प्रश्नकर्ताः धन्यवाद, सभा में उपस्थित सभी लोगों का अभिनन्दन! मैं डा. कुमार मनोज, मैं आधुनिक चिकित्सा में यूरोप से प्रशिक्षित एक चिकित्सक हूँ। और फिलहाल मैं दिल्ली के एक शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय में मनोरोग विभाग में कार्यरत हूँ। मैं जब भारत वापस आया तो मैं अपने भारतीय समाज की सेवा और उसी तरह के विचारों से ओतप्रोत था। परन्तु जब मैं यहाँ आया तो मैंने पाया कि शायद सत्तर प्रतिशत भारतीय जो बड़े कोसमोपोलिटन सिटीज़ (सर्वदेशीय शहर) में रहते हैं — जैसे ये दिल्ली एनसीआर — वो मृत हैं अर्थात उनकी संवेदनशीलता मर चुकी है।
न यहाँ हवा शुद्ध है, न खाना-पीना में शुद्धता, सभी चीज़ों में मिलावट, दलाली, मक्कारी, जालसाज़ी, जोड़-तोड़, चाटुकारिता, भ्रष्टाचार, झूठा अभिमान तो फिर द्वन्द्व पैदा होता है, कि आपकी तरह, किसी तरह घुटते-पिसते, दर्द झेलते धीरे-धीरे समाज में एक बदलाव लाऊँ या यूरोप या किसी भी विकसित अन्य राष्ट्र में चला जाऊँ और सुकून से अपना और अपनी अगली पीढ़ी का जीवन अच्छे से निकालूँ?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जानना बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है, बहुत भारी ज़िम्मेदारी है। जो जान गया वो भाग नहीं सकता। भागा सिर्फ़ नींद में जा सकता है। वैसे आपको जो भाव उठ रहा है, वो यदा-कदा मुझे भी उठता है। ठीक है? पर थोड़ा पाखंड तो मैं भी कर सकता हूँ न। तो उसी नाते मैं बोले दे रहा हूँ, भागा नहीं जा सकता और मेरा खुद से भी ये वादा है कि भागूँगा नहीं, भले ही भाव ये उठता है कि काहे के लिए जान दिये दे रहे हो।
सबकुछ जो आप बोल रहे हैं, वो अनुभव करता हूँ। ठीक है? कई बार लगता है दीवारों पर सिर मार रहा हूँ, ज़िन्दगी खराब कर रहा हूँ और मैं शायद बेहतर काम कर सकता हूँ अगर मैं भारत की जगह कहीं और रहूँ। लेकिन पाँव जमा कर रखना है, कहीं भागना नहीं है, सम्भावना नहीं है, विकल्प ही नहीं है। जब जान गये कि कहाँ आपकी ज़रूरत है तो आप किसी दूसरी जगह कैसे जा सकते हो? ज़रूरत मेरी यहाँ है, मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा!
मैं समझता हूँ, लेकिन बीमारी जहाँ कॉन्सेंट्रेटेड (घनघोर) होती है, काम ज़्यादा वहीं करना होता है।
प्रः यहाँ इतना ज़्यादा संघर्ष है, इतनी ज़्यादा चाटुकारता है, हर चीज़ में पॉलिटिक्स है। आज मैं मेट्रो से आ रहा था तो देखता हूँ कि सारे पढ़े लिखे लोग और अच्छे-अच्छे कॉरपोरेट्स में नौकरी करने वाले लोग केवल एक सीट के लिए ही कितना मारा-मारी कर रहे थे। और फिर यहाँ वायु इतनी ज़्यादा दूषित है, हर खाने की चीज़ में मिलावट है। तो यह सब देखकर मन बहुत दुखी रहता है।
आचार्य प्रशांत: मैं, आप जितनी बातें कह रहे हैं वो सारी बातों से सहमत हूँ। मैं उससे और आगे जाकर भी पाँच-सात बातें और कह सकता हूँ कि किस किस्म का नर्क एक आम भारतीय को झेलना पड़ता है और उससे दूना नर्क उसे झेलना पड़ता है जो आम आदमी को उसके नर्क से बाहर निकालने की चेष्टा करे।
प्रः जी बिलकुल।
