अहिंसा परम धर्म है? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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अहिंसा परम धर्म है? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: “अहिंसा परमो धर्म:।” श्लोक के इस अंश में एक तरफ़ तो भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “अहिंसा परमो धर्म:” और दूसरी तरफ़ वो गीता का ही इस्तेमाल कर रहे हैं, अर्जुन से हिंसा करवाने के लिए। तो ये बात तो सरासर गलत है। कृष्ण हिंसा करवा रहे हैं और कृष्ण अपनी ही सीख के विरुद्ध जा रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तो वरुण पहली बात तो ये कि “अहिंसा परमो धर्म:” गीता में कहीं नहीं आता। महाभारत में आता है। महाभारत में अनेक जगहों पर आता है। गीता में कहीं नहीं आता। ये हमारी बड़ी त्रासदी है कि हम जो हमारे ही ऊँचे-से-ऊँचे ग्रन्थ हैं, उनको कभी पढ़ते नहीं। जो चीज़ हमारे सबसे निकट होनी चाहिए थी, उस तक भी हम सुनी-सुनाई बातों के जरिए से जाते हैं। इतना लम्बा मुझे प्रश्न आपने लिखकर भेजा वरुण, उससे पहले एक बार देख तो लेते हैं कि गीता में ऐसा कोई श्लोक आता भी है या नहीं आता। खैर चलिए।

आपने जो सवाल उठाया है उसको लेते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया तो क्या ये हिंसा नहीं है?

नहीं, बिलकुल नहीं है। वजह समझिए। हम चूँकि बड़ी भौतिक ज़िन्दगियाँ जीते हैं, इसलिए हमारे शब्दकोश में हर चीज़ का भौतिक ही अर्थ होता है। ठीक है? समझ रहे हैं? अब हमारे लिए हर चीज़ शारीरिक है। हम मटेरियल (पदार्थ) में यकीन करने वाले लोग हैं न। हमें तो बस पदार्थ से मतलब होता है। तो हमारे लिए हिंसा का अर्थ भी वही हो गया है- किसी को थप्पड़ मार दिया, किसी को गाली दे दी। सामने कोई व्यक्ति खड़ा है। है ना? किसी व्यक्ति का किसी स्थूल देह का हमने कुछ नुकसान कर दिया। जो सामने देही खड़ा है, तो हम उसको हिंसा कह देते हैं। नहीं, हिंसा ये नहीं है। हिंसा का ये बड़ा सतही और बड़ा स्थूल, बड़ा ग्रॉस अर्थ है।

हिंसा का अर्थ होता है, सच्चाई के खिलाफ़ खड़े हो जाना। तुम्हारी जो उच्चतम सम्भावना है उस पर घात करना। सच्चाई का विरोध करना हिंसा है। तुम्हारी जो उच्चतम सम्भावना है, जिसे तुम सत्य कह सकते हो, आत्मा कह सकते हो, उस पर घात करना, उस पर हमला करना, उसे नष्ट करने की कोशिश करना- ये हिंसा है।

तो अहिंसा क्या है? कि तुम सच का विरोध न करो। तुम सच के साथ खड़े रहो, ये अहिंसा है। मन की जो प्राकृतिक स्थिति होती है, वो हिंसा की होती है। क्योंकि मन चलना चाहता है वृत्तियों के साथ, शारीरिक वृत्तियों के साथ। जैसे गीता में षडरिपु की बात हुई है न- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य।

ये सब षडरिपु माने, छः दुश्मन होते हैं तुम्हारे। शरीर इन्हीं के साथ चलना चाहता है। ये तो कृष्ण बता देते हैं कि दुश्मन है। हम इन्हें दुश्मन मानते कहाँ हैं? हमारे लिए तो यही सबसे बड़े दोस्त हैं। तो हम इनके साथ चलना चाहते हैं और विरोध हम करना चाहते हैं सच का। हम मोह के साथ चलेंगे, सच के विरुद्ध खड़े हो जाएँगे। हम माया के साथ चलेंगे, हम मद के साथ चलेंगे। मद माने, नशा। मात्सर्य माने, ईर्ष्या समझ लो। हमें इन चीज़ों में लिपटे रहने में बड़ा मजा आता है। सच्चाई के हम खिलाफ़ खड़े रहते हैं। ये हिंसा है।

