प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं आपको लगभग एक साल से सुन रहा हूँ। क्या पाया, उससे पहले बताना चाहूँगा कि बहुत कुछ है जो मेरा छूट गया है। उससे पहले कई ऐसी आदतें थीं, कई ऐसे पैटर्न (ढर्रे) थे जो टूट ही नहीं रहे थे। सबकुछ कर लिया मैंने, मेडिटेशन किया, जिम किया। मतलब मैं किसी से बात नहीं कर पाता था, पर बहुत कुछ किया। अब वो धीरे-धीरे बहुत कम हो गए हैं और ऐसे बहुत सारी चीजें हैं जो छूट रही हैं, तो उसके साथ दुख भी छूट रहा है। तो थैंक यू सो मच फॉर दैट (उसके लिए आपका बहुत धन्यवाद)!
आज मेरा प्रश्न है कि जो हमें दर्द होता है कभी, तो वो दुख बने या न बने वो हमारे हाथ में होता है। किसी का वो दुख बनता है, किसी का नहीं बनता है। पर क्या वैसा मानसिक तौर पर भी होता है कि कोई दर्द आए और वो दुख बने या न बने? उस चीज़ पर अगर आप थोड़ा मार्गदर्शन कर पाएँ। धन्यवाद!
आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी ने कोई ठेका नहीं ले रखा कि हमारे हिसाब से चले। चीज़ें छूटने पर 'मैं' पर जो प्रभाव होता है, कि 'मैं' की ओर से जो प्रतिक्रिया आती है, उसको आप दर्द मान सकते हैं। पर दर्द दुख तभी बनता है, जब लगे कि मेरी शर्ट नहीं फट गई, मैं ही फट गया हूँ। मेरा जूता नहीं खो गया, मैं ही खो गया हूँ।
नीचे वाली ही चीज़ जब वरीयता में, प्राथमिकता में, प्रायोरिटी में सबसे ऊपर हो जाती है, तो दर्द दुख बन जाता है। तो खोना-पाना तो ज़िंदगी में चलता रहता है, लेकिन दुख से वो बचा रह जाता है जिसको पता होता है कि जो भी कुछ खोया, जो भी कुछ पाया, वो चीज़ यूँही थी, साधारण थी, कम वरीयता, निचली प्राथमिकता की थी। अब वो दर्द है।
हमें पता है कि जो केंद्रीय चीज़ थी वो नहीं खो गई, हमें पता है कि असली माल तो तिजोरी में सलामत है। तो चोर आए भी होंगे तो इधर-उधर से दो-चार गमले उठा ले गए हैं बाहर से, या कमरे में भी घुस गए तो कुछ उन्होंने इधर-उधर की चीज़ें, कपड़े-लत्तों पर हाथ फेर लिया है। कुर्सी-टेबिल उठा ले गये चोर, पर आपकी जो असली पूँजी है वो तिजोरी में सलामत है। तिजोरी नहीं टूटी तो दुख नहीं होगा, लेकिन इसके लिए पता होना चाहिए न कि तिजोरी इतनी ज़बरदस्त है कि वो टूट नहीं सकती।
तिजोरी, हो सकता है आपके पास हो, हो सकता है उस तिजोरी में बहुत कीमती चीज़ भी रखी हो, पर ये भी तो हो सकता है कि आपको खुद ही न पता हो कि आपके पास तिजोरी है। तो फिर आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या हो जाएगी कि घर में इधर-उधर, बाहर-अंदर जो भी चीज़ है — बाहर एक बल्ब लटक रहा था, कोई उसको फोड़ गया। आपके लिए वो बल्ब ही दुनिया की और ज़िंदगी की सबसे कीमती चीज़ थी। और घर के बाहर बल्ब लटक रहा है, कि गमला रखा है, वह कभी भी टूट सकता है। यहाँ तक कि घर का ताला भी