आओ झूठ तलाशें || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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आओ झूठ तलाशें || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ‘परमात्मा तत्व’ का मतलब क्या होता है?

आचार्य प्रशांत: कोई उसका मतलब होता नहीं, उसका मतलब नहीं पूछना चाहिए। हम जिन मतलबों में घिरे रहते हैं, उनकी सच्चाई जाननी चाहिए। ‘परमात्मा तत्व’ कोई साधारण, सामान्य तत्व नहीं है, वो कोई तत्व ही नहीं है। तो उसके विषय में आप जब भी जिज्ञासा करेंगे तो उत्तर यही मिलेगा कि आप जैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं और जिन चीज़ों में लिप्त हैं उसकी खोजबीन करिए, उस पर ध्यान दीजिए।

सत्य या परमात्मा, इनका पता चलना कोई आवश्यक नहीं है। मैं और दो-टूक कहूँ तो सम्भव ही नहीं है, आवश्यक तो दूर की बात होती है। सम्भव और आवश्यक दोनों क्या है? जो बने बैठे हैं, जैसे जी रहे हैं, उस पर ईमानदारी से ग़ौर करना। ‘परमात्मा तत्व’ इत्यादि की ज़्यादा बात करेंगे तो कल्पना करना शुरू कर देंगे। ऐसा होता है, वैसा होता है, बहुत सारी बातचीत, क़िस्से-कहानियाँ। कहानियाँ तो कहानियाँ हैं। आप अगर कहानियाँ ही बनाना चाहते हैं तो कितनी भी बना सकते हैं। हम कहानियाँ बनायें या जैसा जीवन जी रहे हैं उसकी हक़ीक़त का सामना करें? कहानियाँ चाहिए या सच्चाई, कहिए?

और ख़ेद की बात ये है कि बहुत बार तो परमात्मा इत्यादि की बात की ही इसलिए जाती है ताकि जीवन की सच्चाई का सामना न करना पड़े। जीवन जैसा है, किसके लिए? हमारे लिए, वैसा नहीं जैसा किसी किताब में लिखा है, वैसा नहीं जैसा किसी विद्वान ने परिभाषित कर दिया है। जीवन कैसा है हमारे लिए? और कोई जीवन जानते हो? एक ही जीवन तो हम जानते हैं न, जैसा हम जी रहे हैं, जैसा हमने अनुभव करा है। अगर आप दूसरों के भी जीवन की बात करते हो, तो बात आपकी है। दूसरों के जीवन की बात भी आपके मन से निकल रही है। तो ले-देकर के आप तो एक ही बात जानते हो, जो बात आप जानते हो — आपका मन, आपका जीवन। उसमें जाना है।

फिर कहने वालों ने कह दिया कि उसमें अगर ईमानदारी से जाओगे, पूरी गहराई से पता करोगे, तो कचरा-कूड़ा है मन का और जीवन का, वो सब साफ़ हो जाता है। जो एकमात्र शुद्ध चीज़ बचती है, उसको ‘परमात्व तत्व’ कह देते हैं। लेकिन वो तो बहुत दूर की बात है न, उतनी दूर की बात करने से क्या फ़ायदा!

आप वो बात करिए जो फ़िलहाल की है, निकट की है। ये एक बहुत आकर्षक प्रलोभन हो सकता है, इन सुन्दर, शुद्ध, पवित्र, मीठे शब्दों में खो जाना — सत्य, परमात्मा, समाधि, मुक्ति, वगैरह-वगैरह। और ये इतने साफ़-सुथरे, इतने सम्माननीय, इतने पवित्र शब्द हैं कि ज़िन्दगी की गन्दगी से घबराकर इनकी ओर भागने का बड़ा मन करता है। लेकिन भूलिए नहीं कि अगर ज़िन्दगी में गन्दगी है तो आप इन पवित्र शब्दों की तरफ़ भी उस गन्दगी को साथ लेकर ही जाएँगे। इन शब्दों की तरफ़ भी जाने वाला कौन है? हम ही तो हैं न। और अगर हमारा मन, हमारा जीवन, हमारा अन्तस् गन्दगी से ही भरा हुआ है तो इन शब्दों की तरफ़ जाते हुए भी हम उस गन्दगी को तो साथ ही ले जा रहे हैं न, क्या लाभ होगा?

