प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं पिछले दो-तीन महीने से अध्यात्म में हूँ। थोड़े समय से बिलकुल सही चल रहा था, जब तक मन और बुद्धि पर काम हो रहा था तो ज़्यादा डर नहीं था, पिछले हफ़्ते कुछ ऐसा हुआ कि बहुत ज़्यादा डर लगने लगा। मैं जिनसे सीख रही हूँ, मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है, तो उन्होंने मुझे बताया कि ये अहम् है। इतने में एक स्वयंसेवक का फ़ोन आया और उन्होंने बोला कि तुम आचार्य जी से जाकर पूछो, वो तुम्हें अच्छे से समझा पाएँगे अहम् के बारे में। डर बहुत ज़्यादा लगता है, जैसे-जैसे आगे बढ़ रही हूँ वैसे-वैसे डर बहुत लग रहा है। तो मैं इस डर का क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: हमारे भीतर कुछ है, उसको बचाने के लिए डर ज़रूरी होता है। डर भीतर क्या बाहर भी है, इस शरीर में है। तो डर कोई ग़लत चीज़ तो हो ही नहीं गयी, (शरीर की ओर इशारा करते हुए) ये नहीं बचेगा अगर डर न हो।
डर का मतलब क्या होता है? ये भाव कि कुछ ख़तरे में है, कुछ छूट जाएगा, कुछ जो मिल सकता है नहीं मिलेगा, इस भाव को डर कहते हैं। तो ये भाव यूँही नहीं आ गया, ये भाव जो हमारी पूरी विकास प्रक्रिया रही है — जैसे हम पिछले करोड़ों सालों में नन्हें तंतुओं से बढ़कर के इतने बड़े-बड़े हो गये हैं न, और हम कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क जो है वो अब बहुत विकसित हो गया है, ये सब चीज़ें। तो ये सब एक दिन में हुआ नहीं, एक बड़ी लम्बी यात्रा रही है, उस पूरी यात्रा में डर का बड़ा योगदान रहा है।
डर नहीं होता तो ये जितने भी जीव रहे हैं हमारी यात्रा में, या हमारी ही यात्रा में जो हमारी अलग-अलग स्थितियाँ रही हैं, अवस्थाएँ रही हैं, हम उनमें बच ही नहीं पाते। एक जंगली जानवर आपके पीछे पड़ता है, आपने देखा है आप कितनी ज़ोर से भागते हो? वो जो आपके भीतर भागने की ऊर्जा उठती है, वो कौन देता है आपको? यही भाव, कि भाग नहीं तो ख़त्म हो जाएगा; इसी को तो डर कहते हैं। तुम ख़त्म हो जाओगे, इसी भाव को कहते हैं डर, और ये भाव हमारे लिए उपयोगी रहा है आजतक। तो कुछ ग़लत नहीं हो गया अगर डर है; बात ये है कि डर किसको है।
ये जो देह है, ये डरे तो क्या हर्ज़ हो गया, क्योंकि इसको भलीभाँति पता है कि ये मरणशील है; ये ख़त्म हो सकती है ये जानती है, ये जानती है इसीलिए अपनेआप को बचाना चाहती है। तो डरने का काम आपका ये जो शारीरिक तंत्र है इसको करने दीजिए, और अगर वो डर रहा है तो बिलकुल ठीक कर रहा है।
और आपको पता है, बहुत बार तो आपको पता भी नहीं चलता, वो डर रहा होता है और डरके वो अपना जो नुक़सान है वो बचा भी ले जाता है। उदाहरण के लिए, आपके शरीर में कोई वायरस (विषाणु) वगैरह घुस जाए, तो भीतर एकदम डर ही पैदा हो जाता है। लेकिन वो डर आपको नहीं पता चलता क्योंकि कोई मानसिक, साइकोलॉजिकल घटना अभी घटी नहीं है, और अगर घटी भी है तो ऐसी जगह पर घटी है जहाँ पर आपका जो कॉन्शियस रडार (चेतन मन) है वो उसको पकड़ नहीं पाया।
तो डरने की, सतर्क हो जाने की, भीतर एक अलार्म के बज जाने की घटना तो दिन-रात चलती ही रहती है, और वो चलती रहे। शारीरिक तल पर वो चल रही है, अच्छा है, शरीर अपना बचा रह जाएगा, क्योंकि शरीर को अच्छे से पता है कि उसे मिट जाना है। जो जानता है कि उसे मिट जाना है, वो ग़लत क्या कर रहा है अगर अपनेआप को मिटने से बचाना चाहता है, जितने भी दिनों के लिए? अमर तो है नहीं, पर नहीं बचाएगा तो पंद्रह ही साल जिएगा, बचाकर हो सकता है कि पचहत्तर साल जी जाए। तो वो इस कोशिश में अपना लगा रहता है, कोई दिक्क़त नहीं हो गयी।
इसी तरीके से मन भी जिन चीज़ों को जानता है कि मिट जाएँगी, उनको लेकर के डरता है, और ये डर भी वाजिब है। आपने अपने बहुत सारे नुक़सान बचा लिए होंगे क्योंकि किसी कीमती चीज़ को लेकर के आप ज़्यादा सतर्क रहे होंगे, या मान लो डरे भी हुए होंगे। अगर डर न हो, तो मुझे बताइए कितने छात्र हैं जो अपनी परीक्षाएँ पास (उत्तीर्ण) करेंगे? तो डर यही बताता है कि जो डर रहा है वो जानता है कि उसके पास खोने के लिए कुछ है।
