वो तुम्हें शर्मिंदा करके झुकाते हैं, तुम बेशर्म हो जाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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वो तुम्हें शर्मिंदा करके झुकाते हैं, तुम बेशर्म हो जाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी! आचार्य जी, आज के सत्र में आपने कहा कि सिर्फ़ जानने भर से बात नहीं बनेगी। हम जो जानते हैं, उसे हमको जीना भी पड़ेगा। और इस बात का मतलब जब मैं आत्मवलोकन करती हूँ कि मैं अपनी ज़िन्दगी में इस बात पर कितने हद तक प्रयोग कर पायी हूँ, तो मुझे ये अनुभव होता है कि इसमें एक बहुत बड़ी प्रतिबन्धक जो है, वो माया है। जो मेरी अपनी लगाव है दूसरी चीज़ों से, वो बहुत बड़ी प्रतिबन्धक है। और जैसे कि आप ये भी कहते हैं कि माया सर्वाहारी है, तो वो ज्ञान को भी खा लेती है और अपने एक संसाधन की तरह इस्तेमाल कर लेती है। तो कई हद तक स्पष्टता की तरह से देखो, तो मैं भी वोगलती कई जगह पर करती हूँ। जो समझती हूँ, जानती हूँ, उसका दुरुपयोग कर देती हूँ। तो इसगलती से समझती हूँ पर फिर भी कई बार हो जाती। वोगलती मैं करती हूँ। तो इसका मतलब कोई ऐसा कोई सूत्र या फिर कोई विधि है जो मैं इससे बच सकती हूँ।

आचार्य प्रशांत: पलटते चलिए। वो गलती सब करते हैं, सब करते हैं। हम जैसे पैदा ही हुए हैं ये खेल खेलने के लिए। गलती करो, सुधारो। जब सुधार लोगे तो थोड़ी और सूक्ष्म गलती होगी। सुधार का अन्त सुधार पर नहीं होता, सुधार का अन्त पहले की अपेक्षा थोड़ी बेहतर गलती पर होता है। अब फिर सुधारो। अब जो सुधार आएगा, उसका अन्त भी कोई अनन्त सुधार पर नहीं हो गया। उसका भी अन्त आता है पहले से भी ज़्यादा एक सूक्ष्म गलती पर।

तो पहले की गलती सुधारोगे, तो अगली गलती पर आओगे। बस अगली गलती पिछली गलती से थोड़ी सूक्ष्म हो। दोहराव नहीं होना चाहिए। बदतर गलती नहीं होनी चाहिए। ये उम्मीद तो कभी करिएगा ही नहीं कि सुधार लिया, माने सुधार लिया। माने सुधार का अन्त आ गया, सुधार का अन्त तब तक नहीं आ सकता जब तक हमारा अन्त न आ जाए। हमारा तो अन्त आ नहीं गया। हमारा माने? चाहे तो स्थूल से देह का समझें, चाहे भीतर से अहंकार का। न देह मर गई, न अहंकार मर गया। तो सुधार कैसे मर गया? देह का अन्त आया नहीं, न अहंकार का अन्त आ गया, तो सुधार का अन्त कैसे आ गया?

सुधार लगातार चलता रहेगा। सुधार चलता रहेगा। वो तो तभी सम्भव है जब गलतियाँ बची रहेंगी। तो गलती तो हमेशा बची रहेगी बस पहले से थोड़ी बारीक गलती हो, महीन गलती हो। ऐसी गलती हो जो पहले आप कर ही नहीं सकते थे। ऐसी गलती हुई है इस बार जो पहले कभी हो ही नहीं सकती थी क्योंकि अब हम जिस तल पर खेल रहे हैं पहले उस तल पर खेलते ही नहीं थे। तो अब हम गलतियाँ भी अलग करते हैं। पहले से बेहतर गलती करते हैं। पहले से किसी ऊँचे आयाम में गलती करते हैं। इस पर एक बड़ा प्रचलित शेर है, आप भी लिखिएगा खोज करके उसमें कुछ मैदाने जंग और घुटनों के बल चलें, कुछ गिरते हैं शह सवार ही, ठीक है?

