अगर सभी बुद्ध जैसे हो गये तो इस दुनिया का क्या होगा? || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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अगर सभी बुद्ध जैसे हो गये तो इस दुनिया का क्या होगा? || आचार्य प्रशांत (2015)

श्रोता: सर, अगर सब लोग ही इस दुनिया में बुद्ध के जैसे हो गए तो फिर ये दुनिया कैसे चलेगी?

वक्ता: कौन सी दुनिया? ‘इसके’ अलावा कोई दुनिया जानते हो? ये सब चलना बंद हो जाएगा जो अभी चल रहा है। ये बात कितनी खौफनाक लग रही है कि—रोज़ सुबह मुझे कोई तंग नहीं करेगा, रोज़ रात कोई मुझपर हावी नहीं होगा, रोज़ मेरा खून नहीं चूसा जाएगा, मेरा चेहरा लटका हुआ नहीं रहेगा—कितनी भयानक बात है न! हे भगवान! ये दुनिया चलनी बंद हो जाएगी।

(सभी हँसते हैं)

श्रोता: सर, मैं कह रहा हूँ कि फ़िर से कोई व्यवस्था स्थापित कर दी जाएगी

वक्ता: उसको ‘व्यवस्था कहें कि न कहें’ – ये बड़ा विचारनिये प्रश्न है क्योंकि व्यवस्था अभी है। अभी हम ये बात नहीं कर रहें हैं कि साम्यवाद को उखाड़ कर के पूंजी वाद लाना है, अभी बात हो रही है कि व्यवस्था अभी है। हाँ, उस व्यवस्था के नाम बदलते रहते हैं और ये सारी व्यवस्था हमारे संस्कार की व्यवस्था है, वो कभी एक तरफ की व्यवस्था को जाती है कभी दूसरी तरफ की व्यवस्था को जाती है; कभी एक नाम देती है तो कभी दूसरा नाम देती है, कभी एक धर्म पकड़ लेती है तो कभी दूसरा धर्म पकड़ लेती है।

इस व्यवस्था के बाद जो होगा उसे व्यवस्था नहीं कहना चाहिए। व्यवस्था अभी है। इसके बाद जो होगा, वो उस अर्थ में व्यवस्था होगा ही नहीं जिस अर्थ में आप व्यवस्था शब्द का प्रयोग करते हैं। वो एक दूसरी व्यवस्था होगी या तो फिर अगर कहना ही है तो उसे आप, एक ‘दैवीय व्यवस्था’ कहिये, अन्यथा उसे व्यवस्था कहिये ही मत।

श्रोता: सर, तो वो व्यवस्था कैसी होगी?

वक्ता: वो पता नहीं, उसकी कल्पना मत करिए क्योंकि कल्पना आप जो भी करेंगे वो इसी तरह की होगी कि आपको वो व्यवस्था पसंद न आए। आप कहेंगे कि फिर सब कुछ वैसा ही चले जैसे नदी चल रही है—नदियाँ कुछ मजेदार तो होती नहीं तो वो व्यवस्था ठीक नहीं है। गौर करियेगा:

आपकी हर कल्पना का मकसद सिर्फ एक ही होता है —आपके अहंकार को बचाए रखना*।***

इसीलिए आप बुद्ध की कल्पना करो तो मैं बार-बार टोकता हूँ। बुद्ध की कल्पना करके तुम बुद्ध को अस्वीकार ही करना चाहते हो अन्यथा तुम कल्पना नहीं करते जब भी तुम पूछते हो कि—“सर, अगर सब बुद्ध हो गए तो क्या होगा? या ये बताइए कि बुद्ध कैसे लगते थे?”—ये तुम जितनी कल्पनाएँ करना चाहते हो उन सब कल्पनाओं का एक ही मकसद है—हमें कुछ ऐसा पता चल जाए कि हम बुद्ध में खोट निकाल दें। “अच्छा सर, अगर ये सारी व्यवस्था ख़त्म हो गई तो अगली व्यवस्था कौन सी आएगी? आने वाली दुनिया कैसे होगी?” और तुम्हें कुछ बता दिया जाये और तुम उसमें खोट निकाल दो और कहो कि, “देखो वो तो गलत है, जो अभी चल रहा है यही ठीक है।”