शरीर को अच्छे से पता है कि इसको धूप भी मिटा सकती है, कीटाणु भी मिटा सकते हैं, पानी भी मिटा सकता है, भूख भी मिटा सकती है, उम्र भी मिटा सकती है, तो शरीर डर रहा है। वाजिब बात है, उसे डरने दो। शरीर को निडर मत बना देना, शरीर को आप निडर बना भी नहीं सकते। आप क्या करोगे, आपके भीतर जो इम्यूनिटी बैठी है, प्रतिरक्षा तंत्र, आप उसको बोलोगे कि डरने की कोई बात नहीं, जो वायरस आ रहा है आने दो? ऐसे बोलोगे? नहीं। वो तो हमेशा चौकन्नी रहती है भीतर, कोई आया नहीं कि खट-खट, खट-खट, खट-खट, अंदर के कार्यक्रम चालू हो जाते हैं।
तो जिनके लिए मुनासिब है डरना, उनको डरने दीजिए, और उन्हीं के लिए मुनासिब है डरना जिनके पास कुछ ऐसा है जो मिटेगा ही। अब अगर आपको बुरा लग रहा है डरना, तो कुछ ऐसा पकड़ना छोड़िए जो मिटेगा। आप ये दोनों चीज़ें एकसाथ नहीं माँग सकतीं, कि आप कहें कि मैं ऐसी चीज़ों से जुड़ी हुई हूँ जो ख़त्म हो सकती हैं, जो ख़तरे में रहती हैं, जिन्हें कभी भी, कोई भी छीन सकता है, नष्ट कर सकता है, और साथ-ही-साथ मुझे डरना भी नहीं है। तो ये तो नहीं होने वाला।
डर की उपयोगिता बिलकुल है, जहाँ तक शारीरिक प्रकृति की बात है, लेकिन वही डर जब चेतना में घुस जाता है तो आपका जीना मुश्किल कर देता है। तो डर को उसकी सही जगह पर रहने दीजिए, आपने डर को वहाँ प्रवेश करा दिया है जहाँ उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।
देखिए कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो प्रकृति ही बिलकुल ठीक करती है, आपकी चेतना उन मामलों में कुछ नहीं कर पाएगी। उदाहरण के लिए, आप खाना खाती हैं, खाना पचाना है, आपकी चेतना उसमें क्या कर सकती है? कुछ कर सकती है? बल्कि बहुत अच्छा है कि आपकी चेतना उस मामले में हस्तक्षेप एकदम न करे, एकदम न करे। आपको पता लगने लग गया न, कि खाना जा रहा, अब ऐसे हो रहा है, वैसे हो रहा है, पच रहा है, तो खाना ठीक से पचेगा ही नहीं। जितनी भी शारीरिक चीज़ें हैं, जितने भी दैहिक क्रियाकलाप हैं, वो बढ़िया तभी चलते हैं जब आप उसमें अपनी बुद्धि, अपनी चेतना बिलकुल न लगाएँ। डर उन्हीं चीज़ों में है।
आपके सामने अचानक एक शेर आ जाए, या आप बैठी हैं और ऊपर से एक कोबरा टपक पड़े, तो फिर क्या करना है ये आपकी चेतना से बेहतर आपका प्राकृतिक डर जानता है, चेतना मत लगाने लग जाइएगा! आप किसी गर्म चीज़ को छू देते हैं, आप क्या बुद्धि लगाएँगे, भीतर विचार-विमर्श करेंगे, कि अब मैं क्या करूँ? इतनी देर में तो हाथ आप हमेशा के लिए गँवा देंगे। आप उसको छू देते हैं, आपकी आदिम, पुरानी प्रकृति जानती है कि हाथ पीछे हटाओ, तुरंत हटाओ, और हाथ ही नहीं पीछे हटाओ, पूरा शरीर पीछे हटा दो।
तो डर की ये वाजिब, सही, सम्यक जगह है; कौनसी जगह? शरीर। और शरीर की एक-एक कोशिका डरी हुई है और डरी हुई ही रहेगी, और यही उसके लिए ठीक भी है, कोई दिक्क़त नहीं है।
शेर सामने खड़ा हो और आप ध्यान करने लग जाएँ कि अब मुझे करना क्या चाहिए, तो ध्यान बहुत देर चलेगा ही नहीं, शेर कहेगा कि मैं तुम्हें ध्यान से ही मुक्त किये देता हूँ। तो उस वक़्त तो क्या करना है? उस वक़्त जो हमारे भीतर का डर है, उसको सारा नियंत्रण दे देना है, हमें कहना है कि अब वही करो जो तुमसे तुम्हारा डर कराता है। क्योंकि चेतना बहुत ज़बरदस्त चीज़ है, लेकिन प्राकृतिक मामलों में नहीं।
प्रकृति के मामलों में चेतना को हस्तक्षेप मत करने दीजिए, और चेतना के मामलों में प्रकृति को हस्तक्षेप मत करने दीजिए। खाना कैसे पचना है, ये प्राकृतिक मामला है, इसमें चेतना अपनी टाँग न अड़ाए, और प्रेम किससे करना है, ये चेतना का मामला है, इसमें प्रकृति अपना ज़ोर न चलाए।
तो डर की एक सही जगह है जीवन में, और वो कौनसी जगह है? वो सब प्रकृति के मामले हैं, वहाँ पर डर अपना काम करता रहे। चेतना में डर तभी घुसेगा जब आप प्रकृति की चीज़ों को चेतना में डाल देंगी। प्रकृति की चीज़ें माने कौनसी? दुनिया की चीज़ें, इन्हीं को प्रकृति कहते हैं, ये सब प्रकृति है। प्रकृति माने वही नहीं जो जंगल में होता है; ये कमरा, ये कैमरा , लोग, ये कुर्सियाँ, रुपया-पैसा, अच्छाई-बुराई, ऊँचा-नीचा, कैरियर , सफलता, ये सब भी प्रकृति ही हैं।
जब ये चीज़ें आपकी चेतना पर हावी होने लग जाती हैं, माने प्रकृति आपकी चेतना में घुस जाती है, तो प्रकृति के साथ-साथ क्या घुस जाएगा चेतना में?