“गिरते हैं शह सवार (घुड़सवार) ही मैदान -ए -जंग में, वो तिफ़्ल (छोटा बच्चा) क्या गिरे जो घुटनों के बल चले।“

इन्हें खोजकर लिखिएगा। कि पहले गलती ये होती थी कि घुटनों के बल चल रहे होते थे, तो गिरते भी कैसे थे? कभी वो बुकैया चलते हैं जो छोटे वाले घुटनों के बल देखा, गिरते तो वो भी हैं पर वो जैसे ये तल है, तो ऐसे चल रहा होगा घुटनों के बल ,तो गिरेगा भी तो कैसे गिरेगा?(इशारे से समझाते हुए) ऐसे गिर गए। शह सवार बन के गिरिए न। मैदाने जंग में गिरिए न। देखा है वो घोडा जो ऊँचा वाला होता है, लड़ाई का अरबी घोड़ा। ये इतना ऊँचा (इशारे से समझाते हुए), हमारे कद से ज़्यादा ऊँचा उसका वो होता है, सैडल, उससे गिरो, गिरना है तो। घुटनों के बल चलकर गिरे, तो इस गिरने में भी क्या गरिमा है?

गिरेंगे भी तो मैदाने जंग में, हा! जैसे कहते हैं—

“गगन दमामा बाजिया, हनहनिया के कान।“

ये हनहनिया क्या है? वही घोड़ा, हिनहिनाता जो है। तो वो उसको युद्ध के रोमांच के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं सन्त कि गगन रणभेरी जैसे आसमान में बज रही है। और रण का प्रतीक क्या है? जो घोड़े के कान खड़े हो गए हैं कि अब लड़ाई शुरू हो गयी है। हन हनिया के कान। हिनहिनाता है न, तो हनहनिया। उस घोडे से गिरेंगे न जो गगन में जब बजता है दमामा,दम-दमा, दम, दम दम दम, जब लड़ाई शुरू होने जा रही है, उस ऐसी लड़ाई में गिरेंगे। घुटनों के बल नहीं गिरेंगे।

गलतियाँ ऐसी होनी चाहिए कि चोट तो खाकर आये हैं, वो चोट कैसी है? वो चोट ऐसी है, कि अरे! बहुत कठिन दुश्मन था उसने गोली मार दी, तो उसकी चोट लगी हुई है। दिखा दी, हाँ-हाँ छाती में चोट लगी है। दुश्मन ही ऐसा था, भयानक, गोली। ये थोड़े है कि थप्पड खा-खाकर के मुँह सुजा के आये हैं, और किसी को बोला कि मौत कैसे हुई? झापड़ खा-खाकर के। और झापड़ भी क्यों खा रहे थे? कहीं किसी दुकान से पाँच रुपए की चीज़ चुरा रहे थे, उसने थप्पड़ मार-मार कर मार दिया। ये कोई मौत है? अब चोट तो थप्पड खाने में भी लगती है और चोट गोली खाने में भी लगती है। हम गोली वाली चोट खाएँगे। बात समझ रहे हो? एक घाव में गरिमा है और एक घाव गर्हित है। इसी तरह एक गलती में भी गरिमा है और एक गलती गर्हित है।

बस इतना बोलते हैं कि गलती दोहराओ मत। वो भी पर्याप्त नहीं है क्योंकि न दोहराने का मतलब ये भी हो सकता है कि पहले से ज़्यादा बड़ी मूर्खता की गलती कर दी और कह दिया दोहरायी थोड़ी है। पहले से ज़्यादा गिरी हुई गलती करी है, नहीं! सूक्ष्म गलती समझ रही हैं न? सूक्ष्म गलती। सूक्ष्म गलती करिए। चोट भी खा सकते हैं, गलती भी कर सकते हैं, हार भी सकते हैं। पर ज़रा कोशिश तो ऊँची रहे। नहीं? एक है कि दुश्मन आ रहा था, तो भागे बहुत ज़ोर से और भाग कर रास्ते में लड़खड़ा कर गिरे और मर गए। इतनी भी गरिमा नहीं मिली कि पीठ पर ही कोई गोली मार दे। पीठ पर गोली की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। कैसे मरे? दहशत से मर गए। भागते दहशत से, दहशत से। ये सूरमा निकले थे जंगल लड़ने और दहशत से हार्टअटैक से मरे हैं। वो भी भागते हुए। पीछे को भाग रहे थे, पीठ दिखाकर मरे। एक तो ये होता है।