तो इनकी ओर जाना नहीं है। अगर ये कुछ हैं भी तो ये मिल जाएँगे अपनेआप। आपका काम सच की खोज करना नहीं है, आपका काम झूठ की सफ़ाई करना है। ‘सच का खोजी,’ ये बात, ये शब्द, ये मुहावरा ही बड़ा झूठा, बड़ा हास्यास्पद है, ‘सच का खोजी!’ (मुस्कुराते हुए) झूठ अपने भीतर लिये हुए है, सच को बाहर खोज रहा है, क्या पागलपन है! झूठ कहाँ है? भीतर। सच की खोज कहाँ हो रही है? बाहर। या भीतर भी हो रही है तो भीतर कहाँ से तुम्हें सच मिल जाएगा जब सच, झूठ की सौ परतों के नीचे दबा हुआ है?

तो सच का खोजी, शोधक, साधक इत्यादि बनने की कोई ज़रूरत नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें अहंकार को बड़ी अच्छी लगती हैं कि तुम सब तो दुनिया वाले छोटी-छोटी चीज़ें खोज रहे हो, हम आध्यात्मिक हैं, हम सबसे बड़ी चीज़ खोज रहे हैं, क्या? सच। सफ़ाई-कर्मचारी बनिए, झाड़ू उठाइए और भीतर जितना झूठ बैठा हुआ है उसकी सफ़ाई करिए, यही अध्यात्म है।

सच को खोजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, झूठ सब सारा हटता रहेगा तो सच अपनेआप प्रकट होता रहेगा, उसकी चमक से ज़िन्दगी में रौनक भरती रहेगी। खोजने आप कहाँ जा रहे हैं? ये मत पूछिए कि आँखें किधर को देखें कि सच मिल जाए। आईने में देखिए कि आँखों में कितना कीचड़ है, कितने जाले लगे हुए हैं। आँखों को ही देखिए, आँखों से सच को खोजने की कोशिश मत करिए। आँखें किसको देखें? आँखों को ही। सच नहीं खोज पाओगे इन आँखों के साथ (मुस्कुराते हुए)।

बहुत ये ग़ुरूर की बात है न कि मैं तो जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा और मुझे सच चाहिए। देख रहे हो कितना घमंड है इस बात में? जैसे कोई आँख बन्द करे-करे रोशनी तलाश रहा हो, जैसे कोई शराब की बोतलें बाँधकर के होश तलाश रहा हो। होश तो स्वभाव है, मिला ही हुआ है, तुम बोतल तो छोड़ो। पर बोतल की बात हमें करनी नहीं है क्योंकि बोतल से बड़ी मोहब्बत है। प्यारी है, दुलारी है, अपनी है। तो बोतल तो साथ लगी ही रहेगी, माँग करेंगे होश की। फिर होश मिल भी सकता है, बोतल वाला! कोई व्यापारी आएगा, आपको होश ब्रैंड की बोतल बेच जाएगा। और आप प्रसन्न भी हो जाओगे, कहोगे, 'ये बढ़िया मिले। इन्होंने क्या विधि दी बोतल में बन्द करके, मिल ही गया होश।' और बिलकुल आत्मविश्वास रहेगा कि मुझे होश मिल गया है। ये देखो, लिखा हुआ है ‘होश’। बोतल पर लिखा हुआ है 'होश'।

होश, नशे की एक और बोतल है या बोतल छोड़ने का नाम है? ये बोतलबाज़ी से बाज आओ न। ज़िन्दगी ही बोतल है और हम उस बोतल के भीतर बन्द, जिन्न कह लीजिए तो जिन्न, चिड़िया कह लीजिए तो चिड़िया, परी कह लीजिए तो परी हैं। हम बोतल में बन्द हैं, बोतल हममें बन्द है, दोनों एक हैं। तो उपनिषद् कहते हैं, “मनुष्य अपना बन्धन आप है, मनुष्य के बन्धन का नाम है 'मनुष्य'।“ जो कुछ भी ‘मैं’ के नाम से जाना जाता है, जिसको आप अपनी हस्ती या सत्ता कहते हैं, वही आपका बन्धन है।

प्र: तो कैसे जिया जाए?