प्र: डर।
आचार्य: डर, क्योंकि डर चीज़ ही किसकी है? प्रकृति की चीज़ है। आपने प्रकृति को चेतना में घुसेड़ा, माने आपने साथ-साथ डर को चेतना में डाल लिया। तो आपकी चेतना में अगर डर बैठ गया है, तो इसका मतलब ये है कि आपने दुनिया को बहुत जगह दे दी है अपने दिमाग में; एकदम ज़मीन की बात! जो दुनिया को अपने दिमाग में बहुत जगह दे देगा, वो दुनियावी डर को भी जगह दे देगा मजबूर होकर; देना पड़ेगा, क्योंकि डर और प्रकृति हमेशा साथ-साथ चलते हैं।
हमने कहा: जो हमारी प्राकृतिक यात्रा रही है उसमें डर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, डर अच्छी चीज़ रही है। देखा नहीं है प्रकृति में, गाय बछड़े के लिए डरी रहती है, माँ बच्चे के लिए डरी रहती है? घर में बच्चा हो और थोड़ी देर ‘कूँ-कूँ, कूँ-कूँ’ न करे, तो माँ ये नहीं सोचती कि चैन से सो गया होगा, तुरंत कौनसा विचार आता है, डर का आता है न? ‘कुछ हो तो नहीं गया?’
और वो डर उपयोगी है, बताओ क्यों? क्योंकि मान लो दो संभावनाएँ हैं: बच्चा सो सकता है या बेहोश हो सकता है। अगर बच्चा सोया हुआ है और माँ को लगा कि बेहोश हो गया है, तो इसमें बच्चे का कोई नुक़सान है? क्योंकि बच्चा तो सो रहा है लेकिन माँ को लग रहा है कि बेहोश हो गया है, तो माँ क्या करेगी? माँ पास आएगी, जाँचेगी, छाती पर हाथ-वाथ रखेगी, देखेगी साँस-वाँस बढ़िया चल रही है, थोड़ा हिलाएगी, ‘बढ़िया, ठीक है।‘ बच्चे का कोई नुक़सान तो नहीं हुआ न?
लेकिन अगर माँ ने दूसरी बात मान ली, दूसरा अज़म्प्शन (मान्यता) कर लिया, कि बच्चा बेहोश हो गया है और माँ ने यही मान लिया निडर होकर के कि बच्चा तो सो ही रहा है, माँ निडर हो गयी, माँ ने अपने डर का त्याग कर दिया — बच्चा हुआ है बेहोश, और माँ ने क्या मान लिया, कि बच्चा सो रहा है — तो बच्चा मर सकता है। तो बच्चे को बचाने में माँ के डर का योगदान है।
प्रकृति में डर गुँथा हुआ है। हमने कहा कि हमारी एक-एक कोशिका में डर बैठा हुआ है और हमारी कोशिका के, हमारे शरीर के, हमारे संसार के निर्माण में उसका योगदान रहा है। लेकिन वही डर जब चेतना में आने लग जाता है तो जीना नर्क बना देता है, फिर आदमी बिलकुल दुखी, परेशान हो जाता है कि जियें कैसे; हर समय खोपड़े में कुछ-न-कुछ चल रहा है, चल रहा है।
तो खोपड़े से डर नहीं निकलेगा जब तक डर जिस चीज़ के साथ आता है वो चीज़ नहीं निकलेगी। आख़िरी बात हो गई ये - खोपड़े से डर नहीं निकलेगा जब तक डर जिस चीज़ पर बैठकर आया है वो चीज़ नहीं निकलेगी। कोई तो है जिसको आपने अपने दिमाग में बहुत जगह दे दी है, डर उसी के साथ आया है आपके पास।
प्र: आचार्य जी, आपने बताया कि एक प्राकृतिक डर होता है और एक डर होता है चेतना का डर। तो जब मैं सोने के लिए जाती हूँ और मैं अपनी आँखें बंद करती हूँ, तो मुझे अजीब-अजीब सी चीज़ें दिखती हैं। तो मैं उसको कौनसा डर समझूँ - प्राकृतिक डर या चेतना का डर?
आचार्य: नहीं, वो जो चीज़ें दिखती हैं, वो दिखती हैं चेतना को, पर चीज़ संसार की है। जो भी आपको चीज़ दिखती है वो कहाँ की है?
प्र: संसार की।
आचार्य: दुनिया की है, और वो दिख किसमें रही है? चेतना में। आपकी कॉन्शियसनेस (चेतना) में दुनिया की चीज़ घुस आयी है, और उसी चीज़ के साथ क्या घुस आया है? डर। डर के अपने पाँव नहीं होते, वो किसी-न-किसी चीज़ पर बैठकर के आता है।
(कलम उठाते हुए) आपको ये पेन बहुत पसंद आ गया, तो आप अपनी ओर से तो ख़याल करेंगी इस पेन का - ‘ये पेन बहुत अच्छा है, ये पेन बहुत अच्छा है।‘ लेकिन आपको पता ही नहीं है कि इस पेन में वायरस की तरह क्या चिपका हुआ है। क्या चिपका हुआ है?