आचार्य प्रशांत: तो ये मैं जानता हूँ बहुत अच्छे तरीके से कि नर्क, उससे बड़ा नर्क, उससे बड़ा नर्क सब यहीं है, सब झेलना है और ये सब जानने के बाद मेरा फ़ैसला यही है कि सारे नर्क झेलूँगा। बाकी सबकी अपनी ज़िन्दगी है, आपको भी करना है, मैं तो यही समझ पाया हूँ कि जहाँ संघर्ष है वहीं तो फिर आपको अपनी काबिलियत दिखाने का मौका है न! जहाँ बीमारी है वही तो आप इलाज करोगे न, डॉक्टर हो। जहाँ बीमारी नहीं है, वहाँ डॉक्टर किस लिए जा रहा है। तो ये आपको थोड़ा सोचना होगा। खैर आगे बढ़ते हैं।
प्रः मैं आपकी बात समझ गया और इस प्रेरणा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: जी। भारत में धार्मिक आदमी वो नहीं है जो जानना जानता है। जो जानता है, परखता है या जानने का प्रयास करता है, जिज्ञासा रखता है, उसको हम अधिक-से-अधिक विद्वान बोल देंगे या स्कॉलर बोल देंगे या जिज्ञासु बोल देंगे। हम उसको धार्मिक नहीं बोलते। अगर कोई आपसे बहुत सवाल करे तो मुश्किल है कि आप कहेंगे कि ये एक धार्मिक आदमी है।
जबकि धार्मिकता का पहला लक्षण होता है ‘जिज्ञासा’। धार्मिक आदमी जानना चाहेगा। हमने धार्मिकता का मतलब बना दिया, ऐसे सिर झुका दो (सिर झुकते हुए) और ये सिर झुकाना क्या है? कि जानते-समझते कुछ नहीं बस दमन कर दो, झुका दो। तुम ये भी नहीं जानते तुम किसके सामने सिर झुका रहे हो, पर तुम सिर झुका देते हो। है न?
आम आदमी कहता है, ‘साहब! मैं भगवान के सामने सिर झुकाता हूँ।‘
उनसे पूछो, ‘कौन?’
वो कहेगा, ‘भगवान।‘
‘भगवान कौन, कुछ जानते हो?’
‘नहीं! नहीं जानता।‘
‘तो सिर किसके सामने झुका रहे हो?’
‘नहीं! सिर झुकाना ज़रूरी है।‘
‘क्यों झुकाना ज़रूरी है?’
‘क्योंकि वो अच्छी बात है, वो नैतिक बात है, वो मोरल बात है।‘
वैसे ही जो कुछ भी हमें मोरल लगता है उसके सामने हम बस सिर झुका देते हैं।
ज्ञान को तो भारत ने धर्म मानना ही बन्द कर दिया। भारत ने ज्ञान को — ज्ञान माने जानना-समझना — भारत ने ज्ञान को धर्म मानना ही बन्द कर दिया। किसी धार्मिक आदमी से सवाल-जवाब करो, बुरा मान जाता है। उनसे पूछो, ‘ज्ञान है?’ बोलते हैं, ‘नहीं! ज्ञान नहीं है मेरे पास, श्रद्धा है, मेरे पास आस्था है, मेरे पास विश्वास है।‘ ज्ञानी को तो जो ये श्रद्धालु लोग होते हैं, ज्ञानी को तो ये लगभग नास्तिक मानते हैं। कहते हैं, ‘ज्ञान की ज़्यादा बात करे, वो धार्मिक नहीं हो सकता।‘ जबकि धर्म का अर्थ ही होता है ज्ञान, जानना, बोधो अहम्। उपनिषद हमें सिखाते हैं — ‘मैं बोध हूँ।‘
आश्चर्य है कि मैं तो शुद्ध, शान्त ज्ञानस्वरूप एवं प्रकृति से परे हूँ किन्तु इतने समय तक अज्ञान ने ही मुझे भ्रमित कर रखा था।
~ अष्टावक्र गीता २.१
आप बताइएगा ईमानदारी से, हम लोग क्या धर्म का अर्थ बोध मानते हैं? आपको कुछ तस्वीरें दिखाई जाएँ या वीडियोज़ दिखाये जाएँ, उनमें आप तत्काल बता दोगे कि धार्मिक आदमी कौनसा है। वो कैसे बताओगे धार्मिक आदमी? वो एक खास किस्म का आचरण कर रहा होगा, खास किस्म के कपड़े पहने होंगे, उसकी भाषा थोड़ी अलग होगी, सब रीतिरिवाज़ों का पालन कर रहा होगा, जहाँ आम आदमी थोड़ा सिर झुकाता होगा, जो धार्मिक आदमी होगा वो साष्टांग दंडवत हो जाता होगा। बिलकुल लेट जाता होगा।