तो किसी व्यक्ति को चोट पहुँचाना हिंसा बाद में होगा। पहली हिंसा आन्तरिक होती है। पहली हिंसा होती है- सच को चोट पहुँचाने की कोशिश, सच की खिलाफ़त, सच के विरुद्ध हो जाना। किसी और का तुमने गला घोंटा, किसी और पर तुमने हमला किया, घात किया, चोट दी वो बाद में हिंसा होगी। तुम्हारी जो सम्भावना है, जिसकी खातिर तुम पैदा हुए हो, जो तुम हो सकते हो, तुमने वो खुद को नहीं होने दिया, तुम उससे कहीं निचले तल पर ही रुक गये, ये हिंसा है।

तो अहिंसा सबसे पहले एक आन्तरिक बात होती है। गीता याद रखो, बाहर की दुनिया के बारे में बाद की बात है। पहले अन्दर की दुनिया की बात है। गीता में कोई समाज की और राजनीति की और पदार्थ की तो बातें हो नहीं रही है। कि देखो उधर इतने घोड़े हैं, अर्जुन तुम भिड़ जाओ तो तुम्हें इतना बड़ा साम्राज्य मिलेगा। उसमें इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना सोना, इतना चाँदी होगा, इतने लोग तुम्हारी प्रजा में होंगे। इस तरह का कोई तर्क दे रहे हैं क्या कृष्ण अर्जुन को? तो स्थान भले ही रणक्षेत्र का हो, लेकिन बातें तो सारी आन्तरिक हो रही हैं न।

सांख्य योग की बात हो रही है। ज्ञान की बात हो रही है। भक्ति की बात हो रही है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग है। वो सब बात हो रही है। सब अन्दरूनी बातें हो रही हैं। मन की बातें हो रही हैं। तो जब सब अन्दरूनी बातें हो रही हैं तो वैसे ही अहिंसा की बात भी अन्दरूनी है। अहिंसा का मैं फिर कहूँगा, हमने बड़ा सतही अर्थ निकाल लिया है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम हर चीज़ का अर्थ निकाल लेते हैं। अहिंसा अन्दरूनी चीज़ है। हर इंसान के भीतर झूठ होता है। हर इंसान के भीतर सच होता है। झूठ के साथ हम पैदा होते हैं। सच हमें पाना पड़ता है। ये बिलकुल मूलभूत बात है। इसको पकड़ लो अच्छे से। ठीक है वरुण?

झूठ के साथ हम पैदा होते हैं। हर बच्चा माँ के गर्भ से बहुत सारा झूठ लेकर पैदा होता है। सच बड़ी मेहनत, बड़े अनुशासन, बड़ी साधना, बड़ी तपस्या से अर्जित किया जाता है। सच तुमको वसीयत में, विरासत में या गर्भ से या जन्म से नहीं मिलता। सच अपनी लगन से मिलता है। झूठ पैदा होता है। झूठ तथ्य होता है, सत्य सम्भावना होता है। झूठ तुमको मिलेगा-ही-मिलेगा। तुम पैदा हुए हो तो झूठ में ही पैदा हुए हो। हर इंसान की यही कहानी है। सच तुमको मिलेगा या नहीं मिलेगा, कुछ निश्चित नही। वो तुम्हारे ऊपर है। तुम्हारा चुनाव होगा तो मिलेगा, नहीं तो जैसे अधिकांश मानवता झूठ में पैदा होती है, झूठ में जीती है फिर झूठ में ही मर जाती है।वैसे ही तुम भी झूठ में मर जाओगे।

तो ये हिंसा होती है— झूठ में पैदा होना, झूठ में जीना, झूठ में ही मर जाना ये हिंसा होती है।

