प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम गवाक्ष जोशी है। मैं आइआइटी कानपुर में पीएचडी का छात्र हूँ। और विद्युत अभियान्त्रिकी विभाग से। मेरा प्रश्न धर्म को लेकर है। मैं हितोपदेश मित्रलाभ पढ़ रहा था! तो एक श्लोक आया था मेरे सामने, जिसका अर्थ ये था — भोजन, निद्रा, भय और मैथुन, ये चार बातें तो मनुष्यों और पशुओं में समान ही हैं। मनुष्यों में केवल धर्म-रूपी गुण ही विशेष है। धर्महीन मनुष्य पशु के समान ही है।
तो इसलिए थोड़ा सा धर्म को जानने के लिए जिज्ञासा हुई। आपका एक लेख पढ़ा जो बहुत ही सरल लिखा था। आपने धर्म के बारे में लिखा था आचार्य जी, कि धर्म का मतलब होता है धारणा - एक आखिरी धारणा रखना और उसी धारणा, और ऐसी धारणा जो बाकी सब धारणाओं से मुक्ति दिला दे। इसके आगे आपने लिखा था कि इसको पाने के लिए ‘मैं’ का इलाज करना पड़ता है, और ‘मैं’ के प्रति हमारा जो कर्तव्य है वो हमें करना चाहिए।
और इसी लेख में आखिरी में आपने एक व्याख्या दी थी, जैसे कि जो करना चाहिए, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और जो सर्वाधिक अपेक्षित है, उसी का नाम धर्म है। तो इसी में मेरे दो-तीन प्रश्न है - पहला प्रश्न, कि ये ‘मैं’ का इलाज कैसे करें? और ये कैसे जान पाएँ 'मैं' क्या है? इसका आत्मज्ञान कैसे हो? दूसरा प्रश्न कि जब आपने कहा कि एक आखिरी धारणा रखना, उस आखिरी धारणा तक कैसे पहुँचे? मैं कैसे पहचानूँ मेरा सही धर्म क्या है? और क्या मैं धर्म अनुसार आचरण कर रहा हूँ? और यही इसी में, और कैसे पहचाने कि मेरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य कौनसा है? और सर्वाधिक अपेक्षित कार्य कौनसा करना चाहिए? तो यही जिज्ञासा है।
आचार्य प्रशांत: देखिए, कुछ बहुत एकदम मूलभूत बातें हैं। आत्मा एक मात्र सत्य है। ठीक है? मैं और ये जो पूरा मुझे जगत दिखाई देता है, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये ऐसा है जैसे उस आवाज़ की गूँज जो किसी ने करी ही नहीं। ‘मैं’ वो आवाज़ है जो बस सपने में सुनाई दे रही है और जगत उस आवाज़ की गूँज है। ठीक है? ‘मैं’ ही नहीं है तो जगत कहाँ से आ जाएगा? जगत नहीं है तो ‘मैं’ कहाँ से आ गया? तो आत्मा एक मात्र सत्य है। ठीक है?
‘मैं’ भी झूठ है। अब ये जो ‘मैं’ होता है ये बहुत सारी धारणाएँ लेकर चल रहा होता है। मैं फ़लानी चीज़ पा लूँगा तो मज़ा आ जाएगा, फ़लानी चीज़ भोगूँगा तो सुख मिलेगा, इत्यादि, इत्यादि। ठीक है? इसको जब एक ही धारणा बचती है, मात्र। मेरे लिए मुक्ति मात्र है, मुक्ति मात्र में ही आनन्द है। तो इसको धर्म कहते हैं। ये आखिरी धारणा है। है ये भी धारणा ही। क्योंकि मुक्ति तो तब हो न जब मैं असली हूँ। जो है ही नहीं उसकी मुक्ति क्या होगी?
‘मैं’ की मुक्ति की बात करके तो आपने 'मैं' को क्या बना दिया? अस्तित्वमान बना दिया, जैसे कि वो हो। तो, है तो ये भी सिर्फ़ धारणा ही कि मैं मुक्त हो सकता हूँ, और मुक्ति मात्र में ही आनन्द है। तो ये भी धारणा ही है, लेकिन ये आखिरी धारणा है। क्योंकि इस धारणा के बाद कोई भी और धारणा रखने के लिए ‘मैं’ बचता ही नहीं। मुक्ति का मतलब है, ‘मैं’ का न बचना।’ ठीक हैं?