दंडवत माने डंडे की तरह लेट जाना। इसी को तो धार्मिक आदमी बोलते हो न? इसी को तो बोलते हो। उसने एक खास रंग के कपड़े पहन रखे होंगे। आप पूछो, ‘तूने ये कपड़े क्यों पहने हैं?’ तो बोलेगा, ‘धिक्कार है, नास्तिक सवाल करता है!’ हमने सवाल करने को ही धर्म से काट दिया, जबकि धर्म के केन्द्र में ही जिज्ञासा है, जो सवाल नहीं कर सकता वो धार्मिक नहीं हो सकता। भारत ने धर्म से ज्ञान को बिलकुल हटा दिया। ज्ञान मार्गी को तो हम धार्मिक ही नहीं मानते! ज्ञान मार्गी हमारी नज़र में नास्तिक है।
हमने क्या बोल दिया? हमने बोल दिया, ‘अरे! ईश्वर को जाना थोड़े ही जा सकता है। जो कुछ भी ऊँचा है, वो हमसे बाहर का है।‘ ये नकली धर्म है जो, जो सबसे ऊँचा है उसे तुमसे बाहर स्थापित कर देता है। ये धर्म का बिलकुल विपरीत है। धार्मिकता का मर्म होता है कि जो सबसे ऊँचा है, वो यहाँ (भीतर) है। वो मेरी अपनी अन्दरूनी आन्तरिक सम्भावना है, उच्चतम। एक धर्म ये है।
दूसरा धर्म कहता है कि जो कुछ भी ऊँचा है और अच्छा है, वो तुमसे बाहर है। तुम्हारा काम तो बस ये है कि ऐसे हो जाओ (झुकते हुए)। तुम बस ये करो। ये धर्म नहीं है, ये झूठ है। ये तो आपके जीवन को नर्क कर देगा। ये तो आपको बस झुकना सिखा रहा है, जानना नहीं। पहली बात तो झुक रहे हो, वो भी किसी ऐसे के सामने झुक रहे हो जिसको तुम जानते ही नहीं हो। फिर आप ज़मींदारों के आगे झुकते हो, फिर आप व्यर्थ में एक्टर्स के आगे और सेलिब्रिटीज़ के आगे झुकते हो। आप देख ही नहीं रहे हो ये सब नकली धर्म ने सिखाया है आपको।
आपने कभी इन बातों में सम्बन्ध जोड़कर नहीं देखा होगा कि आम हिन्दुस्तानी, इतनी आसानी से कहीं भी झुक क्यों जाता है। वो इसलिए झुक जाता है क्योंकि हमने धर्म का मतलब ही झुकना बना दिया। धर्म का अर्थ है — जानना, झुकना नहीं। जितनी जी हुज़ूरी और चाटुकारिता, जितनी यसमैनशिप चलती है भारत में उतनी कहीं देखी है दुनिया में? कोई ज़रा-सा कुछ हो जाए, ‘हे हे, हे, हे’ (दाँत दिखाने लगते हैं)।
बड़ी दुकान देखी, उसके आगे झुक जाते हैं। मोहल्ले का कोई अदना-सा गुंडा हो, हम तो उसके आगे भी झुक जाते हैं। गुंडा है झुककर चलो। प्रतिकार हमने कहाँ सीखा है! मुझे प्लासी की लड़ाई याद आती है बार-बार। मुट्ठी-भर अंग्रेज़ और नवाब की पूरी फौज और हारकर आ गये। और आप जितनी बड़ी लड़ाइयाँ याद करोगे जो भारत ने हारी, उसमें संख्या बल भारत के ही साथ था।
पर हमने प्रतिकार तो बिलकुल हटा दिया, हमने तो ये (झुकना) सीख लिया बस। और ये जो है ये भारत की बहुत सारी समस्याओं के मूल में है। हाँ बिलकुल नमन भी करना है, समर्पण भी करना है। पर ये तो पता हो कम-से-कम कि मैं किसको समर्पित कर रहा हूँ। उसको नहीं जानता, स्वयं को तो जानूँ। सत्य अज्ञेय हो सकता है नि:सन्देह पर क्या अहंकार भी अज्ञेय है। आप बोलो, क्या अहंकार भी है?