और एक क्या होता है? सैनिक अक्सर ये कहते हैं कि हमारी लाश मिले अगर, तो गोली का निशान यहाँ होना चाहिए (छाती पर)। लाश मिली और गोली का निशान यहाँ है (पीठ पर), तो बड़ी गड़बड़ हो गयी। करिए गलती फ़ख्र से करिए पर गलती भी बहादुरी के साथ करिए, ऊँचाई के साथ करिए दम के साथ करिए, समझ के साथ करिए।

एक अर्थ में देखिए सीमाजी न, सीमा जी है न नाम आपका? हाँ! एक अर्थ में तो सबकुछ गलती ही होता है सीमा जी। सब गलती ही होता है, गलती के अलावा हम कर क्या सकते हैं? हम कौन हैं? हम देवदूत हैं? हम आसमान से झड़े हुए फरिश्ते हैं? हम कौन हैं? भूलना नहीं चाहिए ये बात। हम बात कर लेते है ऊँचाई की, अनन्तता की, आत्मा की। ठीक है भैया! औकात नहीं भूलनी चाहिए न। मुझे पता मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? अभी किसी दिन मर जाऊँगा। और वही है न, जैसे वो है न- फूँक दियो जैसे होरी।

“चार जना मिलि गजी बनाई, चढ़ा काठ की घोड़ी चार कोने आग लगाया, फूँक दियो जस होरी। जगत में कैसा नाता रे ।।“

राख उड़ रही होगी कि आचार्य जी प्रणाम। और वो राख उड़ कर कहीं जा रही है। कहीं इधर-उधर पड रही है, किसी के जूते तले आ रही है, कहीं किसी की गाड़ी के विंडशील्ड पर राख पड़ी हुई है, उसने वाइपर मार दिया।

ये है। तो ये भूलना नहीं चाहिए कि हम कुछ भी करें वो एक अर्थ में तो गलती ही होगा क्योंकि वो कभी भी पूर्ण, परफ़ेक्ट तो हो नहीं सकता। जो पूर्ण नहीं है, वो एक तरीके से अभी कुछ-न-कुछ उसमें गलत ही है। हमारी गीता भाष्य की पुस्तकें हैं, भाग एक, भाग दो। आप मे से लगभग सभी ने बहुत लोगों को परिचय ही मुझसे उसी, उन्हीं पुस्तकों से होता है। वो तब की हैं जब गीता पर दो हज़ार अठारह, उन्नीस में बात करी थी। और वो दोनों पुस्तकें मतलब मुझे लगता है मिलाकर लाखों में आप लोग उनको ले चुके हैं अब तक। लाखों उनकी प्रति। अब उनका जो एक-एक अध्याय है, वो बदला जा रहा है। अब अगर आप लेंगे और आपने उसी पुस्तक को तीन साल पहले लिया था, तो वो लगभग आपको पूरी अलग मिलेगी। अब उनमें वो अध्याय डाले जा रहे हैं जो मैं अब बोल रहा हूँ।

अब जो बोल रहा हूँ, उसकी तुलना में दो हज़ार अठारह, माने पाँच साल पहले जो बोला था वो क्या था? गलत था। और अभी जो बोल रहा हूँ शायद पाँच साल बाद की तुलना में वो भी क्या होगा? एक अर्थ में? समझो बात। एक अर्थ में जो आज बोल रहा हूँ वो गलत ही है। तो न बोलूँ? आप कुछ नहीं बोलेंगे, तो मैं भी कुछ नहीं बोलूँगा। न बोलूँ? देखो, ये कुछ बोल नहीं रहीं। बोलूँ कि नहीं बोलूँ?

प्र: जी, बोलिए।

आचार्य: पर मैं तो गलत बोल रहा हूँ, मुझे मालूम है। मैं दो हज़ार अठारह में भी गलत बोल रहा था, बीस में भी गलत बोल रहा था। गीता पर मैं दस साल पहले भी बोल रहा था, तब भी गलत ही बोल रहा था। तो न बोलूँ? और जिस दिन आखिरी साँस लूँगा, अगर उस दिन भी मैं गीता पर ही बोल रहा हूँ, तो मैं उस दिन भी गलत ही बोल रहा हूँगा। तो न बोलूँ? उन किताबों का जिस दिन बीसवाँ संस्करण निकलेगा, वो भी एक अर्थ में गलत ही होगा, तो न निकालें? गलती तो कभी थमने नहीं वाली, जीवन ही गलती है। जीवन गलती नहीं है?