झूठ क्या है? जैसे जो बच्चा पैदा होता है न, वो डर होता है उसके भीतर। अभी हमने षडरिपु की बात की थी। वो सब उसके भीतर होते हैं। ये सब झूठ कहलाते हैं। तुम्हारे भीतर सन्देह बैठा हुआ है। तुम्हारे भीतर तमाम तरह की वासनाएँ बैठी हुई है। तुम्हें ईर्ष्या है, तुममें प्रमाद है, आलस है, नशा है, पड़े हुए हो। ये सब झूठ कहलाते हैं। तो इन झूठों के साथ हम पैदा होते हैं। और बहुत आसान होता है ऐसी ही ज़िन्दगी गुज़ार देना। इनके खिलाफ़ जाना पड़ता है। इनसे लड़ना पड़ता है। उसको साधना कहते हैं। वो साधना अहिंसा की दिशा में प्रयास है। हिंसा हमारी मूलभूत प्रकृति है जिसके साथ हमारा जन्म होता है। अहिंसा हमें पानी पड़ती है।

समझ रहे हो बात को?

हिंसा, अहिंसा क्या है? समझना। तुमने जाकर पड़ोसी को पत्थर मार दिया। वो अहिंसा की एक बहुत सतही बात है। उससे पहले और उससे कहीं गहरी अहिंसा आन्तरिक होती है। हिंसा भी आन्तरिक होती है। तुम बाहर हो सकता है बहुत मुस्कुराता चेहरा लेकर घूम रहे हो। लेकिन भीतर बड़ी गहरी हिंसा भरी हुई हो। होता ही है ऐसा। बाहर तो तुम बहुत ज़्यादा हिंसात्मक अगर हरकतें करोगे तो पुलिस पकड़ ले जाएगी। तो इसलिए बाहर लोग बचते हैं। लेकिन बाहर जो लोग बिलकुल शान्ति में चल रहे होते हैं, अहिंसक लग रहे होते हैं। वो भी अन्दर-अन्दर हिंसा से भरे हुए होते हैं। तो हिंसा ज़्यादा गहरी चीज़ है। वो अन्दर बैठी हुई है।

अन्दर बैठी हिंसा क्या है? — कि तुम जिन वृत्तियों में जकड़े हुए हो, जिनके साथ तुम पैदा हुए थे तुम उन्हीं के साथ बँधे ही रह गये। तुमने कोशिश ही नहीं करी उनसे मुक्त होने की। ये हिंसा है। उनसे मुक्त न होकर के बताओ तुमने किसको पत्थर मार दिया? किसका गला घोंट दिया? अपनी सम्भावना का। जो तुम हो सकते थे वो तुम हो नहीं पाये। ये तुमने हिंसा कर दी।

तो माने हिंसा सबसे पहले अपने खिलाफ़ की जाने वाली एक गन्दी हरकत है। दूसरों के खिलाफ़ तुम क्या हरकत कर रहे हो बाद में बात आती है। तुमने अपने खिलाफ़ एक बड़ी घिनौनी हरकत कर दी। तुमने अपनी सम्भावना का गला घोंट दिया। ये हिंसा है। तुम वो क्यों नहीं हो जो तुम हो सकते थे? हर इंसान को ये सवाल अपनेआप से पूछना चाहिए। क्या मैं इस वक्त वो ऊँचाई पाये हुए हूँ जो मैं पा सकता था? जो मैं बेहतर-से-बेहतर हो सकता था। जो मैं शुद्ध-से-शुद्ध हो सकता था, वो होने के लिए क्या मैंने पर्याप्त श्रम किया? अगर नहीं किया तो ये हिंसा है। तुमने अपने ऊपर ही देखो कितना अत्याचार कर दिया। ये हिंसा है।

समझ में आ रही है बात?

तो अहिंसा क्या है कि तुम कहो कि मेरी वृतियाँ, मुझे जिधर को भी खींच रही हैं भैया मैं नहीं जाऊँगा। मैं तो सच के साथ खड़ा होऊँगा। मैं न्याय के साथ खड़ा होऊँगा। ये अहिंसा है।

