शरीर, सेक्स और प्रेम || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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शरीर, सेक्स और प्रेम || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सेक्स (संभोग) की सामाजिक अस्वीकृति को लेकर ग्लानि का अनुभव होता है। कृपया मार्गदर्शन प्रदान करें।

आचार्य प्रशांत: अगर तुमको लाज ही आती है, शर्म ही आती है, तुममें अपराध भाव ही उठता है, तो अपराध भाव तुममें उठना चाहिए तब, जब तुम किसी का इस्तेमाल देह की तरह करो। एक गलती तो कर ही बैठे हो, वो गलती है, ‘मैं देह हूँ।’ और अब उस गलती के ऊपर दूजी गलती करोगे कि तू देह है। और पहली गलती कर दो तो दूसरी तुरंत हो भी जाती है। तो अगर किसी बात को तुम अपराध या पाप ही कहना चाहते हो तो पाप है अपने को देह समझना और उसके पश्चात दूसरे को भी देह मानना। जब तुम दूसरे को देह मानते हो, तब तुम सेक्स नहीं बलात्कार करते हो। बात समझ में आ रही है?

इस बात पर शर्म खाया करो। बहुत प्रेमी हैं, वो कहते हैं, ’वी आर मेकिंग लव’ (हम प्यार कर रहे हैं)। सेक्स करने को कहते हैं, ‘वी आर मेकिंग लव।’ पर वो कुछ नहीं होता, एक-दूसरे की देह भोग रहे हैं। ‘मैं भी देह, तू भी देह’, और भोगा-भोगी चल रही है। ये पाप हो गया। ये पाप है, चाहे ये शादी से पहले हो, या शादी के बाद हो। शादी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तुमने विधिवत विवाह किया हो, अग्नि के तुमने सात की जगह चौदह फेरे लिये हों, उसके बाद भी अगर तुम अपनी पत्नी को सिर्फ़ भोग की वस्तु समझते हो, तो ये बलात्कार ही है, और ये पाप ही है।

तुम हो सकता है दो बच्चों के अब्बा हो, लेकिन बीवी को ऐसे ही देखते हो कि बस ये है बिस्तर गर्म करने की मशीन, तो ये पाप है। इसमें बात शादी की नहीं है, इसमें बात दृष्टि की है। तुम दूसरे व्यक्ति को देख कैसे रहे हो? और मैंने कहा कि जब तुम अपनेआप को देह मानते हो तो दूसरे को देह मानना तुम्हें बड़ा सहज लगता है। दूसरे का इस्तेमाल भोग्य पदार्थ की तरह करना छोड़ो। वही पाप है।

प्र: आचार्य जी, आपने बताया था कि शरीर को सिर्फ़ भोजन, सेक्स और नींद की ज़रूरत होती है। तो प्रेम की ज़रूरत किसे होती है?

आचार्य: शरीर की ज़रूरत प्रकृति ने बस इतनी बाँध रखी है कि विपरीत लिंगी को पकड़ो, संभोग करो और प्रजनन करो। ये देह की ज़रूरत है। प्रेम देह की ज़रूरत बिलकुल भी नहीं है। प्रेम तुम्हारी ज़रूरत है, सेक्स देह की ज़रूरत है। दोनों में अंतर है। और तुम दोनों को बिलकुल एक बना देते हो। समझना बात को। तुम जो अपूर्ण चेतना हो, तुम्हारी ज़रूरत है प्रेम। और शरीर का जो प्राकृतिक विधान है, उसकी ज़रूरत है सेक्स। बड़ी अलग-अलग बातें हैं।

प्र: तो प्रेम क्या सिर्फ़ अपोज़िट (विपरीत) सेक्स से ही हो सकता है, या फिर किसी से भी हो सकता है?

आचार्य: प्रेम का ज़मीनी अर्थ होता है, किसी भौतिक व्यक्ति, वस्तु, इकाई की तरफ़ आकर्षण। और प्रेम का आत्यंतिक अर्थ होता है अपूर्णता का पूर्णता की तरफ़ आकर्षण। तो अगर तुम प्रेम की आत्यंतिक, एब्सोल्यूट (पूर्ण) परिभाषा पूछोगे तो वो है, अहम् का आत्मा के प्रति खिंचाव। लेकिन इस परिभाषा का ज़मीनी अर्थ क्या हुआ, भौतिक अर्थ क्या हुआ? इस परिभाषा का पार्थिव अर्थ हुआ, किसी ऐसे की ओर खिंचना जो तुम्हें उससे मिला दे। ये प्रेम है।

समझना।

किसी ऐसे व्यक्ति, वस्तु, स्थान की ओर खिंचना जो तुम्हें उससे मिला दे। प्रेम का पार्थिव अर्थ ये है। जिसकी ओर खिंच रहे हो, वो स्त्री हो सकती है, पुरुष हो सकता है, बालक हो सकता है, वृद्ध हो सकता है, पत्थर भी हो सकता है, नदी हो सकती है, पशु भी हो सकता है, हवा हो सकती है, मंदिर हो सकता है। वो चीज़ कुछ भी हो सकती है, शर्त बस ये है कि वो चीज़ तुम्हें उससे मिलवा दे। ये प्रेम है।

प्रेम तुम्हारी ज़रूरत है, सेक्स देह की ज़रूरत है। तुम जो अपूर्ण चेतना हो, तुम्हारी ज़रूरत है प्रेम। और शरीर का जो प्राकृतिक विधान है, उसकी ज़रूरत है सेक्स।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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