हाँ! ये बिलकुल हो सकता है कि सिर मैंने किसके सामने झुकाया, ये न पता चल सकता हो क्योंकि सत्य अज्ञेय है पर क्या अपना भी न पता हो तो ये बात जायज़ है? किसको दे रहा हूँ, ये हो सकता है न जाना जा सकता है। पर क्या दे रहा हूँ और कौन दे रहा है, क्या ये भी न जानूँ? बताओ आप। तो स्वयं को जानना ही अध्यात्म है। वही धर्म का मूल है, उसे आत्मज्ञान बोलते हैं।
आत्मज्ञान है — स्वयं को जानना। स्वयं माने आत्मा नहीं, अहंकार। इतना तो पता हो कि ये जो सिर है जो झुका रहा हूँ, ये चीज़ क्या है। मैं जानता तो हूँ नहीं, आप किसी को कोई तोहफ़ा दो आपको खुद न पता तोहफ़े में क्या है, ये आपने भला काम किया? और कई लोग करते हैं। होली-दीवाली में उनके पास कोई पैक्ट्ड चीज़ आ जाती है वो किसी दूसरे को दे देते हैं, ये आपने कोई अच्छा काम करा? तो वैसे ही आप कह रहे हो कि साहब मैं परमात्मा के सामने सिर झुकाता हूँ, सिर क्या है ये आपको पता ही नहीं।
परमात्मा क्या है नहीं पता, मैं मान सकता हूँ। अननोयबल (अज्ञेय) है, बिलकुल मान सकता हूँ। पर क्या ये (सिर) भी अननोयबल है? ये अननोयबल है? ये ज्ञान मार्ग है। इसको जानना ज्ञान मार्ग कहलाता है। सेल्फ़ नोलेज , आत्मज्ञान। हम इसको जानते नहीं, हम बस इसको ऐसे दबा देते हैं। और ये (सिर) माने प्रकृति। ये जो पूरा पिंड है, ये प्राकृतिक पिंड है। और ये जो बाहर भी पूरा ब्रह्माण्ड है, ये भी प्राकृतिक ब्रह्माण्ड है। न हम पिंड को जानते हैं, न हम ब्रह्माण्ड को जानते और दावा हमारा है कि धार्मिक हैं।
जब कुछ जानते ही नहीं तो धार्मिक कैसे हो गये! धर्म का तो अर्थ होता है, अहम् को मुक्ति की ओर ले जाना। अहम् को जानते ही नहीं तो तुम धार्मिक कैसे हो गये? धर्म का अर्थ है, अहम् को मुक्ति की ओर ले जाना। अहम् मरीज़ है, मुक्ति स्वास्थ्य है। भारत धर्म से बहुत दूर आ गया। अन्ध-भक्ति को भारत ने धर्म बना लिया। भक्ति बहुत ऊँची बात है। भक्ति का अर्थ होता है कि अहम् को आत्मा से प्रेम हो गया।
प्रेम मार्ग होता है 'भक्ति मार्ग‘। भक्ति का अर्थ होता है ‘प्रेम’। भक्ति का अर्थ सिर को अन्धा झुकाना नहीं होता। और प्रेम नहीं हो सकता जब तक आप जानते ही नहीं कि आप कौन हो और किससे प्रेम हो रहा है। कैसे कर लोगे प्रेम? एकदम बेहोशी छाई हुयी है, अपना कुछ होश ही नहीं। मान लो, खूब शराब पी ली है। एकदम बेहोश हैं, कोई नाम भी पूछ रहा तो बता नहीं पा रहे। और तब जाकर किसी से बोलो, 'आई लव यू।' तो जानते हो वो आपसे क्या बोलेगा? 'आई माने कौन?' आप बोलोगे, ‘अरे! मेरा नाम… कौन हूँ मैं! मैं अमिताभ बच्चन हूँ।‘
वो बोलेगा, ‘आई लव यू बोल रहे हो और आई का मतलब ही नहीं जानते। तो तुम्हारे आई लव यू की कोई हैसियत हुई!’ भक्ति माने क्या? (श्रोतागण कोई जवाब नहीं देते) *आई लव यू*। ठीक है मुझे ही थकने दो, आपको कुछ नहीं बोलना तो! भूलना नहीं, मेरा बड्डे (जन्मदिन) है आज, मैं कुछ भी कर सकता हूँ। हमेशा आपकी तानाशाही नहीं चलेगी। तो हम कह रहे हैं, भक्ति माने क्या होता है? *आई लव यू*। भूलिएगा नहीं, भक्ति माने? *आई लव यू*। कैसे आई लव यू बोल दोगे अगर आई का पता नहीं है? अगर आई का पता नहीं है तो आई लव यू कैसे बोल रहे हो? मैं भक्तों से प्रश्न कर रहा हूँ।