प्र: डर।
आचार्य: डर चिपका हुआ है। अब हमने तो अपनी ओर से होशियारी दिखायी, हम अपनी कल्पनाओं में किसको तैरा रहे हैं? पेन को, और हमें ये पता ही नहीं कि इसमें साथ में क्या चिपका हुआ है, एक वायरस हमने अपने भीतर बुला लिया।
भई जैसे आप आइसक्रीम खाएँ, और आप तो यही सोच रहे हैं कि आपने आइसक्रीम खायी, और उसमें ऊपर लगा क्या हुआ था? कोई बैक्टीरिया (जीवाणु) वगैरह। तो आइसक्रीम तो पता नहीं कितना आपको मिली, बैक्टीरिया पूरा अंदर पहुँच गया और वो अंदर पहुँचकर के अपना जो भी कार्यक्रम है वो कर रहा है, आपको पता भी नहीं। डर ऐसा ही होता है।
अभी यहाँ पर आपसे पूछूँ कि आपमें से कौन-कौन अपने भीतर डर बुलाना चाहता है, तो कितने लोग हाथ उठाएँगे? कोई नहीं। लेकिन डरे तो सभी हुए हैं, तो हमारी चेतना में फिर डर पहुँच कैसे गया? निश्चित रूप से हमने कुछ और अपने भीतर बुलाया — अपने भीतर माने मन के भीतर, शरीर की बात नहीं कर रहा — निश्चित रूप से हमने अपने मन में कुछ और बुलाया और उसके साथ बिन बुलाए मेहमान की तरह डर भी चला आया। ऐसे धोखा होता है।
हम सब अपनी नज़रों में बहुत होशियार लोग हैं। कोई अपने दिमाग में क्या बुला रहा है? पैसा बुला रहा है। कोई अपने दिमाग में शोहरत बुला रहा है, कामयाबी बुला रहा है। किसी को प्यार हो गया है तो प्रेमी-प्रेमिका को अपने दिमाग में बुला रहा है, जगह दे रहा है। किसी को नयी गाड़ी चाहिए, नयी घड़ी चाहिए, वो उन चीज़ों को दिमाग में जगह दे रहा है। तो आप तो अपनी ओर से बहुत सुरक्षित, सेफ़ चीज़ों को ही दिमाग में बुला रहे हो, लेकिन उनके साथ छुप-छुपकर दिमाग में क्या घुस आया?
प्र: डर।
आचार्य: तो इसीलिए हमारे जानने वालों ने हमें बहुत पहले से क्या समझाया? कि बच्चा, दुनिया को बहुत तवज्जो मत दो। दुनिया में वैसे तो कुछ भी बुराई नहीं है, दिक्क़त बस ये है कि दुनिया के साथ वो एक वायरस और बैक्टीरिया चिपका रहता है, जिसका नाम क्या है? डर।
तो आपके दिमाग में आप ही जानती होंगी बेहतर, कि दुनिया की कौनसी चीज़ें हैं जो एकदम अड्डा बनाकर बैठ गयी हैं, वो आपको ही पता करना है। और उन चीज़ों को आप जैसे-जैसे या तो निकालती जाएँगी या ठिकाने पर लगाती जाएँगी, वैसे-वैसे वो जो वायरस है वो भी हटता जाएगा। क्योंकि डर के अपने पाँव नहीं होते, डर किन्हीं दूसरी चीज़ों पर सवार होकर के आता है।
और ये मत सोचिएगा कि डर किन्हीं ख़ास चीज़ों पर ही सवार होकर के आता है। जिस भी चीज़ को आपने दिमाग में बहुत महत्वपूर्ण बना लिया, डर उसी के साथ आ गया, यानी कि डर हर चीज़ के साथ आता है। चीज़ माने डर, प्रकृति माने डर। और प्रकृति माने क्या? (अपने आस-पास की चीज़ों की ओर इशारा करते हुए) प्रकृति माने फिर वही, ये भी प्रकृति, ये भी प्रकृति, ये भी प्रकृति, सबकुछ प्रकृति। जो कुछ भी आप अनुभव करते हैं, देखते हैं, सूँघते हैं, सुन सकते हैं, वो सब प्रकृति है; उसमें से कोई भी चीज़ अगर आपके दिमाग में घूमने लग गयी तो माने क्या घूमने लग गया? डर घूमने लग गया।
तो आप जैसे भी जी रही हैं, जो भी आप काम कर रही हैं, जो भी आपकी जीवन में अवस्था है, उसमें निश्चित रूप से आपने कुछ चीज़ें अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण बना लीं हैं। और जिस चीज़ को आपने महत्वपूर्ण बना लिया, वो चीज़ जितनी ज़्यादा कमज़ोर होगी, फ्रै़जाइल (नाज़ुक) होगी, उसमें डर उतना ज़्यादा घुसा हुआ होगा।
(कलम उठाते हुए) मेरी जान अटकी हुई है इस पेन में। रीफ़िल ये हो नहीं सकता, और स्याही इसकी दिन-ब-दिन घट रही है। अब मेरे भीतर लगातार क्या बढ़ता जा रहा है? स्याही घटती जा रही है, डर बढ़ता जा रहा है।
तो पहली बात तो कोशिश कीजिए कि किसी भी चीज़ को दिमाग में बहुत जगह न दें — दिमाग माने ज़िन्दगी में — और कम-से-कम उन चीज़ों को तो बिलकुल ही जगह न दें जिनकी प्रकृति है लगातार घटते जाना या बदलते जाना। बदलने वालों को, धोखा देने वालों को, जो आपके साथ किसी तरह का कोई नाता निभा नहीं सकते, उनको क्यों मन में जगह देते हो? यही तो डर का कारण है।
