प्रश्नकर्ता: दो चीज़ें हैं आचार्य जी, पहले दुख है और दुख आता है आत्मा से दूरी से। लेकिन वो चुनाव है, वो दूरी चुनाव है। और उसमे स्वार्थ है हमारा कि हम वो चुनाव कर रहे हैं। और वो आ रहा है अज्ञान से, और अज्ञान है अप्रेम से। तो इसमें थोड़ा सर्कुलर रेफरेंस (वृत्तीय सन्दर्भ) हो रहा है, आचार्य जी। क्योंकि पहली बात जो है दुख, उसमें ही हम बात करते हैं कि दुख है ही क्योंकि प्रेम है, प्रेम है और वो प्रेम खींचता है या मुक्ति चाहिए, इसीलिए दुख है। और फिर हम अन्त में बोलते हैं कि प्रेम नहीं है, इसीलिए दुख है। तो ये थोड़ा विरोधाभास लग रहा है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, क्योंकि वो जो चुनाव है न, वो पूरे तरीक़े से स्वाधीन होता है, सावरेन होता है। तो उसका कोई कारण बताया ही नहीं जा सकता। जब आप कहते हो की उसमे सर्कुलैरिटी आ रही है, तो इसका मतलब यही होता है न कि कोई एक कारण नहीं पता चल रहा। जब कोई चीज़ लीनियर (रेखीय) होती है: तो इसका कारण, यह, इसका कारण, यह, इसका कारण, यह, और ये मूल कारण मिल गया है, ठीक है? जब मूल कारण मिल जाता है तो आप उसमें कुछ कर देते हो। यहाँ पर मूल कारण बस आपकी मर्ज़ी है। और आपकी मर्ज़ी, आप पूछोगे, 'इसका क्या कारण है?' तो जवाब आएगा, ‘आपकी मर्ज़ी!’
भाई, आपकी मर्ज़ी का क्या कारण है? कोई कारण नहीं है! आपकी मर्ज़ी ही कारण है और यही बात अहम् स्वीकार नहीं कर पाता। वो कहता है 'नहीं नहीं जो कारण हैं वो मुझ से बाहर है, कोई कारण है प्रकृति में जिसके कारण मैं अप्रेम में हूँ।' वास्तव में कोई कारण नहीं है। मर्ज़ी ही कारण है, आपकी मर्ज़ी! 'मैं दुःख में क्यों हूँ?' इसका उत्तर ऐसे दिया गया है, 'तुम्हारा मन है, तुम्हारी मर्ज़ी है! कोई और कारण नहीं है।
प्र: तो वो मर्ज़ी अज्ञान से नहीं आ रही है।
आचार्य: देखिए अलग अलग स्थितियों में बहुत बातें बोली जा सकती हैं। ये भी बोला जा सकता है कुसंगति से आ रही है। बोल सकते हो अज्ञान से आ रही है, अप्रेम से आ रही है। अलग-अलग चीज़ों को समझाने के लिए अलग-अलग तरीक़े से बोल दिया जाएगा। लेकिन ले-देकर के मूल बात यही है कि वो मर्ज़ी सिर्फ़ मर्ज़ी है। उसके ऊपर कोई कारण नहीं चलता। वो अपनेआप में कम-से-कम अपनी दृष्टि में एक स्वतन्त्र चीज़ है।
कोई बोले, ‘मुझे सही राह नहीं मिली’ या ‘मुझे सही मार्गदर्शन नहीं मिला, मैं इसलिए अज्ञानी हूँ।’ तो उत्तर ये है कि सही मार्ग दर्शन की ज़रूरत होती भी नहीं है। आप जी तो रहे हो न! जीने की प्रक्रिया ही मुक्ति की प्रक्रिया बन जाएगी, अगर जो जी रहे हो उसको देख लिया होता। मार्गदर्शन चाहिए ही नहीं। अपना प्रकाश भी पर्याप्त हो सकता है। नहीं चाहिए कोई बताने वाला, कोई गुरु इत्यादि। तो आप कोई भी कारण बताओगे वास्तव में उस कारण के पीछे आप पाओगे कि ले-देकर के बचती तो एक ही चीज़ है, 'मेरी मर्ज़ी!'