भक्ति के लिए भी फिर क्या आवश्यक है? ज्ञान और आई का ज्ञान माने आत्मज्ञान। तुम कौनसी भक्ति कर रहे हो जिसमें बस ऐसे सिर झुकाया जाता है बिना जाने कि सिर माने क्या? तुम कौनसी भक्ति कर रहे हो जिसमें बस आई लव यू बोला जाता है बिना जाने कि आई माने क्या? भक्ति मार्ग प्रेम मार्ग होता है न! और प्रेम माने? मुझे प्रेम है। मुझे प्रेम है माने किसे प्रेम है? वो तो हम साहब जानते ही नहीं क्योंकि जानना तो वर्जित है। खासकर स्वयं को जानना तो बिलकुल वर्जित है। जब स्वयं को जानना वर्जित है तो फिर अपनी कामवासना भी नहीं पता कुछ कि क्यों आ रही है, कहाँ से आ रही है। बस जब उसका विस्फोट होता है तो बलात्कार हो जाते हैं। कभी-कभी उन बलात्कारों की चपेट में विदेशी भी आ जाते हैं। नहीं तो भारतीय महिलाओं के तो बलात्कार आम बात है। वो बेचारी, उनका तो होते ही रहता है। कभी-कभार जब किसी विदेशी महिला का भी हो जाता है तो सुर्खियाँ बन जाती हैं।
भारतीय महिला का बलात्कार कोई बस ऐसा थोड़ी है कि पराये ही करते हैं। घरों में होता है, पति भी बलात्कार करते हैं, प्रेमी भी बलात्कार करते हैं और वो तो बलात्कार की श्रेणी में गिना भी नहीं जाता बहुत बार। माना ही नहीं जाता, ये बलात्कार हुआ। 'पति ने करा है, ये बलात्कार कैसे हो सकता है! पति-पत्नी के सम्बन्ध में बलात्कार थोड़े ही होता है।' है भाई! वो खुला बलात्कार है।
और वो इसलिए हो रहा है क्योंकि पति स्वयं नहीं जानता कि उसकी वासना का स्रोत क्या है। वो स्वयं नहीं जानता कि सामने जो मनुष्य खड़ा है, स्त्री के रूप में, वो सर्वप्रथम एक मनुष्य है, स्त्री बाद में है। और मनुष्य की पहचान उसकी देह से नहीं होती, मनुष्य की पहचान उसकी चेतना से होती है। अपनी पत्नी को वो कभी चेतना के रूप में देख ही नहीं पाया क्योंकि चेतना माने ज्ञान। ये जो मनुष्य है पुरुष के रूप में, इसने स्वयं को ही कभी चेतना जैसा जाना नहीं तो ये अपनी पत्नी को चेतना जैसा कैसे जानेगा! ये जो पुरुष है, इसने स्वयं को भी सदा देह समझा है तो ये अपनी पत्नी को भी देह ही समझता है। शुरू में पत्नी बहुत खुश रहती थी, वो उसकी देह की तारीफ़ करता रहता था। क्या बॉडी है, ऐसी बॉडी वैसी बॉडी , बहुत खुश रहती थी। फिर धीरे-धीरे उसको समझ में आता है कि जो तुम्हें देह ही समझता है वो बस माँस नोंच-नोंच कर खाएगा रोज़।
जानना! जानना! धर्म माने — जानना। और इसीलिए संस्कृति हमें चाहिए जो जिज्ञासा पर आधारित हो। लोग कहते हैं न, ‘संस्कृति चाहिए।‘ हाँ! संस्कृति बिलकुल चाहिए। हमें जिज्ञासा मूलक संस्कृति चाहिए। हमें संस्कृति चाहिए जहाँ कोई भी बात समझाकर बोली जाए। हर बात समझायी जाए फिर बतायी जाए। जहाँ उन प्रश्नों के भी उत्तर दिये जाएँ जो प्रश्न पूछे ही नहीं गये, जहाँ बच्चों का मूल्यांकन उनके विद्यालय में उनके उत्तरों से ज़्यादा, उनके सवालों पर किया जाए।
बच्चे को नम्बर मिल रहे हैं, उसके जवाबों पर नहीं, उसके सवालों पर। सबसे ज़्यादा अंक उस बच्चे को मिलेंगे जो सबसे अच्छे सवाल पूछता है। हमें ऐसी संस्कृति चाहिए लेकिन हमारी संस्कृति क्या हो गयी है? रटो। वो बात हमारी शिक्षा में भी दिखाई देती है। जानो नहीं, बस रट लो। जानो नहीं, बस रट लो। वो सारी बातें आ रही हैं ज्ञान की उपेक्षा से। वो सारी बातें आ रही हैं वास्तविक धार्मिकता की उपेक्षा से।
पूछो! पूछो! पूछो! बस ऐसे नहीं कि ऐसे ही होता है। ‘नहीं, पर ऐसा थोड़े ही होता है!’ ये होता है क्या होता है? ‘ये होता है’ माने क्या? मेरा जीवन है, वो होगा जो सही है। मेरा जीवन है, वो थोड़ी होगा जो होता है। जो होता आया है, वो मेरे साथ क्यों हो? मेरा जीवन अतीत है? इतिहास है? ये एक ज़िन्दगी है और वर्तमान है। मुझ पर कोई बाध्यता नहीं है कि जो होता आया है, मैं उसको दोहराऊँ। एकदम कोई बाध्यता नहीं है। मेरे साथ वो नहीं होगा, जो होता है। मेरे साथ वो होगा, जो होना चाहिए। ये मेरी ज़िन्दगी है।
समझ में आ रही है बात?