आचार्य: सवाल तो ये है कि अभी कैसे जी रहे हैं। अभी जैसे जी रहे हैं, वैसे जीते हुए सवाल नहीं उठता कि कैसे जियें ऐसे। विकल्प की बात आती है तो आप कह रहे हैं कि कैसे जियें। जैसे विकल्प बड़ा कठिन हो। और अभी जैसी ज़िन्दगी चल रही है वो आसान लगती है क्योंकि अभ्यास हो गया है उसका, आदत हो गयी है। आदत किसी भी चीज़ की हो जाए, वो चीज़ फिर बर्दाश्त होने लग जाती है न।

आपमें से कुछ लोग उत्तर से आये होंगे, तो दिल्ली का जो एक हज़ार का एक्यूआई (वायु गुणवत्ता सूचकांक) रहता है, बुरा लगता है क्या? लगता है बुरा? अभ्यास हो गया! चिल्ल! और फिर कही पहाड़ों पर पहुँच जाते हैं या इधर आ जाते हैं तो हवा अजीब-अजीब सी लगती है, कहते हैं,‘मिसिंग समथिंग’ (कुछ कमी लग रही है), वो पीएम टू प्वाइंट फाइव कहाँ है!'

आदमी को ये बहुत ख़तरनाक ताक़त मिली हुई है, अभ्यस्थ हो जाने की। उसी को तो कंडीशनिंग (अनुकूलन) कहते हैं न। हम अगर ऐसे होते कि सिर्फ़ अपनी सहज, स्वभावगत स्थिति में रह सकते हैं, उससे अगर हटना पड़ा तो मर जाएँगे, तो क्या बात होती! इसीलिए कबीर साहब ने कई जगहों पर मछली की बात करी है। बोलते हैं कि जो मछली जैसा हो गया, वही जी रहा है। जब तक सागर है तब तक जिएँगे, ज़रा सा बाहर निकालोगे हम जिएँगे ही नहीं।

काश! कि इंसान ऐसा हो पाता कि जब तक सहज स्थिति जीवन की है सिर्फ़ तभी तक जिएँगे, उसके बाहर जिएँगे ही नहीं। हम लेकिन ऐसे नहीं होते, हम बर्दाश्त कर ले जाते हैं। हम बल्कि समायोजित हो जाते हैं, एडजस्टेड , कंडीशंड। और हमें बड़ा नाज़ होता है इस बात पर कि हम तो साहब जल्दी से एडजस्ट कर लेते हैं।

मछली एडजस्ट नहीं करती है, करती है कभी? रेत से एडजस्ट करते देखा है उसे? वो नहीं करती। हम कर लेते हैं। और करते-करते कितना ज़्यादा हम बर्दाश्त कर ले जाते हैं, इसकी कोई हद नहीं है। और फिर कुछ बुरा लगना एकदम बन्द हो जाता है, एकदम ही कुछ बुरा नहीं लगता।

श्रोतागण: जैसे कि कोई बाग़ी हो जाता है।

आचार्य: तो आपने इसे अभी बोला 'बाग़ी', तो कहीं चोट लग गयी? अपनी गरिमा का ख़याल रखा करिए। जो जीवन की दो कौड़ी की चीज़ें हैं, उसमें कोई आपका सबकुछ भी ले ले, छीन ले, एतराज़ ही मत करिए। ले जाओ, क्या था। लेकिन कुछ चीज़ें पता होनी चाहिए कि बर्दाश्त करने की नहीं हैं। वहाँ नहीं कह देना चाहिए कि हम तो बड़े सहिष्णु हैं, टोलरेंट हैं, कोई बात नहीं। अच्छी बच्चियों का तो काम ही होता है झेल लेना। ये अच्छी बच्ची की आपको बड़ी ग़लत परिभाषा दे दी गयी है।

आप खाना खा रहे हो, कोई आ जाए और कहे, ‘खाना दे दो‘, आप उसको आधा भी मत दीजिए, पूरा ही दे दीजिए। पर कोई आकर के आपसे आपकी आज़ादी ही माँगने लग जाए, तो इतनी सी भी मत दीजिएगा। थाली और आज़ादी में कुछ तो अन्तर होगा। आपके पास चार रोटी हैं, कोई आ गया है, माँग रहा है, आप चार-की-चार दे दीजिए, कोई बात नहीं। एक दिन, दो दिन भूखे रह लेने से कुछ नहीं बिगड़ जाता।