प्र: जी, और इसी को अगर थोड़ा आगे लेकर जाएँ कि ये मर्ज़ी किसकी है, तो ये मर्ज़ी अहम् की है। तो अब इस अहम् को एक आध्यात्मिक दृष्टि से समझते हैं। अगर इसमें हम साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) का भाग जोड़ें तो जैसे, मनोविज्ञान में, जो फ्रायड ने और कार्ल युंग ने बोला था। फ्रायड ने बोला था, ‘देयर इज़ अ सब-कॉन्शस’ (एक अवचेतन है), जिसके बारे में हमें नहीं पता रहता है। लेकिन वह अवचेतन हमें चलाती है।
इसी तरह से कार्ल युंग ने बोला था एक कलेक्टिव अनकॉन्शस (सामूहिक रूप से अचेतन) है एक पर्सनल अनकॉन्शस (व्यक्तिगत अचेतन) है। तो आचार्य जी, अब पहला तो प्रश्न यही है कि जो ‘आध्यात्मिक अहम्’, जिसको हम बोल रहे हैं उसमें ये सब मिला-जुला है, इसमें सारी चीज़ें आती हैं। इसमें एक कलेक्टिव अनकॉन्शस भी आ रहा है और पर्सनल अनकॉन्शस भी।
आचार्य: ये जितनी बातें हैं न! चाहे वो फ्रायड की सेक्सुअल डायरेक्शन (सेक्सुअल दिशा) हो या यंग की कल्चरल डायरेक्शन (सांस्कृतिक दिशा) हो। ये अहम् की सामग्रियाँ हैं, ये अहम् नहीं है।
प्र: ठीक है।
आचार्य: फ्रायड ने भी जो बातें बोलीं, वो बातें अहम् इकट्ठा कर रहा है वो अहम् नहीं है वो चीज़। वो अहम् के हाथ की चीज़ है।
प्र: ठीक है। तो सर इसमें फिर ये है कि अहम् ने जो इकट्ठा करा हुआ है, उससे काफ़ी चीज़ें ऐसी पता भी नहीं है जो उसने …
आचार्य: हाँ, ये बिलकुल है। फिर इसमें ये मत बोलिए काफ़ी चीज़ें नहीं पता हैं।
प्र: मैक्सिमम (अधितर) नहीं पता।
आचार्य: ये भी मत बोलिए कि मैक्सिमम नहीं पता है।
प्र: कुछ भी नहीं पता है।
आचार्य: कुछ नहीं पता है। हाँ कुछ चीज़ों को लेकर के वो दावा करता है कि मुझे पता है। तो उसको बोल देता है नोन (ज्ञात) और कुछ चीज़ों को लेकर विनम्रता से कह देता है; फ्रायड जैसे ज्ञानी कह देते हैं कि आपको नहीं पता कि आपके भीतर-भीतर क्या-क्या पक रहा है। तो उसको फिर वो बोल देते हैं अननोन (अज्ञात)। लेकिन अगर आप किसी तत्वज्ञानी से मिलेंगे तो वो कहेंगे, ‘अहम् को जब अपना नहीं पता तो उसे ये कैसे पता कि उसके हाथ में क्या है?’
प्र: करेक्ट (सही)।
आचार्य: जब वो स्वयं को नहीं जानता तो उसे ये कैसे पता कि उसके हाथ मे तो जो दिमाग की सामग्री है, कि उसके दिमाग में जो है वो क्या चीज़ है कैसे पता चलेगी? एक बात बताइए, मैं इतना बावरा हो जाऊँ, आप मुझसे पूछें, 'अपना नाम बताओ।' और मैं बोलूँ कि मेरा नाम है, कुछ भी अपना नाम बता दूँ, चार्ल्स डिकेंस। फिर आप कहें, 'अच्छा चलो मेरा नाम बताओ, अपना नाम तो आपने बता दिया, मेरा नाम बताओ।' तो क्या सम्भावना है कि मैं आपका सही नाम बताऊँगा?
प्र: नहीं है।
आचार्य: क्यों नहीं है?
प्र: क्योंकि आपको अपना ही नाम नहीं पता।
आचार्य: आप मुझसे अपना नाम पूछेंगी भी क्या?
प्र: नहीं।
आचार्य: क्यों नहीं पूछेंगी?