(कलम उठाते हुए) ये कोई चीज़ है दिमाग़ में बैठाने की? बताओ! इसे तो मिट ही जाना है, अपने साथ-साथ ये मेरा सर्वनाश कर देगी अगर मैंने इसको बिलकुल केंद्र बना लिया ज़िन्दगी का। और हम ऐसा ही करते हैं।
जेब में पैसा हो तो ठीक है, मन में पैसा आ गया तो बोलो क्या होगा? वो गड्डी तो घटनी-ही-घटनी है न? वो जैसे-जैसे घटेगी, डर वैसे-वैसे बढ़ेगा। गड्डी जेब में है तो ये उसकी प्राकृतिक जगह है, पदार्थ पदार्थ के पास है। जेब क्या है, मटीरियल (भौतिक पदार्थ), और गड्डी भी क्या है, मटीरियल। कोई दिक्क़त नहीं, क्योंकि प्रकृति में, हमने कहा, डर की वाजिब जगह है, माने हमने कहा कि पदार्थ की वाजिब जगह पदार्थ के ही साथ है।
पैसा क्या होता है? पदार्थ, माने मटीरियल। और जेब भी क्या होती है? पदार्थ, माने मटीरियल। तो पैसा जेब में है, कोई दिक्क़त नहीं हो गयी। वही पैसा जेब से उठकर के अगर यहाँ (दिमाग में) पहुँच गया या यहाँ (ह्रदय में) पहुँच गया, आपको बहुत तकलीफ़ देगा, बहुत।
प्र: आचार्य जी, जैसा आपने बोला, मैं पहले ऐसे सोचती थी पैसों के बारे में, संसार की चीज़ों के बारे में, तो वो डर अलग है, और अब जो है — जैसे मैंने आपके वीडियोज़ देखना शुरू किया एक साल पहले, तो मैं अध्यात्म में आयी — तो अब जो है वो मुझे आध्यात्मिक चीज़ों को लेकर डर लगता है। जैसे मुझे कभी कोई विचार आता है, मैं सोचती हूँ कि आगे क्या होगा, इससे आगे क्या होगा, तो मुझे उसमें डर लगने लग जाता है, वो विचार आता है और मुझे बहुत गंदे तरीक़े से डराकर चला जाता है। तो मैं इसको प्राकृतिक डर बोलूँ या चेतना का डर?
आचार्य: विचार क्या बोल रहा है? वो कुछ बात करता होगा।
प्र: विचार ऐसा होता है कि धीरे-धीरे सब चीज़ ख़त्म हो गयी और अब मन को भरने के लिए कुछ नहीं है।
आचार्य: इसी बात की तो पार्टी करनी है! ये कला आपने नहीं सीखी तो फिर जीना दूभर हो जाएगा, और ये जो रास्ता है सच्चाई का, अध्यात्म का, इसमें बहुत आगे आप जा नहीं पाओगे। आध्यात्मिक आदमी को दुनिया की बेवफ़ाई की दावत उड़ानी होती है।
बेवफ़ाई का मतलब समझते हो न? है आज, कल नहीं है।
प्र: मुझे लगता है कि मैं सही रास्ते पर जा रही हूँ, पर वो विचार आता है और कहता है कि आगे क्या होगा, और मैं डर जाती हूँ।
आचार्य: कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा, न आप होंगी, न मैं होऊँगा। होगा क्या, यहाँ होने के लिए बचना क्या है! और इसी बात पर तो एक बिलकुल क़ातिल-सी मुस्कुराहट होनी चाहिए लबों पर - ‘यहाँ कुछ नहीं बचना होने के लिए।‘
अभी पिछला शिविर यहाँ हुआ था, उसके अगले दिन यहीं पर मेरा रोड एक्सीडेंट (सड़क दुर्घटना) हो गया। ये (स्वयंसेवी) मुझे उठाकर के भागे ट्रॉमा सेंटर में, एम्स में लेकर गये। ब्रेन इंजरी (दिमागी चोट) थी, वो तो खाल मोटी है खोपड़े की भी। एक दिन ऐसे ही बावरे होकर घूमते रहे - ‘मैं कौन हूँ? मैं कहाँ हूँ?’ एकदम कोऽहम्। और फिर बैठ गये यहाँ पर। यहाँ बचना क्या है? अभी यहाँ बैठे हैं, क्या पता अगले शिविर में बैठे हों कि न बैठे हों!
एक सज्जन ने फ़ॉर्म भरा संस्था का, कि हमसे संपर्क किया जाए। तो वो फ़ॉर्म हमारे पास आया, नंबर वगैरह मिला, उनको फ़ोन मिलाया तो उनकी श्रीमती जी ने उठाया। बोलीं कि इन्होंने आपका फ़ॉर्म भरा और फ़ॉर्म भरते-भरते ही इनका देहांत हो गया।
प्र: (रोते हुए) आचार्य जी, वो बात तो समझ में आती है, लेकिन थोड़ी सी रेस्टलेसनेस (बेचैनी) होती है।
आचार्य: इस पर सिर्फ़ हँसा जा सकता है, इस पर आपको रोना क्यों आ रहा है? ये कॉमेडी है, इस पर तो हँस ही सकते हैं, हँसा करिए!
यहाँ कुछ नहीं बचना है, ये जानते हुए फिर खेल खेलिए। और नुक़सान अगर हो रहा है इस खेल में, तो आपको इसमें अफ़सोस या आश्चर्य क्या है, यहाँ पर कौन जीतकर बाहर निकलने वाला है ये तो बताओ!
