहीं होगी, आपको कोई असहजता नहीं महसूस होगी कि, ‘’बच्चा कुछ कहना चाह रहा है और मैं समझ नहीं पा रहा। ‘’ वो कह रहा है कुर-मुर कुर-मुर पर मामल ठीक है। एक जुड़ाव है, एक केमिस्ट्री है और आपको उससे बिल्कुल बात दिख रही है कि ये बात है। और हो सकता है कि जब वो कुर-मुर कुर-मुर कर रहा हो, तो आप भी चुर-चुर फ़ुर-फ़ुर करना शुरू कर दें और ये बड़ी खुबसूरत स्थिति होगी। उसने जो कहा वो भी भाषा से बाहर, आपने जो कहा वो भी भाषा से बाहर, पर संवाद हो रहा है। प्यारी बात है कि नहीं?

अभी यहाँ पर कोई आ जाता है बिल्कुल तार्किक आदमी, वो कहता है “नहीं-नहीं, ठीक-ठीक पता होना चाहिए कि वो कह क्या कह रहा है? कहीं गड़बड़ न हो जाए। ” तो वो उसको लेकर के उसकी बात को लिखता है, इनकी बात को लिखता है, और वो जानना चाह रहा है कि क्या कहा जा रहा है, तो इसको तो कुछ समझ में आने का नहीं। भले ही ये उसमें ऊपर से कोई मीनिंग आरोपित कर दे, ये सुपरइम्पोज़िशन होगा। है नहीं, और डाला जा रहा है ऊपर से। वो कर भी दे, कोई वैज्ञानिक विधि निकल भी आए कि बच्चे ये जो बोलते रहते हैं भाषा, उसके भी अर्थ निकाल लें। उसकी भी कोई शब्दकोश निकल जाए। किसी शब्दकोश में आ जाए कि बच्चा अगर बोलता है “कु- कु-आ-का” तो इसका ये अर्थ होगा। और हो सकता है, आदमी के दिमाग का कोई भरोसा नहीं!

तो आपने ऐसा कुछ बना भी लिया, तो भी मामला गड़बड़ हो जाएगा। आप समझ रहे हो ना? इसीलिए सुना मात्र तब जाता है, जब शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।

वास्तव में सुना तभी गया, जब भूल ही गए कि क्या कहा जा रहा है। हर कहने-सुनने का जो परम उद्देश्य है, वो ये भूल जाना ही है।

समझिएगा बात को। सुनने की निम्नतम अवस्था तो वही है कि शब्दों पर भी ध्यान नहीं गया और फिर आगे बढ़ते हो तो चलो, कम से कम शब्द कान में पड़ने लग गए। स्मृति ने काम करना शुरू किया। उनमें अर्थ भरने शुरू कर दिए, पर वास्तविक सुनना अभी भी नहीं हो पाया।

असली सुनना तब हुआ, जब भूल ही गए कि किसी ने कहा क्या था? ऐसा पीया बात को कि, जब बात ख़त्म हुई और खड़े हुए, तो ज़रा याद नहीं कि कहा क्या गया था, पर काम हो गया है, काम हो गया है। आपने जान लिया, हर कहने-सुनने का जो परम उद्धेश्य होता है, वो होता है यूनियन , मिल जाना, जुड़ाव। आप किसी से क्यों बात करते हो? ताकि एक संपर्क स्थापित हो सके। संपर्क का मतलब है: जुड़ जाना। आप जुड़ गए ही न? वरना आप बात क्यों करोगे किसी से? संवाद क्या है? यही है, एक सेतु का बनना। सेतु में तो फिर भी छोर वगैरह होते हैं, सेतु का अर्थ तो फिर भी होता है कि मात्र मिलने की तैयारी की गई है।

करेंगे क्या सेतु का जब मिल ही गए? गले मिल रहे हैं, तो अब ब्रिज का क्या करना है? अब तरीकों का क्या करना है? भाषा तो सिर्फ़ एक तरीका है। एक मेथड ही तो है ना भाषा? समझ रहे हैं बात को? तो अच्छे होते हैं वो लोग, जो अर्थ जान पाते हैं कि इस बात का अर्थ क्या है। और उनसे भी अच्छे होते हैं वो लोग, जो अर्थ जान ही नहीं पाते। अपनी ओर से तो हम यही कर सकते हैं, मन यही कर सकता है कि अर्थ जानने की ही पूरी-पूरी कोशिश करें। जब मन पूरी ताकत से समझने की कोशिश करता है, तो एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब अर्थों की आवश्यकता नहीं रह जाती।

वो कहता है, “जिस बेचैनी को हटाने के लिए अर्थ जानने थे, जब वही नहीं रही, तो अब अर्थ जान के करूँगा क्या?” और आप देखिएगा, गहरी निकटता में ये हमेशा होगा, हमेशा होगा कि जो कहा गया है, वो समझ में नहीं भी आया, तो भी आपको कोई दिक्कत नहीं होगी। आप कहोगे “समझ ही गए हैं, समझ रहे ही हैं। ‘’ ठीक है, तुमने कह दी दो-चार बातें, मन उनका कुछ नहीं निकाल पाया जोड़, तो फ़र्क क्या पड़ गया? हममें उससे कोई बेचैनी नहीं उठी। हम तुमसे नहीं कह रहे हैं कि, ‘’पिछला जो बोला था वो क्या था ज़रा बताना। ” अरे! कहा होगा कुछ।