अब आते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन से क्या करवाया? अर्जुन की वृतियाँ उसे किधर को खींच रहीं थी? याद रखना वृतियाँ जिधर को खींचती है, वो हिंसा होता है। तुम्हारी वृत्तियाँ, तुम्हारी जो टेंडेंसीज़ (वृतियाँ) होती हैं बाई बर्थ (जन्म से), जन्मगत वृत्तियाँ, वो तुम्हें जिधर को भी खींचे वो चीज़ हिंसा है। अर्जुन की वृत्तियाँ उसे किधर खींच रही थी? वो बोल रहा था, अरे, अरे, अरे! क्या फ़र्क पड़ता है इस बात से कि दुर्योधन बड़ा अन्यायी राजा बनेगा? क्या फ़र्क पड़ता है इस बात से कि प्रजा दुर्योधन के नीचे बड़ा दुख भोगेगी? इन बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे तो इस बात से फ़र्क पड़ता है कि मेरे सामने जो लोग खड़े हैं, उनसे मेरा खून का रिश्ता है।"

गीता के पहले अध्याय में अर्जुन इसी तरह के तर्क दे रहे हैं कृष्ण को कि ये तो सब जो सामने खड़े हैं, इनसे तो मेरा रक्त सम्बन्ध है। इनको मारकर राजा बनना कुछ ठीक नहीं है। मैं तो जा रहा हूँ। तो अर्जुन मोह का शिकार है और मोह हमारी गहरी मायावी वृत्ति होती है। मोह हिंसा है। अर्जुन हिंसा कर रहा है।

अब ऊपर-ऊपर देखोगे तो ऐसा लगेगा की अर्जुन अहिंसक हो रहा है। क्योंकि अर्जुन तो कह रहा है, मैं लड़ाई नहीं करूँगा। मैं ‘गांडीव’ (अर्जुन के धनुष का नाम)भी यहीं रखकर के, युद्ध छोड़कर के मैं जा रहा हूँ। उसने कह दिया कृष्ण से मैं तो जा रहा हूँ। तो ऊपर-ऊपर से देखोगे तो लगेगा कि अर्जुन अहिंसक हो रहे हैं और कृष्ण हिंसा करवा रहे हैं। नहीं, ऐसी बात नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि पैनी है तो तुम्हें पता चलेगा अर्जुन हिंसा कर रहे हैं। क्योंकि मोह हिंसा है। कर्तव्य से पीछे हटना हिंसा है। अन्याय का प्रतिकार न करना हिंसा है। तो अर्जुन हिंसा कर रहे हैं।

कृष्ण कह रहे हैं, देखो सच का साथ दो। सच का साथ देना अहिंसा है। और सच ये है कि सामने जो सब खड़े हुए हैं, ये राजा बनने लायक नहीं हैं। ये इस लायक नहीं हैं कि इन्हें राज्य मिले, ये सत्तासीन हों। ये धर्म के आधार पर राज्य नहीं चलाएँगे। बात ये नहीं है अर्जुन की गद्दी पर तुम बैठ रहे हो या दुर्योधन बैठ रहा है। ज़्यादा बड़ी बात ये है कि जो भी गद्दी पर बैठ रहा है, उसके कर्मों से प्रजा के लाखों लोगों पर शायद करोड़ो लोगों पर बहुत असर पड़ने वाला है। भारत का इतिहास बदलने वाला है तो बहुत ज़रूरी है कि जो व्यक्ति न्यायप्रिय हो, जिसमें सत्यनिष्ठा हो वही गद्दी पर बैठे। अर्जुन कह रहा है, भारत का क्या होगा मुझे फ़र्क नहीं पड़ता। मैं अपने भाइयों पर तीर नहीं चलाऊँगा। ये हिंसा है।

अर्जुन का तर्क समझो। अर्जुन क्या कह रहा है? — भारत का क्या होगा मुझे नहीं फर्क पड़ता। वो सामने मेरे पितामह हैं, वो सामने वो मेरे गुरुदेव हैं और वो सब सौ मेरे भाई हैं कौरव। मैं तो नहीं चलाऊँगा तीर। ये हिंसा है। क्योंकि तुम न्याय की अपेक्षा, मोह को वरीयता दे रहे हो। तुम धर्म की अपेक्षा, रक्त सम्बन्ध को श्रेष्ठ मान रहे हो। ये हिंसा है।