प्र: नहीं, अफ़सोस नहीं, लेकिन बस वो जो विचार आ जाता है वो परेशान करता है।
आचार्य: वो विचार जो बात बोल रहा है, वो बात डरने की नहीं हँसने की है। विचार ये ही बोल रहा है कि कुछ नुक़सान हो जाएगा। विचार से बोलिए - ‘तू बच्चा है पप्पू, तुझे पूरी बात पता नहीं है।‘ कुछ नुक़सान नहीं हो जाना है, यहाँ तो हमें पूरा ही गँवाकर जाना है। जो भी चीज़ खोयी जा सकती है, वो हम यहाँ पूरी-पूरी खोकर के जाएँगे। जो कुछ भी खोया जा सकता है, वो हम यहाँ पूरा-पूरा खोकर जाने वाले हैं।
आज मन मेरा कुछ इधर-उधर, चंचल हो रहा था, तो ये (स्वयंसेवक) साथ बैठा था। ये जब होता है तो गाने इसके, कल मैं बता ही रहा था गानों वाली बात। तो मैंने गाना लगा दिया - “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है, वही आग सीने में फिर जल उठी है।“ बारिश भी हुई थी, तो कुछ इसकी यादें, कुछ हमारी यादें।
और फिर मैंने देखा कि ये सामने स्क्रीन पर जो दो अभिनेता हैं, अब दोनों ही नहीं हैं, विनोद खन्ना भी नहीं हैं, श्रीदेवी भी नहीं हैं। जो हँसी छूटी फिर, कि जब तक आदमी ज़िंदा होता है तो यही कर रहा होता है, क्या? कि वही आग सीने में फिर जल उठी है। “कुछ ऐसे ही दिन थे कि जब हम मिले थे।“ अरे यहाँ किसका मिलना, किसका बिछुड़ना, दोनों अभी राख़ हुए पड़े हो! तो ऐसे ही है बस।
जो आपको डराने आये, वो आपको छोटी धमकी देता है। उसको आप कहिए - ‘तू आकर बैठ! तू तो छोटी धमकी दे रहा है, मुझे तो पूरी बात पता है।‘ पूरी बात क्या? यहाँ से एक पैसा, और इस शरीर की एक कोशिका लेकर के हम बचने नहीं वाले, बाहर नहीं जाने वाले। तो हम डरें क्या? क्या डरें, ये तो जानी हुई बात है!
साधुओं ने, फ़कीरों ने इंसान को देखा है और उसको कहा है, ‘ये पता है क्या जा रही है? ज़िंदा लाश। ये अपनेआप को कहते ज़िंदा हैं, ये मरे हुए हैं, बस इनको समय ने धोखा दे रखा है। वो समय जो है, अभी इनको ऐसे बिंदु पर रखे है जहाँ इनको भ्रम हो गया है कि ये जीवित हैं। अभी बस घड़ी टिक-टिक थोड़ा सा करेगी, उसके बाद इनका ये भ्रम भी नहीं रहेगा।‘
हम मरे हुए ही लोग हैं। प्रकृति माने जड़ पदार्थ, हम जड़ पदार्थ ही तो हैं! और अगर हम चैतन्य हैं, तो डरे हुए क्यों हैं? अगर हम जड़ हैं, प्रकृति हैं, पदार्थ भर हैं, तो हम वैसे ही मरे हुए हैं। पत्थर को ज़िंदा बोलते हो क्या, या नोट की गड्डी को जीवित बोलते हो क्या? और अगर हम जड़ नहीं हैं, हम चैतन्य हैं, तो हम डरे हुए क्यों हैं? क्योंकि चेतना में तो पदार्थ ही नहीं होते।
विशुद्ध चैतन्य में चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं होती, वहाँ बस क्या होती है? एक चेतना, एक जानना, एक अवेयरनेस (जागरूकता)। उसमें चीज़ें नहीं घूम रही होती हैं, उसमें रोशनी भर होती है, चीज़ें नहीं होतीं। जब वहाँ चीज़ें नहीं होतीं, तो फिर वहाँ पर क्या नहीं हो सकता? डर नहीं हो सकता। प्रकृति में चीज़ें भर होतीं हैं, तो वहाँ डर होगा-ही-होगा। और चेतना अगर साफ़ रखी है आपने, तो वहाँ चीज़ें ही नहीं हो सकतीं, तो वहाँ डर कैसे होगा?
