प्रश्न: सर, बहुत बार ऐसा होता है कि आप कुछ सोच समझ कर करने जाते हो पर बड़े-बुजुर्ग आपको ये कहकर मना कर देते हैं कि उनके पास अनुभव है, उन्होंने दुनिया देखी है। इससे आपको ये लगने लगता है कि आपके लिये हुए निर्णयों में कुछ कमी है और अनुभव ही मायने रखता है। पर ये भी सुना है कि सुनो सबकी पर करो अपने मन की। इन सब बातों से मन बड़ा ही भ्रमित हो जाता है कि करें तो करें क्या। ऐसे में क्या करना चाहिए?
वक़्ता: दो बातें हैं इसमें। पहली कि ‘अनुभव का क्या महत्व है? दूसरी कि ‘सुनो सबकी, पर करो अपने मन की’। ये क्या बात है? जो कुछ भी बार-बार होता है, दोहराया जाता है; वहाँ निश्चित रूप से अनुभव का महत्व है। रसरी आवत जात ते.…
सभी श्रोता {एक साथ}: सिल पर पड़त निसान।
वक़्ता: क्योंकि एक ही काम होना है – रसरी को आना है और जाना है, आना है और जाना है, और ये बार-बार किया जाये तो सिल पर निशान पड़ेगा। अनुभव का मतलब होता है, समय। और जितने समय तक तुम घिसोगे रस्सी को, पत्थर पर निशान पड़ेगा ही पड़ेगा। यहाँ अनुभव का महत्व है। ‘प्रशिक्षण’ में अनुभव का बड़ा महत्व है। एक ही काम तुम दस हज़ार बार करो तो तुम उसमें बड़े पारंगत हो जाओगे। यहाँ तक अनुभव कीमती है और ये बात हमें माननी ही होगी।
पर जीवन में और जीवन के निर्णयों में, अनुभव का क्या महत्व है? क्या जीवन दोहराव की प्रक्रिया है? या जीवन में लगातार जो भी है, नया ही है? जीवन के क्षण क्या वही होते हैं जो पहले आ चुके हैं और जिनसे तुम पहले गुज़र चुके हो, या प्रतिपल जीवन नया है?
जीवन प्रतिपल नया ही है। जितना ध्यान से देखोगे, उतना ही नया है और जितना ही बेहोश रहोगे, उतना ही सब पुराना लगेगा । जो आदमी बेहोश है, उसको यही लगेगा कि मुझे जो दिख रहा है, वो वही है जो कल और परसों भी देखा था। उसे कभी कुछ नया दिखता नहीं। बेहोश आदमी की पहचान ही यही है। वो रास्ते पर निकल जायेगा और कहेगा कि वही तो रास्ता है जिससे रोज़ आता जाता हूँ। इसमें नया क्या है? वही पेड़ हैं, वही घास है, सुबह-सुबह वही सूरज निकल रहा है, वही सड़क है। नया क्या है?
और एक जगे हुए आदमी की पहचान ये है कि वो उसी रास्ते से निकलेगा और कहेगा कि सब कुछ तो नया है। ये सूरज आज बिल्कुल नया-नया निकला है। पहली बार देखा। जो पेड़ है ना, अद्भुत, पहले कभी देखा ही नहीं था। वो ठिठक जायेगा , जैसे बच्चे को देखा है – एक तितली को ऐसा देखता है जैसे दुनिया का सबसे बड़ा अचम्भा। ये जगे हुए आदमी की पहचान है। वो सुबह-सुबह के आसमान को देखेगा और उसी में खो जायेगा, और कहेगा, ‘ये क्या’? एक सोया हुआ आदमी उसी रास्ते पर किसी से मिलेगा और कहेगा, जानता तो हूँ; शर्मा जी हैं, रोज़ मिलते हैं इसी रास्ते पर। इसमें क्या बड़ी बात हो गयी? ये शर्मा जी हैं, इनको बड़े अच्छे से जानता हूँ, बीस साल से जानता हूँ। जगा हुआ आदमी कहेगा, ‘ये एक नये शर्मा जी हैं। मैं अतीत को ध्यान में रख कर इनसे नहीं मिल सकता।’ वो उन्हें ध्यान से देखेगा, वो उनकी बात को ध्यान से सुनेगा। शर्मा जी भले बस इतना ही बोलें, ‘सुप्रभात’ – पर उस सुप्रभात में उनकी सारी कहानी छुपी है। उन शब्दों को वो ऐसे सुनेगा जैसे पहली बार सुन रहा है। वो पत्थर पर नहीं पड़ रहे होंगे। वो शब्द एक ऐसी जगह पड़ रहे होंगे, जहाँ स्पंदन हो सकता है, जहाँ कुछ हिल सकता है। जैसे कुछ बड़ा सा सेंसिटिव यन्त्र हो, जिस पर हल्का सा भी आघात होता हो, तो वो काँप जाता हो, उसको रजिस्टर कर लेता हो। ये जगा हुआ आदमी होता है, जो हर छोटी-छोटी बात के प्रति जगा है। जो ये नहीं कह रहा है कि ‘नया क्या हो गया?’