गलती को ही और धारदार गलती बनाना है। गलती को ही और घिसते जाना है। कि पहले गलती होती थी भोथरी, ब्लंट, एकदम मूर्खतापूर्ण गलती जैसे बन्दर करता है। देखा है न, वो बन्दर ने क्या करा था? कि बोतल में हाथ डाल दिया। अन्दर चने रखे हुए और अन्दर चने लेकर मुट्ठी बन्द कर लिया, अब हाथ नही निकल रहा, ये बन्दर वाली गलती है। तो पहले वो वाली गलती करते थे अब बेहतर करते हैं, बेहतर करते हैं और प्रार्थना बस यही है कि आखिरी साँस लें, तोगलती अति सूक्ष्म हो चुकी हो, अति सूक्ष्म हो चुकी हो। बस यही कर सकते हैं।

कोई लजाएगा नहीं। ये शर्म जो है न, ये प्रयास को खा जाती है। शर्म की भावना, मैं असफ़ल हो गया, मैं असफ़ल हो गया, प्रयास को खा जाती है। आप लोग सोचते हो कि शर्म से व्यक्ति बेहतर बनता है, सफ़ल होता है, उल्टी बात है। अपने बच्चों को ये बोल-बोल कर, बोल-बोल कर कि तुमको सफ़ल होना है, सफ़ल होना है, हमने उनमें शर्म भर दी। मत डालिए किसी पर भी, न बच्चों पर न स्वयं पर पूर्णता का, सफ़लता इत्यादि का बोझ। ऐसा कोई दायित्व लेकर हम नहीं पैदा हुए।

हम पर बस एक दायित्व है। मैं कहता हूँ प्रेम का, प्रयास का। मुझे बेहतर होना पसन्द है इतनी ज़मीनी बात। मुझे बेहतर होना पसन्द है, बस। प्रेम नहीं बोल सकते, तो पसन्द बोल दो। मुझे बेहतर होना पसन्द है इसलिए मैं बार-बार कोशिश करता हूँ, इतनी सीधी सी बात है। मैं हारूँगा, मैं गिरूँगा, मुझे चोट लगेगी, जब तक ये सब कुछ बेहतर होने की प्रक्रिया में हो रहा है, मुझे शर्म नहीं आती, न आएगी। मैं बेशर्म हूँ।

और देखिये, जो जितनी नयी कोशिश करता है, उसको उतनी नए तरीके की चोटें भी लगती हैं, उससे उतनी नयी गलतियाँ भी होती हैं। और दुनिया में तो मूर्ख बैठे हैं और वही मूर्ख हमारे मन में भी घुसकर बैठ जाते हैं। तो वो मूर्ख बाहर से भी हम पर हँसते है और हमारे भीतर से भी हम पर हँसते हैं। जब कोई बाहर से आप पर हँसे, तो उसे कहते है बाहरवालों ने तानाकशी, छींटाकशी कर दी। और जब भीतर से कोई हँस पड़ता है हम पर, तो हम कहते हैं हमें शर्म लग गई। बाहर वाले हँसे, हँसना समझ में आता है। उन्हें हँसने दो। जैसे भी हँसे। अपने भीतर ये भाव नहीं आना चाहिए कि मैं छोटा हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, कुछ नहीं।

भाई! जैसे भी पैदा हुए, हम बेहतर होने की कोशिश में लगातार हैं। और मैंने कोई ठेका नहीं उठा रखा है अनन्त हो जाने का, पूर्ण हो जाने का क्योंकि वो चीज़ मेरे बस में नहीं है। पर एक दायित्व तो मेरा ज़रूर है, आख़िरी साँस तक लडूँगा, कोशिश करूँगा। और उस कोशिश की प्रक्रिया में मेरे मुँह पर कीचड़ लग जाए, मेरे घुटने छिल जाए, मैं दो मंजिली, दस मंजिली इमारत से गिर जाऊँ, मेरे हाथ-पाँव टूट गए, एकदम मैं किसी फिज़ूल, फूहड़ स्थिति में आ गया, तो भी मुझे लज्जा नहीं। क्योंकि जो कुछ भी हुआ है किसकी खातिर हुआ है? बेहतरी की खातिर हुआ। और बेहतरी की प्रक्रिया में अगर कुछ उल्टा-पुल्टा हो भी गया, तो वो एक तरीके की आहुति है।

