प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो मैं अब तक समझा हूँ, मुझे लगता है कि जैसे मन अपना सही जगह जानता है, तो पूरे दिन वो वही ढूँढता रहता है हर चीज़ में। खाली भी बैठा है तो वो प्लेननेस (साधारणता), वो जो ब्लंटनेस (भोथरापन) अच्छी नहीं लगती, वो फ्रेशनेस (ताज़गी) ही अच्छी लगती है, जैसे मन अपना ठिकाना जानता है।
तो वो पूर्णता का भाव बार-बार छूट जाता है। ग़ौर करने पर पर समझ आता है कि क्या छा गया।
तो जब वो पूर्णता, सहजता रहती है तो कोई भी काम करता हूँ तो उसमे मुझे बहुत मज़ा आता है। जैसे– किसी से बात कर रहा हूँ या कोई चर्चा चल रही हो तो अच्छा लगता है लेकिन जहाँ वो पूर्णता छूट जाती है, तो फिर से तकलीफ़ होती है, वही काम बोरिंग (उबाऊ) लगने लग जाता है।
आचार्य: वो इसलिए छूट जाती है क्योंकि वो एक भाव है। असली पूर्णता, असली सहजता कोई भाव नहीं होते। भाव का तो काम है आना-जाना, भाव तो एक मानसिक गतिविधि है, भाव तो यातायात है, मेंटल ट्रैफिक (मानसिक गतिविधि) है।
भाव हों, आवेग हों आन्तरिक, विचार हों, इनका क्या काम है? आना-जाना। कोई भी भाव तुमको लगातार रहा है बचपन से आज तक? कोई भी भाव ऐसा है जो अभी है और अंत तक रहेगा? ऐसा तो कुछ है नहीं न!
तो जब तक पूर्णता तुम्हारे लिए भाव है, पूर्णता भी बाक़ी भावों कि तरह आएगी भी और फिर चली भी जाएगी, ग़ायब हो जाएगी। इसलिए तुम्हारी पूर्णता ग़ायब हो जाती है। पूर्णता कोई भाव नहीं हो सकती, सहजता कोई भाव नहीं हो सकती, सत्य कोई विचार नहीं होता, मुक्ति कोई ख़याल नहीं होता।
पूर्णता में रहने का यही मतलब होता है कि नज़रें पैनी रखो और अपूर्ण की ओर आकर्षित होने से बचो, बस इतना। तुम जीव हो, तुम्हारे पास इन्द्रियाँ है, तुम लगातार दुनिया के सम्पर्क में हो। तुम्हारी हस्ती ही दुनिया के साथ-साथ है और दुनिया में अधिकांशत ऐसा ही है सबकुछ जो तुमको ये अहसास दिलाएगा कि तुम अपूर्ण हो।
तो अपूर्णता एक भाव है, पूर्णता कोई भाव नहीं होता। अपूर्णता का भाव जहाँ से भी आ रहा हो, जहाँ को भी ले जा रहा हो, बस उससे बचना है। पूर्णता की बात एक दम नहीं करनी क्योंकि पूर्णता कोई बात नहीं होती।
अपूर्णता पर ग़ौर करना सीखो। दुनिया अपूर्ण है और तुम भी अपूर्ण हो; और ये अपूर्ण और अपूर्ण आपस में मिल करके बहुत उपद्रव मचाते रहते हैं। इस उपद्रव से सावधान रहो, बस।
प्र: क्या लगातार नज़र रखनी पड़ती है बिलकुल?
आचार्य: लगातार नज़र क्या रखनी पड़ती है, कोई तुम्हें चिकोटी काटे पीछे से तो क्या तुम तत्काल चिहुँक नहीं जाते? अपूर्णता के प्रति ऐसा ही हो जाना है तुमको, कि कोई आकर के तुम में अपूर्णता के भाव का संचार करे तो तुम्हें चिकोटी जैसा लगे।
तुम कहो, ‘कुछ गलत हुआ अभी-अभी मेरे साथ, कुछ गलत हुआ अभी-अभी मेरे साथ।’ कोई तुम्हें कुछ कड़वा पीने को दे दे तो जल्दी से थूक नहीं देते? अपूर्णता का भाव ऐसा ही होना चाहिए कि तुम्हें तुरन्त पता चल जाए कि कुछ ग़लत हो रहा है तुम्हारे साथ, होने नहीं देना है, रुक जाना है, उसका वहीं पर निषेध कर देना है।
प्र: अभी शुरुआत है तो वो चीज़ खींचने लगती है।
आचार्य: हाँ, तो इसी से ही बचना है। इसको ही सावधानी कहते हैं, इसको ही ध्यान कहते हैं।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी, मुझे आपसे कुछ जानना था अपने जीवन के बारे में। जैसे मैं बचपन से परिवार के सहारे चलते जा रहा था, जैसे परिवार ने बताया वैसे ही।
फिर धीरे धीरे मुझे मालूम हुआ कि जिस तरीक़े से परिवार जिस केन्द्र पर चलता है या जिस तरीक़े से सोचता है, वो सब टूट जाते हैं।
अभी कुछ ही साल पहले मुझे प्रतीत हुआ कि मेरा परिवार पूरी तरीक़े से टूटने के कगार पर है और जिस केन्द्र के सहारे मैं अभी तक चलता था, वो सब टूट गया। तो वहाँ से मुझे लगता है मेरी ये स्प्रिचुअल जर्नी (आध्यात्मिक यात्रा) ऐसा लगता है मुझे स्टार्ट (प्रारम्भ) हुई।