जो समझता है वो कभी अपने शरीर का गुलाम नहीं बनेगा। जो समझता है वो कभी अपनी मानसिक वृत्तियों का भी गुलाम नहीं बनेगा। जो नहीं समझता वो अधिक-से-अधिक दमन कर पाएगा, दमन। और सप्रेशन भारतीय समाज में खूब है। खूब है, बस दबाओ, दबाते चलो, दिखने न पाये बात। कुछ शब्दों का कभी उच्चारण ही मत करो। बोलो ही मत। कुछ मुद्दों पर कभी चर्चा मत करो।
ज़िन्दगी के जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे होते हैं, माँ-बाप और बच्चे, उन पर कभी चर्चा नहीं करते। बार-बार बोलता हूँ कि सबसे कीमती सवाल वो हैं, जिन पर कभी कोई चर्चा नहीं होती। अगर आप किसी बात पर चर्चा करना ही नहीं चाहते, जान लीजिए वही बात है जिस पर आपको चर्चा करनी चाहिए। जिन मुद्दों पर पति-पत्नी आमने-सामने बैठकर बात नहीं करना चाहते, यही वो मुद्दा है जिस पर बात होनी चाहिए। जान-बूझकर दोनों दबा रहे हैं। दमन! दमन! दमन! किसका दमन? खुद का दमन।
कभी कोई मिले ऐसा जो कहे, ‘नहीं साहब! मेरे लिए तो धर्म का मतलब बस ये है कि मैं ईश्वर में श्रद्धा रखता हूँ।‘
‘क्या?’
‘मैं ईश्वर में श्रद्धा रखता हूँ।‘
बोलो, ‘तुमने जो बात बोली है अपनी भक्ति की, वो किससे शुरू हुई?’
‘मैं’। ‘मैं ईश्वर में श्रद्धा रखता हूँ।’
मैं माने कौन? ‘मैं रोज़ सुबह उठकर फलाने ग्रन्थ का पाठ करता हूँ।’ ये भी कहाँ से शुरू हुआ? ‘मैं’। मैं माने कौन? कोई धार्मिकता नहीं हो सकती ‘मैं’ के बिना। आत्मज्ञान के बिना कौनसी धार्मिकता! ‘मैं मन्दिर जा रहा हूँ।’ कहाँ से शुरू हुआ मामला? ‘मैं’। ‘मैं’ को नहीं जानते तो मन्दिर तो बाद में आता है न, ‘मैं’ पहले आता है। ‘मैं कर्मकांड करता हूँ। मैं उपवास रखता हूँ। आज शिवरात्रि है, आज मैं व्रत करूँगा फिर फलानी क्रियाएँ करूँगा।’ ये जो कुछ भी बोल रहे हो वो कहाँ से शुरू होता है? ‘मैं’। ‘मैं’ नहीं पता तो शिव को कैसे जानोगे? आदि शंकराचार्य आज सुबह ही क्या बोल रहे थे? उनसे पूछा गया, ‘कौन हो तुम?’ उनके भावी गुरु ने उनसे पूछा था, ‘कौन हो तुम?’ बोले, ‘शिवोहम्।‘ तो मैं ही शिव है।
मनोबुद्ध्यहङकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे। न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्
मैं न तो मन हूँ, न बुद्धि, न अहंकार न चित्त हूँ। मैं न तो कान हूँ, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूँ। मैं न तो आकाश हूँ, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूँ। मैं तो शुद्ध चेतन हूँ, अनादि अनन्त शिव हूँ।
~ निर्वाण षट्कम
उनसे पूछा, ‘तुम कौन हो?’ बोले, ‘शिवोहम्।’ जो आप गाते हो न चिदानन्द रूपः शिवोहम् शिवोहम्, वो उन्होंने उत्तर दिया है किसी को। प्रश्न क्या था? प्रश्न था, ‘कौन हो तुम? वत्स कौन हो तुम? परिचय दो।’ तो बोले,’शिवोहम्।‘ मैं शिव हूँ। कौनसी शिवरात्रि मना रहे हो तुम बिना स्वयं को जाने। शिवोहम्, मैं शिव हूँ। जो ‘मैं’ को नहीं जानता वो शिवरात्रि मनाने का हकदार कैसे हो गया और यहाँ तो शिवरात्रियों पर खूब नाच-गाना चल रहा है, ‘मैं’ को जाने बिना। सबकुछ है, नाच-गाना है, ये है, वो है, बस ‘मैं’ कहीं नहीं है।