टूट सकता है। घर का ताला टूटा, कोई आ गया अंदर, ले गया चीज़ें। लेकिन इसमें गनीमत की बात ये है कि हम सबके पास एक तिजोरी है और उसमें जो है उसे कोई हमारी मर्ज़ी के बिना नहीं ले जा सकता। बाहर के किसी चोर की हिम्मत नहीं है, हैसियत नहीं है, उसका अधिकार ही नहीं है कि वो उस तिजोरी को हाथ लगा सके। हाँ, आप स्वयं उसको त्याग सकते हैं, आप खुद तो उसको छोड़ सकते हो, पर कोई और आपसे छुड़ा नहीं सकता।
दुख की परिभाषा है — जो उच्चतम है, वो अगर मुझसे अलग हो जाए, तो मेरे अनुभव को दुख बोलते हैं। जो सबसे ऊपर का है, जब वो मुझसे छिन जाए, तब जो होता है उसको बोलते हैं दुख। और बाकी छोटी-मोटी चीज़ें हैं ये आती-जाती रहती हैं। इनके छूट या टूट जाने पर जो अनुभव है उसको आप बोल दोगे ‘दर्द’। तो दर्द ‘दुख’ सिर्फ़ एक शर्त पर बनता है कि वो छोटी चीज़ ही आपके लिए सबसे बड़ी चीज़ थी। क्योंकि आपको अपने घर की तिजोरी का पता ही नहीं था, तो आपको लगता था कि आपके घर की कुर्सी ही आपकी सबसे कीमती चीज़ है। तो अब अगर चोर कुर्सी ले गया या किसी के बैठने से कुर्सी टूट गई, या दीमक ने कुर्सी को खा लिया, तो आपको लगेगा कि आपकी सबसे कीमती चीज़ छिन गई। अब जिसको दर्द होना चाहिए था, वो दुख बन जाएगा।
छोटी सी चीज़ हुई थी जिससे दर्द तो मिल सकता था, पर वो छोटी सी चीज़ का छोटा दर्द अब छोटा न रहकर के भारी दुख बन जाएगा। क्योंकि आपके देखे आपके पास उस कुर्सी के अलावा या उस कुर्सी से ऊँचा कुछ है ही नहीं। कुल मेरे पास एक कुर्सी थी, उसको दीमक चाट गई, अब छाती पीटकर रोओगे। तो ये सारी समस्या इस बात की है कि — जैसा हमने आज की बात के शुरू में कहा कि — जो सबसे केंद्रीय है, महत्त्वपूर्ण है, उसका आपको कुछ पता है कि नहीं है। घर में तिजोरी रखी है, पर आपको उस तिजोरी का पता भी है या नहीं है।
मैं व्यर्थ ही पालतू चीज़ों को महत्व दे रहा हूँ, इसको जानने को ही आत्मज्ञान कहते हैं। और जो फ़ालतू चीज़ हैं, उनको फ़ालतू अगर जान लिया, तो यही कीमती चीज़ है। पालतू को फ़ालतू जानना ही कीमती चीज़ है, व्यर्थ को व्यर्थ जानने में ही सार्थकता है। वो तिजोरी कोई चीज़ नहीं है कि घर में कहीं पर रखी हुई है कि आप खोज निकालोगे। वो तिजोरी एक रोशनी की तरह है, एक ताकत की तरह है, जो आपको हिम्मत देती है कि आप छोटी चीज़ों पर आश्रित न हो जाओ — ये है उस तिजोरी की पहचान।
जिसको अपनी तिजोरी का पता होगा, उसको कैसे पहचानोगे? उसकी पहचान ये होगी कि वो छोटी-मोटी चीज़ों को बहुत भाव नहीं देता होगा। आप उसका मोज़ा चुरा लोगे, चश्मा चुरा लोगे तो उसको हृदयाघात नहीं आ जाएगा। आप उसको गाली दे दोगे तो वो लाल-पीला नहीं हो जाएगा। वो कहीं खेल रहा है, हार गया, या कुछ और हो गया, नौकरी छूट गई, इतनी सी बात पर वो दीवाल में सिर नहीं मार रहा होगा। समझ रहे हैं?