तुम्हारा इरादा बस इतना है कि—किसी तरीके से संसार के पार जो है उसकी कल्पना कर लो और कल्पना चूंकि तुम्हारी ही होगी, तो तुम अपनी ही कल्पना में खोट निकाल लोगे और खोट निकाल कर तुम ये सिद्ध कर दो कि अभी जो चल रहा है यही तो ठीक है। तो इस सवाल में कभी उलझना ही नहीं कि ‘अच्छा बताइए आप क्या करना चाहते हैं, नहीं समझाइए थोड़ा’, और तुम जो भी बताओगे वो उसे तर्क से काट देंगे और अंततः वो यही सिद्ध कर देंगे कि जो चल रहा है वही ठीक है। तो ये कोई उलझने वाली बात नहीं है।

जो मन के मूलभूत सिद्धांत है उनको भूला मत करो—पार की कल्पना नहीं की जाती । विश्व का निर्वाण हो गया तो विश्व ही नहीं बचेगा क्योंकि जिसे तुम विश्व कहते हो वो तो यही है। उसकी कल्पना नहीं की जाती, बैठ कर सोचा नहीं जाता कि, “फिर सब कैसे दिखेंगे? सड़क पर बुद्ध ही बुद्ध घूम रहे होंगे क्या? पेड़ पे कृष्ण ही कृष्ण चढ़े होंगे क्या? दुकान पर राम बैठें हैं। ‘भैया जरा वो वाला गेहूं देना’ और हनुमान तोल रहें हैं।” और अगर ज़रा रेगिस्तान का इलाका है तो वहाँ मुहम्मद ही मुहम्मद घूम रहें हैं ऊंट पर, और तुम बुला रहे हो कि, “लेकर आना भैया ज़रा, अंजीर देना”और तुम कहोगे कि, “ये तो कुछ बात अच्छी नहीं लगी। ये कल्पना तो हमें सुहा नहीं रही है, फिर तो ये दुनिया ही ठीक है।”

कल्पना में मत पड़ो, तुम्हारी कल्पना पार नहीं जा सकती। क्यों बार-बार कल्पना करते हो कि बुद्ध कैसे होते थे, कि वो दुनिया कैसी होगी? पर दिल है कि मानता नहीं, अहंकार है कि सिमटता नहीं, तो कल्पना करनी बड़ी ज़रूरी है। कैसी होगी दुनिया? मज़ा नहीं आएगा? हर कहानी में एक खलनायक होना चाहिए तभी तो कहानी में ज़रा ज़ोर आता है, रस आता है। “अब बुद्ध ही बुद्ध हो जाएंगे तो फिर खलनायक कौन बनेगा? देखा न कि सिद्ध हो गया कि बुद्ध लोगों की दुनिया खराब है, जैसी चल रही है यही ठीक है। सारी स्त्रियाँ मीरा हो गई तो आइटम नंबर कौन करेगा? तो सिद्ध हो गया कि जो चल रहा है वही ठीक है। अगर सारी स्त्रियाँ मीरा हो गईं तो हमें कौन पूछेगा?”

बीमार को बीमारी से मतलब होना चाहिए, स्वास्थ्य से नहीं*।*** अपनी बीमारियों को देखो, स्वास्थ्य की कल्पना मत करो*।***

कोई अंधा है, जन्म का अंधा और वो कल्पना कर रहा है कि जब आँखें आ जाएंगी तो क्या होगा? अरे भाई, तू दवा खा, तू डॉक्टर के सामने समर्पित रह, डॉक्टर जैसा कह रहा है वैसे चल, तू कल्पना क्या कर रहा है कि जब आँखें आ जाएंगी तो क्या होगा? तू कल्पना कर सकता है? तू जन्म का अंधा कल्पना कर सकता है कि रंग कैसे होते हैं? पर कल्पना ज़रूर करनी है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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