आत्मज्ञान कहीं नहीं है। आत्मज्ञान कहीं नहीं है। भारत का धर्म ऐसा ही हो गया है — आत्मज्ञान विहीन धर्म। जहाँ आत्मज्ञान नहीं होता वहाँ बस समाज को किसी कदर चलाने के लिए नियम-कायदे, अनुशासन होते हैं, उनमें दमन होता है। ‘ये नियम है कि तुम ऐसे वस्त्र पहनोगे।’ ‘समझा दीजिए, क्यों?’ ये पूछना मना है।
ऐसे नहीं चलेगा, साहब! धर्म तो विद्रोह होता है। आदमी पैदा होता है बन्धनों में। धर्म का अर्थ होता है उन बन्धनों के प्रति विद्रोह। जिज्ञासा ही धर्म है। जो कुछ चलता आ रहा है या तो समझा दो या मानने पर मजबूर मत करो और मानेंगे नहीं तो करेंगे नहीं, ये धर्म है। जब तक जानूँगा नहीं, तब तक करूँगा नहीं, यही धर्म है। और बात ये नहीं है कि बाहर वाले के आदेशों का पालन नहीं करूँगा बिना जाने, मैं अपने शरीर के आदेशों का पालन भी नहीं करूँगा।
वासना क्या होती है? कुछ समाज का आदेश, कुछ अपने शरीर का आदेश। वासना में दोनों दिशाओं से आदेश आता है। आपका शरीर भी आपको आदेश दे रहा है। और सामने जो व्यक्ति आकर खड़ा हो गया है, वो भी आपको आदेश दे रहा है। ये दोनों जब मिल जाते हैं तो वासना का जन्म होता है।
आप कह रहे हो, ‘मैं दोनों आदेशों का पालन नहीं करता। कोई मेरे सामने आ गया है, उत्तेजक तरीके से खड़ा हो गया है, उसके आदेश का पालन नहीं करूँगा। हो सकता है वो मेरे सामने यही सोचकर खड़ा हो कि वो मुझे उत्तेजित कर देगा, मैं नहीं उत्तेजित होता। मैं तेरे आदेश का पालन क्यों करूँ? मैं गुलाम हूँ तेरा? तू सोचने आ गया कि तू मुझे भड़का देगा, मैं नहीं भड़क रहा। मैं गुलाम हूँ तेरा क्या कि मैं भड़क जाऊँ।‘
इसी तरह शरीर है। शरीर आपको आदेश दे रहा है, ‘जवान हो गये हो! जवान हो गये हो! चलो उत्तेजित हो जाओ।‘ ‘शरीर! मैं तेरी आज्ञा का पालन नहीं करूँगा। मैं किसी की आज्ञा का पालन नहीं करता क्योंकि मैं धार्मिक हूँ।‘ धर्म का अर्थ ही यही होता है, नहीं झुकते, नहीं झुकना, न झुकना धर्म है। हमने धर्म का अर्थ बना लिया है अन्धी ताकतों के आगे, अज्ञान के आगे झुक जाना। हमारा धर्म उल्टा है। इसलिए हम इतने पाश्विक हैं।
बात समझ में आ रही है कुछ? या मैं ये पूछूँ कि बात को स्मृति में डाल लिया? बात समझ में आयी या नहीं आयी हो, बात के आगे सिर झुका दिया? ये पूछूँ? या ये पूछूँ कि बात समझ में आ रही है कुछ? सदा मैंने आप से क्या पूछा है, ‘समझ में आ रहा है कुछ?’ और जब आप जल्दी से बोल देते हो, आ रहा है तो मैंने थोड़ा-सा आपको डाँटा भी है कि इतनी जल्दी कैसे आ गया समझ में। इतनी जल्दी कैसे समझ में आ गया। समझ बहुत बड़ी बात है और समझ नहीं तो जीवन में कुछ भी नहीं। हम मानने के लिए नहीं पैदा हुए हैं, हम समझने के लिए पैदा हुए हैं। बोधो अहम्, शिवोहम्। हम समझने के लिए पैदा हुए हैं।
आ रही है बात समझ में?