जो छोटे-को-छोटा समझे, उसी के पास बड़ी चीज़ है, यही पहचान है बस। और जो छोटे-को-छोटा नहीं समझ सकता, उसके लिए छोटी चीज़ ही बहुत बड़ी चीज़ है। अंतर साफ़ समझिएगा, जिसने छोटे-को-छोटा जाना, तो छोटा जानने का काम ही बता रहा है कि उसके पास बड़ी चीज़ है। छोटे-को-छोटा जानना ही बड़ी बात है। और जो छोटे-को-छोटा नहीं जान सकता, उसके लिए हर छोटी बात बहुत बड़ी बात है।
तो जिसके लिए छोटी बात बड़ी बात हो गई, उसके लिए सब दर्द दुख बन जाते हैं। और जो छोटी चीज़ को छोटी चीज़ जानता है, वो सब दर्दों को खेल की तरह लेता है। उसको दर्द भी हो रहा होगा, वो उससे खेल भी रहा होगा। हम नहीं कह रहे कि उसे पीड़ा नहीं हो रही, पेन (दर्द) उसको भी है, पर उसके लिए दर्द भी ऐसा है जैसे मज़ाक। उसको पता है छोटी बात है, असली बात कुछ और है।
दस करोड़ रुपया तिजोरी में बिलकुल सुरक्षित रखा हुआ है, चोरों ने बहुत अगर नुकसान कर भी दिया है तो दस हज़ार का कर दिया है। जिसके पास दस करोड़ रुपया बँधा रखा हो, वो दस हज़ार के लिए क्या आँसू बहाएगा! और ऐसा नहीं कि दस हज़ार की चोट नहीं पड़ी है, पड़ी है। उस चोट का अनुभव वो करेगा, पर रो नहीं पड़ेगा। बल्कि शायद हँसने लग जाए कि ये चोर भी पागल हैं, इन्हें मुझसे चाहिए था तो दस करोड़ की चीज़ माँगते, दस हज़ार लेकर के चले गए पगले!
और वो दस करोड़ की चीज़ ऐसी है कि मैं उसको बाँट भी दूँ, तो भी वो दस करोड़ की ही रह जाती है। मैं इन चोरों के साथ उसको बाँट सकता था, पर ये पागल दस हज़ार लेकर चले गए हैं और बहुत खुश हो रहे हैं। और जिसके पास वो दस करोड़ की चीज़ होती है, उसकी एक निशानी ये भी है कि उसमें कृतज्ञता, ग्रेटीट्यूड (अनुग्रह) बहुत आ जाता है। वो कहता है, 'क्या ज़बरदस्त किस्मत है, क्या ऐसा मिल गया है देखो! कि दुनिया मुझे लूटती रहे, ज़िंदगी लूटती रहे, शरीर को मौत भी आ जाए तो भी हमारे पास वाह! क्या जलवे हैं, हमारा कुछ बिगड़ ही नहीं रहा!’ ये अंतर समझ रहे हैं न?
दर्द माने वो जिस पर आपका कोई बस नहीं है। आप सो रहे हो, चोर आकर के चीज़ें कर सकते हैं। संतों ने गाया ही है न ये — "होशियार रहना रे नगर में चोर आएगा।” और कितने चोरों को रोकोगे, ये तक हो सकता है कि आप साँस लो, साँस से एक चोर भीतर घुसकर फेफड़े में बैठ जाए। ऐसे ही तो वायरस आता है, वो आकर बैठ गया, कितनों को रोक लोगे?
एक चोर तो काल भी है। उम्र बढ़ रही है, एक दिन उम्र बढ़ते-बढ़ते बिना किसी बीमारी के भी मर सकते हो; उम्र ही बीमारी बन जाती है। तो चोर तो बहुत लगे हुए हैं, दर्द तो ज़िंदगी दे सकती है, पर दर्द दुख बने ये अनिवार्य नहीं होता। दर्द दुख तभी बनता है जब आपको अपनी तिजोरी का पता नहीं होता। समझ रहे हैं बात को?
और फिर जब मुझे ये पता होता है न कि मेरे पास करोड़ों की संपदा सुरक्षित पड़ी है, तो मैं बहुत घबराता भी नहीं हूँ थोड़े खतरे वाले खेल खेलने से। जिसको लगता है उसके पास दस ही हज़ार हैं, वो क्या खतरा उठाएगा पाँच हज़ार का? उठा सकता है? उसको लगेगा कि अगर हार गया तो बर्बाद हो जाऊँगा। तो वो फिर बहुत बच-बचकर चलता है, डर-डरकर रहता है। वो कायर हो जाता है, दब्बू हो जाता है, भीरू हो जाता है। उसको लगता है मेरे पास कुल इतना ही तो है, अगर यह भी चला गया तो हाय! मेरा क्या होगा! लेकिन जिसको पता है कि कुछ भी चला जाए, हमारा कुछ नहीं जाता, वो खुलकर खेलता है। वो बड़े खतरे उठा सकता है, वो ऊँची उड़ान भर सकता है। बहुत ऊँची उड़ान भरकर वो गिर भी सकता है, गिरकर वो टूट भी सकता है। और वो कहेगा, ‘मैं टूटने के बाद भी नहीं टूटा, बाहर से टूट गया, भीतर से नहीं टूटा।’ मतलब समझ रहे हैं?