बेहतरी, उन्नति, प्रगति, उर्ध्वगमन, एक यज्ञ है। उस यज्ञ में अपनी गलतियों की आहुति दी जाती है। तो आहुति है भाई! इसमें लज्जा कैसी? मस्त होकर लिखा करिए। आज पाँच गलतियाँ और कीं। पता चला हम कितने बड़े मूर्खानन्द हैं। जो भी व्यक्ति ज्ञान के, गीता के साथ है, अपनी बेहतरी की यात्रा पर है, उसके लिए बहुत ज़रूरी है वो ख़ुद पर हँसना सीखे। नहीं तो आप लाज-लाज से ही मर जाओगे। आत्मज्ञान का मतलब क्या है? अपनी क्या जानना? अपनी गलतियाँ, कमजोरियाँ जानना और ये आत्मज्ञान जितना बढ़ेगा, आपको अपनी मूर्खताएँ और अपनी कमज़ोरियाँ उतनी ज़्यादा दिखाई देंगी। आप तो लाज से ही मर जाओगे।

लाज वगैरह नहीं चाहिए, खुद पर हँसना सीखो। अपनी जैसे-जैसे मूर्खता दिखे, तो उसकी प्रतिक्रिया ये नहीं कि मुझे लज्जा आ गई। लज्जा तो अहंकार को आती है क्योंकि वो सोचता है मैं बहुत महान हूँ। सोचता था मैं बहुत महान हूँ, पता चला झुन्नूलाल हूँ। अपनेआप को महान मानते थे और आत्मज्ञान किया थोड़ा सा, निष्पक्ष अवलोकन किया, तो क्या पता चला? क्या हैं? झुन्नूलाल। तो बड़ी लाज आ गई, बड़ी लाज आ गई। लाज आती है, तो पाखंड आता है। लज्जा का परिणाम पाखंड होकर रहेगा। इसीलिए लजाया कम करो। बेशर्म होना बहुत ज़रुरी है।

लजाओगे तो झूठ बोलोगे। मान लो अपनी गलती दिखी। लाज आई, तो तुरन्त क्या बोल दोगे फिर? गलती करी ही नहीं। यही तो पाखंड है। जहाँ गलती करी है, वहाँ बोल गलती नहीं करी। वही पाखंड है। तथ्य को ही झुठला दोगे। तथ्य पता चला किसी चीज़ में दस में से दो अंक हैं। किसी चीज़ में, मैं कह नहीं रहा कि स्कूल, कॉलेज, में किसी भी चीज़ में दस में से दो पर खड़े हो। उससे लाज बहुत आ रही है। तो तथ्य को ही विकृत कर दोगे, कहोगे दस में दो नहीं है, दस में आठ है। दो का आठ बना दोगे। यही तो पाखंड है।

दो का आठ नहीं बनाना है, दो का चुटकुला बनाना है। मस्त चुटकुले खुद पर बनाया करिए, मस्त। ये कम्युनिटी आपको इसीलिए दी है। इसमें खूब चुटकुले लिखिए। सारे चुटकुले अपने ऊपर। झुन्नूलाल कौन है? मैं ही तो हूँ, हम सब और पहला झुन्नूलाल तो ये रहा। हाथ खड़ा करके बोल रहा हूँ। मैं रहा झुन्नूलाल। सब झुन्नूलाल, इसमें कोई शर्माने की बात नहीं है। पैदा ही कौन हुआ था? झुन्नूलाल। तो कैसे इन्कार कर दें कि झुन्नूलाल नहीं हैं। लगे रहिए बिलकुल एकदम।