कि उसे ढूँढ रहा था मैं। कि कोई ऐसा केन्द्र जिस पर मैं काम कर सकूँ, क्योंकि ये जो केन्द्र अभी था पिछले समय, वो सब टूट गया। तो ऐसे ढूँढते-ढूँढते कि केन्द्र क्या हो सकता है तब मैं आप से परिचित हुआ।
उससे पहले दो-तीन बार ध्यान की विधियाँ भी की। पर ऐसा लगता है कि ध्यान की विधियाँ में बस ध्यान करने के बाद, आपको आँख बन्द करने के बाद सब कुछ अच्छा प्रतीत होता है।
आँख खुली तो सब प्रॉब्लम्स ही प्रॉब्लमस (समस्या-ही-समस्या) दिखायी देते हैं। और मुझे बहुत गहरा दुख प्रतीत होता है क्योंकि मेरा वो केन्द्र टूट गया था। तो ऐसे गहरे दुख को भरने के लिए मैं सहारा लेता हूँ आपका, आपकी विडियोज़ का, आपने जो ग्रन्थ पर चर्चाएँ की हैं उसका।
ऐसा प्रतीत होता है कि थोड़ा-थोड़ा, धीरे-धीरे भर रहा है, पर ये एक शंका भी है कि पूरा भर पाएगा या नहीं। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जो ढर्रे पर मैं चल रहा था या जो मेरे परिवार के बन्धन टूट गए, तो किसी और चीज़ को पाने के लिए मैं आगे बढ़ रहा हूँ ऐसा मुझे प्रतीत होता है। पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि कई मैं भ्रम में तो नहीं हूँ, तो ये मुझे समझ में नहीं आता है कभी-कभी।
आचार्य: ये जाँचना पड़ेगा न। जो भी तुम्हें लग रहा है कि तुम्हारी प्रगति हो रही है, उसको जाँचो। आन्तरिक प्रगति कोई अंदरूनी, ख़याली, एब्सट्रैक्ट चीज़ नहीं होती। अंदरूनी प्रगति निश्चित रूप से तुम्हारे ज़मीनी, बाहरी, सांसारिक व्यवहार में और प्रतिक्रियाओं में दिखायी देती हैं।
तुम ये नहीं कह सकते कि मैं आन्तरिक रूप से उन्नत हूँ लेकिन दुनिया के सामने पड़ता हूँ तो एकदम घबरा जाता हूँ या संदेह में आ जाता हूँ।अगर पता नहीं चल रहा अपने बारे में तो अपनेआप को कड़े अनुभवों में डालकर देख लो, वहाँ तुम्हारी प्रतिक्रिया तुम्हें साफ़ कर देगी कि कितने पानी में हो। अन्यथा इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं।
इंसान अपने बारे में मुग़ालते में रहता ही है। मैंने कई उपनिषद् पढ़ लिए, अब तो मैं बिलकुल निर्भय हो गया हूँ। देखते हैं! जीवन कोई परीक्षा की घड़ी सामने लाए और फिर तुममें भय न उठे तो जानना कि वास्तव में निर्भय हुए हो। वरना तो तुम्हारी निर्भयता सिर्फ़ एक ख़याल है।
मैं तो किसी ऊँचे काम को बहुत समर्पित हूँ। जीवन लाए कोई इम्तिहान तुम्हारे सामने और तब भी तुम अपने कर्त्तव्य को ही समर्पित रहो, तब जानना की गीता और उपनिषद् तुम्हारे काम आए।
नहीं तो वो बातें इतनी सुन्दर है न ग्रन्थों की, कि मन करने लग जाता है कि बस इन फूलों को लेकर अपना हार बना लो। फूलों का हार पहनना एक बात होती है और फूलों से लदा हुआ वृक्ष हो जाना बिलकुल दूसरी बात होती है।
श्रीकृष्ण ने गीता में पुष्प वर्षा करी है। तुम उन फूलों को बटोर करके अपने लिए ताज बना सकते हो। पर वो ताज बहुत बाहरी, बहुत नकली, अनुपयोगी होगा।
असली बात तब है जब कृष्णत्व उठे तुममें और कृष्णत्व की पहचान तो देखो कुरुक्षेत्र में ही होती है। तो मैं कह रहा हूँ अपनेआप को कड़े अनुभवों से गुज़ारो, वहाँ होता है दूध का दूध, पानी का पानी।
प्र: और आचार्य जी, अगर मेरा जो केन्द्र था वो टूट गया, तो केन्द्र को कैसे स्थापित करें?
आचार्य: केन्द्र क्या होता है? ख़याल की बात कर रहे हो। मैं ज़मीनी चीज़ की बात कर रहा हूँ।
केन्द्र क्या स्थापित होता है? केन्द्र माने क्या? केन्द्र कोई भौतिक बिन्दु है क्या शरीर के भीतर, कि केन्द्र स्थापित करें?
ज़िंदगी की चुनौतियों के आगे, संघर्षों के आगे अगर तुम मन को स्थित रख सको तो तुम सही केन्द्र पर खड़े हो, बात ख़त्म। केन्द्र का निर्धारण तो स्थितियों और चुनौतियों को; जो तुम्हारा प्रतिसाद होता है, वही करता है न? रिस्पॉन्स , प्रतिसाद। नहीं तो बात बहुत विचित्र हो जाती है कि बैठे-बैठे कहते हो कि मेरा केन्द्र यहाँ है, कि मेरा केन्द्र यहाँ है, मेरा केन्द्र ख़ाली हो गया है। सड़क पर उतरो, ज़मीन की बातें करो।