ये दोनों चीज़ें गड़बड़ हैं — पहली गलती हम ये करते हैं कि हम सब तरह के दर्द रोकना चाहते हैं। सब तरह के दर्द अगर रोकना चाहोगे, तो तुम ज़िंदगी को ही रोक दोगे। ज़िंदगी को मौका दो कि तुम्हें तकलीफ़ें दे सके भाई! ज़िंदगी चीज़ ही ऐसी है, उसका काम है तुमको कभी सुख, कभी दुख देना, पालना झुलाना — कभी दायाँ कभी बायाँ, कभी धूप कभी छाँव, कभी दिन कभी रात, कभी जाड़ा कभी गर्मी, और कभी बरसात। ये ज़िंदगी चीज़ ही ऐसी है, इन चीज़ों को नहीं रोका जाता।
अभी जब कोविड वाली महामारी फैली थी, उसमें विकसित देशों में जो फेटेलिटी रेट (मृत्यु दर) था, वो बहुत ज़्यादा था। उसका एक कारण ये भी था कि वो बहुत ज़बरदस्त तरीके से इम्यूनाइज्ड (रोग प्रतिरोधित) थे। उन्होंने वैक्सीनेशन बहुत ज़्यादा करा रखा था। इतना वैक्सीनेटेड होने के कारण, आर्टिफिशली इम्यूनाइज्ड (कृत्रिम तरीके से प्रतिरोधित) होने के कारण उनकी नेचुरल इम्युनिटी (प्राकृतिक प्रतिरोधात्मकता) बड़ी कम हो गई थी। और जो उन्होंने शॉट्स ले रखे थे, वैक्सीन्स , वो कोई ऐसे नहीं थे जो उन्हें कोरोना वायरस से बचा पाएँ। लेकिन उनकी जो प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता थी, वो सब जो है, वो इतनी वैक्सीन ले-लेकर वो दब गई थी।
ज़िंदगी को मौका देना चाहिए, ‘थोड़ा हमें तू बुखार दे दे, उससे हमारी ताकत बढ़ती है।’ ज़िंदगी से ये नहीं कहना चाहिए कि मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। दिन भर जैसे कोई लोग होते हैं, एसी में ही बैठे होते हैं, बाहर ही नहीं निकल रहे। खासकर अगर बिजली का बिल न देना हो, तो बहुत लोग एसी बंद ही नहीं करते। ठीक है, तुम्हें लग रहा है कि बड़े हमें मज़े आ गए, एसी नहीं बंद किया दिन भर, लेकिन उसका नतीजा क्या निकलेगा? जब बाहर निकलोगे, तो तुमको लगेगा लू चल रही है। साधारण तीस-बत्तीस डिग्री में भी ऐसा होगा कि जैसे गर्म तेल में तुमको कचौड़ी बना दिया गया।
ज़िंदगी को मौका दें कि थोड़ी गर्मी दे, कि पसीना बहाए, कुछ नहीं हो गया। तुम कहोगे, ‘नहीं, मुझे कोई भी चीज़ आकर ज़रा भी ऐसे लगे नहीं।' ऐसे लगेगी नहीं, तो फिर तुम्हारी माँसपेशिया भी नहीं बनेगी। और तुम कितना भी रोकोगे, कभी-न-कभी, कुछ-न-कुछ तो आकर लग ही जाएगा। जब लग जाएगा तो हाय-हाय करोगे। तो पहली चीज़ तो ये नहीं करनी चाहिए कि हर छोटे दर्द को रोकने की कोशिश करी। पसीना बह रहा है, ये छोटा दर्द है। समझ में आ रही बात?
