टूटते छूटते रिश्ते || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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टूटते छूटते रिश्ते || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: कुछ सालों में देखा है कि ज़्यादातर रिश्ते जो थे वो छूट चुके है, कुछ रिश्ते अभी भी है — जैसे माता-पिता से और एक-दो लोगों से और पैसो से भी है। तो उन रिश्तों में दिखता है कि बिलकुल भी स्वस्थ नहीं हैं, सारे रिश्ते। बस ऐसा लगता है कि छूट ही जाएँ तो ज़्यादा अच्छा है। लेकिन कभी-कभी लगता है कि — शायद किसी स्वार्थ के कारण — सुधार दें। तो इन्हीं दोनों में फँसे रहते हैं, कभी लगता है सुधार दें, कभी लगता है छोड़ ही दें, ज़्यादातर तो यही लगता है कि छूट जाएँ।

आचार्य प्रशांत: छोड़ दें माने क्या? अभी रिश्ता कैसे है, अभी है कैसे? पकड़ कैसे रखा है? जब दिख ही रहा है कि मामला गड़बड़ है, तो फिर रिश्ता बचा कहाँ है?

प्र: आस-पास हूँ, उस हिसाब से।

आचार्य: वो तो आस-पास तो इनके (अन्य श्रोता के) भी हो, उनके भी हो।

प्र: यहाँ से तो फिर चला जाऊँगा।

आचार्य: वहाँ से भी चले जाते हो, तो? यह तो अन्तर बस परिमाण का हुआ, यह तो अन्तर बस डिग्री का है — वहाँ चार दिन रहते हो यहाँ चार मिनट रहते हो। कोई डायमेंशनल , आयामगत अन्तर तो नहीं है न?

प्र: उनसे मन ज़्यादा विचलित होता है।

आचार्य: भई, आप रिश्ता किस चीज़ को बोलते हो, पहले ज़रा इस पर ग़ौर करो। सिर्फ़ इसलिए कि आप किसी के साथ रहते हो तो रिश्ता हो गया? आप जो कह रहे हो उसका अर्थ यही है कि मैं उनके साथ रहता हूँ तो रिश्ता है। तो? जब दिख रहा है कि मामला खोखला है, और तुम्हें दिखने लग गया कि खोखला है तो सबसे पहले यह मानो कि बस साथ रहते हैं, कोई रिश्ता है नहीं। कहाँ का रिश्ता, कौनसा रिश्ता!

प्र: वो समझ में आता है फिर भी साथ में रहना, वहाँ रहना भी दूभर लगता है।

आचार्य: तो मत रहो। ऐसे साथ रहकर के किसका भला कर रहे हो? ऐसे साथ रहकर के भला किसका कर रहे हो? चिढ़चिढ़ाओगे, एक दूसरे का नाक-कान काटोगे, इसमें कौनसा प्रेम छलछला रहा है? और सबसे ज़्यादा चिढ़ तुम्हें इस बात की मचेगी कि मैं इसको छोड़ क्यों नहीं सकता।

कह रहे हो, ‘रिश्ता इसलिए है कि साथ रहते हैं।’ जितना ज़्यादा साथ रहोगे उतना ज़्यादा चिढ़ोगे और उतना अपनी हार का एहसास होगा, साथ रहना मजबूरी की बात लगेगी। और मजबूरी में तो सब चिढ़ते हैं। सबको यही लगता है कि देखो, मैं हारा हुआ हूँ, बन्धन में हूँ तभी विवश होकर के साथ रहना पड़ रहा है। और साथ रहना माने क्या? यही कि आस-पास एक कमरे में खा रहे हैं, पी रहे हैं, सो रहे हैं। यह कोई रिश्ता होता है? एक कमरे में खा रहे है, पी रहे है, सो रहे है!

यह स्वीकार करना बहुत ज़रूरी है कि आप जिसको कहते हैं रिश्ता, वो है ही नहीं, वो है ही नहीं। वो वैसा ही है कि जैसे किसी का कोई दोस्त दस साल पहले गुज़र गया हो और वो उस दोस्त की तस्वीर अभी भी टाँगे हुए है और कहे, ‘ये मेरा दोस्त है’ या उस दोस्त की लाश को अभी भी किसी तरह से बचाकर रखे हुए है और कहे कि ये मेरा दोस्त है । शरीर भर बचा हुआ है उसमें प्राण कहाँ हैं? छवि भर बची हुई है उसमें जान कहाँ है?

सबसे पहले यह मानना ज़रूरी है कि वो कुछ है ही नहीं। जब यह मान लेते हो कि कुछ है ही नहीं तब सम्भावना बनती है कि अब कुछ नया कर पाओगे, कुछ असली कर पाओगे।

रिश्ता नहीं है, व्यक्ति तो है न अभी? हाँ, तो व्यक्ति है तो उसके साथ फिर एक सुन्दर, सहज, प्रेमपूर्ण रिश्ता बनाया जा सकता है, अगर तुम्हारी मंशा हो तो । लेकिन वो सुन्दर और नया रिश्ता भी तब बनेगा न जब तुम पहले मानोगे कि पुराना वाला मृत है। तुम यही मानते रहोगे कि पुराना वाला खेल चल रहा है, अभी कुछ रिश्ता तो है, कुछ तो है। है तो फिर ठीक है।

प्र: आचार्य जी, ये तो मान लिया है पर ऐसा लगता है कि बस मानकर बैठ गया हूँ।

आचार्य: नहीं, मानकर बैठ गये हो मतलब है कि पुराने से अभी सन्तुष्ट हो। वो जो भी है — छवि है, चाहे लाश है — तुम उससे सन्तुष्ट हो। अगर मान लिया जाता है कि कोई चीज़ मृत है तो फिर उसे दबा दिया जाता है या फूँक दिया जाता है। और याद रखना कि व्यक्ति कहीं नहीं चला गया, व्यक्ति है, मैं कह रहा हूँ, ‘अगर तुम्हारी मंशा हो तो एक साफ़, सुन्दर, नया रिश्ता बनाया जा सकता है।’ पर वो नया कभी बनता ही नहीं क्योंकि हम पुराने को ही विदा करने को तैयार नहीं होते। भले पुराना कब का मर गया हो। दस साल तक उसकी लाश रखे हुए है, विदा नहीं करेंगे। अब नया कहाँ से आएगा? नया कहाँ से आएगा?

और नये का मतलब आवश्यक नहीं है कि नया व्यक्ति हो, नये माँ-बाप कहाँ से लाओगे? तो हमेशा ऐसा नहीं होता कि नये रिश्ते का मतलब नया व्यक्ति ही होता है, नये रिश्ते का मतलब ये भी होता है कि पुराने व्यक्ति से ही एक सुन्दर, स्वस्थ, नया सम्बन्ध बनाया जो कि आवश्यक नहीं है। मैं कोई धकेल नहीं रहा हूँ कि जाओ-जाओ नया बनाओ, पर वो नया बन सकता है। उसकी सम्भावना होती है पर वो सम्भावना भी शून्य हो जाती है अगर तुम पुराने को ही चिपकाए घूम रहे हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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