एक फिल्म थी पुरानी, अंग्रेज़ी फिल्म, नाम नहीं याद आ रहा। मिल जाए, तो खोजकर लिखिएगा। तो उसमें फेंसिंग की प्रतियोगिताओं को लेकर के थी, ये तलवारबाज़ी। तो उसमें तलवारबाज़ी जिस जगह की थी, वो पुरानी कोई जगह दिखाई थी, शायद ग्रीस पुराना या पता नहीं रोम, तो उसमें सिर्फ़ पुरुष भाग ले सकते थे, उसमें सिर्फ़ पुरुष भाग ले सकते थे। तो एक लड़की होती थी उसी जगह पर, तो उसने, उसके घर में भाई वगैरह तलवार चलाते होंगे, तो उसने भी सीख ली उन्हीं के साथ। और बड़ी हुनरमन्द बन गई वो तलवारबाज़। तो उसको प्रतिस्पर्धा न करने दें राज्य वाले। कहने लगे कि ये तो लड़की है। और ये तलवारबाज़ी लड़कियों को काम नहीं होता। ये सब तो हिंसक काम हैं, ये महिलाएँ नहीं करती। ये सब है। ये तो लड़की नहीं लड़ेगी।

तो वो अपनेआप को छिपाकर के और पुरुषों वाला जिरह बख्तर पहनकर और वो सब जो भी है अपना, अपने शरीर को कस करके और चेहरा भी अपना वो करके, बाल-वाल कटवा करके, वो पुरुष जैसा बनकर, एक दिन घुस गयी एक प्रतियोगिता में, कि मैं तलवारबाज़ी करने आई हूँ और उसने बहुतों को हरा भी दिया, बहुतों को हरा दिया। जब वो आगे बढ़ी, जाने वो उसका फाइनल था या कुछ रहा होगा, बहुत बचपन में था, तब देखी थी। तो जो उसका विपक्षी था, वो हारने लगा। जब वो हारने लगा तो उसने उल्टी-पुल्टी तलवार चलानी शुरू कर दी। जब उसने तलवार चलाई, तो धोखे से एक तलवार, एक कट जो है, वो लड़की की छाती पर पड़ गया। तो उसके कपड़े वहाँ से खुल गए थोड़े। जब खुल गए तो वो लड़की लजा गई। वो लजा गई, तो उसकी तलवार जैसे चल रही थी तेज़ी के साथ, वो चलनी बन्द हो गई। और ये जो विपक्षी था, ये बात समझ गया क्या है, तो इसने उसी तरीके से उसके कपड़ों पर दो-चार कट और मार दिए। वो हार गई।

वो हार गई, उसके साथ दो तरफ़ा दुर्भाग्य हो गया। पहला तो वो हार गई और दूसरा उसका खूब मज़ाक उड़ा। उसको शर्मसार किया गया और उसको सज़ा भी दी गई कि तुम अपना लिंग, अपना जेंडर छुपाकर के इसमें कैसे आ गई थीं। तो उसको बिलकुल विरक्ति हो गयी और वो बड़ी हुनरमन्द तलवारबाज़ थी। वो ये सब छोड़- छाड़कर के जंगल भाग गई। वो जंगल भाग गई और उसने वहाँ पर उसने फिर दिखाया कि शायद कोई चाइनीज़ मास्टर है या कोई है और वो तलवार कुछ ऐसे चला रहा था कि पेड़ से पत्तियाँ गिरती थीं, और वो तलवार चला करके एक पत्ती को ज़मीन पर गिरने से पहले उसके कई टुकड़े कर देता था। कुछ इसी तरह की चीज़ थी।

तो वो उसको देखती रहती है फिर वो उसके पास जाती है और वो बोलती है कि मुझे सिखा दो तलवार चलाना। तो वो बोलता है ठीक है। वो तलवार चलाने लगती है। बोलता है कि तुम्हारी प्रतिभा में तो ऐसी कोई कमी नहीं है मैं तुम्हें क्या सिखा दूँ? पर जब वो तलवार चला रही होती है, तो उसे अपने शरीर का बड़ा एहसास होता है, बॉडी कॉनशस होती है क्योंकि वो एक ऐसे समाज में ही पली-बढ़ी थी। तो वो तलवार चलाते वक्त अपने शरीर को ख्याल में रखकर तलवार चला रही होती है। तो वो जो मास्टर होता है, वो इस बात को ताड़ जाता है। वो कहता है कि तुम फ्री होकर के तलवार नहीं चला रही हो।