कभी बीच-बीच में अपने वाहन की जगह बस पर चलना पड़ गया, छोटी बात है, कर लो। बहुत लोगों के लिए बड़ा हादसा हो जाता है, 'आज पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चलना पड़ गया! ये आज हमारे साथ बड़ी गलत चीज़ हो गई आज’; कर लो ये। तो ये पहली गलती है कि दर्द को रोकने का पुरज़ोर प्रयास; दर्द को रोको नहीं, दर्द के साथ खेलो। और जो दर्द को रोकने का बहुत प्रयास करते हैं, उनके साथ क्या होता है वो दूसरी गलती है। उनकी गलती ये है कि जब उनको दर्द मिलता है, रोकने के प्रयास के बावजूद मिलता है, तो दर्द के आगे ढेर हो जाते हैं, एकदम गिर जाते हैं। अब उन्होंने जान लगा दी थी कि कुछ नहीं होना चाहिए। उनका बस चले तो वो सिरदर्द की भी वैक्सीन ले लें कि सिरदर्द भी नहीं होना चाहिए। और फिर जिस दिन सिरदर्द हो जाएगा, उस दिन वो फ़ोन करके बोलेंगे, ‘आज हम कुछ नहीं कर सकते, आज हमारा सिरदर्द हो रहा है।' अरे भाई! सिरदर्द ही तो है, हो रहा है तो हो रहा है, काम करो। ये दूसरी गलती है।
पहली गलती क्या करी थी? सब दर्दों को रोकने की कोशिश। और दूसरी गलती क्या करी? कि दर्द हो गया, तो उसको दुख मान लिया। नहीं, दर्द है, साधारण दर्द है, उसको दुख नहीं मान लेते। दुख तो उनको होता है जिनका हीरा छिन जाए, हमारा नहीं छिन सकता अब। हमने उसको बिलकुल यहाँ छाती में भीतर बैठा लिया है, वो छिन ही नहीं सकता। तुम्हें दुख अब नहीं होगा, दर्द हो सकता है, दुख नहीं हो सकता।
हम किसी दर्द को इतनी हैसियत देते ही नहीं हैं कि वो दुख बन जाए। और वो जब दुख नहीं बनता, तो फिर हम बहुत नहीं रोते हैं। या अगर बहुत रोने की नौबत भी आ गई — हो सकता है ज़िंदगी बड़ा दर्द दे दे, दे सकती है — अगर रोने की नौबत भी आ गई, तो हम रोते-रोते खेलते हैं। क्यों नहीं खेलेंगे रोते-रोते, भाई, पसीना बहाते-बहाते खेल सकते हो, तो आँखों से भी कुछ बह रहा है, खेलो।
होता है, बहुत हुआ है, लोगों ने खून बहाते-बहाते भी खेला है। ये बहुत दूर की बातें नहीं हैं। पसीना बहाते — एक कोई ऐसा भी हो सकता है जिसका पसीना भी बहे तो कहे, 'नहीं खेल सकते हैं आज। खेलने गए थे आज, आज टेंपरेचर (तापमान) और ह्यूमिडिटी (नमी) बहुत ज़्यादा है, आज हम नहीं खेलेंगे।' ऐसे भी लोग हो सकते हैं, वो एकदम ही गिरे हुए हैं। उनसे इतना भी दर्द नहीं झेला जाता। उससे ऊपर वाले वो हैं जो कम-से-कम पसीना बहा लेते हैं। उनसे ऊपर वाले वो हैं जो आँसू बहा लेते हैं। आँख में कुछ चला गया, तो उसकी वजह से आँख से बह रहा है, लेकिन फिर भी कह रहे हैं, 'खेलेंगे।' या आज खेलने आ रहे थे, कुछ घटना हो गई थी, उसकी वजह से आँखें नम हैं, फिर भी खेलेंगे। और उनसे भी ऊपर होते हैं जो कहते हैं, 'पसीना भी बह सकता है, आँसू भी बह सकता है और खून भी बह रहा हो, हम तब भी खेलते हैं।’ ये हैं असली खिलाड़ी! इन्होंने दर्द को ऐसा कर दिया कि बड़े-से-बड़ा दर्द भी दुख नहीं है अब। दर्द होगा बहुत बड़ा, इतना बड़ा कि आँसू, खून सब निकाल दिया, लेकिन उसे दुख हम अभी भी नहीं मानते।