प्र: क्योंकि आप की स्थिति ही नहीं है कि आप बता पाएँ।
आचार्य: जो ख़ुद को नहीं जानता, वो मुझे क्या जानेगा! जो स्वयं को नहीं जानता, वो मुझे क्या जानेगा! अहम् जब स्वयं को नहीं जानता तो उसे कैसे पता कि प्रकृति क्या चीज़ है? उसकी सारी सामग्री प्रकृति से ही तो आती है न? उसे कैसे पता वो सब भी क्या हैं? तो इसमें एक बड़ी ही खूबसूरत बात निकलकर आती है, अनलेस यू वेंचर इंटू द अननोएबल, नॉट ओनली द अननोन, बट इवन द नोन विल रिमेन अननोन (जब तक आप अज्ञात में उद्यम नहीं करेंगे, न केवल अज्ञात, बल्कि ज्ञात भी अज्ञात रहेगा)।
प्र: अनलेस यू वेंचर इंटू द अननोएबल, नॉट ऑनली द अननोन, बट इवन द नोन विल रिमेन अननोन (जब तक आप अज्ञात में उद्यम नहीं करेंगे, न केवल अज्ञात, बल्कि ज्ञात भी अज्ञात रहेगा)।
आचार्य: जब तक आत्मा की तरफ़ नहीं जाओगे तब तक प्रकृति को नहीं समझ पाओगे। प्रकृति को समझने का एक ही तरीक़ा है, प्रकृति से दूर जाना। इसको समझाने वालों ने कहा है — साक्षित्व। संसार को वही समझ पाता है जो संसार का साक्षी हो जाता है। जो प्रकृति से दूर जाता है। जो आत्मा की तरफ़ जाता है, वो प्रकृति को समझ जाता है। और जो प्रकृति में जितना घुसता है, उसे प्रकृति उतनी ही नहीं समझ में आती।
इसी चीज़ को मैंने एक बार ऐसे कहा था कि संसारी की परिभाषा क्या है। संसारी की परिभाषा ये है — जो संसार में ही जन्मता है, संसार में ही जीता है, संसार में ही खाता है, संसार में ही आबादी बढ़ाता है, और संसार में ही मर जाता है। लेकिन कभी भी संसार को समझ नहीं पाता है, वो है संसारी। संन्यासी कौन है? जो संसार से एक दूरी बनाता है और संसार को पूरा समझ जाता है।
प्र: तो आचार्य जी, ये जो जिज्ञासा है ये जीवन से आयी है, मतलब जैसे कहते हैं, ‘अभीप्सा एस्पिरेशन , प्रेम उसमें और जो जीवन के तथ्य हैं, उनमें बहुत बड़ा एक गैप (अन्तर) दिखता है और जब हम अध्यात्म की तरफ़ जाते हैं, तो अध्यात्म कहता है ये गैप तुम्हारी मर्ज़ी की वजह से है। तो वहाँ पर जाकर ऐसे लगता है जैसे एक स्टेलमेट (गतिरोध) हो गया है। कहीं हिल नहीं पा रहे हैं हम। मर्ज़ी में भी समझ नहीं आता है कि कैसे मैं ये मर्ज़ी नहीं कर पा रही हूँ। क्योंकि मुझे लगता है कि काफ़ी क्लियरली (स्पष्ट रूप से) मेरी मर्ज़ी एक ही दिशा में है। तो इसीलिए फिर ये जो सबकॉन्शियस और कलेक्टिव अनकॉन्शियस इस तरफ़ एक्सप्लोर (खोज) करने की कोशिश की कि शायद कुछ ऐसा है जो जाना नहीं जा पा रहा, जो वास्तव में नियन्त्रित कर रहा है और जिसके कारण ये इतना बड़ा गैप है।
आचार्य: नहीं, ये एक तरीक़े से ब्लेम शिफ्टिंग (दोष स्थानान्तरण) वाली चीज़ है और कुछ नहीं है।
प्र: ये रूट कॉज़ एनालिसिस (मूल कारण विश्लेषण) नहीं है, आचार्य जी?