बेकार की चीज़ या कम मूल्य की चीज बाँट देना उदारता है। लेकिन जो जीवन का केन्द्र है, जो आपकी हस्ती का हीरा है, उस पर ही समझौता कर लेना बेवकूफ़ी है, कायरता है और ऐसा पाप है जिसकी कोई माफ़ी नहीं होती।

और मज़े की बात तब होती है जब ऐसे लोग होते हैं जो अपनी थाली से किसी को एक रोटी नहीं दे सकते। जब रोटी देने की बात आएगी किसी को तो वो बड़े सख़्त, बड़े कट्टर हो जाएँगे लेकिन उनसे उनकी आज़ादी माँगो तो बेचने को तैयार हो जाते हैं। रोटी देते वक़्त उनके भीतर का हिसाबी-किताबी मन एकदम सक्रिय हो जाएगा। तब उनको समझ में आएगा, 'अच्छा! मैं इसको अपना पच्चीस प्रतिशत माल क्यों दे दूँ, चार में एक रोटी।' क्योंकि रोटियाँ दिखती हैं, गिनी जा सकती हैं न, तुम गिन लेते हो। चार में एक दे दी तो पच्चीस प्रतिशत का नुक़सान!

आज़ादी बेचारी देखी नहीं जा सकती, वो हीरा ऐसा है जो अदृश्य है। तो उसको जब दे देते हो तो सुविधा रहती है क्योंकि कोई प्रमाण नहीं रहता कि तुमने आज़ादी बेच दी है। कोई चीज़ दिखे और फिर न दिखे, तो प्रमाण हो जाता है न कि वो चीज़ अब नहीं रही तुम्हारे पास? पहले दिखती थी रोटी, अब थाली पर नहीं दिखती, तो प्रमाण है कि रोटी दे दी या छिन गयी।

पर आज़ादी जब होती है तब भी आँखों से तो दिखाई देती नहीं। और जब नहीं होती तब भी उसकी अनुपस्थिति आँखों से तो दिखाई देती नहीं, तो हमें सुविधा रहती है। हम कहते हैं, ‘इसको बेच ही दो, किसी को पता थोड़े ही चलेगा।‘ और बिलकुल सही बात है! नंगी आँखों से देखिए तो सड़क पर एक आज़ाद आदमी चला जा रहा हो और एक ग़ुलाम, दोनों में फ़र्क पता थोड़े ही चलता है। बस हम इसी बात का फ़ायदा उठाते रहते हैं।

उसकी कद्र करना शुरू करिए जो दिखाई तो नहीं देता पर सबसे ज़्यादा क़ीमती है। और मैं परमात्मा की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं आपकी अपनी सच्चाई, अपनी सफ़ाई, अपनी आज़ादी की बात कर रहा हूँ। आप लोग यहाँ पर आये हैं, सभी लोगों ने साफ़ कपड़े पहन रखे हैं, कई लोगों ने तो सफ़ेद पहन रखा है। कहीं कोई दाग-धब्बा दिखाई नहीं दे रहा। ऐसा तो नहीं है कि बस संयोग से ही आपके कपड़े साफ़ हैं। आपने ख़याल रखा है इसीलिए साफ़ हैं, ऐसा ही है न? ख़याल नहीं रखो तो चौबीस घंटे में ही उस पर पता चलने लग जाता है। बोलिए?

इनका हम ख़्याल रख लेते हैं कि ये साफ़ रहे, क्यों? क्योंकि दाग़ दिखते हैं। दाग़ दिखते हैं, हमको दिखते हैं और बड़ी बात ये है कि दूसरों को भी दिख जाते हैं, है न? समझ रहे हो न, किधर को जा रहा हूँ? भीतर भी कुछ बैठा है जो हमने बहुत गन्दा कर लिया है, पर उसके दाग़ दिखते नहीं आँखों से तो हमें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ रहा। और मैं परमात्मा की बात नहीं कर रहा। मैं किसकी बात कर रहा हूँ? मैं मन की बात कर रहा हूँ।

