आचार्य प्रशांत: विचलन कुछ नहीं होता है। तुम्हारा जैसा मन है न, वो उधर को ही भाग लेता है।
(श्रोताओं से प्रश्न पूछते हुए) यहाँ ऐसे कितने लोग हैं जो विचलित हो जाते हैं, करना कुछ और चाहते हैं और करने कुछ और लगते हैं?
(ज़्यादातर श्रोतागण हाथ उठाते हैं)
तुम जो कह रहे हो कि, “हम विचलित हो जाते हैं, करना कुछ है, चल कहीं और देते हैं”, तुम कहीं विचलित नहीं होते हो, तुम उधर को ही जाते हो जिधर जाने का तुमने अपने मन को प्रशिक्षण दे दिया है।
तुम्हारा कुत्ता है, वो तुम्हारे साथ-साथ चल रहा है। और साथ-साथ चलते-चलते उसको थोड़ी दूर पर कुछ माँस पड़ा हुआ मिल गया। अब तुम कितनी कोशिश करो कि वो तुम्हारे साथ चले, तुम उसकी ज़ंजीर खींच रहे हो, वो उधर को ही भाग रहा है। क्या तुम ये कहोगे कि वो विचलित हो रहा है?
वो विचलित थोड़े ही हो रहा है, उसकी पूरी शिक्षा ही यही है कि माँस खाओ। उसका पूरा मन ही ऐसा है। दिन-रात, जन्म से ही, आनुवंशिक रूप में उसने यही कन्डिशनिंग पाई है कि माँस की ओर आकर्षित हो जाओ।
तुम भी वही करते हो।
तुम्हारा मन उधर को ही जाता है जिधर जाने की तुम दिन-रात अपने मन को शिक्षा दे रहे हो।
उदाहरण लेता हूँ; तुमने कहा कि लक्ष्य बनते हैं, पर लक्ष्य के लिए जब कोशिश करते हैं तो मन विचलित हो जाता है। तुम कोई भी लक्ष्य क्यों बनाते हो?
मान लो तुमने लक्ष्य बनाया कि इस सेमेस्टर में इतने नम्बर लाने हैं। बनाते हो न इस तरह के लक्ष्य? सेमेस्टर में तुम नम्बर क्यों लाना चाहते हो?
(श्रोतागण को देखते हुए) क्यों?
ताकि अंततः तुम बी.टेक. पास कर सको, और वो भी एक अच्छे प्रतिशत के साथ, है न? बी.टेक. तुम्हें क्यों पास करनी है अच्छे प्रतिशत से? ताकि अच्छी नौकरी लग सके। ‘अच्छी नौकरी’ का क्या अर्थ हुआ? क्या मिल सके? पैसा मिल सके। उस अच्छे पैसे से तुम क्या करोगे? मज़े करोगे, अय्याशी करोगे। ठीक है? तो किताब क्यों खुली है? ताकि अंतत: तुम मज़े कर सको।
अब तुम क़िताब लेकर पढ़ने बैठे, और एक तुम्हारा दोस्त आया बाहर से कि, “आजा चल मज़े करते हैं”, तो तुम्हारा मन कहेगा, “इतना लम्बा रास्ता क्यों ले रहा है?”