लेकिन डर सबमें होता है, डर इसलिए होता है क्योंकि हम अपनी चेतना को गन्दा रखते हैं, सफ़ाई नहीं करते। उसमें हम क्या डाल लेते हैं? ‘हाँ जी, ये रिकॉर्डर न, ये तो बड़ा स्लीक है।‘ तो फिर हो गया! कौनसा रिकॉर्डर दो-चार साल से ज़्यादा चलना है, बता दो मुझे! फिर वो टूटेगा और तकलीफ़ देगा। टूटकर भी तकलीफ़ देगा, जब तक नहीं टूटा है तब तक आशंका में रखेगा - ‘हाय-हाय, टूट न जाए।‘
“जो मन से न उतरे, माया कहिये सोय।“
मन में जगह मत दिया करो किसी को भी - चाहे वो इंसान हो, चाहे जायदाद हो, चाहे सफलता हो, चाहे प्रसिद्धि हो, कुछ भी हो। जब भी देखो कि कोई चीज़ ख़यालों में ज़्यादा घूमने लग गयी है, एकदम उचककर खड़े हो जाओ - ‘ख़तरा!’ चीज़ तुम्हें खूबसूरत लगती है, पर उसके साथ जो वायरस चिपका हुआ है वो बहुत बदसूरत है, वो ज़िन्दगी को भयावह कर देगा।
और देखो, चीज़ खूबसूरत होती है, तभी तो उसे दिमाग में जगह देते हो न आप? कोई फ़ालतू की या बदसूरत या ख़तरनाक चीज़ों को तो वैसे ही दिमाग में नहीं रखना चाहता, हम तो अपने दिमाग के कपाट खोलते ही किसके लिए हैं? जो हमें लगता है, अपनी सीमित बुद्धि से, अपने छोटे से खोपड़े से, कि आहाहा, ये चीज़ तो बड़ी ख़ुशहाली लेकर आएगी ज़िन्दगी में। तो हम पूरा बिलकुल अपना दरवाज़ा खोल देते हैं - ‘आजा, अंदर आजा, अंदर आजा।‘ और वो जो चीज़ है न, वो जानते हो कैसी होती है? वो ट्रोजन हॉर्स की तरह होती है।
ट्रोजन हॉर्स पता है किसी को? ‘ट्रॉय’ कहानी देखी है या पढ़ी है, या पिक्चर देखी है ‘ट्रॉय’? तो ट्रोजन हॉर्स क्या होता है?
श्रोता: उसके झाँसे में आ जाते हैं।
आचार्य: अब वो जो हॉर्स (घोड़ा) है वो बड़ा सुन्दर है, उसको वो किले के बाहर छोड़ गये। किले वालों ने कहा, ‘देखो ये इतना सुन्दर हमारे लिए तोहफ़ा छोड़ गये हैं। ये ख़ुद तो डर के भाग गये, और हमारे लिए भेंट छोड़ गये हैं।‘ तो वो जो ट्रोजन हॉर्स है, वो उसको अंदर ले आये, जैसे हम भी खूबसूरत लोगों को और आकर्षक चीज़ों को अपने इस गढ़ (दिमाग), अपने इस किले के भीतर ले आते हैं, और हमें पता ही नहीं होता कि उसके भीतर छुपा कौन है।
ट्रोजन हॉर्स के भीतर कौन छुपा हुआ था, कौन छुपा हुआ था?
श्रोता: सोल्जर्स (सैनिक)।
आचार्य: सोल्जर्स , उन्होंने क्या किया? जब सब सो गये तो रात में उन्होंने धीरे से घोड़ा खोला। लकड़ी का घोड़ा था, उसको खोला और उसमें से बाहर कूदे, और जो गढ़ अभेद्य था, उसमें लगा दी आग, किले वाले हार गये। ऐसे ही इंसान हारता है। तुम खूबसूरत चीज़ों को अपने मन में प्रवेश दे लेते हो, और तुम्हें पता ही नहीं होता कि उन खूबसूरत चीज़ों के पेट में क्या छुपा हुआ है।
तो अपने जीवन से खूबसूरत चीज़ों को बाहर निकालिए, चाहे वो ख़ुद आपकी ही खूबसूरती क्यों न हो! क्योंकि एक तो डर ये भी रहेगा - ‘मेरी खूबसूरती का क्या होगा?’ अरे जब दुनिया में किसी चीज़ की सूरत कायम नहीं रहनी है, तो आपकी अपनी सूरत कायम रह जाएगी क्या? तो बहुत इसको महत्व मत दीजिए, क्या रखा है, असली चीज़ पर ध्यान दीजिए न!
अब तरीक़ा समझ लीजिए। जो भी डर लग रहा हो, उसको पाँच गुना-दस गुना बढ़ा लीजिए और अपनेआप को बताइए - ‘हाँ ये बात है, तो?’ डर आपको जो भी नुक़सान बता रहा है न, उससे दस गुना नुक़सान आप अपनेआप को पहले ही बता लीजिए - ‘हाँ, है। हाँ, है।‘ वो आपको बोलेगा, ‘तू ख़तरे में है।‘ आप बोलिए - ‘तू मुझे जितना ख़तरा बता रहा है, उससे दस गुना ज़्यादा ख़तरा है मुझे, मैं मानती हूँ। हाँ है, तो, क्या करूँ, क्या मैं मर जाऊँ? है तो है, क्या कर सकते हैं, ऐसा ही है।‘
इसी को शास्त्रीय तौर पर फिर कहा गया है ‘तथाता’। ‘हाँ है भाई, है, दैट्स द वे थिंग्स आर (चीज़ें ऐसी ही हैं)। प्रकृति में ऐसा ही है सब, परिवर्तनशील, तो करूँ क्या?’