सारे बोध साहित्य का उद्देश्य है आपको दुख से मुक्त करना। और मुझे कोई एक जगह बता दो जो आपसे वादा कर रही हो कि आपको दर्द से मुक्त कर देंगे, कोई नहीं कहेगा आपसे। दर्द को तो झेलने के लिए कहा जाता है, दर्द से तो खेलने के लिए नहीं कहा जाता है। पीड़ा से मुक्ति की बात कभी नहीं करी जाती, पीड़ा है तो है। पीड़ा प्राकृतिक है, सामान्य है, साधारण है, हम तो वो छाती रखना चाहते हैं कि पीड़ा में गोता भी मार दें अगर आवश्यकता पड़े तो। सही उद्देश्य के लिए जान-बूझकर के पीड़ा झेल लें, हमें ऐसा होना चाहिए। लेकिन अध्यात्म कहता है, 'दुख से मुक्ति मिल सकती है, पीड़ा से मुक्ति की कोई ज़रूरत ही नहीं है। जीवन माने पीड़ा, तो फिर हँसते-हँसते झेलो पीड़ा को। पीड़ा से मुक्ति की कोई बात नहीं है, पर दुख से मुक्ति हो सकती है। और दुख से मुक्ति आपका सिर्फ़ अधिकार ही नहीं है, कर्तव्य भी है।’
दुख से मुक्ति आपका कर्तव्य है; और इसी कर्तव्य का नाम है धर्म। धर्म की और नहीं कोई परिभाषा होती, यही परिभाषा है — स्वयं के प्रति, जीवन के प्रति मेरा कर्तव्य है कि मैं दुख मुक्त जिऊँ, यही धर्म है। यही धर्म की परिभाषा है। स्वर्ग पा लूँगा ये नहीं धर्म होता, पुण्य कमा लूँगा ये नहीं धर्म होता, फ़लाने तरीके के काम कराऊँगा, तीर्थ घूम आऊँगा, कर्मकांड कर दूँगा, प्रथा-परंपरा निभा दूँगा, ये सब नहीं धर्म होता। ‘मैं जीवन को दुख मुक्त कर दूँगा’, ये धर्म होता है। दुख मुक्त, दर्द मुक्त नहीं, दर्द का तो स्वागत है, आओ।
ये जो खिलाड़ी होते हैं न असली, ये मालूम है क्या करते है? जब ज़िंदगी ज़्यादा ही दर्द देने लग जाती है, तो दर्द के विरुद्ध इनके पास जो रही-सही, बची-खुची भी सुरक्षाएँ होती हैं, कवच होते हैं, ये उनको भी उतार देते हैं। ये कहते हैं, ‘आओ, ठीक है, खुलकर खेलते हैं। कि अगर स्थितियाँ साधारण चल रही हों, तो फिर भी हम शायद दर्द से बचने के कुछ साधारण इंतज़ाम करे रहें। लेकिन जब ज़िंदगी तय कर ले कि अब असाधारण दुख देना है, तो फिर हमने दर्द के खिलाफ़ जो थोड़े-बहुत भी कवच पहन रखे थे, हम वो कवच भी उतार देंगे। ज़िंदगी से कहेंगे कि अब तू तुल ही गई है दर्द देने पर, तो आ, पूरा दे, देखते हैं, दे।’ और जो भारी दर्द के सामने भी दुखी नहीं हुआ, ज़िंदगी फिर उसकी हो जाती है।
ज़िंदगी आई थी तुम्हें तोड़ने दर्द देकर के, ज़िंदगी को तुमसे प्यार हो जाता है, बस टूटो नहीं तुम। तो करें क्या? परीक्षा करिए कि जिन दर्दों से आप बचने की इतनी कोशिश करते हैं, उनसे बचना ज़रूरी भी है क्या, ये करिए। क्योंकि हमने कहा, वो जो हीरा है, वो तिजोरी है, वो सबके पास है। पर जब छोटी चीज़ को ही अगर बड़ा बना लोगे, तो जो बड़ी चीज़ है आपके पास, इस पर ध्यान कैसे जाएगा?
