प्रश्नकर्ता: परिवार में, नौकरी में, आदतों में, हर जगह मैं अर्जुन की तरह अपनेआप को दुविधाग्रस्त पाता हूँ। सत्य कई बार दिख भी रहा होता है लेकिन किसी मूर्खतावश उस पर चलने का साहस नहीं कर पाता हूँ। मेरी अपने भीतर बैठे कृष्ण तक पहुँच नहीं है, और आपकी कही उक्तियों पर चलने का साहस नहीं करता। अपने जीवन के युद्ध के बीचों-बीच कृष्ण की मौजूदगी के दर्शन कैसे हों? इन फूटी आँखों का इलाज कैसे हो?
आचार्य प्रशांत: अरे छोड़ो! इतनी विनम्रता अच्छी नहीं है। क्या-क्या बोल रहे हो, ‘अर्जुन की तरह अपनेआप को दुविधाग्रस्त पाता हूँ, मूर्खतावश सत्य पर नहीं चलता, मेरी फूटी आँखों का इलाज कैसे हो।’ जो सत्य की ख़िलाफ़त कर लेता हो, उसमें बड़ा आत्मविश्वास होगा। ये विनम्रता झूठी है। तुम यूँही झूठ-मूठ अभी मुझे कह रहे हो कि आँखें फूटी हैं और साहस कम है और डर लगता है और आदतों का ग़ुलाम हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है।
बहुत बड़ी तोप है सत्य, उसका तुम मुकाबला कर रहे हो लगातार, वो भी सफलतापूर्वक, तो सोचो तुम ख़ुद कितनी बड़ी तोप हो, कम-से-कम अपनी नज़र में। जो सत्य के ख़िलाफ़ खड़ा हो, सोचो वो अपनेआप को क्या समझता होगा। वो तो सूरमाओं का सूरमा है। तुम किसके ख़िलाफ़ खड़े हो लिये? सच के ख़िलाफ़, अरे साहब! तुम्हारी नज़र में तुम शहंशाहों के शहंशाह हो। तो इसलिए कह रहा हूँ कि ये विनय बनावटी है।
बीच में तुमने लिख दिया, ‘सत्य कई बार दिख भी रहा होता है फिर भी किसी मूर्खतावश उस पर चलने का साहस नहीं कर पाता।’ सत्य ऐसा थोड़े ही है कि कभी दिखा, कभी छुपा। और जिसको दिख जाता है वो उसका ग़ुलाम बन जाता है। ऐसा थोड़े ही होगा कि दिख गया पर हमने उपेक्षा कर दी। ऐसा नहीं होता।
सच सामने नहीं आता, सच भीतर से उठता है और कब्ज़ा कर लेता है। उसके बाद ये नहीं कह सकते तुम कि मुझे दिखता तो है पर मैं उस पर चलता नहीं हूँ। अगर चल नहीं रहे हो तो इसका मतलब दिखता नहीं है।
दिखता क्यों नहीं है? क्योंकि नज़र सत्य पर नहीं है, नज़र अपने ऊपर है। और अपने ऊपर नज़र ऐसे नहीं है कि ईमानदारीपूर्वक अपना अवलोकन करना चाहते हो, अपने ऊपर नज़र ऐसे है कि जैसे कोई किसी आदर्श पर नज़र रखता है, कि जैसे कोई परमात्मा पर नज़र रखता है।
अपनी नज़रों में हम ही सबसे बड़े हैं, हमारे लिए कोई ऊँचा नहीं। हर चीज़ हम नापतौल करके देखते हैं, सुनते हैं, मानते हैं। तुम ये भी अगर कहते हो कि तुम किसी की बात सुन रहे हो या मान रहे हो, तो ग़ौर करना कि तुम मानने का भी निर्णय करते हो।
तुम मुझसे कह रहे हो कि मैं आपकी कही उक्तियों पर चलने का साहस नहीं कर पाता, तो निर्णय ही तो करते होगे न कि नहीं चलना है। कभी कभार इन उक्तियों का अनुसरण भी कर लेते होगे, वो भी तुम्हारा निर्णय होता होगा। जब तुमने ये भी कहा कि मैं आचार्य जी की बात मान रहा हूँ, तब भी वास्तव में तुमने मेरी बात नहीं मानी, बात तुमने अपनी ही मानी। तुमने माना कि मेरी बात में कुछ दम है, तो तुमने मेरी बात को स्वीकार किया। मेरी बात सीधे कौनसा तुम्हारे हृदय तक पहुँच रही है, वो तराजू से होकर गुज़रती है, वो नापने वाले फीते से होकर गुज़रती है, वो तुम्हारी परीक्षण प्रयोगशाला से होकर गुज़रती है।