तो धर्म का मतलब है - बाकी सारे अपने प्रयासों से, अपनी धारणाओं और कामनाओं से अधिक महत्व देना मुक्ति के प्रयास को। बाकी सारी धारणाओं को न्यौछावर कर देना मुक्ति की धारणा पर। और जिन्होंने ये बात कही, वो बहुत समझदार लोग थे। उन्होंने ये भी नहीं कहा कि मुक्ति कोई सत्य होता है। उन्होंने कहा, मुक्ति,सत्य क्या है? मुक्ति सपने के टूटने जैसा है। सपने के टूटने में कुछ मिल थोड़ी ही जाता है। कुछ खो जाता है, बस।
मुक्ति ऐसी है जैसे सपना था, टूट गया। सत्य तो एक ही है। उसको उन्होंने नाम दिया— आत्मा, ब्रह्म। वो सत्य है। वही ही एक मात्र सत्य है। अहम् लेकिन बहुत सारी अन्य धारणायें लेकर चल रहा है। तो अहम् को कहा गया, छोड़ बाकी सारी धारणायें। तेरे लिए बस एक ही सही है। क्या? मैं बन्धन में हूँ, मुझे मुक्त होना है। मैं बन्धन में हूँ, मुझे मुक्त होना है। मैं बन्धन में हूँ, मुझे मुक्त होना है। तू बस ये धारणा लेकर चल। ठीक है?
और जब मुक्त हो जाता है तो ये धारणा भी नहीं चाहिए। इसलिए मुक्त पुरुष को कहा गया कि वो धर्म से भी मुक्त है। मुक्त पुरुषों को कहा गया कि अब तुम्हें किसी धर्म की ज़रूरत नहीं है। धर्म-अधर्म अब तुम्हारे लिए बच्चों के खेल हो गयें। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य इसकी किसी मुक्त पुरुष को ज़रूरत नहीं होती। वो धर्मातीत हो जाता है। क्योंकि उसकी कोई धारणा ही नहीं बची, उसके लिए अब कुछ कर्तव्य ही नहीं बचा। तो उसके लिए कोई कोई धर्म ही नहीं बचा अब।
समझ में आ रही है बात आपको ये?
तो ये जो आपका शायद ये दूसरा प्रश्न था, उसका मैंने पहले उत्तर दे दिया है। कि आखिरी धारणा का क्या मतलब है। फिर आपने जो पहली बात पूछी, उस पर आते हैं। आपने सबसे पहले पूछा था कि कैसे पता करें कि ‘मैं’ के लिए क्या सही है, ये था आपका पहला प्रश्न?
प्र: ‘मैं’ का इलाज कैसे करें?
आचार्य प्रशांत: ‘मैं’ का इलाज कैसे करें? ‘मैं’ का इलाज ‘मैं’ को जानने में ही है। उसे और किसी इलाज की ज़रूरत नहीं है। इसको मैं ऐसे कहता था, बड़ा मज़ा आता था - द डायग्नोसिस इज़ द क्योर। (रोगनिर्णय ही उपचार है।) उसको जान लो, जानना ही दवाई बन जाता है। जैसे आप रो रहे हैं कि हाय-हाय-हाय! हड्डी चटक गयी। चटका-वटका कुछ नहीं है, बस भ्रम हो गया और भ्रम ऐसा हुआ है कि आँसू छूटे जा रहे हैं। हाय-हाय! हड्डी चटक गयी। दर्द हड्डी में भी नहीं हो रहा है। दर्द कहाँ हो रहा है? दर्द दिमाग में हो रहा है कि हाय-हाय! हड्डी चटक गयी। आपका एक्सरे करा दिया। एक्सरे में निकलकर आया - हड्डी नहीं चटकी है, दर्द होना ही बन्द हो गया।
द डायग्नोसिस इज़ द क्योर। क्योंकि हड्डी चटकी थी ही नहीं, वो तो आपको एक बस अनुमान,एक आशंका हो गयी थी। और उसके कारण आप रोये जा रहे थे। तो ‘मैं’ का ऐसे ही इलाज होता है। जान लो कि वो चीज़ क्या है। उसको जान लोगे, वो शान्त हो जायेगा।
प्र: कैसे जाने?