वासना हो, क्रोध हो, लालच हो, भय हो, मद हो, मोह हो, डंडा मारना इनका इलाज नहीं होता। इनका इलाज होता है — समझना। ये डंडेबाज़ी बहुत दूर तक नहीं जाती। इससे बस पाखंड और दमन होता है। और जिस चीज़ का दमन किया वो फूटेगी। फ्रायड की पूरी बात ही यही थी। जिस चीज़ का दमन करोगे, उसमें विस्फोट होगा।
प्र२: सर नमस्ते। मेरे मन में बस एक सवाल था कि मेरी शादी को पाँच साल हो गये। मेरी एक बेटी है और मैं बी.एड भी कर रही हूँ। मुझे दोनों तरफ़ सम्भालना पड़ता है। तो ये समझ नहीं आता कि अपने लक्ष्य को देखूँ या अपनी बेटी की ज़िम्मेदारी को निभाऊँ। कृपया मार्ग दर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: सब साथ लेकर चलना पड़ेगा, कुछ नहीं छोड़ सकते। ऐसे नहीं कह सकते कि इसको देखूँ कि उसको देखूँ, ऐसा नहीं कर सकते।
प्र२: सर, कभी-कभी ऐसा होता है न संघर्ष करते-करते ऐसा लगता है कि बस, अब तो थक गये अब रुक जाओ। ऐसा लगता है कभी-कभी तो…
आचार्य प्रशांत: थकान के बावजूद चलता रहना पड़ेगा। जिस दिन सत्र होता है तो दिन के चार-पाँच घंटे आपके साथ बिताता हूँ। उस चार-पाँच घंटे में थोड़ा आगे भी होता है, थोड़ा पीछे भी होता है। कुल मिलाकर के एक सत्र मेरे लिए छह से आठ घंटे का निवेश होता है। उसके अलावा संस्था का काम देखना होता है। जो एडमिनिस्ट्रेटिव काम है, बहुत-बहुत है। वो भी अपनेआप में वो एक फुल टाइम जॉब है।
मैं ये नहीं कह सकता कि मैं वो देखूँ कि ये देखूँ, दोनों काम करने पड़ते हैं। अभी मैं आपके साथ हूँ, मैं चाहता हूँ मैं इसमें बिलकुल डूब जाऊँ। मुझे उस वक्त ये होश नहीं रहता है कि अभी बाहर निकलकर के जो संस्था के प्रमुख के नाते मुझे काम करने हैं, वो सब शेष हैं। अभी लगता है कि ये चलता जाये, चलता जाये। कोई मुझे समय नहीं याद दिलाएगा तो मैं रात में दस बजे तक आपसे बात कर सकता हूँ।
अभी अपने बन्धु आये हैं अमृतसर से, मैं इनसे बात करने लगा, मुझे पता ही नहीं चला पौने-तीन बज गये। इन्होंने याद दिलाया बोले, ‘अरे! आप हमसे ही बात करते रहेंगे, वहाँ चलिए सब प्रतीक्षा कर रहे हैं।‘ लेकिन आप ये नहीं कर सकते कि एक चीज़ के नाते दूसरी चीज़ को छोड़ दो, सब लेकर चलना है। इंसान पैदा हुए हैं, इंसान पैदा होने का मतलब है कि कुछ भी आदर्श नहीं रहेगा, परफेक्ट कुछ भी नहीं मिलेगा। और जो जैसा मिला है उस पर शिकायत नहीं करनी है। जो जैसा है उसी के बीच से रास्ता बनाना है।
अर्जुन भीष्म से ये थोड़े ही बोलेंगे कि देखिए साहब, हम जैसा चाहते हैं, आप उस तरीके से बाण चलाइए। कर्ण से ये थोड़े ही बोलेंगे, ‘देखो, लड़ने तो आये हो पर मरना तुम्हें है, ये ठीक है। ये डील हम पहले कर लेते हैं कि हम लड़ाई करेंगे पर मर तुम जाना।‘
दोनो ज़रूरी हैं, दोनों ज़रूरी हैं और ज़िन्दगी ऐसी निकालनी है, रास्ता ऐसा निकालना है कि ये भी न गिरे, वो भी न टूटे। जैसे जब नाव चलायी जाती है तो चप्पू दोनों ओर मारे जाते हैं न! चिड़िया जब उड़ती है तो पंख दोनों ओर चलते हैं न, वैसे ही।
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