पहले तुम जाँचते हो कि बात में दम कितना है। कुछ बातें दमदार लगती हैं, कुछ बातें बेकार लगती हैं। जो बेकार लगता है उसको त्याग देते हो, जो दमदार लगता है उसको भीतर लाते हो। जो भीतर आता है उस पर कभी कभार चल लेते हो और जब नहीं चल पाते तो कहते हो, ‘अरे! बात तो अच्छी थी पर हम उस पर चले नहीं।’ क्या ख़ाक चलोगे! बात पर तो तुम वैसे भी नहीं चल रहे थे, चल तो तुम अपनी ही राह पर रहे थे।
ये सब जो तुम कहानियाँ सुना रहे हो, बहुत पुरानी हैं, इन कहानियों के चंगुल से बचो। जिस किसी ने ज़िन्दगी को सच्चाई से दूर रखा है, उसने कुछ ऐसे ही बहाने बनाये हैं। ‘समझ में तो आता है पर चल नहीं पाता। बात दिखती तो है पर मुझे साहस नहीं है।’ कोई कहता है, ‘अभी मेरी तैयारी पूरी नहीं है।’ अरे ये तुम किस को बेवकूफ़ बना रहे हो! स्वयं द्वारा स्वयं को ही छल रहे हो। मत करो ऐसा।
कह रहे हो, ‘अपने जीवन युद्ध के बीचों-बीच कृष्ण की मौजूदगी के दर्शन कैसे हों? इन फूटी आँखों का क्या इलाज हो? कृष्ण के दर्शन की अभीप्सा मत बताओ। बहुत बड़ी बात है और असम्भव भी। कृष्ण का कोई दर्शन नहीं होता है। कृष्ण का दर्शन तो अगर अहंकार ने कर लिया तो वो और फूल के कुप्पा हो जाएगा।
कहेगा, ‘जानते हो मैं कौन हूँ? जो अभी-अभी कृष्ण का दर्शन करके आया है और गली में चौथी दुकान में ही बैठे थे, चाय पी रहे थे। मैं कर आया दर्शन। बच्चू ने कोशिश तो बहुत की मुँह छुपा लें, पर हम भी रुस्तम हैं। कर ही आये दर्शन। और ये देखो, सबूत के लिए फोटो भी खींच लाये हैं। हाँ, वो जो चौथा बैठा है न, चाय सुड़क रहा है और मुँह छुपाने की कोशिश कर रहा है, वही है कृष्ण।’
कृष्ण के दर्शन नहीं किये जाते। कृष्ण का उपकार हो, कृष्ण का वरदान हो, तो माया के दर्शन होते हैं। माया का तो दर्शन कर लो पहले। माया का दर्शन किया है? जब तक झूठ को झूठ नहीं जानोगे, क्या तुम सच की बात करते हो!
प्र२: आचार्य जी, दिखता तो है कि मन के विकार झूठे हैं, पर मैं उनके प्रति हथियार नहीं उठा पाता। मेरे भीतर तो विकार, इच्छाएँ, डर भी सगे सम्बन्धी बनकर आते हैं।
आचार्य: तो बताओ, क्या सेवा करूँ तुम्हारी? तुम्हारा युद्ध मैं लड़ूँ? जब जान गये हो इतना कुछ, तो फिर अटक क्यों रहे हो? देर किस बात की है? या इरादा बस शिकायत करने का है? जैसे नुक्कड़ पर चर्चा होती है, या गाँव इत्यादि में चले जाओ तो वहाँ पर घर के बाहर खाट और हुक्का चलता है और पूरे ज़माने की ख़बर ली जाती है — ‘ये ओबामा पुतिन से नहीं डरता था, ट्रंपवा डरता है।’
कुछ करना है? सही जीवन जीना है? या बस वाक जाल फैलाना है, समेटना है, फैलाना है, समेटना है?