अनुभव जागृति नहीं देता। ध्यान से समझना इस बात को। बड़ी क्रांतिकारी बात है, बड़े गहरे विद्रोह की बात है ये। क्योंकि तुम्हारे ऊपर अनुभव की तानाशाही बड़े समय से चल रही है। तुम्हें लगातार यही कहा गया है कि ‘तुम अनुभवी नहीं हो, हम अनुभवी हैं, इसलिए हमारी सुनो! हम जीवन को ज्यादा जानते हैं, इसलिए हमारी सुनो!’ मैं तुमसे कह रहा हूँ कि अनुभव कुछ नहीं देता। अनुभव इतना तो कर सकता है कि तुम्हारे ऊपर धूल की और परतें चढ़ा दे, पर अनुभव तुम्हें बोध नहीं देता, अनुभव तुम्हें प्रेम नहीं देता, अनुभव तुम्हें आनंद नहीं देता, अनुभव तुम्हारे मन को मुक्त नहीं करता। जीवन में जो कुछ भी सही मायने में कीमती है वो अनुभव से नहीं आता, वो समय से नहीं आता। वो बस होता है।
ये जो छोटी बातें हैं, वो पूछ लो किसी से। उनका अनुभव तुम्हारे काम आ सकता है। कोई रोज़ एक ही रास्ते पर आता-जाता हो, बीस साल से एक ही क्षेत्र में रहता हो, तो पूछ लो उससे, कौन सी राह ठीक है जो जाती है फलाने गाँव कीतरफ? वो बता देगा। कौन सा रास्ता है जो जाता है दिल्ली की तरफ, वो ये भी बता देगा। पर यह मत पूछ लेना उससे कि मुझे किस रास्ते जाना चाहिए। ये वो नहीं बता सकता। पर अनुभवी लोगों की कोशिश यही होती है कि वो तुम्हें सब कुछ बता दें। ये भी वही बतायें कि तुम्हें किस रास्ते जाना चाहिए। ना ! ये उनसे मत सुन लेना।
अनुभव से अगर कुछ मिलता ही होता, तो जितनी उम्र बढ़ती, उतना ज्यादा व्यक्ति को बोधपूर्ण हो जाना चाहिए था। अगर अनुभव वास्तव में कीमती होता तो जितने लोग ये सौ साल और एक सौ दस साल के होते हैं, इनको तो बुद्ध ही हो जाना चाहिए था। पर हमें तो विपरीत दिखाई दे ता है। हमें तो दिखाई देता है कि जितनी उम्र बढ़ती जाती है, जीवन में क्लेश उतना बढ़ता जाता है। निराशा और कुंठा उतनी बढ़ती जाती है। और मौत के समय पर बस इतना ही होता है कहने के लिए कि ‘जीवन व्यर्थ गया’। जीवन भर जो भी कुछ किया वो काम का नहीं था। और मौत के समय यह बात बिल्कुल साफ़-साफ़ दिखाई देती है। बहुत कम वृद्ध लोग तुम्हें मिलेंगे जिनमें अभी बच्चों की मासूमियत शेष है। आमतौर पर जब तुम किसी अनुभवी व्यक्ति से बात करोगे, ना वो सुनने को तैयार होगा, ना देखने को, ना समझने को। वो कहेगा, ‘मुझे पता है। हमें मत बताओ, हम जानते हैं। हमनें धूप में बाल नहीं पकाये हैं। हम जानते हैं।’ इससे यही पता चलता है कि उसके अनुभव ने उसे जड़ कर दिया है, पत्थर बना दिया है। उसकी सारी संवेदना को मार दिया है। अनुभव क्या दे सकता है तुमको जड़ता के अलावा? व्यक्ति तो वही असली है जो अनुभव के बावजूद बच्चा बना रहे। व्यक्ति तो वही असली है जो अनुभवी होने के बावजूद उस अनुभव का ग़ुलाम ना हो जाए। जिनको तुम अपने अनुभवी लोग कहते हो, वो अपने अनुभव के ग़ुलाम होते हैं। वो कहते हैं, ‘जीवन को हमनें ऐसा देखा है और जीवन ऐसा ही होता हैं और यही सच है। मान लो हमारी बात।’ उन्हें बहुत बुरा लगता है अगर तुम उनकी बात ना मानो।
