
आचार्य प्रशांत: अगर आप लगातार ये याद करे रहें, अगर आपको लगातार ये स्मरण बना रहे, कि मानव-सभ्यता खड़ी ही हिंसा की बुनियाद पर है, कि हमारी एक-एक साँस न जाने कितनों के लिए मौत है, तो फिर आपके कर्म अपने आप बदलेंगे। आपके हाथ में जो आम आता है, वो आम खाकर के बड़े गर्व से घोषित मत कर दीजिएगा कि आप तो शाकाहारी हैं। उस आम के रस में भी खून है। इस बात को अच्छे से समझ लीजिएगा। मैंने भले ही दूध छोड़ दिया हो, जानवरों से संबंधित जितने उत्पाद हो सकते हैं सब छोड़ दिए हों, लेकिन फिर भी मुझे लगातार इस बात का एहसास बना रहता है कि अगर मैं रोटी भी खा रहा हूँ तो उस रोटी में भी खून है।
आश्रम है हमारा, वहाँ हम खरगोशों का बड़ा ख़्याल रखते हैं। आपको पता है, ऑस्ट्रेलिया में खेतों के मालिकों के लिए आवश्यक है कि वो खरगोशों को मारें, सरकार ने नियम बनाया हुआ है। क्योंकि अगर आप खरगोशों को नहीं मारते हो तो वे आपकी फसल खा जाते हैं। आप किसी खेत के मालिक हैं और आपके खेत में बहुत खरगोश देख लिए गए तो आपकी शिकायत कर दी जाएगी, आपको जेल हो जाएगी। तो ये जो आपके पास अन्न भी आता है, ये खून में डूबा हुआ है।
इस पृथ्वी पर वास्तव में इतनी जगह है ही नहीं कि 800 करोड़ लोग रह सकें। ये 800 करोड़ लोग हत्या करके ही जीवित रह सकते हैं और हत्या दिन-रात कर रहे हैं। और ये 800 करोड़ भी अभी और बढ़ेंगे, तब तक बढ़ते रहेंगे जब तक आप और ज़्यादा बच्चों का स्वागत करते ही जाएँगे, करते ही जाएँगे; जब तक आप विवाह को बड़ी बात समझते ही जाएँगे; जब तक आप अपने लड़के-बच्चों के सर पर चढ़ते ही जाएँगे कि अब तुम 25 के हो गए हो, जल्दी शादी करो, उसके बाद जल्दी बच्चे पैदा करो। समझ रहे हो?
इंसान ने जिस दिन तय किया कि अब वो खेती में उतरेगा, वो दिन आदमी द्वारा की जा रही हिंसा को चार स्तर ऊपर ले गया। आदमी हमेशा से हिंसक रहा है। आपको पता है, आदमी जब खेती नहीं भी करता था, आदमी जब बस क़बीलों की तरह घूमता-फिरता था और जो कुछ भी कंद-मूल-फल मिल गए, उनको इकट्ठा करके खाता था। तब भी आदमी का स्पर्श ऐसा था कि आदमी ने जानवरों की, पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियों को मिटा रखा था।
मनुष्य इस पृथ्वी का सबसे हिंसक प्राणी है।
सबसे हिंसक, न शेर को हिंसक बोलना, न शार्क को हिंसक बोलना। खेती करनी तो आदमी ने अभी शुरू की आठ-दस हज़ार साल पहले, लेकिन हमारे हाथ खून में उससे बहुत पहले से हुए हैं। हमने दसों, बीसों, तीसों हज़ार साल पहले पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ ख़ुद मार दीं। क्यों मार दीं? क्योंकि हमारे पास बुद्धि है। हमारे पास बुद्धि है, उस बुद्धि का इस्तेमाल हमने यही किया कि किस तरीक़े से मार के खाएँ। आदमी ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल अपनी मुक्ति के लिए नहीं किया है, आदमी ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया है अपने स्वाद के लिए, हिंसा के लिए, अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए। ठीक है?
तो हम आप पैदाइश ही आदमी के विकास के उस प्रवाह की है जो प्रवाह रक्त-रंजित है। तो हमारी हस्ती के साथ ही बहुत सारी हिंसा और बहुत सारी हत्याएँ जुड़ी हुई हैं, जो हम लगातार कर ही रहे हैं। इसीलिए फिर जानने वालों ने और सुधारकों ने कहा कि छोटे-मोटे बदलाव से काम नहीं चलेगा, टोटल रिवोल्यूशन चाहिए, अ टोटली डिफ़रेंट वे ऑफ़ लिविंग चाहिए। और इसी बात को मैं कहा करता हूँ, कि व्यक्तिगत मुक्ति की तो बात करो ही मत, ये बेवकूफ़ी की बात है। ये तो कहो ही मत कि अब मैं व्यक्तिगत रूप से सात्त्विक भोजन करने लग गया हूँ। ये पागलपन की बात है, मूढ़ता है। कई लोग इसी में बड़ा गुमान मानते हैं। वो कहते हैं, “देखो साहब, दुनिया कैसी भी हो, हम तो बड़ी सीधी, निर्मल, शुद्ध और सात्त्विक ज़िंदगी जीते हैं।”
अरे, तुम कैसे शुद्ध सात्त्विक ज़िंदगी जी लोगे? संभव ही नहीं है। सड़क पर चल रहे हो न? सड़क पर खून है। वो सड़क ऐसे ही नहीं बन गई। सड़क पर ही चलते हो न? भोजन ही खाते हो न? भोजन में खून है। तुम कैसी सात्त्विक ज़िंदगी जी रहे हो? झूठ! हवा में साँस ले रहे हो न? हवा में धुआँ है। और वो धुआँ किस चीज़ का है? वो लाशों का धुआँ है। तुम किस सात्त्विक ज़िंदगी की बात कर रहे हो? लेकिन हमें ये बर्दाश्त करना पड़ेगा, हम गुनाह में शरीक हैं।
हमने जन्म ऐसे समय पर लिया है कि हम चाहे या न चाहे, हम पाप में सम्मिलित हैं। यही कैद है हमारी।
इस कैद से हमें संयुक्त रूप से बाहर आना है, क्योंकि ये सभ्यता बहुत बड़े स्केल पर है। इसीलिए इसके ख़िलाफ़ विरोध भी दोनों तलों पर चाहिए — व्यक्तिगत तल पर भी और सामूहिक संयुक्त तल पर भी। वो आप जब तक नहीं करेंगे, तब तक आम का बाग बना ही रहेगा। तब तक डेयरी इंडस्ट्री बनी ही रहेगी। तब तक माँस का उद्योग बना ही रहेगा। और जो लोग माँस न भी खाते हों, जो लोग डेयरी न भी खाते हों, वो भी भागीदार बने ही रहेंगे।