छोटे-छोटे दर्द से बचने की जितनी ज़्यादा कोशिश करते हो न, उतना वो छोटा दर्द आपकी निगाह में बड़ा होता जाता है। तो करना क्या है? करना ये है कि ये छोटी-छोटी चीज़ें जब ज़िंदगी में आएँ, तो उन्हें बहुत भाव नहीं देना है। जिन चीज़ों से बचने के लिए बड़ी दीवालें खड़ी कर रखी हैं सुरक्षा की, उन चीज़ों को जानते-बूझते थोड़ा ज़िंदगी में आमंत्रित करना है, प्रयोग करना है कि अगर ये चीज़ें ज़िंदगी में आ भी गईं तो मेरा क्या बिगड़ गया और कितना। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं व्यर्थ ही डरता हूँ कि ये सबकुछ हो जाएगा तो मैं टूट जाऊँगा।
हो सकता है कि मैं अपनी कल्पना से ज़्यादा मज़बूत हूँ, हो सकता है कि ये सब मेरे साथ हो और मैं टूटूँ नहीं, बल्कि मुझे पता चल जाए कि मैं बहुत मज़बूत हूँ। टूटना तो नहीं ही हुआ, कुछ नई खास बात पता चल गई कि साहब, हम तो व्यर्थ डर रहे थे, हम तो बहुत मज़बूत थे, न जाने हम क्यों अपनेआप को कमज़ोर मान रहे थे! हमें ये करना है, प्रयोग करना है, थोड़ा सा भरोसा करना है कि अगर खतरे उठा लिए ज़िंदगी में, तो कुछ ऐसा नहीं हो जाएगा कि बर्बाद ही हो जाएँगे। और उसके आगे जाकर के फिर आदमी ये भी कहना शुरू हो जाता है कि हम ऐसे हैं साहब कि बर्बाद भी हो जाएँगे तो भी बर्बाद नहीं होंगे। और उसके आगे जाकर कहता है कि अगर हो भी गए बर्बाद, तो क्या फ़र्क पड़ता है। मज़ा आता है फिर जीने में!
कुछ ऐसा सा था, किसी शायर का है, खोजेंगे तो मिल जाएगा कि “बर्बाद होना जिसकी अदा हो, रोकेगा क्या उसे गम ज़िंदगी का।” खोजिएगा, यही है या कुछ आगे-पीछे है। बस ये लिखो, ये है पूरा — बर्बाद होना जिसकी अदा हो दर्द-ए-मोहब्बत जिसकी दवा हो सताएगा क्या उसे गम ज़िंदगी का
तो बर्बाद होना क्या है? अपनी स्टाइल है भाई! अदा है। तुम्हारे लिए तकलीफ़ है, हमारे लिए सिर्फ़ अदा है। बर्बाद होना हमारी अदा है, तुम्हारे लिए सज़ा है, हमारे लिए अदा है। उसमें साथ में नई चीज़ आ गई न 'मोहब्बत', “दर्द-ए-मोहब्बत जिसकी दवा हो।” तो वो जो हीरा है, उससे मोहब्बत होनी चाहिए। जब हीरे से मोहब्बत होती है, तो मोजे और गमले के टूट जाने पर दिल नहीं टूटते। और जिनके लिए वो है कि “मोरा हीरा हेराई गयो कचरे में”, उनके लिए फिर कचरा ही हीरा है। उनका कोई कचरा भी अगर चुरा ले जाए, तो हक्का फाड़कर रोते हैं। सोचो! कचरा बाहर रखा था, कचरे वाली गाड़ी आई, उसको ले गई। और ये वहीं बैठ गए हैं और छाती पीट रहे हैं कि आज भारी नुकसान हुआ है! कुछ है ही नहीं ज़िंदगी में; मोहब्बत चाहिए, ‘प्रेम’, प्रेम के बिना कुछ नहीं।
जब प्रेम हो जाता है, तो आदमी छोटी-मोटी बातों के प्रति बेपरवाह हो जाता है, छोटे दर्द फिर सताते नहीं हैं। ये मोहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ में है और बहुत खूबसूरत है, इसको सुनना। लगा दें क्या, सबको सुना ही दें! लाओ ज़रा! आप कह रहे थे न, जब सवाल शुरू हुआ था कि आपको मेरे पास मिला क्या है ये पता नहीं, पर आपने खोया बहुत कुछ है। उसी रो (पँक्ति) में है — लुटा जो मुसाफिर दिल के सफर में है जन्नत यह दुनिया उसकी नज़र में उसी ने है लूटा मज़ा जिंदगी का मोहब्बत में जो हो गया किसी का।