वो जो भीतर एक चीज़ है जिसको बिलकुल साफ़ होना चाहिए, उसको इतना गन्दा कर लिया, उसको कभी नहीं डालोगे वाशिंग मशीन में? अरे! कपड़े तो बदल लेते हो रोज़, उसको कैसे बदलोगे? कपड़े तो गन्दे हो जाएँ तो फिर भी कोई बात नहीं, दूसरे डाल लो। उसको कैसे उतारोगे, कैसे दूसरा डालोगे, वो एक ही है। कितने साफ़-सुथरे मास्क हैं आपके, साफ-सुथरे नक़ाब! (मुस्कुराते हुए)

मस्त बात ये होती है कि इतने साफ़-सुथरे नक़ाबों के पीछे, कई बार ऐसे फेफड़े होते हैं जिनमें टार-ही-टार भरा होता है। साहब! दबाकर सिगरेट फूँकते हैं, फेफड़े हो चुके हैं काले और मास्क है बिलकुल साफ़। काले फेफड़े, सफ़ेद मास्क, ये इंसान की ज़िन्दगी है। अगर फेफड़े नाक पर पहनने होते न, तो क़सम से आप फेफड़े साफ़ करके रखते! मन भी अगर बाहर से दिखाई देता तो आप उतना गन्दा नहीं रख सकते थे जितना रखते हैं। पर मन पता नहीं चलता, आप यहाँ बैठे हैं, न जाने क्या-क्या विचार कर रहे होंगे, किसी को पता थोड़े ही चल रहा है।

बस इसी खुफ़िया चीज़ का हम फ़ायदा उठा ले जाते हैं कि अन्दर कुछ भी चलने दो, किसी को पता थोड़े ही चलना है। भाई! आप यहाँ से उठकर के बाहर निकल जाएँ, सबको पता चल जाएगा। कोई सवाल उठाएगा, कोई आपत्ति करेगा। पर आप यहाँ बैठे-बैठे मानसिक तौर पर बीच (समुद्र तट) पर पहुँच जाएँ, किसी को पता ही नहीं चलेगा। हमें तो यही लगेगा कि यह व्यक्ति यहाँ बैठा हुआ है। और वो वहाँ घूम रहा है। मुझे तो यही लगेगा कि मुझे देख रहा है। मन-चक्षु कुछ और ही दर्शन कर रहे हैं। पता नहीं चलता न, हम फ़ायदा उठा ले जाते हैं।

तो इतना कुछ है यहीं पर देखने-समझने के लिए कि आप आगे की कैसे बात कर सकते हैं। जैसे कि आपके सामने आपका कोई दोस्त हो और वो मर रहा है। और आप उससे बात कर रहे हैं कि बता तुझे अगली दिवाली पर क्या चाहिए। उसको अस्पताल लेकर के जाओ, भागो! तुरन्त भागो! वो मर जाएगा अगले आधे घंटे में। लेकिन हमें आगे की बात करना बहुत सुहाता है, क्योंकि आगे की बात करने में सुविधा हो जाती है, अभी का जो कर्तव्य है वो निभाना नहीं पड़ता न। कौन एम्बुलेंस बुलाये, कौन इसको उठाकर के अस्पताल भागे! इससे अच्छा, इससे बात करो कि अगली दिवाली पर कहाँ घूमने जाएँगे, क्या ख़रीदेंगे। बढ़िया है! मनोरंजन रहेगा!

बुल्लेशाह का याद है न कि आसमानी बातें तुमने बहुत कर ली, जो आसमानी है उसको पढ़ने में तुम्हारी बहुत रुचि है और "घर बैठे नू पढ़िया नहीं।" और ये जो घर बैठा है, मैं फिर कह रहा हूँ, ये परमात्मा नहीं है। उसको पढ़ने की बात नहीं है, उसे कौन पढ़ सकता है! अपने मन को पढ़ लो, अपनी ही नीयत से परिचित रहो। और ये सब छोड़ो बोलना कि मेरे भीतर तो भगवान बसता है, इंसान के भीतर परमात्मा बसता है। पहली चीज़ ये बोला करो, ‘इंसान के भीतर माया बसती है।‘ परमात्मा बहुत-बहुत दूर है। हम जहाँ आ गये हैं वहाँ से वो बहुत दूर है। और ये तो कहिए ही मत कि जो जहाँ है, जैसा है, भगवान ही तो है। वो भगवान होगा तो भी वो भगवान की तरफ़ से होगा, हमारी तरफ़ से तो नहीं है।