तो फिर वो उसको अपनी कहानी बताती है। कहती है वहाँ गई थी मैं, इस तरह से लड़ी और इस तरह से मैं हार गई। तो वो फिर उससे हँस कर बोलता है। बोलता है, तुम्हें कुछ यू डोंट नीड टू लर्न, यू नीड टू अनलर्न (तुम्हें कुछ सीखने की ज़रूरत नहीं, कुछ भूलने की ज़रूरत है)। यू नीड टू अनलर्न शेम (तुम्हें शर्म को भुलाने की ज़रूरत है), यू नीड टू अनलर्न शेम। ये अच्छे से लिखिए। बोलता है, ‘मैं तुम्हें कुछ सिखाऊँगा नहीं, तुमने जो कुछ सीख रखा है, वो मैं तुमसे छुड़वाऊँगा। यू नीड टू अनलर्न शेम।‘ और उसके बाद वो उसको और अभ्यास कराता है। लड़ाई के कुछ नए तरीके सिखाता है तलवारबाज़ी के। लेकिन उससे ज़्यादा वो उसको मानसिक रूप से मज़बूत बनाता है।

वो कहता है कि वो नहीं होना चाहिए कि तुम्हारे, तुम कहीं पर लड़ाई कर रही हो और तुम्हारे कपड़े थोड़े खुलने लग गए, तो तुम लजा करके हार गयीं। ये नहीं होना चाहिए। और सामने वाला तुमको हराने के लिए यही करेगा। जब वो हारने लगेगा, तुम्हारे कपड़े खोलेगा। तुम्हें इस बात पर लजा नहीं जाना है। तो वो उसको सिखा देता है और कुछ ऐसा सा आता है कि एक दिन वो अपने गुरु को बिलकुल बराबरी पर टक्कर दे देती है, वो जो भी उनके तरीक़े होते हैं, तो उसमें। तो कहता है अब चलो।

अब तक एक वर्ष बीत गया होता है। अगले साल फिर वही प्रतियोगिता हो रही होती है, तो वो लेकर जाता है और वहाँ पर सब लोगों के नाम हो रहे होते हैं कि जो भी उसमें जितने भी पुरुष तलवारबाज़ हैं, जो उसमें प्रतिभागी होंगे। और इस बार ये इसको लेकर गया होता है पूरे तरीके से स्त्री की पोषाक में। बोलता है कोई ज़रूरत नहीं है पुरुषों की पोशाक पहनने की। तुम लड़की हो, लड़की के कपड़े पहनो। तुम्हें अपना स्त्रीत्व छुपाने की कोई ज़रूरत नहीं है चलो, अपने साधारण कपड़ों मे चलो। उसको लेकर जाता है। बोलता है, ये भी लड़ेगी। तो पहले तो लोग मज़ाक उड़ाते हैं, विरोध करते हैं, हँसते हैं। तो फिर वो बोलता है, मुझे पहचानते हो? मैं कौन हूँ?’ तो फिर उसमे पीछे से जाकर के थोड़ी कुछ कहानी सी है, जिसमें बताते हैं कि ये पुराने समय का जो सबसे ऊँचा तलवारबाज़ था, ये वो था। और ये एक बार में एक से नहीं, दो-चार से एक साथ लड़ा करता था। तो अपना परिचय देता है, तो भीड़ खामोश हो जाती है। और कहता है कि मैं बोल रहा हूँ कि ये लड़ेगी और लिंग की क्या बात है? तुम अगर इससे बेहतर हो, तो इसे हरा कर दिखा दो।

और इस बार जब वो तो पूरी स्त्री की पोशाक में थी। तो ये सब जो हारने लगते हैं। कुछ हारते हैं फिर वही आता है जिसने पिछली बार करा था। वो मुस्कुराता है। बोलता है, ‘इसको हराने के लिए कुछ करना थोड़े ही है, इसके कपड़े फाड़ दो, ये लाज से हार जाएगी।‘ इस बार भी वो यही करता है। दो-चार कट मारता है उसके कपड़ों पर। वो जितना कट मारता है, वो उतना और उसको मारती है। बोलती है, ‘तू कट मार ,मैं तुझे कट मारती हूँ।‘ ये ही है।