आचार्य प्रशांत: कैसे जाने? उसकी हरकतों से। वो कहीं कोई चीज़ तो है नहीं कि उसको पकड़कर उसको जान लें, कहीं प्रयोगशाला में भेज दें निकालकर कि इसका कॉम्पोजिशन (संघटन) बताओ। हरकतें बहुत करता है। बहुत अजीब है वो। तभी तो “माया महा ठगनी।”
ऋषियों ने इसीलिए तो माया की पूजा करी है। बोले, 'ये ऐसे काम कर डालती है, असम्भव जैसे बिलकुल।' सबसे बड़ी ताकत तो माया ही है। है नहीं, पर हरकतें करता है। एक-एक विचार किसका है? ‘मैं’ का है। भावनाएँ किसकी हैं? ‘मैं’ की हैं। कर्म किसके हैं? ‘मैं’ के हैं। सब लक्ष्य किसके हैं? ‘मैं’ के हैं। सब डर किसके हैं? ‘मैं’ के हैं। तो इनके माध्यम से ‘मैं’ को जाना जाता है। तो इसीलिए फिर कहते हैं कि माया ही मुक्ति का रास्ता बनती है। ‘मैं’ की हरकतें ही ‘मैं’ की मुक्ति का रास्ता बनती है। किधर जाने से डर रहे हैं और किधर को भागे जा रहे हैं, गौर करें। ‘मैं’ के बारे में पता चलेगा।
प्र: क्या ‘मैं’ मतलब मन को जानना है क्या?
आचार्य प्रशांत: हाँ, मन होता है, ‘मैं’ के आसपास जो पूरा मोहल्ला खड़ा है, वो मन है। मन के केन्द्र में जो बैठा है, उसे ‘मैं’ कहते हैं। तो उसको साहित्य में कई बार ऐसे भी कहते हैं - मन की मुक्ति या मन की शान्ति। जब मन की बात करी जाये तो वो वास्तव में बात ‘मैं’ की ही करी जा रही है। ‘मैं’ मन की छाया जैसा है। मन वो कुनबा है जो ‘मैं’ अपने आस-पास खड़ा कर लेता है। ‘मैं’ जैसा होता है न, मन वैसा ही हो जाता है।
‘मैं’ अगर कामी है, तो मन में कौनसी सामग्री इकट्ठा हो जाती है? कामना वाली। है न? ‘मैं’ अगर डरपोक है, ‘मैं’ की पहचान ये है कि मैं डरपोक हूँ...तो मन में कैसी सामग्री इकट्ठा हो जाती है?
प्र: भय वाली।
आचार्य प्रशांत: भय वाली या फिर वो चीज़ें इकठ्ठा हो जाती है जो सुरक्षा देती हैं। कोई बहुत डरपोक हो, तो उसको दो चीज़ें इकट्ठा होंगीं। या तो दुश्मनों का खयाल या फिर बन्दूकों के मॉडल। ऐसी-ऐसी बन्दूकें आ जायें दुश्मन मार दूँगा। तो साहित्य में कई बार ‘मैं’ कह दिया जाएगा, मन कह दिया जाएगा। पर मन भी कह दिया जाए तो आप उसको ‘मैं’ ही समझें। और ‘मैं’ की पहचान होती है—‘मैं’ के स्थूल क्रियाकलापों द्वारा विचार, भावना, कर्म। स्थूलता बढ़ती जाती है, ‘मैं’ को देखना आसान होता जाता है।
प्र: अष्टावक्र का जो एक श्लोक है— मैं न पृथ्वी हूँ, मैं न आकाश हूँ, वगैरह, वगैरह वाला। तो वो क्या अलग ‘मैं’ है? और अगर उनका ‘मैं’ अलग है तो वो ‘मैं’ ! वहाँ तक कैसे पहुँचा जाए?