तुम बीच (समुद्र तट) पर हो और मैं लाइफ़गार्ड हूँ। सही समन्दर में डूबा करो। डूबने के लिए भी बहुत अड्डे होते हैं। डूबना ही काफ़ी नहीं है, कहाँ डूब रहे हो ये जानना भी बहुत ज़रूरी है। डूबना माने इमर्सन , डूब तो तुम किसी भी चीज़ में सकते हो। और देखा है कैसी-कैसी वाहियात चीज़ों में डूब जाते हो। सही चीज़ में भी डूबना तो ज़रूरी है, कि नहीं?

प्र: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न सफ़ाई के औजारों से है। मुझे लगता है मैंने अभी तक एक ही औजार इस्तेमाल किया है — जैसे सफ़ाई करने के लिए देखना। जिस चीज़ को मैंने देखा है वो चीज़ लग रहा है साफ़ हो गया है। जैसे कुछ मूल्य है, कुछ विश्वास है, कुछ अनुकूलन है, वो तो साफ़ हो गया है और कुछ ऐसा है जो बहुत ही ठोस है, बहुत बड़ा बलशाली है, मूल वृत्तियाँ। जो कभी-कभी लगता है कि साफ़ हो गया है, मगर फिर एक समय के बाद, दस दिन बाद, पन्द्रह दिन बाद वापस आ जाता है। ऐसा लगता है कि कुछ है जो दिख नहीं रहा है मगर उसकी सफ़ाई बहुत ज़रूरी है।

आचार्य: वो सब एक ही है। ऐसी सी बात कर रहे हो कि मैंने ऊपर-ऊपर से पेड़ की कुछ पत्तियाँ हटा दी हैं पर वापस आ जाती हैं। वापस तो आ ही जाएँगी। बहुत ज़बरदस्त पेड़ है, बरगद है। उसकी एक नहीं हज़ार जड़े हैं। तुम पत्तियाँ चुन रहे हो, उससे क्या हो जाएगा? ये भरोसा कम ही रखा करो कि ये हटा दिया है, वो हटा दिया है। इसीलिए बार-बार बोलता हूँ कि परमात्मा कितना बड़ा है, कितना महान है, कितना बलवान है, ये बातें बाद में करना, पहले तो ये बात करो कि माया कितनी बलवती है। हम गड़बड़ कर जाते हैं न, हम अपनी आरतियों में भी, स्तुति में, भजन में, कीर्तन में बात किसी ईश्वर की करने लग जाते हैं, ‘दो भुज, चार चतुर्भुज, दस भुज तोहे सोहे।‘

माया की कितनी भुजाएँ हैं, इसकी हम बात ही नहीं करते कभी। तो उसको बड़ा फिर आनन्द है। जब आप उसकी बात नहीं करोगे तो उसको सुविधा है, वो आपको बेवकूफ़ बनाती रह जाती है क्योंकि आपको उसका कुछ पता ही नहीं। आप उसका नाम, पता, ठिकाना, उसकी ताक़त, उसके तरीक़े जानना ही नहीं चाहते। मूर्ति भी बनाते हो तो अवतारों की, ईश्वरों की बना देते हो, ये देवता, ये देवी, ऐसे करके मूर्तियाँ बना दीं। और माया क्या है, इससे बिलकुल अपरिचित रह जाते हो। जानने लायक़ तो एक ही चीज़ है — माया। आत्मज्ञान और क्या होता है? आत्मज्ञान माने माया का ज्ञान, माया को जानना।

सत्य का तो ज्ञान होता ही नहीं है, हो सकता ही नहीं। आत्मज्ञान माने माया को जानना। आत्मज्ञान माने जो भीतर झूठ, अन्धेरा और मक्कारी बैठी है, उसको जानना। जब उसको जानते नहीं, तो वो फिर दिन-रात बेवकूफ़ बनाती है और हम बनते हैं बेवकूफ़।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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