अब कृष्ण जो करवा रहे हैं अर्जुन से, वो ऊपर-ऊपर से देखोगे तो हिंसा लगता ही है जैसा की आपने सवाल पूछ लिया। कि भाई क्यों इतना रक्तपात करवा रहे हैं कृष्ण? ऊपर-ऊपर से देखोगे तो लगेगा कि ये तो रक्तपात करव रहे हैं। अन्दर की बात ये है कि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तुम सच के साथ खड़े हो, चाहे जो भी मूल्य चुकाना पड़े। क्योंकि वही तो जन्म का उद्देश्य है। वही करने के लिए तो हम हैं यहाँ पर। अगर झूठ का ही साथ देना है तो झूठ तो हम अपने भीतर ही लेकर पैदा होते हैं। और अब साथ क्या दोगे झूठ का? पहले ही इतना लेकर आये हो। तो हमें तो वो जो गठरी हमारे सिर पर रखी हुई है, वो उतारनी है। उसका बोझ और नहीं बढ़ाना है।

वृत्तियों की गठरी, माया की गठरी, संचित कर्मों की गठरी हमें तो वो गठरी खाली करनी है। और माया और मोह। और अर्जुन उस गठरी को और बढ़ाने वाली बातें कर रहे हैं। कह रहे, ‘नहीं, लड़ाई नहीं करेंगे।’

बात समझ रहे हो?

तो कृष्ण वास्तव में अहिंसक हैं। और अर्जुन की बातें भले ही ऊपर से बड़ी शान्तिपूर्ण लगती हों। लेकिन अर्जुन जो बातें कर रहे हैं, कम-से-कम आरम्भिक अध्यायों में वो बातें बड़ी हिंसक हैं। तो सतही दृष्टि मत रखो। बातों के मर्म तक जाया करो।

कोई अगर धर्म विरुद्ध जा रहा हो, उसको रोकना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। निसन्देह पहली कोशिश यही होनी चाहिए कि उसको कम-से-कम पीड़ा पहुँचाएँ। बल्कि पीड़ा पहुँचाए बिना ही उसको समझा सको तो और इसका भरसक प्रयत्न कृष्ण ने किया भी था। स्वयं शान्तिदूत बनकर दुर्योधन के दरबार गये थे। और दुर्योधन क्या कोशिश कर रहा है? वो कह रहा है ये आयें हैं मेरे सभा में शान्ति प्रस्ताव लेकर, मैं इनको ही बन्धक बना लूँगा। अपने सिपाहियों को बोल रहा है, गिरफ्तार कर लो इनको वगैरह, वगैरह।

तो शान्ति की जितनी कोशिशें थी, जब असफल हो गयीं तब कृष्ण ने कहा कि अब तो युद्ध टल नहीं सकता। वरना तो सारी कोशिश की गयी थी। यहाँ तक कह दिया गया था कि भैया तुम रख लो राज्य पूरा। पाँच गाँव ही दे दो पांडवों को। दुर्योधन ने क्या उत्तर दिया? मैं सुई की नोक जितनी भूमि भी नहीं दूँगा।

तो जब ऐसी स्थिति आ जाए, जहाँ धर्म की रक्षा किसी भी शान्तिपूर्ण तरीके से नहीं हो सकती तो आप बताइए विकल्प क्या बचा? क्या आप आतताई को, अन्यायी को राज्य करने देंगे? सत्ता उसको सौप दे देंगे? बात यहाँ पर सत्ता लोलुपता की नहीं है। बात यहाँ पर उस पूरे राज्य की है। जैसा राजा वैसी प्रजा। एक दुर्योधन राजा बनेगा, प्रजा में लाखों दुर्योधन पैदा हो जाएँगे उसी की देखा देखी। ये होने नहीं दिया जा सकता। तब फिर विवश होकर युद्ध करना पड़ता है और वैसा युद्ध हिंसा नहीं है। ठीक है?