प्र: आपने मुझे प्राकृतिक तल पर तो समझा दिया। वो ऐसा था कि थोड़े समय पहले तो इन सब चीज़ों से मैं जुड़ी ही हुई थी, मोह, ईर्ष्या, ये सब चीज़ें तो थीं। पर आपने कल एक बात बोली थी, कि ईमानदारी से अगर तुम इसमें चलोगे तो तुम्हें सब चीज़ें ठीक-ठीक लगेंगी। अभी ईमानदारी से मैं यहाँ तक आयी, यहाँ तक पहुँची। तो अभी बीच में ऐसी चीज़ हुई कि पहले तो विचार थे बहुत सारे, उनसे समस्या होती थी, अब विचार ख़त्म हो गये, बिलकुल ऐसे सुध-बुध सी खो गयी है। जैसे मैं आपको सुन रही हूँ तो ऐसा होता है कि दिमाग में कुछ चल नहीं रहा, लेकिन बात जा रही है बस।
आचार्य: तो अच्छी बात है, कोई समस्या नहीं है।
प्र: फिर उसके बाद एक ऐसी चीज़ हुई कि एक बार मेरे दिमाग में बहुत ज़्यादा प्रेशर (दबाव) था, तो मैंने सोचा कि सो जाती हूँ जाकर, तो मैं सोने के लिए गयी तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी देह ही नहीं है। तो फिर मैंने अपने हाथ-वाथ देखे, मुझे समझ नहीं आया कि क्या हुआ है।
आचार्य: देखिए इसमें तो आपको ही ईमानदारी से बताना पड़ेगा कि कौनसी ‘चीज़’ है। आप डर की बात कर रही हैं, मैं ‘चीज़’ की बात कर रहा हूँ। कौनसी चीज़ है जिसको आपने बहुत वैल्युएबल , मूल्यवान समझ रखा है, वो चीज़ ही आपको परेशान कर रही है। तो आप डर की बात छोड़िए, उस चीज़ की बात करिए।
प्र: वो चीज़ ये है कि मैं चल तो इधर रही हूँ (आध्यात्मिक मार्ग पर), और अब सब छूट गया, चला गया अब सबकुछ। अभी जो है, उसके बारे में सोचकर मुझे डर लगता है, कि क्या होगा आगे।
आचार्य: किस चीज़ के बारे में सोचकर के?
प्र: सत्य के बारे में सोचकर डर लगता है, कि पता नहीं क्या होगा।
आचार्य: सत्य थोड़े ही छूट जाएगा, चीज़ें छूटतीं हैं।
प्र: तो अभी खालीपन तो बहुत है न, दिमाग तो नहीं चलता।
आचार्य: तो खालीपन को ज़िन्दगी से भर दीजिए, सही काम से भर दीजिए, बिना उस काम को मन में, केंद्र पर बैठाए।
देखिए एक चीज़ है कि आपने ये दरवाज़ा खोल दिया और आपने अंदर क्या घुसेड़ लिया, ट्रोजन हॉर्स , कि भाई, ये तो खूबसूरत चीज़ है; ट्रोजन हॉर्स को अंदर ले आये और वो ट्रोजन हॉर्स अपने साथ गड़बड़ चीज़ें भी ले आया। और दूसरी चीज़ ये है कि आप इस दरवाज़े को खोल दीजिए, अंदर-बाहर एक कर दीजिए, जो कुछ भी बाहर है वो अंदर आ सकता है, लेकिन उसे अंदर स्थायी स्थान, परमानेंट प्लेस हमें नहीं दे देनी है।
आप अभी सवाल पूछ रही हैं, सवाल को मैं उत्तर दे दूँगा, लेकिन जब मैं अगले सवाल पर जाऊँगा तो मुझे याद भी नहीं होगा कि आपसे मैंने क्या बात करी। आप मुझसे पूछेंगी, ‘ठीक इसी जगह पर महीने-दो महीने पहले शिविर हुआ था, तीन दिन में तीस-चालीस सवाल हुए होंगे, तो कुछ बता दीजिए।‘ मुझे क्या पता?
मन खुला हुआ है, जीवन के लिए पूरी जगह है। जीवन माने यही जो आते-जाते अनुभव हैं, इसके लिए पूरी जगह है, लेकिन उसमें से किसी भी चीज़ को हम सिर पर नहीं चढ़ा लेंगे। जो कुछ हो रहा है सब सामने है, लेकिन उसमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो ऐसा हो गया कि अरे-अरे-अरे, इससे तो हमें चिपक ही जाना है, चिपक ही जाना है।
अध्यात्म आपके मन की सफ़ाई करता है, और सफ़ाई वो इसलिए नहीं करता कि अब आप सफ़ाई को ही लेकर चिंतित हो जाएँ, वो सफ़ाई इसलिए करता है ताकि अब आप निडर होकर के खेल सकें। ये कौनसी सफ़ाई है, ऐसा घरों में बहुत बार होता है, गृहिणियाँ करती हैं, कि वो सफ़ाई-वफ़ाई करके, बढ़िया फ़िनाइल वाला पोछा मारकर, घर को बंद कर दिया जाए अब। क्यों? क्योंकि अब तो साफ़ हो गया। साफ़ करके तुमने बंद कर दिया, तो साफ़ किया किसके लिए है?
जब तक उसमें मक्खियाँ थीं, तब तक उसमें घर वालों को भी प्रवेश था, सब उसमें आ-जा रहे थे, तब तक सबको प्रवेश था। और सफ़ाई करने के बाद - ‘अब इधर कोई नहीं आएगा, यहाँ सफ़ाई हो गयी है।‘ ये मुझे बात ही नहीं समझ में आती। अध्यात्म ऐसा थोड़े ही है, कि अब यहाँ सफ़ाई हो गयी, अब यहाँ कुछ आना नहीं चाहिए। अध्यात्म इसलिए है कि अब सफ़ाई हो गयी है, चलो अब खेलते हैं। ‘अब डर नहीं है, अब खुलकर खेलेंगे न, तो अब खेलते हैं।‘ तो अब खुलकर खेलिए!
आपने तो ग़ज़ब कर दिया, कि आप सत्य की चिंता कर रही हैं। सत्य चिन्ताहारी होता है, सत्य सबकी चिंताएँ हरता है, और आप सत्य की ही चिंता करने लग गयीं, कि कहीं भाग न जाए कुछ। उसकी चिंता मत करिए। उसका आशीर्वाद माँगा जाता है, और फिर खुलकर खेलते हैं, कि अब हमारा कोई अनिष्ट नहीं होगा।
ठीक है?