लाज से सफ़लता नहीं मिलती। लाज तो आपको ज़मीन में गाड़कर आपको लकवा मार देती है, पैरालाइज़ कर देती है। जब आप लज्जित हो जाते हो तो आपमें ऊर्जा आती है या आप काठ बन जाते हो? बोलो? हाँ! तो गलती होगी, ये सब होगा। ठीक है, होता रहे। हमें नहीं फ़र्क पड़ता। हमें नहीं फ़र्क पड़ता कि लोग हँस रहे हैं, लोग क्या सोच रहे हैं या हमने ही जो मान्यताएँ बना रखी हैं, उन मान्यताओं ने हमें कैसे जज कर लिया। बाहर वाले ही थोड़े हमें जज करते हैं। हम खुद भी अपनेआप को बहुत जज करते हैं न? नहीं करना है।

सिर्फ़ एक बात अपनेआप से पूछना है। एम आय स्ट्राइविंग टूवर्डस एक्सिलेंस? एज़ लौंग एज़ आय एम, देयर इज़ नो वे आय एम गोइंग टू फ़ील लिटल ऑर सोरो और अशेम्ड ( क्या मैं उत्कृष्टता की ओर बढ़ रही हूँ? जब तक मैं हूँ, किसी भी हालत में मैं अपने को छोटा, दुखी और लज्जित नहीं महसूस करूँगी)। न मैं सॉरी हूँ, न स्मॉल हूँ, न अशेम्ड हूँ।

ये कहानी मैंने सुनाई क्योंकि मुझे याद आया कि, कैसे शेम का इस्तेमाल करके हमको बाँध दिया जाता है, रोक दिया जाता है। आपके भीतर ये जो शेम की भावना, शेम की मान्यता, शेम की वैल्यू, शेम का मूल्य स्थापित कर दिया गया है, ये बहुत बड़ा बन्धन है। पुरुष के लिए भी, स्त्री के लिए भी। दोनों के लिए है, स्त्री के लिए थोड़ा ज़्यादा।

हार खायी, चोट लगी, कपड़ों पर कट लगा, कोई बात नहीं। हम जीतने आये हैं, हम कपड़े दिखाने थोड़ी आये थे। तू फाड़ दे कपड़े, मैं जीतकर जाऊँगी। मैं जीतने को आयी हूँ, कोई कपड़े दिखाने थोड़ी आयी हूँ। इस तरीक़े से मैं अध्यात्म में हूँ, तो मुक्ति के लिए हूँ, इज्ज़त के लिए थोड़े हूँ। मैं यहाँ इसीलिए थोड़े हूँ कि मुझे तुमसे रिस्पेक्ट मिले, मैं यहाँ इसीलिए हूँ क्योंकि मुझे लिब्रेशन चाहिए, एड्युलेशन नहीं चाहिए। है न? इज्ज़त नहीं चाहिए, एड्युलेशन नहीं, लिबरेशन चाहिए। और लिबरेशन के रास्ते की यात्रा में जो लोग एड्युलेशन की माँग करने लगते हैं, उनका बड़ा बुरा हाल होता है। ये राह तो उन्हीं के लिए है जिन्हें इज्ज़त वगैरह की परवाह न हो। बेशर्मों के लिए है ये राह।

और ये भी मत भूलिएगा बाहर से कोई आपको शर्मिन्दा करे, उससे ज़्यादा बुरा होता है जब आप अपनी नज़रों में शर्मिन्दा हो जाते हो। और अक्सर हमें कोई बाहर वाला चाहिए ही नहीं होता, हमें लज्जित और शर्मसार करने के लिए। बाहर वाला घुसकर बैठ गया है भीतर मान्यता के रूप में। हम अपनी नज़रों में खुद-ब-खुद गिर जाते हैं भले कोई और आकर हमें लज्जित करे चाहे न करे। ये छोड़ दीजिए। सिर्फ़ एक चीज़ है जिस पर मुझे अडिग रहना है, वहाँ अडिग न हो, तो कोई मुझे माफ़ मत करना। बाकी और किसी चीज़ के लिए मैं उत्तरदायी नहीं।

किस चीज़ पर मुझे अडिग रहना है? सच्चाई के लिए मेरा प्रेम, मुक्ति के लिए मेरा प्रयास। इस चीज़ में अगर मैं खता करूँ, तो मुझे क्षमा मत करना। बाकी और मैं आगे बढ़ी, मैं गिर गई, मैंने कोशिश ये करी, हो कुछ और गया, कोई बात नहीं। मैं दोबारा प्रयास करूँगी।

प्र: धन्यवाद आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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