शब्द क्या हैं? शब्द हैं, किसी ने आपको चिट्ठी लिख दी है। आप करोगे क्या चिट्ठी पढ़ के? जिसने चिट्ठी लिखी है, अगर आप उसको ही जानते हो तो। इतने करीब हो आप उसके, कि उसके सामने खड़े हो, तो उसकी चिट्ठी पढ़ के क्या करोगे? आप कहोगे “रखो अपनी चिठ्ठी, हटाओ। सामने तो तुम हो, तुम्हारे शब्दों का क्या करें हम? और ये बोलना बंद ही करो। जब साक्षात तुम ही सामने खड़े हो, तो ये बोलने चालने की क्या ज़रूरत है? चुप हो जाओ बिल्कुल, बिल्कुल चुप। ‘’

तो जब आप कह रहे हैं कि ‘डेथ ऑफ़ गॉड इज़ द डेथ ऑफ़ मीनिंग’ तो बात बिल्कुल ठीक है, यही निकटता ही गॉड है और फिर इसमें अर्थो की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इसमें ये नहीं हो पाएगा कि किसी ने कुछ फुसफुसा दिया, और आप कहें, “मतबल?” अगर अभी मतलब-मतलब, अर्थ-अर्थ चल रहा है, तो फिर दिक्कत है। अर्थ शब्द बड़ा मज़ेदार है, अर्थ का एक तो आशय होता है कि मीनिंग जिसको आप कहते हैं, और अर्थ का ही दूसरा आशय होता है अपने किसी उद्धेश्य की प्राप्ति।

श्रोता: मुद्रा को भी कहते हैं।

वक्ता: समझ रहे हैं? जो आप चाहते हैं। अर्थ का अर्थ कामना भी होता है और गहरे में ये दोनों का आशय एक ही हैं। जैसे स्वार्थ जब आप बोलते हो ना, स्व-अर्थ या धर्म-अर्थ, काम-मोक्ष या अर्थ-शास्त्र, तो अर्थशास्त्र का मतलब ये थोड़ी है मीनिंग का शास्त्र। अर्थ शास्त्र का मतलब है कामना का शास्त्र, वासना का शास्त्र। तुम्हें चाहिए क्या? और ये दोनों अर्थ गहरे में एक ही हैं क्योंकि जो तुम्हें चाहिए, वैसा ही तुम अर्थ भर देते हो किसी की बात में। समझ रहे हो ना?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: तो जब तुम कहते हो कि, “तुम्हारी बात का अर्थ ये है” तो इसका मतलब ये है कि “मैंने उसमें ये कामना डाल दी है। ” ये दोनों बहुत दूरी की बातें नहीं है, दोनों गहराई से एक ही हैं। तो क्यों डालनी है उसमें? अर्थ भरने ही क्यों है? मतलब डालने ही क्यों है? चुप हो जाओ ना! अब आप इसमें भी अर्थ मत डालिएगा, आप सोचने बैठ जाएंगे तो बात बहुत अजीब सी लगेगी कि, “जब शब्दों के अर्थ ही स्पष्ट नहीं हुए, तो अंडरस्टैंडिंग कहाँ से आ गयी?” अब कहाँ से आ गई? अब कहाँ से आ गयी, ये तो गड़बड़ बात है, कैसे बाताया जाए कहाँ से आ गयी? बस आ गई। (सब हँसते हैं)

सवाल बड़ा तार्किक है, कि जो बोला गया उसका अर्थ तो हमें पता नहीं और आप कह रहे हो अर्थ बिना पता हुए ही बात आ गई समझ में। तो ये अद्भूत घटना, ये कहाँ से घटी? और कोई बहुत तार्किक आदमी होगा वो कहेगा समझ में नहीं आई है, आपके मन में जो पहले से था, आप उसी को सोच रहे हो कि हमे समझ में आ गया। हाँ, होने को वो भी हो सकता है। पर हम कह रहे हैं उसके अलावा भी कुछ हो सकता है और वो परम संभावना है, उससे इनकार मत करिए। जब वो हो रहा हो, तो उछलने, कूदने मत लग जाइए। ऐसी ट्रेनिंग मत दीजिए मन को कि जब अर्थहीन होना चाहे, तो आप बाधा बन जाओ कि “न, गड़बड़ मत करना, ठीक-ठीक पूछो तो। ”

निकटता का मौका है और किसी ने आपके कान में दो शब्द फुसफुसा दिए और कोई आवश्यकता नहीं है कि आप ज़्यादा उस पर आवाज़ करें, हल्ला-गुल्ला करें। पर मन ऐसा विवादपूर्ण है कि वो थोड़ी देर तक तो चुप बैठा कि, ‘’अब ठीक है,’’ पर फिर कह रहा है “वो जो थोड़ी देर पहले कहा था, वो समझाना?” अब ये आपने गड़बड़ कर दी। क्योंकि हो सकता है जिसने कहा हो उसको खुद भी न पता हो कि, ‘‘मैंने क्या कह दिया। ’’ उसे ये भी न पता हो कि, ‘’मैंने कुछ कह भी दिया। ‘’ पर बुद्धि ऐसी व्यापारी है कि उसने लिख लिया बहीखाते में कि कुछ दो चीज़ें आई थी। और क्या आई थीं? उसका उसे नाप-तोल करना ज़रूरी है, कहीं कुछ खतरनाक तो नहीं आ गया? कहीं यही तो नहीं बोल दिया कि, ‘’तुम्हारे दो हज़ार रूपए निकाल लिए हैं’’ और बाद में कहे, “देखो बता तो दिया था। ‘’ तो हमें पता होना चाहिए। ”

तो अपने आप को अनुमति दिया करिए, थोड़ा अर्थहीन होने की। अर्थहीन होने का अर्थ वही है — जो उस दिन थोड़ा पहले भी बात कर रहे थे — बेवजह हो जाना।

जब आप बेवजह हो जाते हैं, तो परम के करीब होते हैं।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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