व्यक्ति वो असली, जो समस्त अनुभव लेता रहे परन्तु उसके बाद भी वो अनुभव उसके मन को गन्दा ना कर पाए। वो सारे अनुभवों के बीच रह कर भी अनुभवों से अछूता रह जाये। जिसकी लचक ना खो जाये। जिसका अनछुवापन, कुँवारापन भ्रष्ट ना हो जाये। आदमी वो चाहिये। आदमी वो नहीं चाहिये जो उम्र के साथ साथ, और, और, और, इकट्ठा करता चलता है। ज्ञान, धारणायें; और ये सब गन्दगी ही हैं। जितना वो इनको इकट्ठा करता चलता है उतना ही उसको इच्छा आती है कि अब इनको दूसरों को भी दूँ। लोग कतराते हैं अनुभवी लोगों के पास जाने से भी। क्यों? ये पकड़ लेगा और किस्से सुनाएगा। ‘आज से चालीस साल पहले जब हमने ये किया तो ये हुआ था। आज कल के बच्चे तो कुछ समझते नहीं। हमारी सुनो हम बतायेंगे।’ तुम्हारी सुनें, या तुम्हें देख ही लें। अगर तुम्हारे सारे अनुभव ने तुम्हें वहाँ लाकर छोड़ा है, जहाँ पर तुम हो,तो मैं पागल हूँ कि तुम्हारे अनुभव की सुनूँ। तुम में अगर कोई प्रकाश होता तो वो दिखता तुम्हारी आँखों से, वो दिखता तुम्हारे जीवन से। पता चलता कि तुम बड़े आनंदपुर्ण हो। और सिर्फ यही कसौटी है। आदमी ने कैसा जीवन जीया है वो परखने की एक ही कसौटी है – क्या वो मौज में है? क्या उसके जीवन में प्रेम है, या सिर्फ चिन्तायें हैं और बोझ है? जिसके पास मौज होगी वो तुम्हें बोझ क्यों देगा? जिसके पास मौज होगी वो कहेगा, मैं भी मौज में हूँ, तू भी मौज में रह, क्या सुनना, क्या कहना। पर जिन्हें अनुभव बाटना है वो यह बात कहेंगे नहीं। वो तो बड़े गम्भीर होते हैं। मौज उनको छू भी नहीं पाती। और तुम कहो कि इन्होंने जैसा जीवन बिताया, अगर ऐसा जीवन बिताकर ऐसे हो जाते हैं तो मैं पागल हूँ कि इनकी सुनूँ। तुम्हारा होना ही प्रमाण है तुम्हारी असफलता का।
एक लड़की थी। माँ-बाप खूब दवाब डाल रहे थे। इतनी उम्र हो गई है, अब शादी कर ले, शादी कर ले। एक दिन माँ-बाप दोनों ने मिलकर घेर लिया उसको। बोले, ‘देख हमारी बहुत उम्र हो गई और ज़िन्दगी भर के अनुभव का सार बताते हैं तुझे। शादी नहीं करेगी तो पछताएगी। ये हो जायेगा, वो हो जायेगा। बुढ़ापे में कोई सहारा देने वाला नहीं होगा। समाज में कोई स्थान नहीं होगा’। ये है, वो है।
वो सुनती रही। फिर उसने कहा, ‘आप दोनों ने शादी की ना?’ बोले, ‘हाँ’।
बोली, ‘आपने जितनी बातें कहीं, उन सबसे बड़ा प्रमाण मेरे सामने है कि मुझे शादी क्यों नहीं करनी है। अगर शादी का अर्थ होता है ऐसा जीवन’ जैसा आप दोनों का है तो मैं बिल्कुल भी नहीं कर सकती। आप खुद बहुत बड़े प्रमाण हो कि शादी नहीं करनी चाहिये’।
