यदि गुरु के प्रति श्रद्धा न हो? || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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यदि गुरु के प्रति श्रद्धा न हो? || तत्वबोध पर (2019)

श्रद्धा कीदृशी? गुरुवेदांत वाक्यादिषु विश्वासः श्रद्धा।

श्रद्धा कैसी होती है? गुरु और वेदान्त के वाक्यों में विश्वास रखना श्रद्धा है।

—तत्वबोध, श्लोक ५.७

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। उपरोक्त वक्तव्यों से यह साफ़-साफ़ समझ आ रहा है कि क्यों गुरु के जीवन को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। गुरु के जीवन को देखकर हमें अपने जीवन में सुधार लाना चाहिए, इसी को श्रद्धा बताया गया है। परंतु बहुत सूक्ष्म रूप से कहीं एक डर बना रहता है कि कहीं पथ से हट ना जाऊँ। मन बड़ा चपल है, माया कब हावी हो जाए मन पर कुछ भरोसा नहीं। क्या श्रद्धा के लिए आत्मविश्वास भी ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: श्रद्धा के लिए प्यास ज़रूरी है। अडिग बने रहने के लिए प्रेम चाहिए। आत्मविश्वास तो ख़ुद पर भरोसा हो गया, तुमने ख़ुद को ही इतना भरोसेमंद बना लिया। तुम भरोसे के इतने ही क़ाबिल होते तो फिर श्रद्धा इत्यादि की, किसी साधन की ज़रूरत ही क्या थी?

प्रेम चाहिए। आदमी स्वार्थ का पुतला है। गुरु के पास तुम्हें स्वार्थ ही लेकर आएगा, और यह अच्छी बात है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कितने प्यासे हो, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा स्वार्थ गुरु के पास सिद्ध हो रहा है और तुम्हें पता होना चाहिए कि अगर हटोगे तो प्यास फिर जलाएगी तुमको। यही चीज़ तुमको अडिग रखेगी। नहीं तो तुमने लिखा ही है, "मन बड़ा चपल है, माया कब हावी हो जाए, मन का कोई भरोसा नहीं। डर रहता है कि कहीं पथ से हट ना जाऊँ।"

तुम अस्पताल में भर्ती हो जाते हो, अब वहाँ तुम्हें चिकित्सक मखमल का गद्दा तो देता नहीं, ना तुम्हारी शय्या पर गुलाब बरसते हैं। हालत देखी है अपनी कैसी रहती है? लेटा दिए गए हो, चार सुइयाँ घुसी रहती हैं और ड्रिप चढ़ रही है, करवट लेना मना है, और नाक में कुछ बाँध दिया गया है, हाथ में कुछ बाँध दिया गया है। कुछ बहुत प्रिय तो नहीं लग रही यह छवि, कि लग रही है?

वहाँ से क्यों नहीं भाग जाते? मन तो चंचल है! मन तो कहेगा, "भाग लो, बेटा!" भाग क्यों नहीं जाते? स्वार्थवश नहीं भाग जाते, क्योंकि पता है कि भागोगे, अपना ही नुकसान करोगे। अब वहाँ रुके रहने के लिए आत्मविश्वास से बात नहीं बनेगी। आत्मविश्वास तो तुम्हें बताएगा कि, "भाग लो, कुछ नहीं होगा।" आत्मविश्वास तो तुम्हें बताएगा कि, "तुम बड़े धुरंधर हो, यह नौसिखिया है डॉक्टर , यह पता नहीं क्या कर रहा है, यह कुछ जानता नहीं।" तुम बिना डॉक्टरी पढ़े ही डॉक्टर हो, गजब आत्मविश्वास! "हटाओ यह सब, भागो।" तो आत्मविश्वास नहीं चाहिए, प्यास चाहिए।

आध्यात्मिक तौर पर जिसको प्यास कहा जाता है, लौकिक तौर पर मैं उसकी तुलना स्वार्थ से कर रहा हूँ। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा हित कहाँ है। तुम्हें दिखना चाहिए कि चिकित्सक जो कुछ भी तुम्हारे साथ कर रहा है, उसमें तुम्हारा फ़ायदा है और अगर तुम भागोगे तो नुकसान अपना ही करोगे। यही चीज़ तुमको अडिग रख सकती है गुरु के पास, और कुछ नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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