आचार्य: ये तो यही है कि कुछ है जिसको मैं जान नहीं पा रही लेकिन जो मुझे ओवरपावर (अपने कब्ज़े में) कर रहा है। जो मुझे, मेरी मर्ज़ी, मेरे प्रेम की दिशा में जाने से रोक रहा है। नहीं वो नहीं है। देखिए समझिए, इसमें जो सिद्धान्त है वो ये है — पाने पर आपकी मर्ज़ी का अधिकार नहीं है। आपकी जो मर्जी है न? जिसको विरह बोल लीजिए, वेदना बोल लीजिए, प्रेम बोल लीजिए, उसको ये अधिकार नहीं है कि वो तत्काल पा ले। पर उसको ये पूरा-पूरा अधिकार है कि पूरी जान लगाकर वो चलती रहे।
प्र: चाहे।
आचार्य: सिर्फ़ चाहना नहीं है, जो चाहत है वो ज़िन्दगी बननी चाहिए। ऐसी चाहत जो ज़िन्दगी नहीं बन रही, उसमें बेवफ़ाई ज़्यादा है। तो आप चलकर के पा ही लेंगे, ऐसा तो वादा कोई आपसे नहीं कर गया। कोई नहीं कर गया। सन्तों ने भी यही बोला है कि साहब हम चल रहे हैं। हम चल रहे हैं। जो प्राप्ति का दावा करे वो झूठा। उन्होंने भी ये नहीं कहा है कि मिल ही गया। और अगर कभी कह दिया है कि मिल गया तो आप पाओगे कि अगले ही पल, ये भी कह रहे हैं कि अरे, कहाँ मिल गया। अब आप एक बात बताओ? अभी कबीर साहब थे, वो विरह के गीत गा रहे हैं, माने वो क्या बोल रहे हैं?
प्र: कि नहीं मिला।
आचार्य: नहीं मिला। जो कहे के मिल गया, उससे सावधान रहना। क्योंकि मिलने पर तो हमारा कोई अधिकार, अख़्तियार है ही नहीं। वहाँ पर शून्य हक़ है हमारा। वहाँ कुछ हुआ तो हुआ; नहीं हुआ, हमें क्या पता! और जो निष्काम प्रेमी होता है, वो ये आशा भी नहीं करता कि मिल जाएगा। उसकी प्रार्थना बस ये होती है कि मिलने की दिशा में जीवन भर बढ़ता रहूँ। चलना मेरी ज़िन्दगी बन जाए, बस चलना, कर्म! निष्काम कर्म मेरी ज़िन्दगी बन जाए। पाना तो प्राप्ति की बात होती है।
एक बात बताओ, निष्कामता में प्राप्ति कहाँ से आ गयी? तो इसको ही ऐसे कह दिया फिर लोगों ने कि मार्ग ही मुक्ति है और चलना ही मंज़िल है, और प्रयास ही प्राप्ति है। समझ रहे हो? तो अगर आपको कुछ नहीं मिल रहा, कोई दोष की बात नहीं। लेकिन अगर आप उस ओर पूरे जी-जान से बढ़ भी नहीं रहीं हैं, तो ये तो फिर चुनाव है अपना।
प्र: तो सर गैप फिर ये नहीं रहा कि जो एस्पिरेशन थी और जो जीवन के तथ्य हैं। वो उसमें बहुत गैप है या वो किसी और कारण से हैं। अब जो ऐक्चुवली बात है वो ये है कि जो समझ है, हर चुनाव उस हिसाब से हो रहा है या नहीं हो रहा है। तो ये बहुत क़रीब है।
आचार्य: चुनाव का मतलब ही होता है, त्याग। दो चीज़ों का चुनाव करना है माने एक का त्याग करना है। चुनाव नहीं हो पा रहा है, इसका मतलब मोह बहुत है, आसक्ति बहुत है, त्याग नहीं पा रहे।
प्र: मुझे लगता है बहुत साल से मोह और आसक्ति पर ही काम चल रहा है लेकिन अभी भी बहुत है।
आचार्य: काम चलता रहे। हमारे अधिकार में इतना ही है कि काम चलता रहे।
प्र: जी।
आचार्य: काम कब तक चलेगा, चलकर भी पूरा होगा कि नहीं होगा हम नहीं जान सकते, काम चलता रहे।
प्र: जी, धन्यवाद!