प्र २: “अहिंसा परमो धर्म:” पर इतना जोर क्यों दिया जाता है जब जो पूरा श्लोक है वो है “अहिंसा परमो धर्म:, धर्म हिंसा तथैव च”? कृष्ण ने गीता में कही है।

आचार्य: जैसे वरुण (पहले प्रश्नकर्ता) ने गीता शायद कभी पढ़ी नहीं, शाश्वत (दूसरे प्रश्नकर्ता) आपने भी नहीं पढ़ी है। बल्कि आपने गीता क्या महाभारत भी नहीं पढ़ी है। ये जो आप श्लोक बता रहे हैं, ये गीता क्या पूरी महाभारत में कहीं नहीं आता।

हालाँकि आजकल न जाने क्यों बहुत लोग इस श्लोक की, काल्पनिक श्लोक है इसकी बातें करने लग गये हैं। वो कहते हैं देखो आजतक हमें झूठ बताया गया, “अहिंसा परमो धर्म:।” असली श्लोक तो है “अहिंसा परमो धर्म:, धर्म हिंसा तथैव च।” ऐसा कोई श्लोक कहीं नहीं है बाबा। कहीं भी नहीं है। और “अहिंसा परमो धर्म:” गीता में नहीं आता। महाभारत में आता है। कई जगहों पर आता है। वन पर्व में आता है, अनुशासन पर्व में आता है, आशुमेधिक पर्व में आता है, दान धर्म पर्व में आता है। कई जगहों पर आता है। लेकिन जहाँ जब भी आता है, उसमें ये कहीं पर नहीं है आगे की “धर्म हिंसा तथैव च।” इसका निर्माण किसने किया? मैं नहीं जानता। क्यों किया? वो भी मैं नहीं जानता। पर जिसने भी किया है, वो कोई अच्छा आदमी तो नहीं होगा। आप एक पवित्र ग्रन्थ के श्लोक में हेरा-फेरी कर रहे हैं। ये कोई अच्छी बात तो नहीं हो सकती।

तो पहले देख लिया करो कि जो तुम कह रहे हो उस बात में सच्चाई कितनी है। यहाँ तुमने सीधे मुझसे पूछ लिया कि अरे आज तक वो “धर्म हिंसा तथैव च” वाली बात छुपाई क्यों गयी? वैसी कोई बात होती तब न छुपाई जाती? निश्चित रूप से “अहिंसा परमो धर्म:” के आगे और भी बातें हैं। पर उन सब बातों में कहीं भी ये नहीं है कि हिंसा धर्म है वगैरह, वगैरह।

अहिंसा ही परम धर्म है। और अहिंसा का सम्बन्ध दूसरे को चोट पहुँचाने या न पहुँचाने से नहीं है। अच्छे से समझो। हिंसा कभी धर्म नहीं हो सकती। धर्म तो अहिंसा ही है। लेकिन अहिंसा वो चीज़ नहीं है जो तुम समझते हो। हिंसा धर्म नहीं हो सकती। धर्म अहिंसा ही है। लेकिन अहिंसा वो चीज़ नहीं है जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है। आमतौर पर आप समझते हो अहिंसा का मतलब है दूसरे से बुरा मत बोल देना, दूसरे को मीठा बोलो,दूसरे को किसी तरीके से चोट न पहुँचा दो इत्यादि, इत्यादि। नहीं, अहिंसा ये नहीं है।

अहिंसा एक आन्तरिक चीज़ है। मन को आत्मा से लगाए रहना अहिंसा है। अहम् को आत्मा की तरफ़ प्रेरित करे रहना अहिंसा है। अपने भीतर के झूठ को सच के सामने नमित करे रहना अहिंसा है। हम बहुत छोटे से पैदा होते हैं आन्तरिक तौर पर। उस क्षुद्रता से आगे निकलकर अपनी विराट सम्भावना को साकार करना अहिंसा है। ये सब अहिंसा है। ठीक है?

हिंसा क्या है? ये सब बोल चुका हूँ। दोहरा रहा हूँ। हिंसा है जो हमारे भीतर पाशविक वृत्तियाँ बैठी हुई हैं, उनका साथ देना। जो हम हो सकते थे उसकी हत्या कर देना। हम अपनी ही हत्या कर देते हैं आन्तरिक रूप से। ये सब हिंसा है। ठीक है? उम्मीद करता हूँ बात स्पष्ट हो पाई होगी। नहीं हुई होगी तो इस विषय पर मैंने अन्यत्र भी बोला हुआ है। उसको पढ़ो या देखो। स्वागत है।

YouTube Link: https://youtu.be/xe0veZR5N3Y?si=fCLUV-tDrOJyKE44

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