मन का जो पूरा प्रशिक्षण है, वो तुमने दे रखा है कि मज़ा ही सर्वोच्च है, मज़ा ही पाना है; पढ़ भी इसलिए रहे हो ताकि कभी और मज़ा कर सको। तो मन कहेगा कि, “पढ़ो, फिर नम्बर लाओ, फिर नौकरी लगाओ, फिर पैसा कमाओ, फिर मज़े करो। जब पढ़ना इसलिए है कि मज़े करो आगे कभी, तो अभी ही मज़ा कर लेते हैं। बंद कर किताब, चल।”
मन बिलकुल ठीक कर रहा है। इसलिए जो भी कोई लक्ष्य बनाकर काम करेगा, वो पाएगा कि काम हो ही नहीं रहा है, क्योंकि लक्ष्य हमेशा आगे कुछ पाने के लिए होता है। जो आगे पाना है, जब वो अभी उपलब्ध है, तो अभी पाओ न।
पर तुम चाहते ये हो कि, “मेरा मन वैसा ही रहे जैसा मैंने उसको बना दिया है, और साथ-ही-साथ मैं एकाग्रता भी पा जाऊँ”, ये हो नहीं पाएगा कभी, ये असंभव बात है।
पहले भी कह चुका हूँ, फिर से कह रहा हूँ, तुम्हारी एकाग्रता इसी बात पर निर्भर करती है कि तुम क्या हो।
(बाईं ओर इंगित करते हुए) ये यहाँ पर बोर्ड है, मैं यहाँ पर कोलाज (चित्रों का समूह) लगा दूँ, और उसमें दुनिया भर की तमाम तस्वीरें रहें। उसी के बीच में किसी आकर्षक लड़की का चित्र लगा हुआ है। तुम तुरन्त एकाग्र हो जाओगे। जितने यहाँ बैठे हैं, सबकी आँख एक बिन्दु पर ठहर जाएगी।
तुमने जो मन को प्रशिक्षण दिया है, मन वैसा ही एकाग्र हो लेता है। एकाग्रता की तो कोई समस्या है ही नहीं।
तो ये कभी कहा मत करो कि, “हम एकाग्र नहीं हो पाते।” तुम एकाग्र होते हो, पर कहाँ? वहाँ, जहाँ तुमने अपने मन को प्रशिक्षण दे रखा है। तो एकाग्रता की समस्या कहाँ है? तुम तो गहराई से एकाग्र हो जाते हो, बिलकुल साधना में उतर जाते हो।
जैसा जिसका प्रशिक्षण, वैसी उसकी एकाग्रता। तो यदि अपनी एकाग्रता का विषय बदलना है, तो जीवन को ही बदलना पड़ेगा।
अब ये बड़ी बात हो गई। तुम बोलोगे, “हम इसके लिए तैयार नहीं हैं। हम चाहते हैं कि जीवन हमारा वैसे ही चले जैसा हम चाहते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ हम पढ़ाई पर भी एकाग्र कर लें।” ऐसा तो कभी होगा नहीं। अगर जीवन बदलने को तैयार हो, पूरा कायाकल्प, तो बताओ।
जीवन यदि बदलना है, तो फिर देखना पड़ेगा दिन-रात कि—मैं किन चीज़ों पर लगातार अटका रहता हूँ? मेरे दोस्त कैसे हैं? मैं अपना समय कहाँ गुज़ारता हूँ? मैं कौन-सी किताबें पढ़ रहा हूँ? मैं किन विचारों में उलझा रहता हूँ? मैं यदि टी.वी. देखता हूँ, तो कौन-से प्रोग्राम देख रहा हूँ? यदि इंटरनेट पर जाता हूँ, तो वहाँ करता क्या हूँ? फेसबुक पर जाता हूँ, तो वहाँ क्या कर रहा हूँ? जब ये सब बदलेगा, तो इसके साथ-साथ तुम्हारी एकाग्रता भी बदल जाएगी।
पर अगर तुम नकली तरीके आज़माओगे कि ये कर लो और वो कर लो, और सोचो कि इससे तुम्हें एकाग्रता मिल जाएगी, तो ये बिलकुल नहीं हो पाएगा। बिलकुल भी नहीं हो पाएगा।
मन अपने प्रशिक्षण के अनुसार एकाग्र हो जाता है।
चींटी गुड़ पर एकाग्र हो जाएगी, उड़ती हुई चील, नीचे मरे हुए चूहे पर एकाग्र हो लेगी। पर उसी चील को तुम बोलो कि, “तू घास पर एकाग्र हो पाएगी क्या?” इतना ऊँचा उड़ रही होगी, और इतना-सा पिद्दी भर का चूहा मरा पड़ा होगा, उस पर एकाग्र हो लेगी, बिलकुल विचलित नहीं होगा उसका ध्यान, पर घास पर नहीं कर पाएगी।
तुम देखो तुमने अपने मन को चील जैसा बना रखा है, या चींटी जैसा बना रखा है। क्या बना रखा है? क्योंकि तुम ही तो बनाते हो न अपना मन।
अपने मन का निर्माण तो तुम ही करते हो। अपनी रोज़मर्रा की गतिविधियों से अपने मन का निर्माण तुम ही करते हो। तो देखो कि तुम्हारी रोज़ की गतिविधियाँ कैसी हैं। जब वो बदलेंगी तो मन बदल जाएगा। एकाग्रता अपने आप बदल जाएगी।