'सजदा' माने जिसके सामने झुका जा सकता है। उसके सामने झुक जाना जिसने ये नहीं करा है कि जिसको चाहा था उसको पा लिया, उसके सामने झुकना जिसने किसी ऐसे को चाहा कि उसको पाया नहीं जा सकता, बस उसके जैसा बना जा सकता है। ये है न कि — जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सारी आस। मुक्त जैसा ही हो रहे, सबकुछ तेरे पास।। ~कबीर साहब
तो उसको नहीं चाहा जाता जिसको तुम पा लो, उसको चाहा जाता है जो अपने प्रियतम की तस्वीर जैसा हो गया हो। जिसको चाहो उसके जैसे हो जाओ। और अगर कोई ऐसा मिले, तो फिर उसके सामने सजदा कर सकते हो। जो बन गया हो ‘तस्वीर-ए-जाना’, उसके जैसे बन जाओ, “मुक्त जैसा ही हो रहे, सबकुछ तेरे पास।” अब इन्होंने फ़िल्म में पता नहीं ये इतना सोचकर नहीं लिखा होगा, पर मैं जहाँ से देख रहा हूँ वहाँ से बोल रहा हूँ कि जब चाहा जाता है न, तो ‘जाना’ है, जो जान-ए-मन है, वो ऐसा होना चाहिए कि चाहत में हम बिलकुल उसके जैसे हो गए, “राँझा-राँझा करते-करते आपहि राँझा होई।”
हाँ, जो प्रेमी था, बिलकुल उसके जैसे हो गए, कि जो बन गया हो तस्वीर-ए-जाना। और अगर कोई ऐसा मिले, तो फिर उसके सामने सजदा करा जा सकता है। ऐसे नहीं कि जिससे प्रेम हो रहा है, हमें उसको पा लेना है, हासिल कर लेना है; हासिल-वासिल नहीं करना है। वो इतना ऊँचा है कि उसको हासिल नहीं कर सकते, बस उसके जैसा बन सकते हैं। उसकी तस्वीर बन जाना है मुझको। (मोबाइल पर गीत के बोल बजाते हुए) “बर्बाद होना जिसकी अदा हो, सताएगा क्या गम उसे जिंदगी का।”
उसके जैसा हो जाने का क्या मतलब है? उसकी नकल करना? बताइए, आपकी परीक्षा शुरू हो चुकी है, पहला यही है — उसके जैसा हो जाने का क्या मतलब है? कि जो बन गया हो तस्वीर-ए-जाना; तस्वीर-ए-जाना हो जाने का क्या मतलब है? उसके जैसे कपड़े पहन लें? उसके जैसी बात करने लगें? फिर क्या?
प्र: नहीं, केंद्र उसके जैसा हो जाए।
आचार्य: नहीं, अपने जैसा न रहना। हमेशा नकार की भाषा में बात किया करिए, हमेशा। उसके जैसा होने का मतलब है — जो कुछ मुझे मेरे जैसा बनाता था, मैंने छोड़ा। जिस किसी चीज़ में मेरी व्यक्तिगत सत्ता थी, मेरी इंडिविजुअलिटी (वैयक्तिकता) थी, मैंने उसको छोड़ा। उसके जैसा क्या बनोगे, उसके कोई गुण तो हैं ही नहीं! वो तो निर्गुण है, तो उसके गुणों को अपनाओगे भी कैसे? उसके जैसा बनना संभव नहीं है, पर संभव है अपने जैसा न रहना। ये संभव है।
तो जो कुछ मुझे मेरे जैसा बनाता है, मुझे उसको रखना ही नहीं। वो क्या है? वो वही है, शरीर, समाज, संयोग ने जो दे दिया, वही है। मैं उसको क्यों पकड़कर बैठा रहूँ, मैं छोड़ने को तैयार हूँ — इसे कहते हैं ‘तस्वीर-ए-जाना’। ‘तस्वीर-ए-जाना’ ऐसी होती है जैसे दर्पण में शून्य को शून्य का प्रतिबिंब दिख रहा हो — उधर भी कुछ नहीं, इधर भी कुछ नहीं। तू भी कुछ नहीं था, मैं भी कुछ नहीं हो गया, शून्य बराबर शून्य, हम दोनों एक हो गए। अब ‘तस्वीर-ए-जाना’ हूँ मैं, दर्पण के सामने खड़ा हूँ, मैं बिलकुल तेरे जैसा हूँ। तू भी कुछ नहीं है, मैं भी कुछ नहीं हूँ।
प्र: थैंक यू सर।