देखो क्या कर रहे हो तुम। कुल बात तुमने ये करी है कि मन में विकार उठते हैं, वृत्तियाँ हैं, राग-द्वेष इत्यादि हैं, भय है, और मैं जानता हूँ कि वो सब गड़बड़ है मामला। पर वो सब मुझे बड़े प्यारे लगते हैं, सगे सम्बन्धी जैसे लगते हैं। तो? क्या करें? और क्या जवाब दोगे तुम किसी ऐसे आदमी को जिसको तुम बता दो कि ये ज़हर है और वो कहे, ‘मुझे बड़ा प्यारा लगता है’?
एक बिन्दु आता है जहाँ पर समझाने इत्यादि की महत्ता ख़त्म हो जाती है। उसके बाद सीधे-सीधे दो रास्ते हैं — या तो कर रहे हो या नहीं कर रहे हो; हाँ या न। अब समझाने का कोई लाभ नहीं।
राग-द्वेष, भय-लोभ, इनकी बात सिर्फ़ तब करते हो क्या जब मुझे सवाल लिखकर भेजते हो? दिन-प्रतिदिन के जीवन में इन पर नज़र नहीं है? देखते नहीं हो कि ये तुम्हारा क्या हाल कर रहे हैं। और अगर समझ पा रहे हो कि ये तुम्हारा क्या हाल कर रहे हैं, तो क्यों अपनी दुर्गति करवाये जा रहे हो?
कोई तुम्हें पीट रहा है, तुम्हारा कचूमर निकाले दे रहा है, उसको तुम कैसे बोले जा रहे हो कि ये मेरा सगा है, सम्बन्धी है? सगा सम्बन्धी तो वो हुआ न जो हितैषी हो तुम्हारा। जिससे तुम्हारा अहित ही अहित होता हो, वो कैसे सगा हुआ? यहाँ तो जो सगे सम्बन्धी होते हैं, वो भी अहित यदि कर दें, तो भी आदमी उनसे किनारा कर लेता है। और जो तुम्हारा अहित करे ही जा रहा है और तुम स्वीकार भी रहे हो कि अहित कर रहा है, उसको तुम छोड़ने को तैयार नहीं। तो फिर बात इतनी ही समझ में आती है कि तुम इस सवाल के माध्यम से झूठ बोल रहे हो, तुम्हें अपना अहित दिखायी ही नहीं दे रहा।
ये सब जितने हैं राग-द्वेष इत्यादि, इनमें तुम्हें रस आता है, इसलिए नहीं छोड़ रहे। तुम्हें इनमें नुक़सान पता चलता होता, तुमने कब का छोड़ दिया होता। तुम्हें इनमें नुक़सान नहीं फ़ायदा दिख रहा है। तो फिर तो एक ही तरीक़ा है — आँख खोलकर के देखो कितना नुक़सान हो रहा है तुम्हारा या प्रतीक्षा करो कि नुक़सान इतना बड़ा, भयावह, विराट और साक्षात् हो जाए कि तुम्हें स्वीकारना ही पड़े कि हाँ, नुक़सान हो रहा है वास्तव में।
अभी तो तुम्हें जो नुक़सान हो रहा है वो शायद तुम्हें प्रतीत नहीं हो रहा। साक्षात् नहीं है, प्रामाणिक नहीं है। तो तुम अपनेआप को भुलावा दिये दे रहे हो कि कोई नुक़सान नहीं हो रहा, मज़ा आ रहा है। मज़े लिये दस रुपये बराबर, और क़ीमत भरनी पड़ी पाँच ही रुपये बराबर, तो अभी तो फ़ायदा हो रहा है।
राग-द्वेष के, लोभ, कामना, ईर्ष्या के मज़े लिये चलो। या तो साफ़-साफ़ देख लो कि तुम्हारा गणित ग़लत है, तुमने हिसाब ग़लत लगाया है। पाँच का फ़ायदा नहीं, पाँच-सौ का नुक़सान हुआ है। या फिर इंतज़ार करो कि नुक़सान इतना बड़ा हो जाए, जैसा मैंने कहा, इतना विकराल, इतना विकराल कि तुम्हें मानने पर मजबूर होना पड़े कि हाँ, है और बहुत बड़ा नुक़सान है। अब तुम देख लो, जो भी रास्ता चुनना हो तुम को।