आचार्य प्रशांत: वो जिस ‘मैं’ की बात कर रहे हैं, वो विशुद्ध ‘मैं’ है। वो आत्मा है। जब वो कहते हैं— ‘न पृथ्वी हूँ, न आकाश हूँ।’ फिर उसी में शंकराचार्य बोलते हैं—’ये नहीं हूँ, वो नहीं हूँ। शिवोहम। शिवोहम।’ उसी में बुल्लेशाह बोलते हैं— न मैं आतिश, न पौन, बुल्ला की जाना मैं कौन? वो नकारा जा रहा है, कि वो सबकुछ जो ‘मैं’ अपनेआप को समझता था वो नहीं हूँ मैं। वो नहीं हूँ, वो नहीं हूँ। उस नकार के लिए प्रेम चाहिए, साहस चाहिए और सबसे पहले जिज्ञासा चाहिए।
कैसे नकार दोगे जब अभी दिखा ही नहीं? जो अपने आप को समझ रहे हो— मैं तो वही हूँ, शरीर ही हूँ; शरीर ही हूँ। जब तक देखा नहीं कि आपका और शरीर का एक बेमेल सा जोड़ चल रहा है बस। शरीर हो नहीं आप। बस किसी तरह गठबन्धन निभाया जा रहा है। तब तक आप कैसे कह दोगे कि “मैं पंच भूत नहीं हू, मैं पंच वायु नहीं हूँ?” जब ये सब देखते हो तब समझ में आता है कि शरीर हमसफर तो है, पर हमसे आइडेंटिकल (सदृश) नहीं है। कुछ भेद है, चेतना में और तन में भेद तो है। फिर देखते हो कि चेतना की माँगे तन की माँगों से काफ़ी अलग हैं।
तन के अपने कुछ इरादे हैं, चेतना कुछ और चाहती है। फिर दिखाई देता है कि अच्छा! तो मैं चेतना हूँ। फिर दिखता है कि चेतना जो है, ये किसी के प्रेम में है। ये अपनी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट नहीं है। इसे आगे का कुछ चाहिए। फिर कहते हो कि वो जो मुझे चाहिए, वो जो अन्ततः मुझे हो जाना है, मैं वही तो हूँ। फिर कहते हो ‘मैं आत्मा हूँ।’ तो शुरुआत होती है अपने आप को तन कहने से। फिर आगे बढ़े, कहते हो कि मैं एक असन्तुष्ट चेतना हूँ। फिर और आगे बढ़ते हो तो कहते हो मैं विशुद्ध चेतना हूँ। और उसी को आत्मा कहते हैं।
प्र: ये कहता मन ही है क्या?
आचार्य प्रशांत: हाँ, मन कुछ नहीं कहता। मन तो मोहल्ला है। जो कहता है, ‘मैं’ कहता है। हाँ, ये ‘मैं’ ही कहता है। ये तीनों मन के ही स्तर हैं। इसके ‘मैं’ के ही स्तर हैं। देखिए, मैं का ऐसा है कि वो जिससे तादात्म्य रखता है न, वो वही हो जाता है। वो अगर बोलेगा कि तन प्यारा है, तो वो तन हो जाता है। वो बदल गया। कोई ‘मैं’ एक चीज़ नहीं है। ‘मैं’ जिससे सम्प्रक्त है, ‘मैं’ वही हो जाता है। वो बोलता है, ‘मैं विचार हूँ’, तो वो विचार हो जाता है। वो कह देता है, ‘मैं आत्मा हूँ’, तो वो फिर आत्मा हो जाता है। और कहना माने ऐसे नहीं है कि बस ऐसे कह दिया बड़बोलेपन में। कहना माने सचमुच जानना।
प्र: इस जिस बिन्दु पर मान लो मन को जान लिया जाएगा तो स्वभाव में, आचरण में, कर्तव्यों में कैसे बदलाव आएगा? कैसे जानेंगे कि अच्छा! अब ‘मैं’ को जान लिया है?
आचार्य प्रशांत: इसको मैं जान लूँ कि गन्दा है।(मग को उठाकर दिखाते हुए) तो क्या मेरे आचरण में बदलाव नहीं आ जाएगा? इसको मैं जान लूँ कि मेरा नहीं है किसी और का है। (मग को उठाकर दिखाते हुए)। तो मेरे आचरण में बदलाव आएगा कि नहीं आएगा? जब जान जाते हो कि शरीर प्रकृति का है, तो उससे जो अपना सम्बन्ध होता है वो तुरन्त बदल जाता है।
प्र: तो इसको जान लेने के मतलब फिर ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य, अपेक्षित कार्य इन सब तक कैसे पहुँचे? और अगर वो जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है वो जान भी लिया, जैसे मान लो आपने जान लिया कि ये अद्वैत और आचार्य प्रशांत फाउंडेशन और इस तरीके से मुझे अपनी धारणा तक पहुँचना है। लेकिन इसको अचीव (प्राप्त) करने के लिए भी बीच में बहुत सारे हर पल, हर क्षण मेरे स्पेस, टाइम में चेंज हो रहा है। मेरा कार्य, मेरी ज़िम्मेदारी, रेस्पॉंसिबिलिटी (उत्तरदायित्व)। तो हर पल, हर क्षण कैसे धर्म के अनुसार आचरण किया जाए धर्म के अनुसार?