तो उनकी बातों को मत सुनो। उनके जीवन को देखो, और कहो कि अनुभव से यही मिला है अगर, तो मुझे क्या यह चाहिए? तुम्हें दिख रही है मौज, या तुम्हें दिख रहा है सिर्फ बोझ। तुम्हें दिख रहा है आकाश जैसा खुलापन, या तुम्हें दिख रहा है एक संकुचित मन।
तो एक तो अनुभव। दूसरी बात तुमने कही थी कि, ‘सुनो सबकी, करो मन की’। बात सुनने में तो ठीक लगती है, पर उल्टी पड़ सकती है क्योंकि जिस मन की तुम सुनने की बात कर रही हो, वो मन भी अधिकांशतः दूसरों का ही होता है। मन अगर अपना हो तो उसकी सुनने में कोई बुराई नहीं। बेशक़ सुनो अपने मन की। पर मन तुम्हारा है कहाँ? तुम्हारे मन में एक-एक बात जो उठती है, एक-एक विचार जो उठता है, वो वाकई क्या तुम्हारा है या दूसरों का दिया हुआ है?
अगर अपना मन हो तो बेशक़ सुनो उसकी। पर मन की सुनने से पहले ये परख लो कि मन मेरा किस हद तक ‘मेरा’ है। मन मेरा कहाँ है? तुम्हारे मन में लालच भरा है, वो लालच दूसरों ने दिया, उनके स्वार्थों की पूर्ति के लिये। तुम्हारे मन में डर भरा है, वो दूसरों ने दिया। तुम्हारे मन में लक्ष्य भरे हैं, इच्छाएं भरी हैं, वो दूसरों की दी हुई हैं । तुम्हारा मन तुम्हारा कहाँ है? तुम्हारा एक-एक विचार दूसरों द्वारा छुआ हुआ है। दूसरों ने उस पर अपने मैले हाथ रखे हुए हैं। अपना कहाँ हैं? जिसको तुम अपना कह सको वो मन नहीं वो बोध होता है। उसको समझ कहते हैं। वो अपनी होती है। तो जब तुम कहती हो – ‘सुनो सबकी करो मन की’ – तो मैं कहूंगा, “सुनो सबकी, सुनो मन की भी, करो बोध की।” दूसरों की भी सुनो और अपने मन की भी सुन लो। पर होशमंद रहो लगातार , ताकि तुम्हारा कर्म तुम्हारे होश से निकले। जैसे दूसरों की सुनती हो ना वैसे ही अपने मन की भी सुनो लो। अपने मन में और दूसरों की आवाज़ में कभी अंतर मत करना। कभी ये मत कहना कि ये बात तो उसने बोली और ये बात मेरे मन से निकल रही है। तुम्हारा मन उतना ही पराया है जितना की कोई दूसरा पराया है। उसे अपना मन कहो भी मत, उसे बस मन कहो, मन। क्योंकि अपना कहने से लगता है कि मेरा है। वो पूरा पराया है।
तो दूसरों ने ये कहा है, मन ने ये कहा है, और हम देखते हैं कि हमें क्या करना है। हम दूसरों के ग़ुलाम नहीं हैं और हम मन के भी ग़ुलाम नहीं हैं। हम दूसरों की मर्ज़ी पर नहीं चलते, पर हम मनमर्ज़ी भी नहीं करते। ठीक है? तब तो पूरी तरह मुक्त हुए। वरना ये कोई बात नहीं है कि दूसरों से तो मुक्त हो लिये और अपने ही मन के ग़ुलाम हो गए। ये तो और ग़हरी ग़ुलामी है। और इस ग़ुलामी में तुम्हें ये भ्रम रहेगा कि तुम मुक्त हो। पर तुम वास्तव में मुक्त नहीं हो।
तो हम दूसरों के भी ग़ुलाम नहीं हैं और इस मन के भी ग़ुलाम नहीं हैं। हम तो अपने मालिक हैं। अपनी समझ पर चलते हैं।
ठीक है?
सभी एक साथ: जी सर।
-संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।