आचार्य प्रशांत: अपने प्रति एक संवेदना होनी चाहिए। देखिए, अहम् क्या है? अहम् एक टीस देता घाव है। अहम् ऐसा है जैसे छाती में एक दर्द का बिन्दु बैठा हुआ है। जहाँ दर्द होता है उसको कुछ विशेष प्रयत्न करके याद रखना होता है क्या? वो तो याद रहता ही है, वहाँ दर्द हो रहा है। अचरज तो ये है कि कुछ लोगों को कैसे नहीं याद रहता? उन्हें ऐसे नहीं याद रहता कि वो अपने आप को बहुत तरह की दर्द निवारक गोलियाँ दिये रहते हैं। या उन्होंने दर्द को सुन्दर, सम्माननीय नाम दे दिये होते हैं।
तो मैं कह रहा हूँ अपने प्रति संवेदना होनी चाहिए। दर्द अगर हो रहा है तो उसको याद रखना है, उसका उपचार करना है। ये दर्द ही तो मुक्ति का साधन बनता है। स्वयं से झूठ बोलने की नीयत और फितरत कम-से-कम होनी चाहिए। अगर भीतर खालीपन है तो स्वीकार करो, खालीपन है। और इस बात से डर नहीं जाना है खालीपन है। एक तथ्य की तरह बस कहो हाँ खालीपन है।
भीतर डर है? है। भीतर झूठ है? है। जब ये स्वीकार रहता है, तो फिर इंसान उपचार की दिशा में काम करता है न? हाँ है बीमारी। बीमारी है। जब आप बीमारी ही नही मानोगे तो उपचार कहाँ से होगा? तो इसलिए अपने प्रति एक संवेदना बड़ी ज़रूरी है। और दूसरों के प्रति करुणा भी। दूसरों के प्रति हिंसक हो जाओ न, तो अपने प्रति भी हिंसक हो जाते हो। फिर अपने भी दर्द से क्रूरता का रिश्ता रख लेते हो। और कोई तरीका नहीं है प्रतिपल याद रखने का।
बाकी सारे तरीके तो स्मृति आधारित होते हैं। कि कुछ रटो, कुछ जपो, कोई नाम ले लो, कुछ माला ले लो, ये करो, वो करो। वो ऊपरी तरीके हैं। असली तरीका तो अहम् ही है। अहम् की मुक्ति का साधन क्या है? स्वयं अहम्। अहम् को कौन तारेगा? अहम् की ही पीड़ा उसको तारेगी।
प्र: 'मैं' बस इसमें, इस कार्य में यदि हम बहुत ही कॉन्शियस (जागृत) होकर काम कर रहे हैं, और हमको लग रहा है कि हाँ, अब थोड़ा सा मतलब समझ में आ रहा है कि अधर्म हो गया, तो क्या उसके लिए अपराध भाव आ जाना, और फिर वो आना चाहिए, आत्मग्लानि होनी चाहिए या फिर उस बात को झाड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: आगे बढ़ जाना चाहिए। देखिए, आत्मग्लानि का भी सही उपयोग यही है कि वो आपको दोबारा वो काम न करने दे जो आपने एक बार कर दिया। ऐसे समझिए कि आपको आगे बढ़ना था पर आप कहीं बिस्तर में पडकर सो गये और आप सोते रहे घंटे भर। फिर आपकी नींद खुली। आपको नींद खुलते ही खयाल - आया एक घंटे में आगे बढ़ जाना चाहिए था, मैं तो यहीं पड़ा रह गया। और उसके बाद आधा घंटा आप ग्लानी में छाती पीट रहे, रो रहे हैं। तो ये ग्लानी कैसी है? बहुत झूठी है। बड़ी मक्कारी की है। आपने एक घंटा नहीं, ग्लानी के बहाने डेढ़ घंटे आराम कर लिया।
ग्लानी अगर सचमुच होती, तो वो एक क्षण में ही आपको बेध देती। और आपसे कहती, ‘अब एक घंटा गँवा दिया है; चल दौड़ लगा। भाग जो क्षति की है, उसकी अब तो कुछ पूर्ति कर। ग्लानी भी ठीक है। सब ठीक है। दु:ख ठीक है। भीतर अपराध भाव आ जाए वो भी ठीक है। लेकिन उसका अंजाम कुल मिलाकर ये होना चाहिए कि आप सही रास्ते पर आएँ।
YouTube Link: https://youtu.be/BaHknbefBUQ?si=ZXb bhne-mZZxRWnjPhZd